जाति क्या है ? अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएँ / What is caste? Meaning, Definition and Characteristics
जाति का अर्थ ( jati kise kahte hai )
पश्चिमी विचारकों के अनुसार 'जाति' शब्द अंग्रेजी के 'Caste' शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। Caste पुर्तगाली शब्द 'Caste' से लिया गया है। Caste का अर्थ प्रजाति, जन्म और भेद है। 'Caste' शब्द का पहले ग्रेसिया डी ओटा ने प्रान्तीय समूहों के विभेद के अर्थ में प्रयोग किया। बाद में प्रजातीय विभेद को स्पष्ट करने के लिए फ्रांसीसी विचारक अब्बे दुबाय ने का प्रयोग किया। जाति-व्यवस्था की जो परिभाषाएँ की गयी हैं तथा उनके जो लक्षण हैं उनको देखने से स्पष्ट हो जाता है कि Caste शब्द से उनका बोध नहीं होता है।
Caste से प्रजातीय भिन्नता का बोध होता है । जाति - व्यवस्था प्रजातीय भिन्नता की नहीं अपितु जन्म से निर्धारित होने वाले सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था है । कुछ लोग संस्कृत के ' जातः ' शब्द से इसकी उत्पत्ति मानते हैं । जातः से जनक अथवा जन्म से परिवार का बोध होता है । ' जाति ' शब्द की जो परिभाषायें की गयी हैं तथा इसके जो लक्षण हैं , वे ' जातः ' शब्द से मेल खाते हैं ।
जाति की परिभाषाएँ ( jati ki paribhasha )
जाति की अनेक परिभाषाएँ की गयी हैं जो इस प्रकार है-
मजुमदार और मदन ने ' Social Anthropology ' में लिखा है, " जाति एक बन्द वर्ग है । "
कूले के अनुसार , " जब एक वर्ग पूर्णतया वंशानुक्रम पर आधारित होता है तो इसे जाति कहते हैं । "
सर हरबर्ट रिसले का कहना है , " जाति परिवारों या परिवारों के समूह का एक संकलन है जिसका एक सामान्य नाम है जो एक काल्पनिक पूर्वज, मानव या देवता से एक सामान्य वंश - परम्परा या उत्पत्ति का दावा करते हैं , एक ही परम्परागत व्यवसाय को करने पर बल देता है और एक जातीय समुदाय के रूप में उनके द्वारा मान्य होते हैं और जो अपना ऐसा मत व्यक्त करने के योग्य होते हैं ।
" ब्लण्ट ने जाति की परिभाषा इस प्रकार की है, “ एक जाति एक अन्तर्विवाही समूह या अन्तर्ववाही समूहों का संकलन है जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिनकी सदस्यता पैतृक होती है, जिसके सदस्यों पर सामाजिक सम्पर्क के मामले में कुछ प्रतिबंध होते हैं और साधारणतः एक जातीय समुदाय का निर्माण करने वाला समझा जाता है। "
केतकर ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है , " जाति एक सामाजिक समूह है जिसकी विशेषताएँ हैं - जाति की सदस्यता उन व्यक्तियों तक ही सीमित है जो कि उस जाति के विशेष सदस्यों से ही पैदा हुए हैं और इस प्रकार उत्पन्न होने वाले सभी व्यक्ति जाति में आते हैं । जिसके सदस्य एक अविच्छिन्न सामाजिक नियमों द्वारा अपने समूह के बाहर विवाह करने में रोक दिये जाते हैं । '
ये सभी परिभाषाए किसी-न-किसी रूप में अस्पष्ट अधूरी और त्रुटिपूर्ण हैं । इसके आधार पर जाति व्यवस्था की पूरी व्याख्या सम्भव नहीं है। इस व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालने के पश्चात् ही इसका अर्थ अथवा अभिप्राय स्पष्ट होगा।
जाति प्रथा की प्रमुख विशेषतायें ( jati ki visheshta )
जाति प्रथा से सम्बन्धित उपर्युक्त विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर हम जाति प्रथा की निम्नलिखित प्रमुखतम् विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं-
( क ) जन्मजात सदस्यता
जाति की सदस्यता प्रत्येक व्यक्ति को अपने जन्म से ही प्राप्त होती है और कोई भी व्यक्ति इसका परित्याग मात्र अपने मरणोपरान्त ही कर सकता है । इसी प्रकार से एक जाति से अन्य किसी भी दूसरी जाति में प्रवेश करना भी व्यक्ति के लिए अत्यधिक कठिन और दुष्कर कार्य है ।
यद्यपि जातीय नियमों की अवहेलना करने पर व्यक्ति को जाति से बहिष्कृत तो किया जा सकता है , तथापि उनसे उसको किसी दूसरी जाति की सदस्यता कदापि प्राप्त नहीं होती है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जाति की प्रमुखता विशेषता उनकी जन्मजात सदस्यता होती है ।
( ख ) समाज का खण्डात्मक विभाजन -
डॉ . जी.एस. घुरिये के मतानुसार जाति व्यवस्था समाज को विभिन्न खण्डों में विभाजित करती है । इसी प्रकार के खण्डात्मक विभाजन के आधार पर ही सदस्य व्यक्तियों की प्रस्थिति तथा भूमिकायें पूर्व निश्चित होती हैं ।
( ग ) ऊँच - नीच का संस्तरण-
जाति व्यवस्था में विभिन्न जातियों के मध्य परस्पर ऊँच नीच और छोटे - बड़े की भावना भी निहित होती है । प्रत्येक जाति अपेक्षाकृत अथवा अन्यान्य जातियों की तुलनाकृत छोटी अथवा बड़ी मानी जाती है और इस आधार पर उनमें अन्तर्जातीय सम्बन्ध भी स्थापित होते हैं ।
