ग्रामीण धर्म ( Rural Religion ) - अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं

ग्रामीण धर्म( Rural Religion ) - अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं

ग्रामीण धर्म को परिभाषित कीजिए तथा धर्म की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए ।


धर्म का अर्थ ( Meaning of Religion )


धर्म का सामान्य अर्थ ईश्वर या देवी - देवताओं में विश्वास करना है । परन्तु संसार में ऐसे भी धर्म हैं जिनमें ईश्वर को माना ही नहीं जाता ।जैन धर्म और बौद्ध धर्म इसके उदाहरण हैं । धर्म का सम्बन्ध ऐसी शक्तियों से है जो मनुष्य से अधिक शक्तिशाली होती हैं और अदृश्य होती हैं ।


मनुष्य इन शक्तियों से डरता है ।ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब मनुष्य अपनी समस्याओं को अपनी बुद्धि और प्रयास से नहीं सुलझा पाता ।वह यह समझने लगता है कि कुछ दैवी शक्तियाँ उसके जीवन को संचालित करती हैं ।वह अपने सुख की कामना के लिए इन शक्तियों को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है ।अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार इन दैवी शक्तियों में विश्वास करना और उन्हें प्रसन्न करने के लिए कुछ क्रियाएँ करना ही धर्म है ।

ग्रामीण धर्म ( Rural Religion ) - अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं

धर्म की परिभाषा ( Definition of Religion )


धर्म की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-


फ्रेजर ने लिखा है , " धर्म की मैं मनुष्य से उच्च शक्तियों के साथ सामंजस्य या समझौता समझता हूँ जिसके विषय में , यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति तथा मानवीय जीवन की शिक्षा को संचालित तथा नियन्त्रित करती है ।" "


दुर्खीम के अनुसार , " धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों तथा क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है , जो उन सभी लोगों को एक विशिष्ट नैतिक समुदाय के रूप में चर्च के नाम से संगठित करती हैं जो उन्हें मान्यता देते हैं ।"


मैलिनोवस्की के अनुसार , “ धर्म के अन्तर्गत के समस्त व्यवहार प्रतिमान आते हैं जिनके द्वारा मनुष्य दैनिक जीवन की अनिश्चितता को दूर कर देना चाहते हैं और अपेक्षित तथा अज्ञात की आशंका से उत्पन्न भय को पार कर लेते हैं । "


ग्रामीण धर्म की विशेषताएँ ( gramin dharm ki visheshta )


1. पौराणिक विश्वदृष्टि

भारत में ग्रामीण धर्म पौराणिक कथाओं से सम्बन्धित हैं । उसमें तार्किकता अथवा बौद्धिक विश्लेषण का पूर्णतः अभाव होता है । लोक - परलोक में विचरण करने वाली आत्माएँ नदी , पहाड़ और वृक्ष इत्यादि जड़ पदार्थों में भी विशिष्ट शक्तियों की कल्पना , पितृलोक , देवलोक , स्वर्ग - नरक , बैकुण्ठ की धारणाएँ , दैवी काल्पनिक शक्तियों का मानवीकरण इत्यादि विभिन्न प्रकार की काल्पनिक शक्तियों और उनसे सम्बन्धित कथाएँ प्रामीण धर्म की विशेषता


2. आत्माबाद और पितृपूजा

धर्म आत्मा की अमरता के विचार का व्यावहारिक प्रयोग करता है । गाँव के लोग यह मानत हैं कि उनके पूर्वजों की आत्माएँ उनके आस - पास घूमती रहती हैं और उनके क्रिया - कलापों का देखती हैं । उनका विश्वास है कि ये आत्माएँ उन्हें सुख - दुःख , लाभ - हानि पहुँचाती हैं । यह भी विश्वास किया जाता है कि ये आत्माएँ यदि किसी दूसरे शरीर में होती हैं तो ये भी अपनी संतानों के लिए सुख की वृद्धि कर सकती हैं ।


