भारत में कृषक समाज की अवधारणा की प्रासंगिकता स्पष्ट कीजिए । अथवा कृषक समाज की अवधारणा का विश्लेषण कीजिए तथा कृषक समाज की आधारभूत विशेषताओं को समझाइए ।
कृषक समाज की अवधारणा को समझने के लिए हमको सर्वप्रथम " कृष्क " शब्द का भी अर्थ समझना चाहिए । समाजशास्त्री रेमण्ड फर्थ ने कृषक शब्द को ऐसे लोगों के लिए प्रयोग करने का परामर्श दिया है , जो कि केवल मात्र अपने ही उपभोग या उपयोग हेतु अन्नोत्पादन करते हैं । इस परिधि में वह समस्त लाखों - करोड़ों व्यक्ति सम्मिलित हो सकते हैं , जो कि विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों का उत्पादन करते हैं , भले ही वे मछुवारे ही क्यों न हों।
राबर्ट रेडफील्ड ने इसमें कुछ संशोधन किया है तथा अन्नोत्पादन करने वाले सभी व्यक्तियों को इस परिधि में सम्मिलित नहीं किया है । राबर्ट रेडफील्ड के विचारानुसार इस परिधि के परिप्रेक्ष्य में केवल मात्र वही लोग आने चाहिए , जो भूमि पर कृषि कार्य करके अपना जीविकोपार्जन करते हों ।
स्वयं उनके ही शब्दानुसार- " जैसा कि अब मेरा विचार है कि कृषक गुच्छ में उन्हीं लोगों का समावेश किया जाना चाहिए जो कम से कम इस बात में तो समान है कृषि उनकी जीविका का साधन तथा जीवन शैली है , लाभ हेतु व्यापार उनकी प्रवृत्ति नहीं है ।
हम यह कह सकते हैं कि जो कृषक पूँजी को पुनः लगाने और व्यापार हेतु कृषि करते हैं तथा जो भूमि को पूँजी और पण्य के रूप में देखते हैं , वह कृषक नहीं , अपितु भूमिपति है । " इससे यह स्पष्ट होता है कि कृषक ( Peasant ) और भूमिपति ( Farmer ) दोनों ही सर्वथा पृथक - पृथक प्रत्यय हैं ।
वास्तविकता भी यही है कि जो व्यक्ति पूँजी और पण्य ( Capital & Property ) के स्वरूप में भूमि का स्वामी होता है , वह वास्तविक अर्थ में कृषक कम और सम्पत्तिवान् अधिक होता है ।
राबर्ट रेडफील्ड ने कृषक शब्द की अवधारणा को और अधिक स्पष्ट करते हुए आगे लिखा है— “ कृषक की कल्पना एक ऐसे व्यक्ति के रूप में मन में उत्पन्न होती है , जो कि भूमि के एक भाग का स्वामी है तथा जिसका उस भूमि के साथ परम्परा और भावना द्वारा गहरा सम्बन्ध स्थापित होता है ।
इस प्रकार भूमि और कृषक एक ही वस्तु के सम्बन्धों की एक ही पुरातन व्यवस्था के दो भाग हैं । विचार की इस विधि से यह अपेक्षित नहीं होता है कि कृषक भूमि का स्वामी हो अथवा उसको भूधृति ( Landholding ) का कोई विशिष्ट अधिकार प्राप्त हो अथवा बड़े भूमिपतियों तथा नगर निवासियों से उनके किसी विशेष प्रकार के संस्थागत सम्बन्ध स्थापित हों । " इस आधार पर कृषक की निम्नांकित विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है-
( 1 ) कृषक ऐसा व्यक्ति होता है , जिसका भूमि पर कुछ अंशों तक स्वामित्व सम्बन्धी अधिकार स्थापित होता है ।
( 2 ) वह पूर्णरूप से भूमि का अधिकारी और स्वामी नहीं होता है ।
( 3 ) भूमि के प्रति वह परम्परा और भावना के द्वारा जुड़ा होता है ।
