ग्रामीण भारत में हो रहे सामाजिक परिवर्तन ( Social changes taking place in rural India )
परिवर्तन एक सर्वव्यापी नियम है । विभिन्न समुदायों और समाजों में परिवर्तन का स्वरूप तथा उसकी प्रकृति भिन्न - भिन्न हो सकती है लेकिन कोई भी समाज परिवर्तन का अपवाद नहीं हो सकता । यही कारण है कि कुछ समय पहले जो समाज पूर्णतया परम्परावादी एवं स्थिर प्रकृति के थे , उनकी सामाजिक संरचना तथा सदस्यों के व्यवहार प्रतिमानों में आज स्पष्ट परिवर्तन दृष्टिगत होने लगा है । यह सच है कि नगरीय समुदायों की तुलना में ग्रामीण समुदायों के अन्तर्गत परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है लेकिन गाँवों में भी आज व्यक्ति की प्रस्थिति , व्यवसाय , शिक्षा , मनोवृत्तियों तथा व्यवहारों में स्पष्ट परिवर्तन दिखाई देने लगा है ।
वास्तव में ग्रामीण समुदाय आज संक्रमण की एक ऐसी स्थिति में है जिसमें एक और ग्रामीण क्षेत्रों में नवीन सामाजिक मूल्यों तथा व्यवहार प्रतिमानों को ग्रहण करना आवश्यक समझा जाने लगा है , जबकि दूसरी ओर ग्रामीण अनेक परिस्थितियों के प्रभाव से अपनी परम्परागत विशेषताओं को पूर्णतया नहीं छोड़ सके हैं । इस दृष्टिकोण से ग्रामीण समाज में परम्परा तथा आधुनिकता के बीच सातत्य ( continuity ) की स्थिति विद्यमान है ।
आज ग्रामीण समुदाय में जो प्रमुख परिवर्तन उत्पन्न हुए हैं उन्हें संक्षेप में निम्नांकित रूप से स्पष्ट किया जा सकता :
1. सामाजिक जीवन में परिवर्तन ( Changes in social life )
सामाजिक जीवन का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है लेकिन अध्ययन की सरलता के लिए हम इसके अन्तर्गत परिवार , विवाह , जाति संरचना , मूल्यों तथा मनोवृत्तियों से सम्बद्ध परिवर्तनों का उल्लेख करके ग्रामीण सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे ।
( क ) पारिवारिक जीवन में परिवर्तन -
भारतीय ग्रामीण परिवार अत्यधिक प्राचीन काल से ही संयुक्त परिवार के रूप में प्रतिष्ठित रहे हैं परन्तु वर्तमान दशाओं के प्रभाव से ग्रामीण संयुक्त परिवारों की संरचना तथा कार्यों में व्यापक परिवर्तन उत्पन्न हो गये हैं । बाह्य रूप से ग्रामीण समुदाय में परिवार का रूप आज भी संयुक्त ही है परन्तु इसका आन्तरिक स्वरूप नया परिवेश ग्रहण कर रहा है ।
अनेक अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अधिकांश ग्रामीण अब संयुक्त परिवार को अपने लिये असुविधाजनक समझने लगे हैं और इसलिए इन परिवारों में वृद्ध पुरुषों तथा स्त्रियों को जो परम्परागत प्रस्थिति प्राप्त थी , उसमें स्पष्ट रूप से परिवर्तन उत्पन्न हो गये हैं । परिवार के अन्दर सदस्यों के शक्ति - संस्तरण तथा अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों में परिवर्तन होने के फलस्वरूप ही गाँव में परिवार अब नियन्त्रण स्थापित करने वाली सर्वप्रमुख संस्था नहीं रह गई है ।
ग्रामीण संयुक्त परिवार अब अपने सदस्यों की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाते जिसके फलस्वरूप परिवार के अनेक सदस्य गाँव छोड़कर आजीविका के लिए नगरों में जाकर बस जाते हैं । अनेक ग्रामीण अपने परिवारों के साथ नगरों की ओर प्रवास करने लगे हैं जिसके फलस्वरूप ग्रामीण संयुक्त परिवार की संरचना में परिवर्तन होने लगा है । ग्रामीण एक बार जब एकाकी परिवार के दाम्पत्य सम्बन्धों तथा स्वतन्त्रता के वातावरण का अनुभव कर लेता है तो फिर वह अपने संयुक्त परिवार के नियन्त्रण में रहना पसन्द नहीं करता ।