अतः इन आत्माओं अर्थात अपने पूव्रजों , गाँव की भाषा में पितरों की तृप्ति के लिए उनकी पूजा की जाती है । प्रतिवर्ष दशहरे से पूर्व सभी मृत व्यक्तियों के श्राद्ध किये जाते हैं । विभिन्न त्योहारों पर पितरों के लिए भोजन निकाला जाता है जिसे पूजने के बाद ब्राह्मणों को या कन्या को खिलाया जाता है । भोजन निकालते समय व्यक्ति थाली के चारों ओर जल छिड़कता है तथा अपने पितरों का नाम लेकर उनसे शुभाषीश की याचना करता है । प्रत्येक शुभ कार्य करने से पूर्व पितृ पूजा की जाती है । पितरों की प्रसन्नता सुख का कारण मानी जाती है ।


3. आध्यात्मिकता तथा लौकिकता का समन्वय

भारतीय ग्रामों के लोग इस दुनिया से ऊपर किसी दूसरी दुनिया के प्रति जागरूक रहे हैं । वे सादा जीवन रखते हैं । उनका धर्म ' अगले जन्म को सुधारने की प्रेरणा देता है । किन्तु साथ ही वे केवल दार्शनिक सिद्धान्तों को ही धर्म नहीं मानते । ग्रामीण धर्म में वे तत्त्व निहित होते हैं जो संसार के व्यावहारिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं ।


गाँव में प्रचलित धार्मिक विचार ओर क्रियाएँ लोकिक जीवन के सुख और शान्ति के लिए उपयोगी होते हैं । " डॉ . श्यामाचरण दुबे के अनुसार ग्रामों में प्रचलित हिन्दू धर्म शास्त्रीय या दार्शनिक सिद्धान्तों का धर्म नहीं है । ग्रामीण - धर्म व्यावहारिक है जिसमें उन उत्सवों , त्योहारों , उपवासों और अनुष्ठानों को महत्त्व दिया जाता है जो जीवन के महत्त्वपूर्ण अवसरों से सम्बन्धित होते हैं । गाँव की धार्मिक व्यवस्था में आध्यात्मिक तथा लौकिक , दोनों तत्त्वों का मिश्रण रहता है ।


4. प्रकृतिवाद

ग्रामीण धर्म में मैक्समूलर द्वारा प्रतिपादित प्रकृतिवाद की पूरी झलक मिलती है । प्रकृति और उसके विभिन्न पक्ष ग्रामीण धर्म को अत्यधिक प्रभावित करते हैं । ग्रामों का सम्पूर्ण सामाजिक जीवन ही प्रकृति से प्रभावित होता है । ग्रामीण धर्म में जिन देवी - देवताओं का अधिक महत्त्व है वे सब प्रकृति के तत्त्व हैं ।


सूर्य , चन्द्रमा , पृथ्वी , इन्द्र ( वर्षा ) इत्यादि देवताओं की पूजा , पीपल , बरगद आदि वृक्षों पर जल और दूध आदि चढ़ाना , नदी - नाले पर दीपक जलाकर पूजा करना , अनेक व्रतों पर चन्द्रमा को देखने के पश्चात् भोजन ग्रहण करना , पत्थरों को पूजना इत्यादि ग्रामीण धार्मिक क्रियाएँ ग्रामीण - धर्म में प्रकृति के महत्त्व को स्पष्ट करती हैं ।


5. बहुदेवतावाद- एक गाँव में प्रायः वह प्रत्येक वस्तु चाहे वह वनस्पति हो अथवा प्रकृति का कोई अन्य तत्व या मानव - निर्मित कोई वस्तु जो वर्तमान समय में विशिष्ट महत्त्व की है अथवा पूर्वकाल में विशिष्ट महत्त्व की रही है और जिसकी विशिष्टता और विलक्षणता की कोई पौराणिक , कथा प्रचलित है अथवा प्रचलित रही है , उसे देवी या देवता के रूप में पूजा जाता है । यही कारण है कि गाँव में अनेक प्रकार के देवी - देवताओं को मान्यता दी जाती है । ये देवी देवता विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित होते हैं ।


6. सर्वान्तर्यामी शक्ति विश्वास

धर्म ईश्वर या अलौकिक शक्ति के उस स्वरूप में विश्वास करते हैं जो ब्रह्माण्ड के कण कण में व्याप्त हैं जो घट - घट वासी हैं । मनुष्य की कोई क्रिया उस सर्वव्यापक शक्ति की नजर से बच नहीं सकती । ग्रामीणों में यह सिखाता है कि परमात्मा हमारे हर अच्छे - बुरे कर्म को देखता है ।