( 4 ) उसके पारस्परिक सम्बन्ध भी बड़े भूमिपतियों और नगर निवासियों से विशिष्ट प्रकार के नहीं होते हैं ।
राबर्ट रेडफील्ड ने इस संदर्भ में यूरोप के बल्गारिया नामक देश के किसानों का उदाहरण प्रस्तुत किया है , जो कि सीधे और प्रत्यक्ष रूप से नगर के बाजारों में ही अपनी - अपनी उपजों का विक्रय करते हैं तथा भूमि के स्वामी भी नहीं होते हैं ।
रेडील्ड ने लिखा है कि— " एक कृषक समुदाय अंशतः आसामियों और अनधिकृत कृषकों के द्वारा भी निर्मित हो सकता है यदि भूमि पर उनका इस प्रकार के नियंत्रण हो कि वे अपनी सामान्य और परम्परागत जीवन पद्धति से रह सके । जिस जीवन पद्धति कृषि से तो उनका घनिष्ठ सम्बन्ध हो , तथापि वह उनके व्यापार का साधन न हो ।
" राबर्ट रेडफील्ड ने कृषक शब्द की इस स्पष्ट व्याख्या के पश्चात् यूरोपीय समाजों के अंतर्गत पाये जाने वाले कृषक वर्ग से संबंधित कतिपय सामाजिक संस्थाओं का भी वर्णन किया है तथा यह बताया है कि सामन्तवाद की अवधि में कृषक की स्थिति और सामन्तों तथा अभिजातों के प्रति कृषकों के सामाजिक सम्बन्धों तथा व्यवहार के संदर्भ में ही कृषक समाज की अवधारणा को स्पष्ट किया जा सकता है ।
इस संबंध में रेडफील्ड के विचारानुसार यह चिन्तन केवल मात्र कृषक वर्ग पर ही सम्भव प्रतीत होता है . कि यूरोपियन ग्रामीणों के उन जटिलतम संस्थाओं के ताने - बाने के साथ स्थापित सम्बन्ध पर ही विचार किया जाये , जिसको सामन्तवादी संस्थाओं के नाम से पहचाना जाता है ।
कोई भी विद्वान यदि यह चिन्तन सामन्तवाद की ओर से प्रारम्भ करे, तो यह सर्वप्रथम कृषक को कदापि पारिभाषित नहीं करेगा , अपितु इसके स्थान पर वह राजनैतिक सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था को ही पारिभाषित करेगा , जिसमें कृषक वर्ग एक भाग से अधिक नहीं होगा । इस प्रकार पर हम कृषक समाज को एक " आंशिक समाज ” अथवा Partly Society भी कह सकते हैं ।
राबर्ट रेडफील्ड ने “ वोल्फ ' द्वारा प्रतिस्थापित कृषक की अवधारणा का दृढ़ समर्थन किया है, जिसके विचारानुसार कृषक अन्न की उत्पत्ति करने वाला और खेती से घनिष्ठ स्थापित करते हुए जीवन-यापन करने वाला एक व्यक्ति होता है । क्रोबर के मतानुसार– “ कृषक लोग निश्चय ही ग्रामीण हैं , किन्तु इसके बावजूद भी वे नगर के बाजारों के साथ संघर्षरत होते हैं । वे एक वृहत्तर जन समुदाय के वर्गांश मात्र ही होते हैं , जिसमें सामान्य रूप से नागरिक केन्द्रों तथा यदा - कदा महानगरों का भी समावेश होता है ।
वे अंगभूत संस्कृतियों वाले अंग या आंशिक समाज होते हैं। " अपने इस मत के समर्थन में समाजशास्त्री क्रोबर ने ग्रामीण-नगरीय सम्बन्धों को प्रस्तुत किया है तथा यह भी स्पष्ट किया है कि कृषक व्यक्तियों को निरन्तर अपने जीविकोपार्जन हेतु अपनी उत्पादित उपज या फसल के विक्रय में नगर स्थित बाजारों से संघर्ष करना पड़ता है और इस प्रक्रिया में उनको नागरिक केन्द्रों के द्वारा शोषण का शिकार भी बनना पड़ता है । कृषकों की अपनी एक विशिष्ट और पृथक संस्कृति भी होती है ।
