ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति पर प्रकाश डालिए
ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति: ग्रामीण समाजशास्त्र के अर्थ, विकास एवं विषय-क्षेत्र को स्पष्ट करने के पश्चात् एक महत्वपूर्ण प्रश्न इसकी प्रकृति के सन्दर्भ में उत्पन्न होता है । जिस प्रकार समाजशास्त्र की प्रकृति को लेकर विद्वानों में लम्बे समय तक विवाद चलता रहा, उसी प्रकार ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति भी विवाद का विषय रही है।
कुछ विद्वान इस पक्ष में है कि ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक नहीं है परन्तु अधिकांश विद्वानों की यह धारणा है कि ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति में सभी वैज्ञानिक विशेषताएँ विद्यमान हैं। आरम्भ में जैसा जो विषय वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करता है वह विज्ञान है, चाहे उसकी विषय-सामग्री कुछ भी क्यों न हो? ग्रीन ने अपनी पुस्तक ( Sociology ) में लिखा है, " विज्ञान अनुसंधान की एक पद्धति है । "
कार्ल पियर्सन ( Karl Pearson ) ने अपनी रचना ( Grammar of Sciene ) में लिखा है , " समस्त विज्ञान की एसकता केवल उसकी पद्धति में है न कि उसकी विषय - सामग्री में। " इसी प्रकार ( Carr ) के अनुसार , " प्रत्येक विज्ञान संसार की ओर एक ढंग, दृष्टिकोण, एक प्रमाणित एवं व्यवस्थित ज्ञान और खोज करने की पद्धति है । "
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वह विषय विज्ञान है जो अपनी विषय सामग्री का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। यदि हम ग्रामीण समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धतियों पर दृष्टिपात करें तो हमको यह ज्ञात होगा कि ये पद्धतियाँ वैज्ञानिकता लिये हुए हैं। इसलिए ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति को वैज्ञानिक कहा जाता है और फिर ग्रामीण समाजशास्त्र वैज्ञानिक पद्धति के उन चरणों ( Steps ) को अपनाता है जिनका प्रयोग विज्ञान में होता है ।
वैज्ञानिक पद्धति के चरण
वैज्ञानिक पद्धति के चरण को निम्नलिखित प्रकार से दिखाया जा सकता है-
1. अध्ययन विषय का चुनाव-
सर्वप्रथम अध्ययन विषय का चुनाव करना होता है । इस दिशा में अत्यन्त सावधानी बरतने की आवश्यकता है । यदि विषय का चुनाव ठीक नहीं हुआ है तो अनुसंधान के परिणाम दोषपूर्ण हो सकते हैं ।
2. उपकल्पना का निर्माण-
वैज्ञानिक पद्धति द्वारा किसी भी विषय का अध्ययन करने के पूर्व कुछ उपकल्पनाओं का निर्माण किया जाता है । उपकल्पनाएँ वे पूर्व विचार एवं सामान्यीकरण हैं जिनके सत्यापन को अभी परखना शेष है ।
3. यन्त्रों या साधनों का चुनाव -
अध्ययन - विषय चुनने और उपकल्पना निर्माण के पश्चात् उन यंत्रों अथवा साधनों का चुनाव करना होता है जिनको अध्ययन के काम में लाया जायेगा ।
4. निरीक्षण –
वैज्ञानिक पद्धति का यह चरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसकी महत्ता के सन्दर्भ में गुड और हाट ( Good and Hatt ) ने लिखा है , " विज्ञान अवलोकन से प्रारम्भ होता है और अपने अन्तिम निष्कर्ष के सत्यापन के लिए इसे पुनः अवलोकन में ही लौट जाना पड़ता है । " निरीक्षण में अनुसंधानकर्ता क्षेत्र का अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा निरीक्षण करता है । अवलोकन दो प्रकार का होता है—
( क ) भागीदारी निरीक्षण - इसमें अनुसन्धानकर्ता अध्ययन - क्षेत्र में क्षेत्रवासियों के साथ काफी समय तक रहता है , उसकी प्रथाओं , परम्पराओं, रीति - रिवाजों , त्योहारों इत्यादि में भाग लेता है ।
( ख ) अभागीदारी निरीक्षण- इनमें अनुसन्धानकर्ता केवल समय - समय पर क्षेत्र में जाकर निरीक्षण करता है ।