हमारा कोई कार्य उससे छिपा नहीं है । यह शक्ति सर्वान्तर्यामी होने के साथ - साथ सर्वशक्तिमान और न्यायकारी भी है । वह सबके साथ न्याय करती है । अतः हम किसी के साथ बुराई करते हैं तो वह हमें दण्ड देती है । वर्षा उसकी इच्छा से होती है , नदियाँ उसके इशारे से बहती हैं । ग्रामवासी का विश्वास होता है कि इस शक्ति की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता । यही सर्वोच्च अलौकिक शक्ति , जिसे मानवशास्त्रियों ने माना ( Mana ) कहा है , ग्रामीण धर्म का केन्द्रीय तत्व है ।


7. जादू - टोना-

धार्मिक क्रियाओं में शक्ति को प्रसन्न करने के लिए पूजा - पाठ आदि किये जाते हैं । जादुई क्रियाओं में शक्ति को डरा धमका कर अपने अनुकूल कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता है । उद्देश्य दोनों का एक है । पद्धति का अन्तर है । ग्रामीण - धर्म में जादू का मिश्रण रहता है ।


जादू - टोना शुभ - फल के लिए किया जाता है और अशुभ कार्य के लिए भी । जादू - टोना करने वाले विशिष्ट व्यक्ति को गाँव में ' सयाना ' कहते हैं । वह भूत - प्रेत को भगाने , चुड़ैल से मुक्त कराने , बीमारी दूर करने , सन्तान प्राप्त करने , किसी को हानि पहुँचाने आदि के लिए जादू टोना करता है ।


जादू - टोने की क्रियाएँ गुप्त रूप से की जाती हैं । किसी के शिशु के बाल कटवा कर उन पर जादू करना या उसके वस्त्र पर जादू करना , किसी के घर में या खलिहान में आग लगवा देना , देवी देवताओं पर मदिरा चढ़ाना , बलि देना या नीम की टहनी या झाडू से झाड़ - फूँक करना इत्यादि अनेक प्रकार के जादू - टोने ग्रामीण धर्म में महत्वपूर्ण अंग बन गये हैं ।


8. टोटसवाद

टोटम वह पेड़ , पौधा , पशु या पक्षी है जिसके साथ ग्रामीण सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाले गोत्र - समूहों का पैतृक सम्बन्ध होता है । प्रत्येक गोत्र अपनी उत्पत्ति किसी टोटम से मानती है । इस टोटम पशु या पक्षी अथवा वृक्षादि को पूरा गोत्र - समूह विशेष श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखता है ।


टोटम के पशु या वनस्पति को खाया नहीं जाता । उसके मरने पर शोक मनाया जाता है , टोटम सम्बन्धित गोत्र - सूह का देवता माना जाता है जिसे प्रसन्न करने के लिए पूजा इत्यादि की जाती है । टोटम के अलौकिक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है तथा अपने सुख - दुःख को उसी की प्रसन्नता और क्रोध का परिणाम माना जाता है ।


टोटम को विविधता के कारण ही ग्रामीण समाज में अनेकों देवी - देवताओं की पूजा की जाती है । ग्रामीण समाज में व्यक्तिगत टोटम भी होते हैं । पारिवारिक टोटम भी पूजे जाते हैं । इन्हें इष्ट देवता भी कहा जाता है ।


9. अन्धविश्वास

ग्रामीण धर्म में अन्धविश्वासों की अधिकता है । पोंगापंथी और पाखंडी लोग ग्रामवासियों को शनि , राहु , केतु आदि के प्रकोप का भय दिखाकर उन्हें दान - पुण्य करने की प्रेरणा देते रहते हैं । अनेक प्रकार के देवी - देवताओं का पूजन - अर्चन का यह बहुत बड़ा कारण है ।


