संस्कृति संवर्द्धन के उद्विकासीय सिद्धान्त - Evolutionary Theories of Culture Promotion

संस्कृति संवर्द्धन के उद्विकासीय सिद्धान्त का वर्णन संक्षेप में कीजिए ।

सांस्कृतिक क्षेत्र में जिन विद्वानों ने उद्विकासीय आधार पर विभिन्न परिवर्तनों को स्पष्ट किया, उनमें स्पेन्सर, मॉग्रेन, टायलर तथा हैड्डन के नाम विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं । इन विद्वानों की यह मान्यता थी कि संस्कृति का विकास एक निश्चित दिशा में अनेक स्तरों में गुजरते हुए होता है । यह दिशा सरलता से जटिलता तथा समानता से असमानता की ओर होती है ।


इन उद्विकासवादियों का विचार है कि संसार के सभी भागों में मानव में एक मानसिक एकता पायी जाती है । यदि सभी मनुष्यों का पर्यावरण समान हो तो वे समान रूप से ही सोचेंगे और समान ढंग से व्यवहार करेंगे । लेकिन वास्तव में विभिन्न स्थानों का पर्यावरण एक दूसरे से भिन्न होने के कारण ही मानव भिन्न - भिन्न प्रकार से सोचता और व्यवहार करता है ।


यह कारण है कि पहले आरम्भ में विभिन्न प्रकार के संस्कृति - तत्व , संस्कृति संकुल तथा संस्कृति प्रतिमान सरल रूप में होते हैं लेकिन कालान्तर में यह निरन्तर रूप ग्रहण करते जाते हैं । हरबर्ट स्पेन्सर ने उद्विकास को परिभाषित करते हुए कहा कि “ उद्विकास कुछ तत्त्वों का एकीकरण तथा उससे सम्बन्धित वह गति है जिसके दौरान कोई तत्व एक अनिश्चित तथा असम्बद्ध समानते से निश्चित और सम्बद्ध भिन्नता में बदल जाता है ।


" उद्विकास के इसी अर्थ की सहायता से संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को भी स्पष्ट किया जा सकता है । उदाहरणार्थ - असभ्यता के स्तर में प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने से ही सम्बन्धित था । यह स्थिति अत्यधिक सरल और समानतापूर्ण होने के बाद भी अनिश्चित तथा असम्बद्ध थी ।


इसके बाद व्यक्ति जैसे - जैसे एक दूसरे की सहायता से सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में आगे बढ़ता गया, उसकी एक दूसरे की सहायता से सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में आगे बढ़ता गया, उसकी एक - दूसरे पर निर्भरता भी बढ़ती चली गयी । इस स्थिति में व्यक्ति में व्यक्ति का सामाजिक - सांस्कृतिक जीवन पहले की तुलना में कहीं अधिक निश्चित और सम्बद्ध हो गया लेकिन भित्रता में भी बहुत अधिक वृद्धि हो गयी । यह अनिश्चित तथा असम्बद्ध समानता से निश्चिंत और सम्बद्ध मित्रता की ओर होने वाला परिवर्तन है । 


उपर्युक्त आधार पर मॉर्गन, टायलर तथा हेड्डन ने सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक तथा अन्य संस्थागत परिवर्तनों को भी विकास के अनेक स्तरों के माध्यम से स्पष्ट करना आरम्भ का देया । संक्षेप में कहा जा सकता है कि उद्विकासवाद वह सिद्धान्त है जो संस्कृति के सभी तत्वो तथा संकुलों से सम्बन्धित परिवर्तन को एक ऐसे क्रम में स्पष्ट करता है जो अनेक स्तरों के माध्य से एक वस्तु अथाव विशेषता को सरलता से जटिलता की ओर ले जाता है । 


मॉरगन के अनुसार मानव सभ्यता का विकास तीन स्तरों के विकास से हुआ है । 

( 1 ) जंगली स्तर ( Savage Stage ) 

( 2 ) बर्बरता का स्तर ( Barbarian Stage ) 

( 3 ) सभ्यता का स्तर ( Civilized stage )

यह तीनों स्तर ही सांस्कृतिक विकास के आधार पर निम्न , मध्यम और उच्च जैसे तीन उपस्तरों में विभाजित किए जा सकते हैं । इसी प्रकार मॉर्गन ने यह भी स्पष्ट किया कि विवाह तथा परिवार से सम्बन्धित विकासक्रम को भी उद्विकास सिद्धान्त के आधार पर ही समझा जा सकता है ।


टॉयलर ने उद्विकास के सिद्धान्त को धर्म पर लागू करते हुए यह बताया कि आरम्भ में बहुदेयत्ववाद का प्रचलन था लेकिन बाद में एक ईश्वर में विश्वास किया जाने लगा । हेडन ने कला में होने वाले परिवर्तनों को उद्विकास के सन्दर्भ में स्पष्ट किया है । हेडन के अनुसार कला में होने वाले परिवर्तन यथार्थवादी कला में संकेतवादी कला की ओर होते हैं ।


इस प्रकार स्पष्ट होता है कि उद्विकासवाद वह सिद्धान्त है जो संस्कृति के सभी तत्वों तथा संकुलों से सम्बन्धित परिवर्तन को एक ऐसे क्रम में स्पष्ट करता है जो अनेक स्तरों के माध्यम से एक वस्तु अथवा विशेषता की सरलता से जटिलता की ओर ले जाता है । 


समालोचना ( Criticism )

यह सच है कि संस्कृति के विभिन्न पक्षों में उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों की एक लम्बे समय तक उद्विकासवाद के आधार पर स्पष्ट किय आजाता रहा लेकिन इस सिद्धान्त के अन्तर्गत अनेक दोष हैं जैसे-

( 1 ) सर्वप्रथम , उद्विकासवादियों ने यह मान लिया है कि प्रत्येक समाज में सांस्कृतिक विकास कुछ निश्चित स्तरों में से गुजरते हुए होता है । इतिहास में इस मान्यता की पुष्टि नहीं होती । 

( 2 ) इस सिद्धान्त की इस मान्यता को भी नहीं माना जा सकता है कि संसार के सभी मनुष्यों में एक मानसिक एकता पायी जाती है तथा पर्यावरण की भिन्नता के कारण ही विभिन्न मानव - समूह एक - दूसरे से भिन्न प्रकार का व्यवहार करते हैं । यदि ऐसा होता तो एक ही भौगोलिक पर्यावरण में एक - दूसरे से भिन्न सांस्कृतिक विशेषताएं विकसित नहीं हो पातीं । 

( 3 ) गोल्डनवीजर का कथन है कि उद्विकास के सिद्धान्त की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि इसमें संस्कृति के प्रसार तथा आविष्कारों के महत्त्व की पूर्णतया अवहेलना कर दी गयी है । 

( 4 ) गोल्डनवीजर का कथन है कि उद्विकास के सिद्धान्त की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि इसमें संस्कृति के प्रसार तथा आविष्कारों के महत्त्व की पूर्णतया अवहेलना कर दी गयी 

( 5 ) उद्विकासवादि पद्धति इसलिए भी दोषपूर्ण है कि इसके प्रतिपादक ' काल्पनिक विशेषज्ञ ' ही रहे हैं , उन्होंने संस्कृति की किसी भी विशेषता का अनुभवसिद्ध अध्ययन नहीं किया । यही कारण है कि ऐसे विद्वानों के विचारों को ऐतिहासिक तथ्यों को प्रमाणित नहीं किया जा सकता।


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