मानव जीवन के लिए शिक्षा [EDUCATION FOR HUMAN LIFE]
शिक्षा गतिशील है। अति प्राचीन समय से लेकर आज तक शिक्षा अपनी लम्बी यात्रा में अनेक परिवर्तन देख चुकी है। ये परिवर्तन उसमें इसलिये हुए हैं ताकि वह समय की आवश्यकताओं को पूरा कर सके और उन कार्यों को कर सके, जो विशेष समय में, विशेष समाज के लिये आवश्यक है।
यही कारण है कि शिक्षा के कार्यों के बारे में विचारकों और शिक्षाविदों में मतभेद रहा है और अब भी है, उदाहरणार्थ- डेनियल वेबस्टर (Daniel Webster) के अनुसार-"शिक्षा का कार्य भावनाओं को अनुशासित, संवेगों को नियन्त्रित, प्रेरणाओं को उत्तेजित, धार्मिक भावना को विकसित और नैतिकता को अभिवृद्धित करना है।"
इसी प्रकार, जॉन ड्यूवी का कथन है-"शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी के विकास में सहायता पहुँचाना है, ताकि वह सुखी, नैतिक और कुशल मानव बन सके।"
"The function of education is to help the growing of a helpless young animal into a happy, moral and efficient human being." -John Dewey
शिक्षा के कार्यों के बारे में इस प्रकार के अनेक विचार दिये जा सकते हैं। यहाँ हम भारतीय दशाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के विभिन्न कार्यों का वर्णन कर रहे हैं।
मानव जीवन एवं शिक्षा (HUMAN LIFE AND EDUCATION)
शिक्षा मनुष्य के भीतर अच्छे विचारों का निर्माण करती है, मनुष्य के जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। बेहतर समाज के निर्माण में सुशिक्षित नागरिक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इंसानों में सोचने की शक्ति होती है। इसलिए वो सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है लेकिन अशिक्षित मनुष्य की सोच पशु के समान होती है। वो सही गलत का फैसला नहीं कर पाता। इसलिए शिक्षा मानव जीवन के लिए जरूरी है, जो उसे ज्ञानी बनाती है।
भारतीय संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में चार लक्ष्य माने गए हैं, जिन्हें पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती है- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इन चारों में से मोक्ष सबसे अधिक पवित्र एवं महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का चरम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति होती है। अत: शिक्षा ही मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र साधन माना गया है।
लेकिन शिक्षा का उद्देश्य मात्र शिक्षित होना नहीं होता, बल्कि शिक्षा के कई अन्य मकसद है, जिसे कई शिक्षा के विद्वानों ने अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया है। चलिए आपको बताते हैं, उनकी नजर में शिक्षा के उद्देश्यों के बारे में-
महात्मा गांधी - "शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सवीगी एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।"
स्वामी विवेकानन्द - "मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति ही शिक्षा है।"
राधा मुकुन्द मुखर्जी - "प्राचीन काल में शिक्षा मोक्ष के लिए आत्म ज्ञान का साधन थी, इस प्रका शिक्षा जीवन के अंतिम उद्देश्य यानी मोक्ष प्राप्ति का साधन मानी जाती थी।"
जॉन डुई - "शिक्षा व्यक्ति के उन सभी भीतरी शक्तियों का विकास है जिससे वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रखकर अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सकें।"
मानव जीवन के लिए शिक्षा - EDUCATION FOR HUMAN LIFE