सामान्य बीमारियों को भूत - प्रेत का प्रभाव मान लिया जाता है और उनकी चिकित्सा करने की अपेक्षा जादू - टोना और झाड़ - फूँक की जाती है । ऐसे अनेक अन्धविश्वासों के कारण ग्रामीण जन अनेक कष्टों में फँसे रहते हैं और चालाक लोग उनके अज्ञान का अनुचित लाभ उठाकर उन्हें ऐंठते रहते हैं ।


10. निषेधों का महत्त्व

निषेध का अर्थ इस व्यवहार से है जिसे ग्रामीण धर्म - प्रतिबंधित करता है । गाय को निर्दयता से पीटना , किसी शुभ कार्य में विधवा का सक्रिय भाग लेना , रजस्वला नारी के द्वारा रसोई कार्य करना , बड़ों के सामने स्त्रियों का खुले मुँह रहना , स्त्री के द्वारा पति या सास - ससुर और जेठ का नाम लेना , किसी मृत व्यक्ति की शवयात्रा के साथ स्त्रियों का चलना इत्यादि अनेक प्रकार के निषेध ग्रामों में प्रचलित होते हैं ।


11. धर्म और नैतिकता का मिश्रण

धर्म में नैतिक आचरण भी शामिल होता है । जो सामाजिक दृष्टि से उचित है , वही गाँव में धार्मिक दृष्टि से पुण्य है और जो नैतिक दृष्टि से अनुचित है , वही वहाँ धार्मिक दृष्टि से पाप है । लेविस के अनुसार दिल्ली के निकटवर्ती गाँव में स्कूल बनवाना , कुँआ या तालाब खुदवाना , जीवों पर दया करना , चिड़ियों को दाना खिलाना , बन्दरों को गुड़ - चने खिलाना , चींटियों को आटा खिलाना , भूखे को खाना खिलाना धार्मिक कार्य या पुण्य के काम माने जाते हैं ।


इन्हीं कामों को हम नैतिक दृष्टि से अच्छे या उचित काम कहते हैं । लेविस के अनुसार गाँववाले दूसरों को कष्ट देना , व्यभिचार करना , चोरी करना , धोखा देना , भूखे को भोजन न देना और दुःखी करना आदि को पाप माना जाता है । वास्तव में इन्हीं कार्यों को हम नैतिक दृष्टि से बुराई या अनुचित कार्य कहते हैं । दान देना धर्म भी है और नैतिकता भी ।


12. परिवार प्रधान धर्म

ग्रामों में धर्म परिवार का मामला है । एक परिवार का एक ही ईष्ट देवता होता है । परिवार ही यह निश्चय करता है कि किन देवी - देवताओं की पूजा की जायेगी और कौन से धार्मिक उत्सव तथा त्यौहार मनाये जायेंगे तथा किस प्रकार मनाये जायेंगे ? प्रत्येक धार्मिक क्रिया में परिवार के सभी सदस्य सम्मिलित होते हैं ।


पूजा - पाठ सभी साथ - साथ करते हैं । कोई ग्रेजुएट अपनी तार्किक बुद्धि का प्रयोग करके परिवार के सदस्यों या देवी - देवता या उनकी पूजा - पद्धति की निरर्थकता अथवा त्रुटि की व्याख्या तो कर सकता है , किन्तु परिवार के साथ उनमें शामिल होने से इन्कार करने का साहस नहीं करता ।


निष्कर्ष-

इस आधार पर एण्डरसन का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि “ धर्म अनेक विचारों , उद्वेगों तथा कार्य - विधियों का एक संकुल है जो किसी अलौकिक शक्ति के अभिव्यक्त होता है । ” धर्म के अन्तर्गत अनेक प्रकार के अनुष्ठानों , कर्मकाण्डों , पौराणिक गाथाओं , तीर्थ यात्राओं तथा निषेधों के द्वारा व्यक्ति अलौकिक शक्ति के प्रति अपने विश्वासों को अभिव्यक्त करते हैं ।

धर्म के इन तत्वों को दृष्टि में रखते हुए ही दुर्खीम ने लिखा है , " धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित अनेक विश्वासों और व्यवहारों की ऐसी संगठित व्यवस्था है जो उन शक्तियों को एक नैतिक समुदाय की भावना से बाँधती है जो उसी प्रकार के विश्वासों और व्यवहारों को अभिव्यक्त करते हैं । ”


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