जाति और वर्ग में अंतर- Difference between Caste and Class

जाति एवं वर्ग में अंतर( Difference Between Caste & Class )


जाति और वर्ग में अंतर स्पष्ट कीजिए।

जाति और वर्ग- अभी तक के उपलब्ध मानव इतिहास के गहन अध्ययनोपरान्त यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार के विभेद और अन्तर अनिवार्य रूप से उपस्थित होते हैं । कतिपय विशिष्टताओं तथा कार्य क्षमता सम्बन्धी योग्यताओं पर भी एक समुदाय के व्यक्तियों को अपने समाज में एक विशेष स्थिति और सामाजिक आयु , लिंग , शिक्षा तथा व्यावसाय आदि ही होता है ।


इस प्रकार से प्राप्त सामाजिक प्रतिष्ठा की मात्रा ( Degree of Prestige ) ही किसी भी मानव समाज को ऊँच - नीच स्थितियों वाले समूहों में विभक्त करती है । इस प्रकार से सम्पन्न सामाजिक संस्तरण की प्रक्रिया के दो प्रमुख स्वरूप होते हैं , जिन्हें हम जाति और वर्ग कहते हैं । जाति और वर्ग की अवधारणा को हम पिछले पृष्ठों में व्यक्त कर चुके हैं ।

जाति और वर्ग में अंतर- Difference between Caste and Class

सामाजिक संस्तरण के इन दोनों प्रमुख स्वरूपों अर्थात् जाति और वर्ग में अनेकानेक आधारभूत अन्तर पाये जाते हैं , जिनका अध्ययन प्रत्येक विद्यार्थी के लिए आवश्यक माना जाता है । राधाकमल मुखर्जी ने भी लिखा है कि “ यथार्थवादी दृष्टिकोण के अनुसार तो यही माना जाना चाहिए कि न तो कोई जाति पूर्णतया बन्द है और न ही कोई वर्ण पूर्णतया विमुक्त ।


दोनों ही व्यक्तियों तथा समूहों की प्रस्थिति एवं भूमिका को बनाये रखते हैं । दोनों में एक ही प्रकार का सामाजिक अन्तर एवं सामाजिक संरचना में व्यक्ति का पक्षपातपूर्ण कार्य है । " अध्ययन की सुगमता हेतु निम्नांकित प्रदर्शित तालिका के द्वारा जाति और वर्ग में निहित आधारभूत अंतरों या विभेदों को अत्यधिक सरलतापूर्वक समझा जा सकता है-


जाति एवं वर्ग में अन्तर ( Distinction Between the Caste & Class )


जाति ( Caste ) वर्ग ( Class )

1 . जाति एक अन्तर्विवादी समूह होती है अर्थात जाति तथा उपजाति में ही कोई व्यक्ति वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता है , किसी भी अन्य अर्थात् अन्तर्जाति में कदापि स्थापित नहीं कर सकता है ।

2 जाति की सदस्यता व्यक्ति के जन्म ( Birth ) पर ही आधारित होती है अर्थात् एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है , वह जीवन पर्यन्त उसी जाति का अनिवार्य सदस्य बना रहता है ।


3. जाति में खान - पान सम्बन्धी कठोर प्रतिबन्ध होते हैं , जिनके अनुसार कोई जाति किस किस जाति के हाथों का बना हुआ अन्न जल ग्रहण कर सकती हैं और किन - किन का नहीं कर सकती है , यह निश्चित हो जाता है ।


4. जाति की सदस्यता प्रदत्त होती है अर्थात् एक व्यक्ति के जन्म से ही वह उस जाति का एक अनिवार्य अंग या सदस्य मान लिया जाता है । इससे स्पष्ट है कि जाति समाज द्वारा व्यक्ति को प्रदान की जाती है ।


5. जाति में व्यक्तियों के व्यवसाय अथवा पेशे निश्चित होते हैं अर्थात् जाति प्रथा में ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा शुद्र जातियों में पेशे परम्परात्मक रूप से निश्चित हैं , जिनका पालन वह अनिवार्यतः करते हैं ।

6. जाति प्रथा एक प्रतिबन्ध या बन्द व्यवस्था है अर्थात् कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा से जाति में परिवर्तन नहीं कर सकता है । जातिगत कठोर नियमों की अवहेलना भी उसको यद्यपि जाति से बहिष्कृत तो करती है , किन्तु जातिच्युत नहीं कर पाती है ।


7. जाति की प्रकृति न्यूनाधिक स्थिर भी होती है अर्थात् जन्म के परिणामस्वरूप व्यक्ति की जाति में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन घटित नहीं होता है । एक व्यक्ति का ही वह कितना धनी या निर्धन हो , शिक्षित अथवा अशिक्षित हो , कुशल अथवा अकुशल हो अथवा शक्तिमान या शशक्तिहीन हो , उसकी जाति बनी रहती है ।

8. जाति में समूह प्रधान और व्यक्ति का महत्व गौण हो जाता है । चूँकि जाति की इकाई परिवार है , व्यक्ति नहीं , इसलिए व्यक्ति के प्रत्येक कार्य में जाति समूह का निर्देशन और नियंत्रण स्थापित रहता है । इसके फलस्वरूप एक ओर जाति संगठित रहती है और दूसरी ओर व्यक्तियों में समष्टिवादी प्रवृत्तियों का उदय और विकास होता है ।