मानव जीवन में जो कुछ भी अर्जित है, वह औपचारिक अथवा अनौपचारिक शिक्षा का हो परिणाम है। जब बालक जन्म लेता है तो उसे अपने चारों ओर के परिवेश का कोई ज्ञान नहीं होता। क्रमश: दूसरों के सम्पर्क में आकर तथा अपनी ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग करके वह अपने चारों ओर के परिवेश को जानता है। बहुत-सी बातें और काम वह दूसरों की देखा-देखी सीख लेता है किन्तु किसी भी सभ्य समाज में औपचारिक शिक्षा के बगैर बालक का वयस्क जीवन के योग्य बनना सम्भव नहीं माना जाता।
अस्तु, सब कहीं शिक्षा व्यवस्थायें पायी जाती हैं। केवल सभ्य समाज में ही क्यों, आदिम समाजों में भी वयस्क लोग लड़के-लड़कियों को वयस्क जीवन की शिक्षा प्रदान करते हैं। भारत में जनजातियों में पाये जाने वाले कुमारगृह जनजातीय युवक-युवतियों की सामाजिक शिक्षा के केन्द्र है। संक्षेप में मनुष्य का चरित्र, व्यक्तित्व, संस्कृति, चिन्तन, सूझ-बूझ, कुशलताएँ, आदतें तथा जीवन की छोटी-छोटी बातें भी शिक्षा पर निर्भर होती हैं। अस्तु, मानव जीवन में शिक्षा का महत्व स्पष्ट है।
प्राणी जगत् में मनुष्य परम शक्ति की सर्वोत्तम कृति है। जैविक रूप से मनुष्य अन्य प्राणियों की भाँति एक पशु होता है, परन्तु मानव अपना विभिन्न क्षमताओं, योग्यताओं आदि के कारण उनसे भिन होता है। मानव में शिक्षणीयता (Educability) होती है। साथ ही उसमें पशुओं की भाँति प्रशिक्षणीयता (Trainability) भी होती है। मानव में बुद्धि तत्व अधिक होता है। इसके बुद्धि तत्व को विवेकशील साध्यों के माध्यम से शिक्षित किया जाता है। उसका मस्तिष्क तीन कार्य करता है-
(1) संज्ञान (Cognition) अर्थात् जानना (Knowing),
(2) अनुराग या भावात्मक (Affection) जिसकी अनुभूति (Feeling) को जाती है तथा
(3) सांस्कृतिक (Conation) जिसका संकल्प किया जाता है।
मनुष्य अपने प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण के विषय में जानकारी प्राप्त करता है। साथ ही उसके कारणों तथा नियमों की खोज करता है, परन्तु पशु ऐसा नहीं कर पाता है। मनुष्य स्वज्ञान को जानने के लिये प्रयासरत रहता है। इन गुणों के कारण वह अपने विचारों, भावनाओं, संवेगों, आशाओं, आकांक्षाओं, भय तथा इच्छाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है। मनुष्य शरीर, मनस् (Mind) तथा आत्मा का एक पुंज है। इम दृष्टि से शिक्षा के व्यक्ति के प्रति निम्नलिखित कार्य हो सकते हैं-
1. आवश्यकताओं की पूर्ति (Satisfaction of Needs)-
आज के भारतीय समाज में शिक्षा का मुख्य कार्य व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति करना है। जीवधारी होने के कारण भोजन, मकान और वस्त्र उसकी जैविक आवश्यकताएँ हैं। सामाजिक प्राणी होने के कारण उसे समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की आवश्यकता है।
उसे कार्य की आवश्यकता है, जिससे कि वह अपने को लाभप्रद समझ सके और अपने पैरों पर खड़ा हो सके। उसे अवकाश की आवश्यकता है, जिससे कि वह मनोरंजन कर सके। उसे संघर्ष की आवश्यकता है, जिससे कि वह उन्नति कर सके। उसे अवसर की आवश्यकता है, जिससे कि वह अपनी विशेष योग्यता को विकसित कर सके। उसे धर्म और जीवन दर्शन को आवश्यकता है, जिससे उसके जीवन का पथ-प्रदर्शन हो सके।
इन सब आवश्यकताओं को पूर्ण करना शिक्षा का आवश्यक कार्य है। मानव जीवन में शिक्षा के इस कार्य का महत्त्व बताते हुए स्वामी विवेकानन्द (Swami Vivekananda) ने लिखा है-"शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार हल किया जाये और आधुनिक सभ्य समाज का गम्भीर ध्यान इसी बात में लगा हुआ है।"
2. आत्मनिर्भरता की प्राप्ति (Achievement of Self-Sufficiency) -