भारतीय समाज में पायी जाने वाली जाति - व्यवस्था में ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य तथा | शूद्र नामक जातियों को क्रमानुसार व्यवस्थित किया गया है । इस प्रकार से की गई जातियों के निर्धारण के परिणामस्वरूप निम्न जाति का व्यक्ति उच्च जाति की सदस्यता नहीं प्राप्त कर पाता है।
( घ ) वैवाहिक प्रतिबन्ध-
प्रत्येक जाति अपने सदस्यों पर अनेक प्रकार के वैवाहिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में कठोर प्रतिबन्ध स्थापित करती है । डॉ . जी.एस. घुरिये के मतानुसार यही जाति व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है कि प्रत्येक अपनी जाति के सदस्यों के साथ ही अनिवार्य रूप से विवाह सम्बन्ध स्थापित कर सकता है।
तथापि वह अपने गोत्र में सदस्यों से विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता है । इसी प्रकार ऊँची जाति के सदस्य पुरुष अपने से नीची जाति की स्त्री से तो विवाह सम्बन्ध स्थापित कर सकता है , किन्तु नीची जाति का पुरुष अपने से ऊँची जाति की स्त्री से विवाह सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता है ।
( च ) खान - पान सम्बन्धी प्रतिबन्ध -
वैवाहिक प्रतिबन्धों के साथ - साथ जाति व्यवस्था अपने सदस्य व्यक्तियों पर विभिन्न प्रकार से खान - पान और भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्ध तथा अन्य निषेध भी स्थापित करती है । प्रत्येक जाति पर अन्य जातियों द्वारा बनाये - पकाये गये भोजन पर अत्यधिक सख्त मनाही होती है तथापि ब्राह्मण जाति के व्यक्ति द्वारा बनाये गये भोजन को शेष सभी जातियों के व्यक्ति ग्रहण कर सकते हैं । इसके विपरीत ब्राह्मण व्यक्ति पर अपनी जाति के अतिरिक्त जल ग्रहण करने का भी प्रतिबन्ध सम्मिलित है ।
( छ ) सामाजिक सहवास प्रतिबन्ध
जाति - प्रथा में सामाजिक सहवास और सम्पर्क सम्बन्धी अनेकानेक प्रतिबन्ध और निषेध भी पाये जाते हैं विभिन्न जातियों के सदस्यगण परस्पर मिलने-जुलने, उठने - बैठने , वार्तालाप करने तथा अन्यान्य सामाजिक सहवासों के सन्दर्भ में स्थापित प्रतिबन्धों और निषेधों का भी पालन करते हैं ।
( ज ) निम्न जातियों की सीमाजिक निर्योग्यतायें
जाति व्यवस्था में निम्न जातियों के सदस्यगणों पर विभिन्न प्रकार की धार्मिक - सामाजिक निर्योग्यता सम्बन्धी अनेक कठोर प्रतिबन्ध भी स्थापित होते हैं। शारीरिक श्रम के द्वारा जीविकोपार्जन करने वाली जातियों के सदस्यगण निम्न माने जाते हैं तथा इनमें भी अस्वच्छ कार्य करने वाली जाति को अस्पृश्य , अछूत , हरिजन और निम्नतर घोषित किया जाता है ।
इस प्रकार से घोषित निम्न जातियों पर विभिन्न प्रकार के छुआछूत सम्ब नियम लादकर उनको सार्वजनिक स्थानों और मन्दिरों आदि में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है । इसी प्रकार निम्न जातियों पर खाने - पीने , ओढ़ने - पहनने आदि से सम्बन्धित अनेक कठोर प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि जाति प्रथा की एक अन्य विशेषता निम्न जातियों की सामाजिक निर्योग्यतायें भी हैं ।
( झ ) जातिगत नियन्त्रण सम्बन्धी नियम
प्रत्येक जाति के अपने कतिपय विशिष्ट व्यक्तिगत विषय भी होते हैं, जिनका अनिवार्य और कठोर पालन करना उस जाति के सदस्यों के लिए आवश्यक तथा अनिवार्य होता है। उनकी अवहेलना करने वाले व्यक्ति को जाति द्वारा सामूहिक रूप से दण्डित और प्रतिबन्धित भी किया जाता है तथा आर्थिक जुर्माना और यदा-कदा सामूहिक योजनाओं के द्वारा ही उनको माफ किया जाता है।
( ट ) व्यवसाय सम्बन्धी नियम
जाति व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण उनके जन्म लेते ही निश्चित हो जाता है अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति अपने पैतृक और जातिगत पेशे के माध्यम से ही अपनी जीविका उपार्जित करता है । उदाहरणार्थ - ब्राह्मण जाति का कार्य शिक्षा प्रदान करना और विभिन्न प्रकार के धार्मिक कृत्यों तथा संस्कार आदि को सम्पन्न करना , क्षत्रियों का सेना में भर्ती होकर समाज की रक्षा करना , वैश्यों का वाणिज्य व्यापार करना तथा शुद्र जातियों का इन तीनों जातियों की सेवा करना निश्चित है।
यदि कोई ऊँची जाति का व्यक्ति नीची जाति वालों का व्यवसाय ग्रहण करता है , तब उसकी सार्वजनिक भर्त्सना करके उसको जाति च्युत भी किया जा सकता है। कृषि, व्यवसाय और नौकरी आदि से सम्बन्धित पेशों को कोई भी ऊँची जाति का व्यक्ति ग्रहण कर सकता है।
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