( ख ) ग्रामीण विवाह में परिवर्तन -
भारतीय ग्रामीण समुदाय में विवाह वह सबसे महत्वपूर्ण संस्था है जो अनेक परिवर्तनों के पश्चात भी बहुत बड़ी सीमा तक अपने परम्परागत रूप में ही विद्यमान है । ग्रामीण विवाह के अन्तर्गत परिवर्तन की प्रक्रिया किसी नवीन स्वरूप से सम्बन्धित न होकर परम्पराओं में अल्प - संशोधन से ही सम्बद्ध है ।
ग्रामीण समुदाय में विवाह की परम्परागत प्रणाली तथा इससे सम्बन्धित मान्यताओं को आज भी सर्वोत्तम समझा जाता है लेकिन इसके बाह्य स्वरूप में अनेक परिवर्तन उत्पन्न हो रहे हैं । विवाह से सम्बन्धित यह परिवर्तन मुख्य रूप से बाल - विवाह , बेमेल विवाह , विधवा पुनर्विवाह , अन्तर्जातीय विवाह तथा दहेज प्रथा के क्षेत्र में देखने को मिलते हैं ।
भारतीय ग्रामीण जीवन में दाम्पत्य सम्बन्ध को सम्पूर्ण जीवन का स्थायी सम्बन्ध समझा जाता रहा है किन्तु पश्चिमी जीवन दर्शन तथा औद्योगिक संस्कृति के प्रभाव से अब गाँवों में भी विवाह विच्छेद को एक सामाजिक अपराध के रूप में नहीं देखा जाता । कुछ समय पहले तक बच्चों के विवाह - सम्बन्धों का निर्धारण पूर्णतया माता - पिता तथा परिवार के कर्ता की इच्छा का विषय था लेकिन अब इस स्थिति में व्यापक परिवर्तन हो चुका है ।
अक्सर नगर से शिक्षा प्राप्त करके गाँव में आने वाले युवक अपने माता - पिता द्वारा निर्धारित किये गये विवाह सम्बन्धों के अन्तर्गत दाम्पत्य जीवन में अभियोजन नहीं कर पाते । इसके फलस्वरूप अब गाँवों में भी विवाह सम्बन्धों के निर्धारण में लड़के - लड़कियों की सहमति लेना आवश्यक समझा जाने लगा है ।
कुछ समय पूर्व तक दहेज का प्रचलन जहाँ केवल उच्च आर्थिक स्थिति के लोगों तक ही सीमित था , वहीं अब निम्न जातियों तथा निर्धन किसानों में भी इसका विस्तार हो गया है । इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ग्रामीण विवाह में परिवर्तन की प्रक्रिया कुछ सुधारों के पश्चात् भी अनेक नवीन समस्याओं को जन्म दे रही है ।
( ग ) ग्रामीण जाति संरचना में परिवर्तन -
जाति व्यवस्था भारत की ग्रामीण सामाजिक संरचना का सबसे महत्वपूर्ण आधार रही है । भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् जाति व्यवस्था से सम्बन्धित नियमों एवं विश्वासों में इतने व्यापक परिवर्तन हुए हैं कि कुछ समय पहले तक इनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ।
यह सच है कि जाति संरचना में होने वाले परिवर्तन ग्रामीण समुदाय की अपेक्षा नगरीय समुदाय में अधिक व्यापक एवं स्पष्ट हैं लेकिन वर्तमान युग में ग्रामीण सामाजिक संरचना के अन्तर्गत भी जाति का परम्परागत प्रभाव कम होने लगा है । कुछ व्यक्ति यह मानते हैं कि भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सभी जातियों को वैधानिक समानता प्राप्त होने तथा कानून के द्वारा अस्पृश्यता का उन्मूलन कर दिये जाने के कारण गाँवों में जातिगत आधार पर सामाजिक दूरी कुछ कम अवश्य हो गयी है लेकिन व्यावहारिक रूप से किसी न किसी रूप में छूआछूत का प्रचलन आज भी बना हुआ है । यह कथन आंशिक रूप से सच है लेकिन यह भी एक निश्चित तथ्य है कि आज छुआछूत की धारणा का सम्बन्ध जाति से उतना नहीं है जितना कि वैयक्तिक पवित्रता की धारणा से।