मानव जीवन में शिक्षा का कार्य व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए भार नहीं होता है। वह अपना भार स्वयं अपने ऊपर लेता है। इससे न केवल उसका वरन् समाज का भी हित होता है। वह अपने कार्यों को सफलतापूर्वक करता है। परिणाम यह होता है कि वह जीवन में उन्नति करता है, साथ ही अपने कार्यों को सफलतापूर्वक करने के कारण वह समाज की उन्नति में भी योग देता है।
आज भारतीय समाज कठिन समय से होकर गुजर रहा है। अतः उसे आत्मनिर्भर मनुष्यों की ही आवश्यकता है, न कि ऐसे निकम्मे मनुष्यों की जो दूसरों का सहारा ढूँढ़ते हैं। आज से कई वर्ष पहले स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा के इसी कार्य की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा था- "केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा। हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है, जिससे कि व्यक्ति अपने स्वयं के पैरों पर खड़ा हो सकता है।"
3. व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति (Achievement of Vocational Efficiency)
मानव जीवन में शिक्षा कार्य छात्रों को व्यावसायिक कुशलता की प्राप्ति में सहायता देना है। इस समय हमारे देश का बड़ी तेजी से औद्योगीकरण हो रहा है। इसलिए वैज्ञानिकों, शिल्पियों और इंजीनियरों की बहुत बड़ी संख्या में आवश्यकता है।
यदि शिक्षा छात्रों को किसी व्यवसाय में कुशल बना देगी, तो इससे दो लाभ होंगे। छात्र, देश के उत्पादन में वृद्धि करेंगे। इसके अतिरिक्त, उन्हें कार्य मिलने में कोई कठिनाई नहीं होगी। फलस्वरूप, उनकी जीविका की समस्या हल हो जायेगी।
डॉ. राधाकृष्णन् (Radhakrishnan) का कथन है-" प्रयोगात्मक विषयों में प्रशिक्षित व्यक्ति कृषि और उद्योग के उत्पादन को बढ़ाने में सहायता देते हैं। ये विषय सफलतापूर्वक रोजगार पाने में भी सहायता देते हैं। छात्रों को जीविका उपार्जन करने में सहायता देना, शिक्षा का एक कार्य है-' अर्थकारिका विद्या'।"
4. भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति (Achievement of Material Prosperity)
शिक्षा का कार्य व्यक्तियों को भौतिक सम्पन्नता प्राप्त करने में सहायता देना है। आज के भौतिकवादी युग में यदि शिक्षा यह कार्य नहीं करती है, तो उसे व्यर्थ समझा जाता है। आजकल सभी माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के बाद जीवन में उच्च स्थान प्राप्त करें और ठाट-बाट से रहें।
शिक्षा के इस कार्य का उल्लेख करते हुए जॉन रस्किन (John Ruskin) ने लिखा है-" माता-पिता कहते हैं कि शिक्षा का मुख्य कार्य उनके बच्चों को जीवन में अच्छे स्थान प्राप्त करने, बड़े और धनी व्यक्तियों के समान महत्वपूर्ण बनने और आराम तथा ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार करना है।"
5. अच्छे नागरिकों का निर्माण (Creation of Good Citizens)
शिक्षा का कार्य उत्तम नागरिकों का निर्माण करना है। आज हमारा देश धर्मनिरपेक्ष प्रजातन्त्र है। अतः आवश्यक है कि शिक्षा छात्रों में स्पष्ट विचार, अनुशासन, सहनशीलता, सहयोग, देशप्रेम आदि गुणों का विकास करे। तभी शिक्षा छात्रों को उत्तम नागरिक बनाकर प्रजातन्त्र को सफल बना सकेगी।
भारतीय प्रजातन्त्र में, जिसका उद्देश्य कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है, ये उत्तम नागरिक किस प्रकार के हो, इसके बारे में भूतपूर्व राष्ट्रपति राधाकृष्णन् (Radhakrishnan) का कथन है- "कल्याणकारी राज्य में हमारा उद्देश्य अपने सब नागरिकों की भोजन, कपड़ा और मकान की प्रारम्भिक आवश्यकताओं को पूरा करना ही नहीं होना चाहिए, वरन् उनको भाइयों के समान रहना सिखाना चाहिए- भले ही वे विभिन्न प्रजातियों, धर्मों और प्रान्तों के क्यों न हों।"
6. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)
