भारत में जाति व्यवस्था में हो रहे परिवर्तन की व्याख्या कीजिए
अन्य संस्थाओं के समान ग्रामीण जीवन में जाति की संरचना तथा इसकी प्रक्रियाओं में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं । विभिन्न विद्वानों ने अपने अध्ययनों के आधार पर इन समस्त परिवर्तनों को अनेक भागों में विभक्त किया है लेकिन ग्रामीण सन्दर्भ में जाति से सम्बन्धित परिवर्तनों की प्रकृति नगरीय जीवन की तुलना में अत्यधिक भिन्न है ।
जाति व्यवस्था परिवर्तन के कारण ( Reasons for change in caste system )
ग्रामीण समुदाय में जाति की परम्परागत भूमिका से सम्बन्धित जो मुख्य परिवर्तन हुए हैं उन्हें निम्नांकित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है।
( 1 ) जाति - संस्तरण में वर्ग
विभाजन का मिश्रण - परम्परागत रूप से ग्रामों में सम्पूर्ण चार मुख्य जातिगत समूहों तथा प्रत्येक मुख्य समूह के अन्तर्गत अनेक उप जातियों के के रूप में विद्यमान थी । यह सम्पूर्ण जातिगत विभाजन इतना श्रेणीबद्ध ( horizon tal ) था कि इसमें किसी प्रकार का सन्देह करना अथवा इस संस्तरण की अवहेलना करना अनैतिकता और सामाजिक अपराध के रूप में देखा जाता था ।
वर्तमान जीवन में विभिन्न जातियों की परम्परागत स्थिति में व्यापक परिवर्तन हुए हैं । इसके फलस्वरूप जाति से सम्बन्धित व्यावसायिक विभाजन लगभग समाप्त हो चुका है तथा खान - पान से सम्बन्धित निषेधों में भी उतनी दृढ़ता नहीं रह गयी है । ग्रामीण संस्तरण आज व्यावहारिक रूप से जाति - विभाजन पर आधारित न होकर वर्ग विभाजन पर आधारित है । अब गाँवों में जो व्यक्ति साधन - सम्पन्न हैं , उनकी स्थिति उच्च जातियों के निर्धन व्यक्तियों से श्रेष्ठ समझी जाने लगी है ।
इसी आधार पर ग्रामीण समाजशास्त्र के अन्तर्गत अब प्रभु - जाति ( dominant caste ) जैसी नई अवधारणा का विकास हुआ है । खाइस रेन ( Bryce Ryan ) ने एक अन्य आधार पर गाँवों में जाति के स्थान पर वर्गों के बढ़ते हुए प्रभाव को स्पष्ट किया है । आपके अनुसार जाति - व्यवस्था का मूल आधार विभिन्न जातियों के बीच एक स्पष्ट सांस्कृतिक भिन्नता का होना है , उनके बीच किसी प्रकार के संघर्षों का होना नहीं ।
इसके विपरीत सामाजिक वर्गों के बीच संघर्ष और पक्षपात के तत्व अवश्य पाये जाते हैं यद्यपि उनके बीच कोई सांस्कृतिक भिन्नता नहीं होती है । वर्तमान स्थिति यह है कि गाँवों में विभिन्न जातियों के बीच सांस्कृतिक दूरी ( अर्थात् विवाह , भोजन और सम्पर्क के प्रतिबन्ध ) बहुत कम हो गई है इसलिए जातिवाद और गुटबन्दी के रूप में विभिन्न जातियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा और संघर्ष की मात्रा में वृद्धि हुई है । इसका तात्पर्य है कि गाँवों में भी जाति - संस्तरण अब वर्ग - विभाजन के रूप में स्पष्ट होने लगा है ।
( 2 ) जातिगत संस्तरण में अस्पष्टता -
परम्परागत रूप से भारतीय गाँवों में विभिन्न जातियों का सामाजिक संस्तरण पूर्णतया निश्चित था तथा सभी जातीय समूह एक - दूसरे से श्रेष्ठता और अधीनता के सम्बन्धों द्वारा सम्बन्धित थे । वर्तमान ग्रामीण समुदाय में जातियाँ आज भी विद्यमान हैं लेकिन निम्न जातियों द्वारा अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के प्रयत्नों के कारण यह संस्तरण बहुत अस्पष्ट तथा अप्रभावी हो गया है ।
आज एक जाति दूसरी जाति को अपने से उच्च मानकर उसका आधिपत्य स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है । सभी जातियाँ समान अधिकारों का दावा करने लगी हैं । गाँवों के अनेक शिक्षित तथा विवेकशील लोगों ने भी इस स्थिति से समझौता करना आरम्भ कर दिया है ।
