ग्रामीण भारत में सामाजिक स्तरीकरण के उदीयमान प्रतिमानों का वर्णन कीजिए। अथवा ग्रामीण भारत में सामाजिक स्तरीकरण में हो रहे परिवर्तनों की व्याख्या कीजिए।
वर्तमान युग में ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण में परिवर्तन की अनेक प्रक्रियाएँ स्पष्ट होने लगी हैं। इस परिवर्तन का कारण आंशिक रूप से जाति के परम्परागत स्वरूप का दुर्बल पड़ना तथा आंशिक रूप से नवीन जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का लागू होना है। इनके प्रभाव से ग्रामों में सामाजिक स्तरीकरण से सम्बद्ध जो प्रमुख परिवर्तन उत्पन्न हुए हैं उन्हें निम्नांकित क्षेत्रों में विभाजित करके स्पष्ट किया जा सकता है-
1. संस्कृतिकरण-
डॉ. श्रीनिवास ने ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित मुख्य परिवर्तनों को संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया है। संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें निम्न हिन्दू जातियाँ परम्परागत सामाजिक स्तरीकरण में पहले की अपेक्षा उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए अपने परम्परागत रहन-सहन, सांस्कृतिक व्यवहारों, विश्वासों और कर्मकाण्डों में उच्च जातियों के समान परिवर्तन करने लगी हैं।
भारतीय ग्रामों में आज अनेक निम्न जातियों के द्वारा उच्च जातियों तथा प्रभु-जातियों के व्यवहार प्रतिमानों का अनुकरण किया जा रहा है । इसके फलस्वरूप अनेक निम्न जातियों की सामाजिक स्थिति में या तो परिवर्तन हुआ है अथवा अब वे स्वयं को उन निर्योग्यताओं में बँधी हुई नहीं मानतीं जो निर्योग्यताएँ उनकी जातिगत सदस्यता से सम्बद्ध थीं ।
2. जातिगत प्रकार्यों तथा संगठनों में परिवर्तन
डॉ . योगेन्द्र सिंह ने अपने अध्ययन के आधार पर यह बताया है कि भारतीय ग्रामों में विभिन्न जातियों के परम्परागत प्रकार्यों तथा उनके जातिगत संगठनों के स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे हैं । अब विभिन्न जातियाँ अपने जातिगत संगठनों के दुर्बल पड़ जाने के बाद ऐसे जातीय समुदायों का निर्माण करने लगी हैं जिनकी सहायता से वे राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक क्षेत्र में उच्च जातियों से प्रतिस्पर्द्धा कर सकें।
इसके फलस्वरूप ग्रामों में विभिन्न जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा और संघर्ष के तत्व उत्पन्न हो गये हैं जो कुछ समय पहले तक ग्रामीण जीवन में बिल्कुल भी देखने को नहीं मिलते थे । यही कारण है कि ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण के अन्तर्गत आज जाति और वर्ग दोनों ही विशेषताओं का मिश्रण देखने को मिलता है ।
3. अनुसूचित जातियों की स्थिति में सुधार
परम्परागत रूप में ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण में अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों का स्थान निम्नतम था । वर्तमान युग में सरकार द्वारा प्रदान किये गये संवैधानिक संरक्षण तथा प्रामीण विकास योजनाओं की सहायता से इन जातियों की स्थिति में अत्यधिक सुधार हुआ है ।
आज इन जातियों को विभिन्न सेवाओं तथा पंचायतों की सदस्यता में ही आरक्षण प्राप्त नहीं हुआ है बल्कि भूमि के वितरण में भी उन्हें प्राथमिकता दी जा रही है । मताधिकार के कारण स्वयं अनुसूचित जातियों में भी एक ऋण की सुविधा के क्षेत्र नवीन सामाजिक और राजनीतिक चेतना उत्पन्न हुई है । इसके फलस्वरूप अनुसूचित जातियों की स्थिति न केवल ऊँची उठी है बल्कि इस स्थिति ने परम्परागत प्रामीण सामाजिक स्तरीकरण को भी प्रभावित किया है ।
4. विभिन्न वर्गों की स्थिति में परिवर्तन
