विवाह का अर्थ, परिभाषा, महत्व, विवेचना और आवश्यकता-Meaning and Definition of Marriage.

विवाह का अर्थ (vivah kise kahte hai)


विवाह वह आधार है जो घर बसाता है और बच्चों के पालन - पोषण तथा आर्थिक सहायता व सामाजिक उत्तरदायित्व की नींव को बनाता है । व्यक्तिगत दृष्टिकोण से विवाह की आवश्यकता यौन सम्बन्धी इच्छाओं की पूर्ति के साथ- साथ शरीर का स्वस्थ निर्वाह और मानसिक शान्ति प्राप्त करना है, सामाजिक दृष्टिकोण से विवाह का महत्व बच्चों को जन्म देना और तद्वारा समाज की निरन्तरता को कायम रखना है । इसीलिए विवाह नामक संस्था किसी समाज नहीं है , ऐसा कोई भी उदाहरण दुनिया के किसी भी कोने से अनेक छानबीन तथा अन्वेषण के बाद भी मिल न सका ।
Meaning and Definition of Marriage.


विवाह की परिभाषा ( Definition of Marriage )


' विवाह ' की परिभाषा अनेक दृष्टिकोणों से की गई है । इस सम्बन्ध में कुछ प्रमुख परिभाषएँ निम्न प्रकार हैं-


( 1 ) जेकब्स तथा स्टर्न के अनुसार " विवाह एक पति - पत्नी अर्थात पति - पत्नियों के सामाजिक सम्बन्ध का नाम है । यह उस संस्कार का नाम भी है जिसके द्वारा पति - पत्नी परस्पर सम्बन्ध में बँध जाते हैं । " 

( 2 ) बोगार्डस के अनुसार विवाह स्त्री और पुरुष को परिवारिक जीवन में प्रवेश करवाने की एक संस्था है । 

( 3 ) हॉवेल के अनुसार , “ विवाह सामाजिक नियमों का एक जाल है जो विवाहित युगल के पारस्परिक रक्त सम्बन्धियों , उनके बच्चों तथा समाज के प्रति सम्बन्धों को नियंत्रित तथा परिभाषित करता है । " 

( 4 ) वेस्टरमार्क के शब्दों में , " विवाह एक या अधिक पुरूषों अथवा एक या अधिक स्त्रियों के साथ स्थापित होने वाला वह सम्बन्ध है जिसे प्रथा तथा कानून की स्वीकृति मिलती है और जिसमें संगठन में आने वाले दोनों पक्षों तथा उनसे उत्पन्न सन्ता अधिकार व कर्त्तव्यों का समावेश रहता है । "

( 5 ) राबर्ट लॉवी द्वारा व्याख्या लॉबी के मतानुसार , " विवाह उन स्वीकृत संगठनों प्रकट करता है जो इन्द्रियों के सन्तोष के बाद स्थिर रहते हैं और पारिवारिक जीवन की पृष्ठिभूमि बनाते हैं । " उपरोक्त परिभाषाओं से विवाह के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होता है कि का मूल आधार स्त्री - पुरुष का यौन सम्बन्ध है ।


इन सम्बन्धों को जब सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है तो विवाह संस्था का जन्म होता है । यद्यपि विवाह के सम्बन्ध सम्भव है समाज में मनुष्य के लेकिन यौन इनको सामाजिक सम्बन्धों के पूर्व भी मनुष् मान्यता नहीं मिली है । विश्व , ऊपर किसी न किसी रूप में नियंत्रण पा जाते हैं ।


इसी कारण विवाह की प्रथाएँ भी प्रत्येक समाज में भिन्न है । विवाह चाहे स्त्री - पुरुष की इच्छा से हो या स्त्री को बलपूर्वक पत्नी बनाया गया हो अथवा धार्मिक किया गया हो , किन्तु इन सबके पीछे या तो सामाजिक समर्थन होना चाहिए मान्यता । विवाह के लिए इन दोनों तथ्यों का होना आवश्यक है । इसके अभाव में स्त्री-पुरूष के यौन सम्बन्धों को अनैतिक माना जाता है ।