( घ ) ग्रामीण मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन-
परम्परागत ग्रामीण समाज में प्रत्येक व्यक्ति की मनोवृतियों तथा सामाजिक मूल्यों पर परम्पराओं का स्पष्ट प्रभाव था । भाग्यवादी एवं निराशावादी जीवन के कारण कोई व्यक्ति यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि वह अपने प्रयत्नों के द्वारा अपनी सामाजिक स्थिति में परिवर्तन कर सकता है ।
आज आधुनिक शिक्षा , लौकिकीकरण तथा प्रजातान्त्रिक मूल्यों के प्रभाव से इस प्रवृति में व्यापक परिवर्तन हुआ है । आज सभी वर्गों के ग्रामीण अपनी सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थिति में सुधार के प्रति पहले की अपेक्षा कहीं अधिक जागरूक हैं ।
ग्रामीण यह अनुभव करने लगे हैं कि परिश्रम तथा योग्यता के द्वारा सामाजिक स्थिति को परिवर्तित करना सम्भव है । इसके फलस्वरूप गाँवों में न केवल परम्परागत अधिकार - संरचना में परिवर्तन हुआ है बल्कि भाग्यवादी धारणा के स्थान पर लौकिक मूल्यों का प्रभाव बढ़ रहा है।
2. ग्रामीण आर्थिक जीवन में परिवर्तन ( Changes in rural economic life )
भारत का परम्परागत ग्रामीण आर्थिक जीवन पूर्णतया कृषि पर निर्भर था तथा कृषि का स्वरूप मुख्यतया उपभोग से ही सम्बन्धित था । भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् ग्रामीण पुनर्निर्माण की जब अनेक विकास योजनाएँ कार्यान्वित की गई तो इसके फलस्वरूप ग्रामीण आर्थिक संरचना में व्यापक परिवर्तन होने लगे ।
कृषि के क्षेत्र में सभी को ग्रहण कर रहे हैं । इसके प्रभाव से न कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है बल्कि व्यक्ति का जीवन केवल अपने गाँव तक ही सीमित न रहकर एक बड़े क्षेत्र से सम्बद्ध हो गया है । नवीन प्रौद्योगिकी के प्रभाव से आज कृषि उत्पादन का द्वितीय वर्ष समाजशाला ( ग्रामीण समाजशाला ) इसके फलस्वरूप ग्रामीण आर्थिक संरचना में व्यापक ग्रामीण अपने साधनों के अनुसार आधुनिक प्रौद्योगिकी केवल उद्देश्य केवल वैयक्तिक उपभोग की आवश्यकताओं को पूरा करना ही नहीं है बल्कि कृषि उपज के द्वारा अधिकाधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करना है । कृषि के इस व्यापारीकरण ने ग्रामीण आर्थिक जीवन में महान परिवर्तन उत्पन्न किये हैं ।
3. ग्रामीण राजनीतिक जीवन में परिवर्तन ( Changes in Rural Political Life )
भारतीय गाँवों का राजनीतिक जीवन भी आज बहुत तेजी से बदल रहा है । कुछ समय पूर्व तक ग्रामीण नेतृत्व पूर्णतया आनुवंशिक था जिसमें गाँवों के पंच , मुखिया अथवा लम्बरदार की स्थिति का निर्धारण वंश - परम्परा के द्वारा होता था । इसके विपरीत वर्तमान ग्रामीण नेतृत्व का स्वरूप अर्जित ( achieved ) हो गया है जिसका निर्धारण वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है ।
ग्रामीण नेतृत्व में अब आयु एवं जातीय स्थिति का कोई विशेष महत्व नहीं है । युवकों तथा निम्न जातियों के व्यक्तियों को भी नेतृत्व में भाग लेने के समान अवसर प्राप्त हुए हैं । पंचायती राज व्यवस्था के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों एवं महिलाओं के लिए भी स्थान सुरक्षित कर दिये जाने के कारण ग्रामीण नेतृत्व में सभी वर्गों का सहभाग बढ़ गया है । इसके फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्र में शक्ति - संरचना तथा राजनीतिक सहभाग में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ।