निरीक्षण चाहे भागीदारी हो अथवा अभागीदारी यह या तो नियन्त्रित होता है या अनियन्त्रित अवलोकन में किसी बाहरी शक्ति द्वारा अवलोकन को नियन्त्रित किया जाता है । अनियन्त्रित में ऐसा नहीं होता – अवलोकन स्वतन्त्रतापूर्वक होता है ।
5. निरीक्षणों का लिखना-
निरीक्षण करते समय अनुसन्धानकर्ता अनेक अवलोकनों को मोटे तौर पर लिख लेता है ताकि वह भूल न जाये । अवलोकन लिखते अत्यन्त सावधानी बरतनी चाहिए - नहीं तो दोषपूर्ण परिणाम निकलेंगे । परन्तु यह एकत्रित की हुई या लिखी हुई सामग्री छितरी हुई अवस्था में होती है ।
6. वर्गीकरण - छितरी हुई एवं तितर -
बितर सामग्री का वर्गीकरण किया जाता है अर्थात् उसको उचित , संगठित एवं वैज्ञानिक रूप से दिया जाता है । उन्हें इस ढंग से तार्किक समूहों में व्यवस्थित कर लिया जाता है कि सम्बन्ध और प्रतिमान उत्पन्न हो सकते हैं । एक प्रकार और एक गुणवाली वस्तुएँ एक खाने में दूसरे प्रकार और गुणवाली वस्तुएँ दूसरे खाने में सामग्री को व्यवस्थित कर वैज्ञानिक रूप दे दिया जाता है । इस प्रकार
7. सामान्यीकरण- एकत्रित सामग्री के व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक रूप का भली - भाँति अध्ययन किया जाता है । पुस्तकों और रचनाओं इत्यादि की सहायता से सामान्य नियम अथवा अन्तिम निष्कर्ष निकाले जाते हैं । बाद में ये नियम सत्य सिद्ध होने के पश्चात् सिद्धान्त बन जाते हैं । इस प्रकार सामान्यीकरण वैज्ञानिक पद्धति का अन्तिम चरण है ।
ग्रामीण समाजशास्त्र वैज्ञानिक पद्धति के चरणों को अपनाता है । ग्रामीण समाजशास्त्र अपने विषयों के अध्ययन हेतु उपरलिखित वैज्ञानिक चरणों को अपनाता है । इसी कारण इसकी प्रकृति भी वैज्ञानिक है । अब हमें यह देखना है कि वैज्ञानिक पद्धति के चरणों ( Steps ) को ग्रामीण समाजशास्त्र अपने अध्ययन हेतु किस प्रकार अपनाता है ।
उदाहरण के तौर पर एक ग्रामीण समाज में बाल अपराधों का अध्ययन करना है । विषय के चुनने के पश्चात् उपकल्पनाओं का निर्माण करना होता है। अध्ययन के पूर्व हम अनेक विचारों को मस्तिष्क में लाते हैं । किन - किन कारणों से बाल अपराध हो सकते हैं? हो सकता है परिवार इनके लिए उत्तरदायी हों , मित्र और संगत अथवा आर्थिक स्थिति या कोई अन्य कारण इसके लिए उत्तरदायी हों ।
क्या ग्रामीण समाजशास्त्र एक विज्ञान है ?
विज्ञान तथा वैज्ञानिक पद्धति की प्रकृति को समझ लेने के पश्चात् यह महत्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या ग्रामीण समाजशास्त्र को एक विज्ञान कहा जा सकता है ? इस प्रश्न का समुचित उत्तर देने के लिए आवश्यक है कि ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति का विज्ञान की कसौटियों पर मूल्यांकन किया जाए । ग्रामीण समाजशास्त्र की निम्नांकित विशेषताएँ ये हैं जो उसे निश्चित रूप से एक विज्ञान के रूप में स्पष्ट करती हैं
( क ) ग्रामीण समाजशास्त्र वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है -
ग्रामीण समाजशास्त्र के अन्तर्गत जिन तथ्यों को एकत्रित किया जाता है उनका आधार विशुद्ध रूप से वैज्ञानिक पद्धति तथा वैज्ञानिक प्रवृत्ति है । यह सच है कि एक नवीन विषय होने के कारण इसके अन्तर्गत अत्यधिक विकसित पद्धतियों का उपयोग नहीं किया जा सकता है । इसके पश्चात् भी ग्रामीण समाजशास्त्र नवीन पद्धतियों की खोज में निरन्तर संलग्न है ।
इस समय सांख्यिकी पद्धति ( Statistical Method ), सामाजिक सर्वेक्षण पद्धति ( Social Survey Method ) , अवलोकन पद्धति ( Ob servation Method ), वैयक्तिक अध्ययन पद्धति ( Case Study Method ), ऐतिहासिक पद्धति ( Historical Method ) तथा समाजमिति ( Sociometry ) आदि वे प्रमुख वैज्ञानिक पद्धतियाँ हैं जिनके माध्यम से अध्ययनकर्ता ग्रामीण मानव, उसके पर्यावरण तथा ग्रामीण तथ्यों का अध्ययन करता है ।
( ख ) ग्रामीण समाजशास्त्र ' क्या है ' का विवेचन करता है-
जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान केवल यथार्थ परिस्थितियों के अध्ययन से सम्बन्धित है , उसी प्रकार ग्रामीण समाजशास्त्र में भी केवल ' क्या है ' का वर्णन किया जाता है , ' क्या होना चाहिए ' का नहीं । इसका तात्पर्य है कि ग्रामीण समाजशास्त्र किसी कल्पना अथवा सुधार की प्रान्ति को उतना महत्व नहीं देता जितना कि ग्रामों में विद्यमान यथार्थ दशाओं के अध्ययन को उदाहरण के लिए , ग्राम्य जीवन , ग्रामीण समस्याओं तथा विकास योजनाओं को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है , यह दशाएँ चाहे संगठनकारी हो अथवा विघटनकारी ।
( ग ) ग्रामीण समाजशास्त्र कार्य -
कारण के सम्बन्धों की विवेचना करता है -कार्य कारण का अर्थ है किसी घटना के वास्तविक कारणों तथा परिणामों को ज्ञात करके उनके सह सम्बन्धों को स्पष्ट करना । वास्तविकता यह है कि प्रत्येक घटना किसी न किसी कारण से प्रभावित होती है एवं प्रत्येक घटना कुछ निश्चित परिणामों को जन्म देती है । ग्रामीण समाजशास्त्र , ग्रामीण पर्यावरण के अन्तर्गत कार्य - कारण के इस सम्बन्ध की विवेचना को सर्वाधिक महत्व देता है ।
वास्तविकता यह है कि ग्रामों में आज पंचायती राज , सामुदायिक विकास , सहकारिता भूवान तथा समन्वित ग्रामीण विकास आदि से सम्बन्धित किसी भी योजना को तब तक सही दिशा नहीं दी जा सकती जब तक इनसे सम्बन्धित कार्य - कारणों की समुचित वैज्ञानिक विवेचना न कर ली जाए । इस विशेषता के आधार पर भी ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक बन जाती है ।
( घ ) सिद्धान्तों की सार्वभौमिकता-
विज्ञान की महत्वपूर्ण विशेषता इससे सम्बन्धित नियमों अथवा सिद्धान्तों का सार्वभौमिक होना है । ग्रामीण समाजशास्त्र के अन्तर्गत विभिन्न अध्ययनों के आधार पर जिन सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है उनकी प्रकृति बहुत बड़ी सीमा तक सर्वव्यापी होती है। इसका तात्पर्य यह है कि एक विशेष ग्रामीण पर्यावरण में ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित जिन सिद्धान्तों का निर्माण हुआ है, वे सिद्धान्त उन्हीं के समान किसी भी दूसरे पर्यावरण में उतना ही सत्य प्रमाणित होते हैं ।
( च ) सिद्धान्तों की पुनर्परीक्षा -
ग्रामीण समाजशास्त्र सिद्धान्तों की परीक्षा एवं पुनर्परीक्षा को भी अत्यधिक महत्व देता है । एक ग्रामीण समाजशास्त्री अपनी परिकल्पना के आधार पर तथ्यों को एकत्रित करके उनका वर्गीकरण अथवा सामान्यीकरण करता है । इसके पश्चात् वह अन्य क्षेत्रों एवं अन्य समूहों के अन्तर्गत अपने सामान्य निष्कर्षे अथवा सिद्धान्तों की सत्यता की पुनर्परीक्षा करता है ।
पुनर्परीक्षा के पश्चात् यदि समय, स्थान अथवा परिस्थिति के अनुसार सिद्धान्तों में परिवर्तन की आवश्यकता होती है तो उनमें वैज्ञानिक आधार पर संशोधन किया जाता है। इस विशेषता के आधार पर भी ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति वैज्ञानिक बन जाती है ।
( छ ) ग्रामीण समाजशास्त्र में भविष्यवाणी करने की क्षमता है -
भविष्यवाणी विज्ञान का धारभूत तत्व है । विभिन्न अध्ययनों के आधार पर ग्रामीण समाजशास्त्र जो सामान्य निष्कर्ष प्रस्तुत करता है वे भविष्य की सम्भावनाओं पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं । यह सम्भव है कि भविष्य में यह परिणाम पूर्णतया सत्य न हों लेकिन सच तो यह है कि प्राकृतिक विज्ञान से सम्बन्धित पूर्वानुमानों में भी कुछ परिवर्तन अवश्य देखने को मिलते हैं। वास्तव में भविष्यवाणी पूर्णतया अपरिवर्तनशील तथ्य नहीं है बल्कि यह वह स्थिति है जो सत्य के काफी निकट होती है।
ग्रामीण समाजशास्त्र की प्रकृति से सम्बन्धित इन सभी विशेषताओं से स्पष्ट होता है कि इसकी प्रकृति पूर्णतया वैज्ञानिक है।
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