रेडफील्ड ( Redfield ) ने इस परिप्रेक्ष्य में भारत, जापान, चीन और अन्य मुस्लिम विश्व के कृषकों को प्रस्तुत किया है । हमारे वास्तविक लघु समुदायों का यह गुच्छ वर्तमान युग के संदर्भ में पर्याप्त रूप से सम्यक् बन चुका है । प्राचीन सभ्यताओं के परिप्रेक्ष्य में ग्रामीणजन अपने जीवन निर्वाह हेतु अपनी भूमि का नियंत्रण करते हैं तथा उस पर कृषि कार्य करते हैं और इस प्रक्रियानुसार भूमिपतियों और नागरिकों पर आधारित और प्रभावित होते हैं , जिनकी जीवन पद्धति उनके अनुरूप तथा अपेक्षाकृत अधिक सुसंस्कृत भी होती है ।
इस प्रकार के लघु समुदायों के परिप्रेक्ष्य में वह व्यक्ति भी सम्मिलित हो जाते हैं , जो कि एक अल्प अथवा अर्द्धविकसित देश के निवासी होते हैं । भारतीय समाज में प्रचलित जमींदारी व्यवस्था इसका ज्वलन्त उदाहरण है , जिसके अंतर्गत किसी कृषक व्यक्ति की स्थिति वस्तुतः भूमि जोतने अथवा खेती करने वाले एक - एक किरायेदार आसामी की होती थी तथा जो इस प्रकार से सामन्तवादी व्यवस्था के सदृश सामाजिक दशाओं में जीवन यापन करते थे ।
कृषक समाज से संबंधित इस विशद् व्याख्या के सबसे आखिरी पृष्ठों पर राबर्ट रेडफील्ड ने यह प्रश्न प्रस्तुत किया है कि कृषक समुदाय को सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था के स्वरूप में समझा जाना चाहिए अथवा एक सामाजिक संरचना के रूप में ?
कृषक ग्राम अपने से बाहरी व्यक्तियों एवं संस्थाओं के साथ संबंधित होने के आधार पर एक ऐसी अपूर्ण व्यवस्था होती है कि उसको उपयुक्त रूप से सामाजिक संरचना भी नहीं कहा जा सकता है । स्वयं रेडफील्ड के शब्दानुसार— “ प्रत्येक कृषक समाज हमारे अध्ययन हेतु आर्थिक क्रिया का एक क्षेत्र प्रस्तुत करता है।
जो कि कुछ सीमा तक उस आदिम समाज को , जो क्रियाओं का घनिष्ठ रूप से गठित समवाय होता है , विशेषित करता है । " राबर्ट रेडफील्ड ने आर्थिक क्षेत्र के संदर्भ में यह मत प्रस्तुत किया है कि यह क्षेत्र वस्तुतः पूर्णतया आर्थिक नहीं था तथा लोग जमींदारों के पारिवारिक क्षेत्र में भी प्रवेश प्राप्त करते थे ।
इसी प्रकार कुछ कृषकों के जमींदारों के साथ घनिष्ठ एवं स्थाई सम्बन्ध भी स्थापित होते थे , जो कि आंशिक रूप से उपयोगी और सांस्कृतिक ही होते थे । इस प्रकार से दोहरे समाज के दो अशि अर्थात् कृषक और जमींदार के मध्य एक सर्वथा पृथक विश्लेषणात्मक स्तरीय क्षेत्र के माध्यम से ही संपर्क स्थापित होता था , तथापि यह एक ऐसा क्षेत्र था , जिसमें जमींदार वर्ग के द्वारा प्रस्तुत प्रथा और व्यवहार के विभिन्न उदाहरण कृषक वर्ग को पूर्णरूपेण प्रभावित करते थे ।
कृषक समाज एक समुदाय के रूप में ( Peasant Society as a Community )
कतिपय विद्वानों ने कृषक समाज को एक ग्राम समुदाय के रूप में इसलिये स्वीकृत किया है , कि इसमें समुदाय के निम्नांकित सभी तत्व सम्मिलित होते हैं