वर्तमान युग में गाँवों की परम्परागत वर्ग संरचना भी नये परिवेश ग्रहण कर रही है । यह परिवर्तन आज गाँव के सभी वर्गों के जीवन में स्पष्ट हो रहा है । एक ओर जमींदारी प्रथा के उन्मूलन तथा भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारित हो जाने के फलस्वरूप उच्च वर्ग का प्रभाव पहले की अपेक्षा कम हो गया है जबकि भूमिहीन श्रमिकों में भूमि का वितरण होने से उनकी स्थिति पहले की अपेक्षा ऊंची हो गई है । इसका तात्पर्य है कि अनेक बड़े - बड़े भू - स्वामी अब ग्रामीण वर्ग - व्यवस्था में मध्यम वर्ग के अन्तर्गत आ गये हैं जबकि अनेक मध्यम वर्ग के कृषकों ने उच्च वर्ग की सदस्यता प्राप्त कर ली है ।
5. व्यावसायिक स्वरूप में परिवर्तन
सामाजिक स्तरीकरण की स्थिरता बहुत बड़ी सीमा तक विभिन्न जातियों तथा वर्गों द्वारा अपने परम्परागत व्यवसायों के द्वारा आजीविका उपार्जित करने पर निर्भर है। भारत में कुछ समय पूर्व तक जजमानी व्यवस्था के द्वारा सभी जातियों के व्यवसाय सुनिश्चित थे इसलिए ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण में स्थिरता बनी हुई थी । आज नवीन व्यवसायों में वृद्धि हो जाने से जाति संरचना के नियमों का प्रभाव घट जाने के कारण गाँव के व्यावसायिक स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन उत्पन्न हुए हैं ।
अनेक निम्न जातियाँ अपने परम्परागत व्यवसायों को छोड़कर भूमि पर कृषि कार्य करने लगी हैं जबकि बहुत से परम्परागत किसान कुटीर उद्योग - धन्धों से अपनी आजीविका चलाने लगे हैं । गाँव में ऋण देने का कार्य भी आज सभी सम्पन्न व्यक्ति करते हैं , चाहे उनकी कोई भी जाति क्यों न हो । इसका तात्पर्य है कि गाँवों में भी अब सभी समूह अथवा व्यक्ति का आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव सामाजिक स्तरीकरण में उसकी स्थिति को निर्धारित करने लगा है । यही कारण है कि किसी गाँव की प्रभु - जाति का आज उच्च जाति से ही सम्बद्ध होना आवश्यक नहीं रह गया है ।
6. कुशलता के आधार पर महत्व
नगरीकरण तथा शिक्षा के बढ़ते हुए प्रभाव से ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण के परम्परगत आधारों में भी परिवर्तन हुए हैं । वर्तमान युग में गाँवों में आयु तथा जातिगत सदस्यता ही ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण में व्यक्ति की स्थिति का आधार नहीं है बल्कि व्यक्ति की स्थिति के निर्धारण में उसकी योग्यता और कुशलता को ही महत्व दिया जाने लगा ।
बहुत-से गाँवों में सिक्ख धर्म अथवा निम्न जातियों से सम्बद्ध लोगों ने कृषि की नवीन प्रविधियों के द्वारा अधिक उत्पादन में सफलता प्राप्त करके अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार किया है , उन्हें गाँवों में उच्च जाति के छोटे किसानों की अपेक्षा अधिक सम्मान मिलना आरम्भ हो गया है । इसके अतिरिक्त ग्रामीण जीवन में स्त्रियों की स्थिति में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन सामने आये हैं । इस सम्पूर्ण विवचेना से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप आज अपने परम्परागत स्वरूप से काफी भिन्न दिखाई देता है ।
इस आधार पर कुछ लोगों का यहाँ तक विचार है कि भविष्य में भारतीय गाँवों का परम्परागत सामाजिक स्तरीकरण पूर्णतया टूट जायेगा तथा इसके स्थान पर वर्ग-व्यवस्था के द्वारा एक नवीन स्तरीकरण का निर्माण होगा। वास्तव में ऐसी आशंकाएँ निर्मूल हैं क्योंकि भारतीय ग्रामीण जीवन पर आज भी जाति - व्यवस्था का स्पष्ट प्रभाव है।
यह भी पढ़ें- साम्राज्यवाद के विकास की सहायक दशाएँ ( कारक )
यह भी पढ़ें- ऐतिहासिक भौतिकतावाद
यह भी पढ़ें- अनुकरण क्या है? - समाजीकरण में इसकी भूमिका
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण में कला की भूमिका
यह भी पढ़ें- फ्रायड का समाजीकरण का सिद्धांत
यह भी पढ़ें- समाजीकरण और सामाजिक नियंत्रण के बीच सम्बन्ध
यह भी पढ़ें- प्राथमिक एवं द्वितीयक समाजीकरण
यह भी पढ़ें- मीड का समाजीकरण का सिद्धांत
यह भी पढ़ें- सामाजिक अनुकरण | अनुकरण के प्रकार
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण में जनमत की भूमिका
यह भी पढ़ें- सामाजिक नियंत्रण के औपचारिक साधन