व्यक्तिगत स्तर पर अब गाँवों में भी जाति - परिवर्तन की घटनाओं में वृद्धि होने लगी है तथा ऐसा कोई प्रभावपूर्ण संगठन नहीं रह गया है जो अपनी परम्परागत जातिगत स्थिति में परिवर्तन करने वाले व्यक्तियों को दण्डित कर सके । इसके परिणामस्वरूप जातिगत में विभाजन केवल एक सिद्धान्त के रूप में प्रचलित है , एक सांस्कृतिक और धार्मिक संस्था के रूप नहीं ।
( 3 ) जातिगत मान्यताओं में शिथिलता
परम्परागत रूप से जाति - व्यवस्था की सम्पूर्ण स्थिरता तीन प्रमुख मान्यताओं तथा नियमों पर आधारित थी । इन्हें हम विवाह , खान - पान तथा सामाजिक सम्पर्क से सम्बन्धित नियम कह सकते हैं । यह सच है कि गाँवों में आज भी अन्तर्विवाह , कुलीन - विवाह तथा अन्य वैवाहिक नियमों का कठोरता से पालन किया जाता है।
लेकिन बाल - विवाह कच्चे और पक्के तथा विधवा पुनर्विवाह पर नियन्त्रण की मान्यताएँ अब शिथिल पड़ने लगी भोजन का निषेध अब गाँवो में इतना दुर्बल पड़ गया है कि अनुसूचित जातियों को छोड़कर अन्य जातियों के बीच खान - पान को लेकर कोई स्पष्ट विभेद देखने को नहीं मिलता ।
परम्पराओं से बँधे हुए कुछ वृद्ध व्यक्तियों द्वारा आज भी खान - पान के नियन्त्रण का ध्यान रखा जाता है लेकिन उन्हीं के परिवार में युवा पीढ़ी के व्यक्ति इन नियन्त्रणों से मुक्त होने जा रहे हैं । विभिन्न जातियों के बीच में सामाजिक सम्पर्क के क्षेत्र में भी विस्तार हुआ है ।
( 4 ) व्यावसायिक आधार पर परिवर्तन जाति
व्यवस्था के प्रभाव से कुछ समय पहले तक कोई व्यक्ति गाँव में अपने परम्परागत व्यवसाय में परिवर्तन करने का साहस नहीं कर सकता था । आज गाँव के अन्दर ही बहुत सी जातियाँ स्वतन्त्र रूप से व्यवसाय का चुनाव करने लगी है । निम्न जातियों के अनेक व्यक्ति अपने परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर खेती , दस्तकारी तथा कुटीर के द्वारा आजीविका उपार्जित करने लगे हैं ।
इसी प्रकार उच्च जातियों के अनेक व्यक्ति उद्योगों पुरोहिती और साहूकारी का कार्य छोड़कर अब या तो मध्यम श्रेणी के कृषक बन गये हैं अथवा समीपवर्ती नगरों में जाकर विभिन्न सेवाओं के द्वारा आजीविका उपार्जित करने लगे हैं । व्यवसाय से सम्बन्धित पवित्रता और अपवित्रता की धारणाएँ भी परिवर्तित होने लगी हैं । वास्तविकता तो यह है कि व्यावसायिक आधार पर जाति व्यवस्था की सम्पूर्ण संरचना तथा स्तरीकरण के प्रतिमान आज पूर्णतः टूट चुके हैं ।
( 5 ) जातिगत मनोवृत्तियों में परिवर्तन
जब कभी किसी समुदाय अथवा समूह के लोगों की मनोवृत्तियों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक संस्थाओं का परम्परागत स्वरूप भी बदलने लगता है । ग्रामीण समुदाय में भी अब ग्रामीणों की मनोवृत्तियाँ बड़ी तेजी से बदल रही हैं । शिक्षा के प्रसार तथा नगरीकरण की प्रक्रिया के प्रभाव से अब जाति - व्यवस्था को एक अलौकिक संस्था के रूप में नहीं देखा जाता ।
जाति व्यवस्था से सम्बन्धित उन विश्वासों का प्रभाव भी कम हो रहा है जिन्हें पौराणिक गाथाओं के आधार पर कुछ समय पहले तक बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता था । अब किसी भी ऐसे व्यक्ति को अधिक सम्मान दिया जाने लगा है जो प्रतिभाशाली , कुशल , साहसी , और सम्पन्न हों । इसका तात्पर्य है कि अब धीरे - धीरे जन्म के स्थान पर ' कर्म ' अथवा ' श्रम ' का महत्व बढ़ने है ।
( 6 ) जाति संगठनों का ह्रास