विवाह का महत्व ( Importance of Marriage )


विवाह अनेक दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है । मानव - समाज में विवाह संस्था का जो योगदान है , वह इसके महत्व का प्रतीक है । विवाह के महत्व का मूल्यांकन निम्न प्रकार किया जा सकता है 


( 1 ) स्त्री पुरूष की स्थिति का निर्धारण-

विवाह के द्वारा समाज में स्त्री पुरुष की स्थिति का निर्धारण होता है । यह सामाजिक मान्यता जहाँ एक ओर स्त्री पुरुष की सामाजिक स्थिति का स्पष्टीकरण करती है , दूसरी और वैवाहिक जीवन सम्बन्धी मर्यादाओं की स्थापना करती है । विवाह केवल स्त्री - पुरुष के सम्बन्धों तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह दो भिन्न परिवारों को एक - दूसरे के निकट भी लाता है । 


( 2 ) सामाजिक संस्कार -

विवाह का आधार न तो केवल भाव - प्रधान स्नेह है और न केवल कामवासना । कामवासना को अनेक विचारकों ने अतिरंजित किया है किन्तु इसे न तो अशिष्ट समझा जा सकता है , न अपवित्र । इसी कारण हिन्दू दर्शन के अन्तर्गत यौन - जीवन को पवित्र और गृहस्थी की स्थिति को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है ।


इस दृष्टिकोण के अनुसार , जिस प्रकार जीवन के लिये माँ का महत्व है , उसी प्रकार आश्रम के लिये गृहस्थी का । कामसूत्र के अनुसार काम भावना मनुष्य जीवन की पूर्ण तथा आकर्षक बनाती है । इसीलिये हिन्दू शास्त्रकारों ने विवाह को एकसंस्था के साथ - साथ प्रशंसनीय भी माना है । 


( 3 ) सामाजिक अधिकार - पत्र

डाक्टर राधाकृष्णन् के शब्दों में " विवाह एक बैध परिवार की स्थापना के लिए सामाजिक अधिकार - पत्र अधिक है और यौन - सम्भोग के लिए अनुज्ञा - पत्र कम । पति और पत्नी में पारस्परिक प्रेम सन्तान उत्पन्न होने के बाद और प्रबल हो जाता है । भले ही वे दूसरे को चोट पहुँचायें और एक दूसरे से घृणा करें , परन्तु उनकी सनकों की अपेक्षा कुछ अधिक सुदृढ़ वस्तु , उनके झगड़ों और विद्वेषों की अपेक्षा कुछ 


( 4 ) मानवीय शक्तियों का विकास और उद्देश्य की प्राप्ति

" हिन्दू दर्शन के समान व्यक्तियों अनुसार विवाह का उद्देश्य मानवीय शक्तियों का विकास करना है । यह दो समान व्यक्तियों का सम्मिलन जिसके माध्यम से वे जीवन में विभिन्न संघर्षों का सामना करते हैं । यह केवल काम प्रवृत्ति को शान्त करने का साधन नहीं है बल्कि स्त्री - पुरूष का पारस्परिक साहचर्य जिसके द्वारा जीवन के चार महान लक्ष्य - धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष की सिटि होती है ।


हिन्दू समाज का यह आदर्श वैदिक काल से चलता आ रहा है । इसके अतिरिक्त हिन्दू दर्शन के अनुसार मनुष्य के ऊपर तीन प्रकार के ऋण होते हैं जिन्हें क्रमशः देव भ्रूण , पितृ ऋण तथा समाज ऋण कह कर सम्बोधित किया गया है । इनसे मुक्ति पाने के लिए विवाह आवश्यक है ।