शिक्षा का कार्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है। शिक्षा के इस कार्य पर प्रायः सभी शिक्षाविदों द्वारा बल दिया गया है। फ्रेंडरिक ट्रेसी के अनुसार- "सम्पूर्ण शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्तित्व के आदर्श की पूर्ण प्राप्ति है। यह आदर्श सन्तुलित एवं समग्र (Integrated) व्यक्तित्व है।"
7. चरित्र का विकास (Development of Character)
यह कहना गलत न होगा कि आज के संसार में नैतिकता का प्रायः अभाव हो गया है। झूठ, छल, धोखेबाजी, स्वार्थ और घृणा का साम्राज्य दिखाई देने लगा है। इन सब बातों से मानव भले ही प्रगति करे, पर वह स्थायी कदापि नहीं हो सकती है।
अतः आवश्यक है कि शिक्षा व्यक्ति, समाज और संसार की बुराइयों को दूर करके उनमें नैतिकता का समावेश करे। शिक्षा के इस कार्य की ओर संकेत करते हुए हरबार्ट (Herbart) ने लिखा है- "शिक्षा का कार्य उत्तम नैतिक चरित्र का विकास करना है।"
8. जीवन के लिए तैयारी (Preparation for Life)
विलमॉट (Willmott) का कथन है-"शिक्षा जीवन की तैयारी है।" ("Education is the apprenticeship of life.") अब यदि शिक्षा जीवन की तैयारी है, तो शिक्षा का कार्य है-बच्चों को जीवन के लिए तैयार करना। यदि शिक्षा यह कार्य नहीं करती है तो बच्चे बड़े होकर जीवन की कठिनाइयों का सामना नहीं कर सकेंगे; उन संघर्षों से लोहा न ले सकेंगे; जो उनके सामने आयेंगे।
9. स्वाभाविक शक्तियों का विकास (Development of Natural Powers)
बालक जन्म से ही अनेक प्रकार की स्वाभाविक शक्तियों को लेकर उत्पन्न होता है। शरीर की वृद्धि के साथ-साथ मस्तिष्क की भी वृद्धि होती है किन्तु जन्मजात शक्तियों के विकास के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। कहा जाता है यदि मस्तिष्क को इस्तेमाल न किया जाये तो उसकी शक्तियों का विकास नहीं हो सकता। अस्तु, शिक्षा का सबसे पहला काम भिन्न-भिन्न प्रकार की उत्तेजनायें और अवसर उपस्थित करके बालक की विभिन्न जन्मजात शक्तियों; जैसे- कल्पना शक्ति, चिन्तन शक्ति आदि का समुचित विकास करना है।
इसीलिए शिशु शिक्षा की विधियों में सबसे पहले शिशु के सामने विभिन्न प्रकार के उपकरण रखने, उसे अपनी ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग करने का अवसर दिया जाता है। यह ज्ञानेन्द्रिय शिक्षा कहलाती है। इसके अतिरिक्त बालक के सामने नाना प्रकार की समस्यायें उपस्थित करके उसकी चिन्तन शक्ति का विकास किया जाता है। विभिन्न कलाओं के माध्यम से बालक की कल्पना शक्ति का विकास होता है। बालक का ध्यान आकर्षित करने की अनेक विधियों से उसे अवधान का प्रयोग सिखाया जाता है। नाना प्रकार के कार्यों को करने का अवसर देकर उसे सीखने की विभिन्न विधियाँ सिखायी जाती है।
इतना ही नहीं बल्कि विभिन्न प्रकार के खेलों के माध्यम से बालक को शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का समुचित प्रयोग सिखाया जाता है। खाने-पीने, सोने-जागने, उठने-बैठने चलने-फिरने तथा जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने को क्रियाएँ बालकों को परिवार में सिखायी जाती हैं। ये सब बालक को प्रारम्भिक शिक्षा के अंग हैं।
10. वयस्क जीवन की तैयारी (Preparation for Adult Life)
शिक्षा का एक उद्देश्य जीविकोपार्जन माना गया है। आधुनिक काल में आर्थिक परिस्थितियाँ इतनी जटिल हो गयी हैं कि समुचित शिक्षा के बिना कोई भी व्यक्ति जीविकोपार्जन का कार्य भली प्रकार नहीं कर सकता। पहले जब कृषि प्रधान देशों में कार्यों का इतना विशिष्टीकरण नहीं हुआ था तो वयस्क जीवन के लिए शिक्षा की इतनी अधिक आवश्यकता नहीं होती थी किन्तु आज विभिन्न आर्थिक कार्यों का इतना विशिष्टीकरण और विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति के कारण बिना शिक्षा के कोई भी व्यक्ति किसी भी काम को कुशलतापूर्वक नहीं कर सकता बल्कि साधारणतया ऊँची नौकरियाँ प्राप्त करने के लिए ऊँची शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य होता है।
