जजमानी व्यवस्था ( jajmani system )
भारतीय जाति प्रथा में अन्तर्निहित श्रम विभाजन अथवा पेशों का विभाजन ही जजमानी व्यवस्था की उत्पत्ति का मूलाधार माना जाता है । जाति व्यवस्थानुसार प्रत्येक जाति कतिपय विशिष्ट पेशे को ही अपना परम्परागत और पैतृक पेशा मानती है । इन समस्त पेशों से सम्बन्धित सेवाओं के द्वारा ही एक जाति का सम्पर्क दूसरी जाति से स्थापित होता है ।
इसका प्रमुख कारण यह है कि ग्रामीण समुदाय में प्रत्येक जाति अन्य समस्त जातियों के लिए कोई न कोई सवायें अवश्यावश्य प्रदान करती है तथा इनके विनिमय स्वरूप उनको परम्परागत रूप में कोई न कोई पुरस्कार अथवा पारितोषिक भी प्राप्त होता है । इससे स्पष्ट होता है कि विभिन्न जातियों के पारस्परिक प्रकार्यात्मक सम्बन्धों की एक प्रमुख अभिव्यक्ति को ही ' जजमानी व्यवस्था ' कहा जाता है ।
भारतवर्ष में जाति प्रथा के परिप्रेक्ष्य में प्रत्येक व्यक्ति विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं को स्वयं ही नहीं पूर्ण करता है । प्रत्येक व्यक्ति का पूर्व निश्चित पेशा होता है , इसलिए उसको अपनी अन्यान्य आवश्यकताओं की पूर्ति और संतुष्टि हेतु अन्य व्यक्तियों की सेवायें प्राप्त करने के लिए विवश होना पड़ता है । इस प्रक्रिया के अनुसार अर्थात् सेवा प्राप्त करने तथा सेवा प्रदान करने वाले व्यक्तियों के मध्य जो भी प्रकार्यात्मक सम्बन्ध स्थापित होते हैं , उनको ही हम जनमानी व्यवस्था की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं ।
जजमानी व्यवस्था का अर्थ ( jajmani vyavastha ka arth kya hai )
जजमानी व्यवस्थानुसार जो जाति या व्यक्ति सेवा प्रदान करता है । उसको " प्रजा ' अथवा ' परजा ' एवम् जो व्यक्ति सेवायें ग्रहण करता है , उसको ' जजमान ' कहा जाता है । इससे स्पष्ट है कि इस व्यवस्थानुसार प्रत्येक जाति के कुछ निश्चित जजमान होते हैं , जिन्हें कि वह एक विशिष्ट सेवा प्रदान करता है ।
उदाहरणार्थ - ब्रह्मण पुरोहित कर्म का , माली फूल का , कहार बर्तन साफ करने का और पानी भरने का , नाई बाल काटने तथा हजामत करने का कार्य करता है । इन सभी जातियों के कुछ परिवार पैतृक आधार पर निश्चित या बँधे होते हैं , जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक परजा अनिवार्य रूप से अपने जजमान को पीढ़ी दर पीढ़ी सेवायें प्रदान करती रहती हैं ।
जजमानी व्यवस्था की परिभाषा (jajmani vyavastha ki paribhasha)
निम्नलिखित विद्वानों द्वारा प्राप्त परिभाषाओं से जजमानी व्यवस्था का अर्थ काफी कुछ स्पष्ट होता है-
( 1 ) आस्कर लेविस – ' इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक ग्राम के प्रत्येक जाति समूह से यह आशा की जाती है कि वह दूसरी जातियों के कुछ परिवारों को कतिपय निश्चित सेवायें प्रदान करें । "
( 2 ) डब्ल्यू.एच . वाइजर इस प्रथा के अन्तर्गत , प्रत्येक जाति का कोई निश्चित कार्य पीवी दर - पीढ़ी चलता रहता है । इस कार्य पर उसका एकाधिकार होता है तथा उसमें एक जाति दूसरी जाति की आवश्यकतायें पूरी करती रहती है । "
( 3 ) एन.एस. रेड्डी - ' इसलिए यह सेवा सम्बन्ध , जो कि वंशानुगत तौर से शासित होते हैं , जजमान - परजन सम्बन्धों के नाम से पुकारे जाते हैं । '
( 4 ) प्रारम्भिक हिन्दी कोष - ब्राह्मण की दृष्टि से वह व्यक्ति , जो उससे अपने धार्मिक कृत्य सम्पन्न कराता है अर्थात् कृषकगण जो कार्य प्रस्तुत करते हैं , जजमान और शिल्पी लोग परजा होते
( 5 ) वेबस्टर शब्दकोष - ' जजमान एक ऐसा व्यक्ति है , जिसने कि धार्मिक सेवाओं के लिए ब्राह्मण को किराये पर लिया हो । इस प्रकार वह एक संरक्षक है अथवा कार्यार्थी है । ' जजमानी व्यवस्था की प्रमुख विशेषतायें सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में सामाजिक समूहों के मध्य विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध पाये जाते . हैं । जजमानी व्यवस्था भी एक विशिष्ट प्रकार के सम्बन्धों का ही द्योतकमात्र है ।