( 5 ) परिवार की स्थापना-

विवाह तथा परिवार एक दूसरे के अत्यन्त निकट है । के साथ ही परिवार का आरम्भ होता है । अन्तर केवल इतना है कि परिवार एक समिति है जबकि विवाह केवल एक संस्था परिवार के द्वारा ही विवाह की स्थापना होती है । विवाह संस्था के साथ - साथ एक सामाजिक संस्कार भी है और आत्मपूर्णता करने का एक साधन है । लेकिन परिवार का क्षेत्र विवाह से अधिक व्यापक है । अन्तर्गत मनुष्य के अनेक सांस्कृतिक लक्ष्यों की पूर्ति होती है । 


( 6 ) वैवाहिक संसर्ग-

विवाह का प्राणिशास्त्रीय लक्ष्य , यद्यपि स्त्री - पुरुष का संसर्ग तथा संसर्ग में आधारभूत अन्तर है । विवाह के अभाव में स्त्री पुरुष सम्भव तो है किन्तु संसर्ग तथा वैवाहिक संसर्ग में अन्तर है । स्त्री - पुरुष के प्राप्त इसके है , परन्तु विवाह संसर्ग का संसर्ग को सामाजिक मान्यता मिलने का ही दूसरा नाम विवाह है विवाह के अभाव में संसर्ग होता है । उसके पीछे सामाजिक मान्यता नहीं होती है । अतएव ऐसे सम्बन्धों को अनैतिक माना जाता है ।


विवाह का विवेचन ( Interpretation of Marriage )


विवाह की व्याख्या अनेक दृष्टिकोणों से की गई है । इनमें निम्नलिखित विवेचन प्रमुख हैं अस्तित्व 


( 1 ) विवाह का प्राणिशास्त्रीय विवेचन Biological Interpretation of Marriage )

स्त्री - पुरुष के साहचर्य का मूल कारण काम की नैसर्गिक प्रवृत्ति है । इसका सम्पूर्ण जीव जगत में मिलता है । इस साहचर्य का परिणाम सन्तानोत्पत्ति की भी हो सकता है और नहीं भी । किन्तु इतना निश्चित है कि सन्तानोत्पत्ति साहचर्य के बिना असम्भव है ।


मानव के सम्मुख साहचर्य के फलस्वरूप जब सन्तानोत्पत्ति की समस्या उत्पन्न हुई तो विवाह का जन्म हुआ । इसके द्वारा सन्तान के प्रति स्त्री - पुरुष के उत्तरदाचित्व का निर्धारण हुआ बच्चा जब जन्म लेता है तो एक निश्चित अवस्था तक उसे दूसरे के आश्रय में रहना पड़ता है ।


इसके अतिरिक्त गर्भावस्था में स्त्री की देखभाल भी आवश्यक होती है । इन्हीं समस्याओं का हल आदि मानव ने विवाह के रूप में खोज निकाला और विवाह संस्था का आरम्भ हुआ । इस प्रकार विवाह मनुष्य की वासना को तृप्त करने तथा उसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान का एक साधन है । 


( 2 ) विवाह का कानूनी विवेचन ( Legal Interpretation Marriage ) -

स्त्री - पुरुष के साहचर्य से मनुष्य के सम्मुख जो समस्या पैदा हुई , उसके फलस्वरूप विवाह संस्था का जन्म हुआ । लेकिन विवाह संस्था की स्थिरता के लिए यह आवश्यक था कि इसे सामाजिक मान्यता मिले । इसलिए प्रत्येक समाज में विवाह के सम्बन्ध में कुछ निश्चित नियमों का प्रचलन है ।


साहचर्य के बाद स्त्री - पुरुष का यह कानूनी तथा सामाजिक उत्तरदायित्व है कि वे सन्तान के पालन - पोषण का उत्तर दायित्व पूरा करें । प्रत्येक समाज ने कुछ निश्चित कानूनों का निर्माण किया है जिनके अनुसार ऐसा न करने पर उन्हें दण्ड दिया जाता है । इसी कारण विवाह के अभाव में उत्पन्न संतान को अवैध माना जाता है । 


इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य सन्तान की सुरक्षा करना है । इसलिए समाज में ऐसे नियमों का प्रचलन है जिनके द्वारा बच्चों की सुरक्षा होती है । बल्कि ऐसी सामाजिक संस्था है जिसे सामाजिक नियमों का समर्थन प्राप्त है । आदि समाज तथा वर्तमान समाज के जितने भी विवाह सम्बन्धी कानून हैं , उनका उद्देश्य सन्तान के जीवन को सुरक्षित करना और यौन सम्बन्धों के ऊपर सामाजिक नियंत्रण करना है ।


उपरोक्त दृष्टिकोण से विवाह एक प्रकार का सामाजिक इकरारनामा है । इसके स्त्री - पुरुष के उत्तरदायित्वों का उदय होता आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा करने का ठेका कानूनी पक्ष की प्रधानता है , वहीं स्त्री - पुरुष में में वैवाहिक सम्बन्ध भी समाप्त हो जाते हैं ।


विश्व के जितने भी के सम्बन्ध विच्छेद की घटनाएँ भी अधिक होती है । ठेके की शर्तें जिस प्रकार पूरी न होने पर ठेका समाप्त हो जाता है , उसी प्रकार स्त्री - पुरुष लेकिन विवाह के बन्धनों पर आधारित नहीं है बल्कि इसे एक अनिवार्य संस्कार के रूप में माना गया पूर्णता का एक आधार है ।


इसलिए इसे पवित्र और धार्मिक में अनेक धार्मिक क्रियाओं में अविवाहित व्यक्ति भाग में विवाह का आधार कानून न होकर धार्मिक स्थायी होते हैं । यही कारण है कि भारतीय बारे में भारतीय दृष्टिकोण भिन्न है । यहाँ विवाह केवल बाहरी है । यह संस्कार मनुष्य की है । भारतीय ले सकता । जिस समाज विवाह बन्धन समझा जाता नहीं है वहाँ समाज अधिक व नैतिक समाज में विवाह - विच्छेद का प्रतिशत पाश्चात्य समाजों की अपेक्षा कम है , क्योंकि यहाँ विवाह केवल कानूनी नहीं है , बल्कि धर्म का भी एक अभिन्न अंग है । 


( 3 ) विवाह का विकासवादी विवेचन

( Evolutionary Interpretation of Marriage ) - उपरोक्त विवेचनों का सम्बन्ध विवाह के प्राणिशास्त्रीय तथा कानूनी दृष्टिकोणों से है । प्राणिशास्त्रीय विवेचन के अनुसार , विवाह का मूल कारण मनुष्य की प्राणि शास्त्रीय जरूरतें हैं और कानूनी विवेचन के अनुसार , विवाह का मूल कारण सन्तान को सामाजिक रूप से सुरक्षित करना है । लेकिन इस बारे में विकासवादी विचारकों का मत भिन्न है ।


विकासवादियों के अनुसार , मानव - समाज में विवाह संस्था आदिम संकरता की अवस्था से विकसित हुई । उसके में विवाह प्रथा का प्रचलन नहीं था । मनुष्य जिसके साथ यौन सम्बन्ध चाहते थे , कर लेते थे । ऐसी स्थिति को " संकरता की स्थिति " कहा गया है । इस विकास के बाद एक - विवाह प्रथा का आरम्भ हुआ । अनुसार , आरम्भ विकासवादियों का मत है कि प्रक्रिया अनिश्चित से निश्चित , अब्यवस्था से व्यवस्था , भिन्नता से अभिन्नता तथा अनेकता से एकता की ओर होती है ।