भारत के गाँवों में जाति व्यवस्था को स्थायी बनाये रखने में विभिन्न संगठनों का बहुत बड़ा योगदान था । जाति - पंचायतें तथा जाति - संघ व्यक्ति को जाति बहिष्कार , जाति - भोज , आर्थिक दण्ड और तरह - तरह के प्रायश्चितों का भय दिखाकर उसे जाति के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य करते रहते थे ।
आज जातिगत संगठनों के अधिकार व्यावहारिक रूप से समाप्त हो चुके हैं जबकि दूसरी जाति - पंचायतों का तेजी से विघटन हो रहा है । जिन गाँवों में जाति - पंचायतें अपने अस्तित्व को बनाये हुए सिद्ध हो रहे हैं इस परिवर्तन के फलस्वरूप जाति - व्यवस्था को बनाये रखने वाला सबसे महत्वपूर्ण वहाँ भी उनके निर्णय अप्रभावशाली आधार लगभग टूट चुका है ।
( 7 ) जाति - विभाजन का राजनीतिक दबाव
समूहों के रूप में परिवर्तन गाँवों में जाति - व्यवस्था से सम्बन्धित इन सभी परिवर्तनों के पश्चात् भी विभिन्न जातियाँ विद्यमान हैं तथा उच्च जातियाँ अपने परम्परागत अधिकारों को बनाये रखने के लिए आज भी प्रयत्नशील हैं । इसके पश्चात् भी विभिन्न जातियों का विभाजन आज एक सांस्कृतिक संस्था के रूप में विद्यमान नहीं है बल्कि यह विभिन्न राजनीतिक दबाव - समूहों के रूप में परिवर्तित हो रही हैं ।
यह स्थिति गाँवों में अनेक नई प्रवृत्तियों को जन्म दे रही है । सर्वप्रथम जाति से सम्बन्धित विभाजन को आज किसी धार्मिक अथवा सांस्कृतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए साधन के रूप में नहीं देखा जाता बल्कि इसका प्रयोग राजनीतिक और आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए ही किया जा रहा है । दूसरा तथ्य यह है कि किसी जाति की शक्ति अब जाति - व्यवस्था के परम्परागत स्वरूप से निर्धारित नहीं होती बल्कि बहुमत और अल्पमत के आधार पर निर्धारित होती है ।
गाँवों में जिस जाति के सदस्यों की संख्या सबसे अधिक होती है , उसका राजनीतिक महत्व बढ़ जाने के कारण अन्य जातीय समूहों पर भी उसका एक स्पष्ट दबाव देखने को मिलता है । अब ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है जब निम्न जातियों के सदस्य अधिक संख्या में होने के फलस्वरूप चुनाव और मतदान के दूसरे अवसरों पर उन्न जातियों पर अपना पन्त स्थापित कर लेते हैं । इसके अतिरिक्तन साँतों में एक ऐसे नेतृत्व का भी विकास हुआ है जो विशुद्ध रूप से राजनीतिक है , धार्मिक अथवा जाति - व्यवस्था पर आधारित नहीं ।
निष्कर्ष-
भारतीय गाँवों की जाति - व्यवस्था से सम्बन्धित इस सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि ग्रामी में जाति आज भी सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रमुख आधार है लेकिन इसके प्रकार्यों तथा संरचना महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुके हैं । वास्तविकता तो यह है कि भारतीय ग्रामीण संरचना की निरन्तरता एवं परिवर्तनशीलता को बनाये रखने में जाति की भूमिका आज भी महत्वपूर्ण है ।
अपनी परम्परागत विशेषताओं के द्वारा जाति - व्यवस्था ग्रामीण जीवन की निरन्तरता को बनाये हुए है जबकि अनेक परिवर्तनशील तत्वों को ग्रहण करके इसने सामाजिक प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त किया है । भारतीय ग्रामों में जाति - व्यवस्था की भूमिका तथा ग्रामीण सामाजिक संरचना में इसके वास्तविक योगदान को समझने के लिए उन जाति - पंचायतों की विवेचना करना आवश्यक है जो एक लम्बे समय तक ग्रामीण जीवन का अभिन्न अंग बनी रहीं ।
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