जजमानी व्यवस्था की विशेषताएं ( jajmani vyavastha ki visheshtayen )
जजमानी व्यवस्था में निम्नलिखित प्रमुख विशेषतायें निहित होती हैं -
( 1 ) जाति पर आधारित व्यवस्था
विभिन्न विद्वानों के मतानुसार जजमानी प्रथा वस्तुतः जाति व्यवस्था का ही आर्थिक पक्ष से सम्बन्धित एक संगठन है । प्रत्येक जाति के व्यवसाय जन्म से ही पूर्व निश्चित होते हैं तथा इनमें से अधिकतर सेवा सम्बन्धी कार्य निम्न और शुद्र जातियों के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं । ब्राह्मण जाति को छोड़कर जो अपनी सेवाएं पुरोहिताई के रूप में प्रदान करता है , अन्य सभी पिछड़ी और निम्न जातियों से ही सम्बद्ध होते हैं ।
चूँकि प्रत्येक जाति केवल मात्र अपना ही पूर्व निर्धारित कार्य कर सकती हैं , इसलिए अन्य कार्यों और सेवाओं के लिए उनको अनिवार्य रूप से अन्य जातियों के सहयोग पर निर्भर करना पड़ता है । इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक हिन्दू ग्रामीण समाज के सन्दर्भ में इस बात के लिए विवश होता है कि वह जजमानी व्यवस्था के अनुसार ही कार्य करे और करवायें ।
( 2 ) वंशानुगत जिससे एक जाति में जन्म है
भारतीय समाज में लेने वाले जिस प्रकार परम्परा – जजमानी व्यवस्था एक वंशानुगत परम्परात्मक व्यवस्था है , सदस्यों को भी अपना पैतृक व्यवसाय ही ग्रहण करना पड़ता पैतृक सम्पत्ति को अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त किया है , ठीक उसी प्रकार से जजमानों को भी सेवक जाति के सदस्य अपने पुश्तैनी अधिकार के रूप में प्राप्त कर लेते हैं ।
उसी प्रकार एक जजमान के जो भी कमीन , परजन अथवा परजा होते हैं , पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी सेवायें प्रदान करते हैं अर्थात् जजमानी व्यवस्था में पीढ़ियाँ परिवर्तित होनी रहती है , किन्तु जजमान और परजा का सम्बन्ध वैसा ही बना रहता है । कोई भी जजमान बिना किसी गम्भीर अपराध के अपना कमीन नहीं बदल सकता है तथा न ही वह किसी अन्य व्यक्ति से सेवाएँ ग्रहण कर सकता है ।
श्री एन . एस . रेड्डी लिखते हैं कि ' जजमानी कार्य का अधिकार किसी भी अन्य सम्पत्ति के समान माना जाता है । यह पिता से पुत्र को प्राप्त होता है तथा अलग होने पर सभी भाइयों में बराबर - बराबर बाँट दिया जाता है । जिस किसी परिवार में एकमात्र पुत्री ही होती है , उसमें उसके पति को पिता के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं । " इससे स्पष्ट होता है कि जजमानी व्यवस्था वंशानुगत परम्परा का रूप ही है ।
( 3 ) प्राथमिक और स्थिर सम्बन्ध
इस व्यवस्था के सन्दर्भ में जजमान और सेवक परजन व्यक्तियों के मध्य स्थापित सम्बन्ध सामान्यतः प्राथमिक एवं स्थायी होते हैं , क्योंकि वजमान और परजन या कमीन दोनों ही परस्पर इतने अधिक घनिष्ठ हो जाते हैं कि उनमें सामाजिक दूरी के बावजूद भी काफी घनिष्ठ मेल - जोल स्थापित हो जाता है ।
( 4 ) उदग्र सम्बन्ध व्यवस्था
एक ही जाति के विभिन्न व्यक्तियों के मध्य पाए जाने वाले सम्बन्धों को क्षैतिज तथा उच्च और निमन जातियों के मध्य उदग्र सम्बन्ध पाये जाते हैं , क्योंकि इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक जाति के सदस्यगण दूसरी जाति के सदस्यों को अपनी सेवायें प्रदान करते हैं तथा इस प्रकार की सेवाओं के आधार पर ही उच्च और निम्न सभी जातियाँ एक सूत्र में बंध जाती । हैं । भारतीय ग्रामीण समाज में मेहतर जाति का जजमान ब्राह्मण , क्षत्रिय या वैश्य होता है , जबकि धोबी , चमार , माली तथा लोहार आदि के जजमान भी पृथक - पृथक होते हैं ।