विवाह भी इस प्रक्रिया से प्रभावित है । इसके निम्न स्तर में संकरता है और उच्च स्तर में विवाह । दूसरे शब्दों में विवाह संकरता का ही विकसित रूप है । संकरता की स्थिति में बच्चे के पालन - पोषण का उत्तरदायित्व अनिश्चित था और वह विवाह की स्थिति में निश्चित हो गया । इस दृष्टिकोण के प्रबल समर्थकों में मॉर्गन और ब्रिफाल्ट का नाम उल्लेखनीय है ।


मॉर्गन का मत है कि अनेक जनजातियों में पिता , चाचा , माता तथा चाची इत्यादि भेदसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं होता है । माता , चाची , तथा ताई इत्यादि सभी को माता कहकर ही सम्बोधित किया जाता है । इसके विपरीत पिता , चाचा , ताऊ इत्यादि सभी को पिता कहकर ही सम्बोधित किया जाता है । इस भेद के न होने के कारण यही हो सकता है कि आरम्भ में विवाह संस्था का अभाव था ।


इस तथ्य के अतिरिक्त , अनेक जनजातियों में विशेष अवसरों पर ही स्त्री - पुरूषों को यौन सम्बन्धों की स्वतंत्रता दी जाती है । इन अवसरों पर कोई भी स्त्री अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरूष से सम्भोग करती है । इसके लिए किसी प्रकार का सामाजिक निषेध नहीं है । अब भी ऐसी अनेक जातियाँ हैं जिनमें लोग अतिथि की सहवास हेतु अपनी स्त्री प्रदान करते हैं और जहाँ विवाह के पूर्व भी स्त्री पुरुष के यौन सम्बन्धों की अनुचित नहीं समझा जाता । 


इस तथ्यों के आधार पर मॉर्गन का मत है कि आदिकालीन समाज विवाह प्रथा विवाह का प्रचलन नहीं था । उस समाज में संकरता थी जिसके अवशेष आज भी आदिकालीन समाज में प्रचलित हैं । इसके अतिरिक्त मॉर्गन का यह भी मत है कि आदिकालीन समाज मे भाई - बहिन भी परस्पर सम्भोग कर सकते थे और यह सम्बन्ध अनाचारी होता था। इसके अतिरिक्त समान रुधिर वाले लोगों में भी यौन सम्बन्धों की  स्वतंत्रता थी किसी प्रकार के सामाजिक बन्धन नहीं थे ।


आलोचना ( Criticism ) -

मॉर्गन के इस मत की अनेक विचारकों द्वारा आलोचना हुई है । इसमें हेनरी मेन और बेस्टर मार्क के नाम उल्लेखनीय है । इनका मत है के मनुष्य में सदा से एकाधिकार तथा एकता की भावना पायी जाती है । इसी भावना समाज में सकरता का होना सम्भव नहीं है । के कारण पशु - पक्षियों के समाज में भी संकरता का होना सम्भव नहीं हैं।


जैकब्स तथा स्टर्न का मत है कि मनुष्य ने जिस प्रकार अपनी प्राकृतिक की पूर्ति के लिए परिवार का आश्रय लिया उसी प्रकार अपनी सहज सन्तुष्टि के लिए प्रकृति का । इन विचारकों का मत है कि मनुष्य समाज का विकास उसके जीवन तथा अतिजीवन की पूर्ति के लिए हुआ है ।


संकरता से मनुष्य समाज की समस्याओं का समाधान नहीं होता इसलिए संकरता को समाज एक - विवाही था । विवाह की प्रथम अवस्था मानना गलत है । इन विचारकों के अनुसार मनुष्य का आदि समाज एक-विवाही था।


विवाह की आवश्यकता ( Necessity of Marriage )


विवाह मनुष्य समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था है । मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही इस संस्था का जन्म हुआ । यह आरम्भ से लेकर आज तक मनुष्य की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करता आया है । निम्नलिखित आवश्यकताएँ इनमें मुख्य हैं - 


( 1 ) जैविकीय सन्तोष ( Biological satisfaction ) -

काम भावना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है । सामाजिक अस्तित्व को बनाये रखने के लिए यह जितनी महत्वपूर्ण है , उतनी मनुष्य के व्यवस्थित विकास के लिए भी । इसलिए इसकी तृप्ति मानवीय विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है ।


इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए काम - भावना की तृप्ति को मोक्ष की प्राप्ति के लिए , हिन्दू शास्त्रकारों ने आवश्यक बतलाया है और यौन जीवन बल्कि को अत्यन्त पवित्र माना है । कामवासना न को किसी प्रकार का रोग है और न विकास , यह मनुष्य की स्वाभाविक सहजवृत्ति है । लेकिन समाज के स्वस्थ विकास के लिए इस वृत्ति का व्यवस्थित होना आवश्यक है , इसलिए आदिकाल से मनुष्य ने विवाह को आवश्यक समझा है ? 


( 2 ) मनोवैज्ञानिक सन्तोष ( Psychological satisfaction ) -

विवाह की आवश्यकता केवल प्राकृतिक वासना की पूर्ति के लिए ही नहीं होती बल्कि आत्मिक सन्तोष होती है । विवाह का लक्ष्य केवल काम तृप्ति तक ही सीमित नहीं है बल्कि मनुष्य को के लिए भी पर आर्कषण होता भो स्त्री - पुरूष मन से है ।


मनुष्य सन्तानोत्पत्ति भी है । प्रत्येक स्त्री - पुरूष में एक - दूसरे के प्रति स्नेह व है । दोनों के अन्दर एक - दूसरे की लालसा होती है । काम - भावना न होने सन्तान की इच्छा हो सकती है । इन सभी बातों का सम्बन्ध दूसरे शब्दों में हम इन्हें मनुष्य की मानसिक आवश्यकता कह सकते हैं जिनकी पूर्ति के विवाह द्वारा होती है । 


( 3 ) आर्थिक सन्तोष ( Economic satisfaction ) -

विवाह केवल शारीरिक सो की हो माध्यम नहीं है , बल्कि स्त्री - पुरुष का एक आर्थिक संगठन भी है । अनेक समाज विवाह के बिना स्त्री - पुरुष का जीवन असम्भव है । अनेक आदिवासी समाज में मनुष्य तभी जीवित रह सकता है जबकि स्त्री - पुरुष दोनों आर्थिक कार्यों में एक - दूसरे से सहयो करें । इसके लिए स्त्री - पुरुष का साहचर्य है ।


पुरुष प्रकृति से ही दुर्बल है । इसलिए वह घर के बाहर कार्य करता है । इसके विपरीत स्त्री प्रकृति से ही दुर्ब है इसलिए वह गृह कार्यों को सम्पन्न करती है । अनेक आदिवासी समाजों में अब स्त्री - पुरुष का कार्य क्षेत्र विभक्त है और उनमें आर्थिक सहकारिता का प्रचलन है । इसलिए , विवाह काम तथा मन की तृप्ति का ही साधन नहीं है बल्कि मानव - जीवन की आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने का साधन भी है । 


( 4 ) अन्य प्रकार के सन्तोष ( Other satisfaction -

उपर्युक्त आवश्यकताओं के अतिरिक्त विवाह कुछ अन्य उद्देश्यों की भी पूर्ति करता है । सेमा , नागा जाति के लोगों में पिता की मृत्यु के बाद माँ के अतिरिक्त जो अन्य स्त्रियाँ हैं , उनमें विवाह में कर लिया जाता है ।


इस प्रकार के विवाह का मुख्य कारण यह है कि इन समाजों की मृत्यु के बाद विधवा स्त्रियाँ सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होती हैं । सम्पत्ति के ऊपर अधिकार करने के लिए ही यहाँ माँ के साथ विवाह का प्रचलन है ।


अनेक सौतेली है इस समानों में भाई की मृत्यु के बाद उसकी विवाहिता स्त्री से दूसरा भाई विवाह कर लेता है और इस प्रकार भाई की सम्पत्ति पर अधिकार करता हैं।


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