वयस्क जीवन की तैयारी में केवल जीविकोपार्जन की योग्यता ही एकमात्र कारक नहीं है। बड़े होकर जीविकोपार्जन तो करना ही होता है किन्तु उसके साथ-साथ विवाह के पश्चात् सन्तान से सम्बन्धित उत्तरदायित्व भी पालन करने होते हैं।
अस्तु, शिक्षा के द्वारा लड़के-लड़कियों को सन्तानोत्पत्ति और सन्तान के पालन-पोषण तथा समाज में अन्य लोगों के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों का पालन आदि का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये। वास्तव में बालक के व्यक्तित्व और चरित्र का सर्वांगीण विकास वयस्क जीवन की तैयारी की सबसे ठोस नींव है। यदि शिक्षा यह कार्य सम्पन्न करती है तो नर-नारी बड़े होकर समाज के योग्य सदस्य बनते हैं।
11. मूल प्रवृत्तियों का नियंत्रण और मार्गान्तरीकरण (Control and Diversion of Core Instincts)
प्रत्येक प्राणी जन्म से ही कुछ मूल प्रवृत्तियों को लेकर संसार में उत्पन्न होता है। मानव शिशु में कौन-कौन-सी मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं; इस विषय में भले ही वाद-विवाद हो किन्तु शिशु के मस्तिष्क को कोरी पट्टी नहीं माना जा सकता जिस पर चाले जो कुछ लिखा जा सकता हो। मनोवैज्ञानिकों ने तो यह भी दिखलाया है कि न केवल प्रत्येक मानव प्राणी में अनेक मूल प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं बल्कि इनके विषय में व्यक्तिगत अन्तर भी देखा जाता है।
यदि मानव अकेला रहता हो तो वह अपनी मूल प्रवृत्तियों की चाहे जैसी अभिव्यक्ति कर सकता है किन्तु चूँकि मनुष्य समूहों में रहते हैं। इसलिए उन्हें अपनी अनेक मूल प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करना होता है और अन्य अनेक की दिशा में इस प्रकार परिवर्तन करना होता है जिससे वे दूसरों के लिए के लिए हानिकारक न हों। फिर, अनेक मूल प्रवृत्तियाँ ऐसी होती हैं जिनको संतुष्ट करने के लिए हमें दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता होती है।
इसका एक उदाहरण यौन मूल प्रवृत्ति है। चूँकि नैतिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति की वैयक्तिकता और मानवता का बराबर सम्मान किया जाना चाहिए। इसलिए वैवाहिक अथवा किसी भी प्रकार के सामूहिक जीवन में व्यक्तियों की अपनी मूल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण करना ही पड़ता है। आक्रामकता अथवा युयुत्सा जैसी कुछ मूल प्रवृत्तियों का शोधन किये बगैर सभ्य जीवन सम्भव नहीं है। मूल प्रवृत्तियों के नियन्त्रण, मार्गान्तरीकरण और शोधन का यह कार्य शिक्षा के द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है।
विभिन्न प्रकार की कलाओं के माध्यम से मूल प्रवृत्तियों का शोधन किया जाता है। सामाजिक जीवन की शिक्षा से बालक-बालिकाएँ मूल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण और उनका मार्गान्तरीकरण सीखते हैं। विद्यालय में और परिवार में तथा बाहर के व्यापक समाज में पुरस्कार और दण्ड की व्यवस्था, सामाजिक नियन्त्रण के साधन और अनुशासन के नियमों से भी यह कार्य सम्पन्न किया जाता है।
12. योग्य नागरिकों का निर्माण (Creation of Qualified Citizens)
यद्यपि अनेक विचारकों ने राज्य विहीन समाज का स्वप्न देखा है किन्तु संसार में शायद ही कहीं मानव जीवन राज्यविहीन हो। नागरिकता नहीं मिली होती या जिनकी नागरिकता छिन जाती है वे भी अनेक प्रयास कर किसी-न-किसी राज्य को जागरिकता अवश्य प्राप्त करते हैं; अन्यथा उनके जीवन में अनेक प्रकारक कदियाँ अपन्न हो जाती है।