( 5 ) पारस्परिक अधिकार तथा कर्तव्यों की व्यवस्था
जजमानी व्यवस्था पारस्परिक अधिकारों तथा कर्तव्यों की एक अपूर्ण व्यवस्था है । जजमानी व्यवस्था में जजमान और परजन कुल दो पक्ष पाये जाते हैं , जिसके अनुसार जजमान का यह अधिकार होता है कि वह अपने परजनों है । काम ले या सेवायें प्राप्त करें तथा दूसरा यह कर्तव्य भी है कि वह परजनों को उनकी सेवाओं क उचित मूल्य भी प्रदान करे तथा उनके हितों पर समुचित ध्यान भी देता रहे ।
इसी प्रकार परजनों का भी यह अधिकार होता है कि वह अपने जजमान से अपनी सेवाओं का फल प्राप्त करे और कर्तव्य के रूप में अपनी सेवायें प्रदान करता रहे । इससे स्पष्ट होता है कि जजमानी व्यवस्था वस्तुतः पारस्परिक अधिकारों तथा कर्तव्यों की एक व्यवस्था है ।
( 6 ) मुद्रा पर आधारित नहीं
जजमानी व्यवस्था मुद्रा पर आधारित व्यवस्था नहीं होती है । चूँकि दोनों पक्षों के मध्य निहित सम्बन्धों पर मुद्रा कोई प्रभाव नहीं डालती है , इसलिए जजमानी व्यवस्था की कार्य प्रणालील में न तो कोई बाधा उत्पन्न होती हैं और न ही इसकी आवश्यकता अनुभव की जाती है ।
किसी भी कमीन अथवा परजन की कभी भी यह इच्छा नहीं होती कि उसक जजमान सेवाओं के बदले में उसको नकद धनराशि प्रदान करे । सेवाओं के प्रतिफल के रूप में जजमान अपनी सेवक परजन जातियों को विभिन्न अवसरों पर फल - फूल , दान - दक्षिणा , अ वस्त्रादि प्रदान करता रहता है ।
इससे स्पष्ट है कि जजमानी प्रथा परम्परागत अर्थव्यवस्था ( Tradi tional Economy System ) पर आधारित होती है । ( ज ) सेवाओं के भुगतान हेतु वस्तुयें – जजमानी व्यवस्था में चूँकि सेवा हेतु एक निश्चित दर पर मौद्रिक मूल्य का प्रचलन नहीं होता है , इसलिए सामान्यतः सेवाओं के भुगतान हेतु प्रायः वस्तुयें ही प्रदान की जाती है । जजमान विभिन्न अवसरों पर परजन जातियों द्वारा प्रदत्त सेवाओं के विनिमय हेतु अन्न , वस्त्र , गृहस्थोपयोगी वस्तुयें , भेट - उपहार , पुरस्कार तथा अन्यान्य वस्तुयें प्रदान की जाती हैं ।
( 7 ) पुरस्कारों में विभिन्नता
जजमानी व्यवस्था में प्रचलित पुरस्कारों की मात्रा भी प्रायः असमान होती है । विभिन्न अवसरों पर जजमानों के द्वारा प्रदान की जाने वाली धनराशि अथवा पुरस्कार , हक , फस्लाना , नेग - न्यौछावर आदि की मात्रा में घटी - बढ़ी होती है ।
सामन्यतः देखा जाता है कि धनी जजमान के मृत्यु संस्कार के अवसर पर ब्राह्मण पुरोहित को एक नाई या धोबी की तुलनाकृत अधिक धनराशि या पुरस्कार प्राप्त होते हैं , जिसके आधार पर यह अधिक लाभकारी आर्थिक स्थिति में रहता है । इस सन्दर्भ में सर्वथा रोचक तथ्य यह है कि जजमान से सम्बन्धित कोई भी कमीन अथवा परजन व्यक्ति इस व्यवस्था को सहर्ष स्वीकार भी कर लेता है ।
( 8 ) कार्य क्षेत्र में विभिन्नता
भारतीय ग्रामीण समाज के सन्दर्भ में प्रचलित जजमानी प्रथानुसार सभी सेवक , परजन या कमीनों का कार्यक्षेत्र सर्वथा पृथक् - पृथक् होता है । यह उनके प्रकार्यात्मक महत्व के कम या अधिक होने पर निर्भर करता है । इसके अतिरिक्त इसका क्षेत्र स्थानीय परिस्थितियों और उनके द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले सेवा कार्य की कुशलता पर भी निर्भर करता है ।
उदाहरणार्थ – नाई जाति के व्यक्ति की आवश्यकता प्रत्येक हिन्दू को जन्म , अन्नप्राशन , यज्ञोपवीत , विवाह तथा मृत्यु संस्कार के अवसरों पर पड़ती ही है , जबकि लोहार , माली या सुनार आदि की आवश्यकता अपेक्षाकृत कुछ कम मात्रा में पड़ती है । इससे स्पष्ट है कि जजमानी व्यवस्था में प्रचलित विभिन्न कार्यक्षेत्रों का महत्व पृथक् - पृथक् होता है।
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