4. धार्मिक जीवन में परिवर्तन ( Change in religious life )
परम्परागत ग्रामीण समुदाय में धर्म का महत्व सर्वोपरि था तथा वैयक्तिक एवं सामूहिक स्तर पर सभी कार्यों का संचालन धार्मिक विश्वासों के आधार पर ही होता था । प्रकृति पर पूर्ण निर्भरता होने के कारण धर्म ही वैयक्तिक तथा सामाजिक नियन्त्रण का सर्वप्रमुख अभिकर्ता था । आज ग्रामीण जीवन में नई प्रौद्योगिकी तथा शिक्षा के प्रसार के कारण धर्म में परम्परागत स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन होने लगे हैं ।
धर्म और विज्ञान में सदैव परस्पर विरोधी सम्बन्ध होता है । व्यवहार के किसी भी क्षेत्र में जब विज्ञान का प्रभाव बढ़ता है तब धर्म एक निष्क्रिय संस्था रह जाती है । सम्भवतः यही कारण है कि गाँवों में धार्मिक नियम अब उतनी कठोरता से लागू नहीं होते क्योंकि धर्म से सम्बन्धित मान्यताओं एवं नियमों के अर्थ में ही परिवर्तन हो चुका है ।
उपर्युक्त मुख्य परिवर्तनों के अतिरिक्त कुछ अन्य क्षेत्रों में भी ग्रामीण सामाजिक परिवर्तन का एक स्पष्ट रूप परिलक्षित हुआ है । ऐसे परिवर्तनों में सामुदायिक जीवन से सम्बन्धित परिवर्तन अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं । कुछ समय पूर्व तक ग्रामीण समुदाय में पारस्परिक सहायता एवं सामुदायिकता की भावना का स्वरूप अत्यधिक स्पष्ट था । स्थिति चाहे संकट की हो अथवा समृद्धता की , व्यक्ति धनी हो अथवा निर्धन , उच्च जाति का हो अथवा निम्न जाति का प्रत्येक व्यक्ति एक - दूसरे की सहायता करना अपना नैतिक दायित्व समझता था ।
इसके विपरीत आज न केवल एक - दूसरे से पृथक् गुटों के निर्माण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला है बल्कि कभी - कभी वैयक्तिक स्वार्थ के लिए सम्पूर्ण गाँव के हित की उपेक्षा कर देना भी अनुचित नहीं समझा जाता । इसी का परिणाम है कि आज गाँव में आत्म - निर्भरता की विशेषता तेजी से लुप्त होती जा रही है । उपभोग के क्षेत्र में गाँवों में ऐसी वस्तुओं का प्रचलन बढ़ा है जो ग्रामीणों के साधनों तथा सामुदायिक जीवन के अनुकूल नहीं है ।
साधनों और आवश्यकताओं के बीच असन्तुलन बढ़ने के कारण गाँवों में भी सम्पत्ति से सम्बन्धित अपराधों में वृद्धि हुई । वाह्य समूहों से स्थापित होने वाले सम्पर्क एवं सम्प्रेषण के नवीन साधनों के प्रभाव से ग्रामीण जीवन भी अब परिवर्तनशील जीवन बनता जा रहा है । इन समस्त परिवर्तनों के पश्चात् भी यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ग्रामीण सामाजिक परिवर्तनों का स्वरूप निरपेक्ष ( absolute ) न होकर तुलनात्मक और आंशिक ही है ।
इसका तात्पर्य है कि विभिन्न दशाओं के प्रभाव से जहाँ आधुनिकता की दिशा में अनेक परिवर्तन हुए हैं वहीं अपनी परम्पराओं से गाँव आज भी इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि ग्रामीण इन्हें सरलता से छोड़ना नहीं चाहते। इस प्रकार ग्रामीण सामाजिक परिवर्तन को सातत्य एवं परिवर्तन के संदर्भ में देखना ही उचित है।
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