अस्तु, व्यक्ति और राज्य का सब कहीं सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध में व्यक्ि की स्थिति जागरिक की स्थिति कहलाती है। अस्तु, राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए व्यक्ति को नागरिकता की शिक्षा दी जाती चाहिए। आधुनिक काल में शिक्षा के इस कार्य पर इसलिए भी जोर दिया जाता है क्योंकि अधिकतर राज्य ही शिक्षा-व्यवस्था का निर्माण करते और उसे चलाये रखते है। जनतन्द्रीय राज्यों में शिक्षा-व्यवस्था के संचालन में जनता का भी हाथ होता है। साम्यवादी देशों में शिक्षा-व्यवस्था पर राज्य का पूरी तरह अधिकार होता है।
किन्तु चूंकि व्यक्ति और राज्य का अनुकूलर सब कहीं आवश्यक माना जाता है। इसलिए योग्य नागरिकों का निर्माण करना शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य माना गया है। प्राचीन यूनान के विचारकों ने तो इसको शिक्षा का सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य माना है। आजकल लगभग सभी विचारक यह मानते हैं कि किसी भी देश में जनतन्त्र तभी सम्भव हो सकत है जबकि वहाँ के नर-नारी सुरक्षित हों। नागरिकता की शिक्षा विद्यालयों के अतिरिक्त राजनैतिक दलों रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं आदि के माध्यम से भी दी जाती है।
13. संस्कृति और सभ्यता का संरक्षण और वृद्धि (Preservation and Growth of Culture and Civilization)
अन्य पशुओं की तुलना में मनुष्य की प्रगति का एक मुख्य कारण यह है कि मानव समाज में सभ्यता और संस्कृति के रूप में ज्ञान और अनुभव का संचय किया गया है। वर्तमान काल में जन्म लेने वाले बालक हर दिशा में नये सिरे से नहीं सोचता, उसके सोचने-विचारने के ढंग और काम करने के तरीके, रीति-रिवाजों, परम्पराओं और सामाजिक संस्थाओं के रूप में संचित पूर्वजों के हजारों वर्षों के अनुभव से निर्देशित होते हैं।
इसलिए जिन देशों में संस्कृति जितनी ही अधिक प्राचीन होती है, उनमें मानव जीवन भी उतना ही अधिक व्यवस्थित, उतना ही अधिक स्थायित्व दिखलाई पड़ता है। अस्तु, सब कहीं यह आवश्यक माना जाता है कि सभ्यता और संस्कृति का संरक्षण किया जाए और नये विकास के द्वारा उसमें सतत् वृद्धि हो। यह कार्य विशेषतया शिक्षा के माध्यम से होता है।
शिक्षा के रूप में बालक को सामाजिक विरासत दी जाती है और शिक्षा के माध्यम से अपने ज्ञान, चरित्र और व्यक्तित्व का विकास करके साहित्यिक, कलात्मक और सामाजिक क्षेत्र में नाना प्रकार के योगदान देकर व्यक्ति सामाजिक विरासत की समृद्धि बढ़ाता है। किसी भी देश में विभिन्न विज्ञानों, कलाओं, साहित्य आदि की प्रगति सुशिक्षित व्यक्तियों के माध्यम से होती है।
पुस्तकालयों, संग्रहालयों आदि में देश की प्राचीन संस्कृति सुरक्षित रहती है और नयी पीढ़ी को सौंपी जाती है। इसीलिए अनेक समकालीन भारतीय विचारकों ने इस बात पर जोर दिया है कि भारतीय विद्यालयों में विद्यार्थियों के लिए भारतीय संस्कृति की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।
14. समाज-सुधार को प्रोत्साहन (Promotion of Social Reform)
औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा मनुष्य में समीक्षात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करती है और वह प्रत्येक बात को ज्यों का त्यों मानकर उसकी समीक्षा करता है तथा यदि उसमें कोई दोष पाता है तो उसके रूप में परिवर्तन करने का प्रयास करता है।
इस प्रकार शिक्षा समाज-सुधार आन्दोलनों का मूलाधार रही है। भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रारम्भ होने पर पश्चिम की अनेक प्रवृत्तियाँ: जैसे- व्यक्तिवाद, विवेकवाद, आदि का विस्तार हुआ और पढ़े-लिखे लोगों ने प्राचीन भारतीय परम्पराओं और संस्थाओं की समीक्षा की।