( क ) निश्चित और सामान्य भू - भाग
( ख ) सामान्य जीवन ( Common Life )
( ग ) मानव समूह का अस्तित्व
( घ ) सामुदायिक भावना ( Community Feelings )
( च ) ग्रामीणत्व ( Ruralism )
भारतीय कृषक समाज की प्रमुख विशेषताएँ ( Salient Features of Indian Peasant Society )
भारतीय कृषक समाज में निम्नांकित प्रमुख विशेषताएँ पाई जाती हैं-
( 1 ) प्रकृति से निकटता ( Proximity with Nature ) -
भारतीय कृषक समाज प्रकृति से अत्यधिक घनिष्ठ रूप में संबंधित है । कृषक समाज के परिप्रेक्ष्य में नित्य प्रति के होने वाले कार्यों के संदर्भ में भूमि , जलवायु , वनस्पति , पशु - पक्षी आदि के द्वारा संपूर्ण कृषक समाज प्रकृति से प्रभावित रहता है । इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय कृषक प्रकृति से घनिष्ठ रूप से संबंधित है ।
( 2 ) कृषि एक मुख्य व्यवसाय है ( Agriculture is a Main Occupation ) -
भारतीय कृषक समाज का सर्वप्रमुख और एकमात्र मुख्य व्यवसाय कृषि है , इसलिए ही इसको कृषक या ग्रामीण समाज कहा जाता है ।
( 3 ) सीमित आकार ( Limited Size ) —
यद्यपि कृषि हेतु अत्यधिक बड़ी मात्रा में भूमि की आवश्यकता पड़ती है , तथापि भारतीय कृषक समाज का आकार सामान्यतः सीमित और लघु ही अधिक होता है ।
( 4 ) जनसंख्या का कम घनत्व ( Less Density of Population )-
भारतीय नगरीय समाजों की अपेक्षाकृत कृषक समाज में जनसंख्या का घनत्व काफी कम पाया जाता है , जिसके आधार पर ग्रामीण जीवन में नगरों की भाँति अधिक गहमा - गहमी या चहल - पहल भी नहीं होती है ।
( 5 ) गतिशीलता का अभाव ( Lack of Mobility )-
भारतीय कृषक समान अधिक गतिशील भी नहीं है , क्योंकि कृषि कार्यों से संलिप्त रहने के कारण उनके अन्तःसम्बन्ध सीमित होते हैं ।
( 6 ) श्रम - विशेषीकरण का अभाव ( Lack of Labour- Specialization ) –
भारतीय कृषक समाज में श्रम का विशेषीकरण नहीं पाया जाता है , क्योंकि कृषक समाज में जो कुछ कृषि और घरेलू कार्य होते हैं , वह सभी पारिवारिक सदस्यों के द्वारा सम्मिलित रूप से मिल - जुल कर सम्पन्न कर लिये जाते हैं ।
( 7 ) जनसंख्यात्मक समरूपता ( Populative Homogeneity ) -
कृषक समाज में जनसंख्या सम्बन्धी एक विशेष समरूपता भी निहित है । इसका प्रमुख कारण यह होता है कि भारतीय कृषक समाज के लगभग समस्त सदस्यगण व्यवसाय , आवास-निवास, रहन-सहन तथा विचार - विश्वास आदि में एक समान ही होते हैं ।
( 8 ) जाति व्यवस्था ( Caste System ) –
भारतीय कृषक समाज की एक अन्य प्रमुख विशेषता यह भी होती है कि अभी तक इसका संपूर्ण ढांचा परम्परागत रूप से प्रचलित जाति व्यवस्था पर ही आधारित है । कृषक समाज में प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक स्थिति लिंग , जन्म तथा वंश आदि तत्वों के आधार पर ही निश्चित होती है ।
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