9 . जाति व्यवस्था में चूँकि व्यक्तियों के पेशे पूर्व निश्चित होते हैं । इसलिए न्यूनाधिक अंशों में वह आर्थिक रूप से सुरक्षित रहता है । वर्तमान युगीन वर्ग व्यवस्था की भाँति उसे प्रतियोगिता के आधार पर व्यवसाय चुनावों की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है ।


10. जाति प्रथा में निम्न जातियों के पास कतिपय निश्चित कार्यों के एकमात्र आधिपत्य होता है , इसलिए उच्च जातियों में इनकी सेवाओं को प्राप्त करने के लिए प्रतियोगिता भी होती रहती है ।

1. वर्ग एक अन्तर्विवाही समूह नहीं होता है । इसके परिणामस्वरूप उच्च वर्ग व्यवस्था के बाहर भी व्यक्ति वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं ।


2. वर्ग की सदस्यता व्यक्ति के जन्म पर नहीं आधारित होती है । कोई भी व्यक्ति शिक्षा , व्यवसाय तथा सम्पत्ति के आधार पर अत्यधिक सुमगतापूर्वक अपना वर्ग परिवर्तन कर सकता है ।


3. वर्ग व्यवस्था में इस प्रकार के कोई निश्चित और स्पष्ट नियम नहीं पाये जाते हैं अर्थात् एक वर्ग के सदस्यों को किसी भी वर्ग के सदस्यों के साथ खान - पान सम्बन्धी पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त रहती है , इसमें कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा होता


4. वर्ग की सदस्यता अर्जित होती है अर्थात् कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान , गुण , कुशलता और अनुभव के आधार पर किसी भी वर्ग का सदस्य बन सकता है । इसीलिए वर्ग को अर्जित सदस्यता कहा जाता है ।


5. वर्ण व्यवस्था में व्यक्तियों के व्यवसाय अथवा पेशे निश्चित नहीं होते हैं अर्थात् इसमें कोई भी व्यक्ति अपनी - अपनी योग्यतानुसार सुगमतापूर्वक किसी भी पेशे का स्वतन्त्र चुनाव कर सकता है ।


6. वर्ग एक खुली और सर्वथा विमुक्त व्यवस्था है , जिसमें कोई भी व्यक्ति शिक्षा , व्यवसाय के आधार पर किसी भी समय में किसी भी वर्ग और जीवन सम्बन्धी सफलताओं और विफलताओं में स्वतन्त्रतापूर्वक आ जा सकता है ।


7. इस तुलना में वर्ग कदापि स्थिर प्रकृति वाले नहीं होते हैं , जिसके अनुसार वर्ग में अपेक्षित परिवर्तन घटित होते रहते हैं । कोई भी व्यक्ति धर्म , व्यवसाय , शिक्षा तथा धन सम्पत्ति जैसे अस्थिर कारकों के आधार पर किसी भी उच्च अथवा निम्न वर्ग की सदस्यता ग्रहण कर लेता है ।


8. इसके ठीक विपरीत वर्ग व्यवस्था में व्यक्ति प्रधान तथा समूह गौण होता है । इस पर भी व्यक्ति मात्र वर्ग हितों के सन्दर्भ में ही समूह का नियमन स्वीकार करता है । अपने नित्यप्रति के जीवन में व्यक्ति सर्वथा स्वतन्त्र होता है । इससे स्पष्ट है कि वर्ग में वैयक्तिक मनोवृत्तियों का उदय और विकास होता है ।


9. वर्ग व्यवस्था में आर्थिक सुरक्षा कम होती है , क्योंकि उसकी प्रकृति अस्थिर है । वर्ग व्यवस्था में आर्थिक उतार - चढ़ाव की समस्या सदैव उत्पन्न रहती है और छोटे आकार वाले वर्ग तो आर्थिक दृष्टि से अधिक स्थिर भी होते हैं ।


10. उच्च वर्गीय व्यक्तियों की उच्च स्थिति के परिणामस्वरूप उनको कुछ विशेष महत्वपूर्ण अधिकार प्राप्त होते हैं , इसलिए भिन्न वर्गीय व्यक्ति ही इन अधिकारों का लाभ उठाने के लिए प्रतियोगिता करते हैं ।


निष्कर्ष-

उपर्युक्त वर्णित अन्तरों के आधार पर अन्त में हम कह सकते हैं कि जाति और वर्ग दोनों ही सामाजिक संस्तरण के दो पृथक् - पृथक् विभेदीकरण सम्बन्धी स्वरूप हैं । एक स्वरूप में अर्थात् जाति में यदि व्यक्ति की स्थिति का निर्धारण जन्म द्वारा होता है , तो दूसरा स्वरूप योग्यता , व्यवसाय तथा शिक्षा आदि पर निर्भर करता है ।


इस तालिका से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि प्रतिबन्धित अथवा बन्द समाजों में जन्म के आधार पर व्यक्ति को वर्ग अथवा प्रदत्त स्थिति प्राप्त होती है । अन्त में मैकाइबर तथा पेज के शब्दानुसार- ' जब स्थिति पूर्णतया ऐसा निश्चित हो कि बगैर किसी परिवर्तन की आशा किए मनुष्य जन्म के साथ ही अपना जीवन - भाग्य लाए तभी वर्ग जाति का रूप लेता है । '


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