इससे देश में ब्रह्मसमाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, थियोसोफिकल सोसायटी तथा अन्य अनेक संस्थाओं ने समाज-सुधार आन्दोलन उठाये। इन आन्दोलनों के पीछे जिन महापुरुषों का हाथ था, वे उच्च शिक्षी प्राप्त महान् विचारक थे। इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से समाज के विभिन्न अंगों, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक नियन्त्रण की विधियों आदि की बराबर समीक्षा होती रहती है और उसमें बराबर सुधार कौ माँग उठायी जाती रहती है।
15. राष्ट्रीय विकास (National Development)
मानव समाज के विकास के लिए विभिन्न राष्ट्र-समूहों का सर्वांगीण विकास आवश्यक है और यह शिक्षा के समुचित प्रसार के बिना नहीं हो सकता। इसीलिए आजकल संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से पिछड़े हुए देशों में शिक्षा की प्रगति के विशेष प्रयास किये जाते हैं। प्रत्येक देश में राष्ट्रीय भावना का विकास किया जाता है। इससे देशवासी राष्ट्र की प्रगति में सब प्रकार से योगदान देते हैं। राष्ट्रीय प्रगति के अनुरूप शिक्षा योजना बनाने के लिए सब कहीं राष्ट्रीय शिक्षा योजनायें प्रस्तुत की जाती हैं।
शिक्षा के कार्य (WORK OF EDUCATION)
1. अनुभवों का पुनर्गठन (Reorganization of Experiences)
व्यक्ति अपने जीवन में अनेक अनुभव प्राप्त करता है। शिक्षा का कार्य है- इन अनुभवों का पुनर्गठन और पुनर्रचना करना। यदि शिक्षा यह कार्य करती है तो व्यक्ति अपनी भावी प्रगति के लिए अतीत का उपयोग कर सकता है, अन्यथा नहीं। ड्यूवी (Dewey) ने सत्य ही लिखा है-"जीवन का मुख्य कार्य है: प्रत्येक पग पर अपने अनुभवों द्व ारा जीवन को समृद्ध बनाना।"
2. वातावरण से अनुकूलन (Adaptation to Environment)
वातावरण में जड़ और चेतन-दोनों शिक्षा देने वाले हैं। वातावरण से अनुकूलन न कर सकने के कारण निम्न वर्ग के पशु नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार वातावरण व्यक्ति के केवल उन्हीं कार्यों को प्रोत्साहित करता है, जो उसके अनुकूल होते हैं।
अत: शिक्षा का कार्य है कि वह व्यक्ति को वातावरण के अनुकूल बनाये। इस सम्बन्ध में टामसन (Thomson) ने लिखा है-"वातावरण शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है-छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे कि यह जीवित रह सके और अपनी मूलप्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिए अधिक से अधिक सम्भव अवसर प्राप्त कर सके।"
3. वातावरण का रूप परिवर्तन (Modification of Environment)
शिक्षा का कार्य व्यक्ति को वातावरण का रूप परिवर्तन करने या उसमें सुधार करने के योग्य बनाना है। यदि शिक्षा द्वारा व्यक्ति में अच्छी आदतों का निर्माण कर दिया जाये, तो वह अपने वातावरण में परिवर्तन कर सकता है। बिल्ली चटकनी को दबाकर दरवाजा खोलने से अपने लिए नये वातावरण का निर्माण करना सीख लेती है।
इसी प्रकार, व्यक्ति भी नई और अच्छी आदतों का निर्माण करके अपने सामाजिक वातावरण को बदल सकता है और उसे अच्छा बना सकता है। इस प्रकार, शिक्षा का कार्य केवल यही नहीं है कि वह व्यक्ति को वातावरण से अनुकूलन करना सिखाये, वरन् उसे वातावरण को अपने अनुकूल बदलने के लिए भी प्रशिक्षित करे।
आज के संघर्षपूर्ण संसार में यह बहुत आवश्यक हो गया है। भारत में भी इस आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा है। विभिन्न जातियों, प्रजातियों, धर्मों और भाषाओं ने हमारे देश में जिस वातावरण का निर्माण कर दिया है, वह देश के लिए तनिक भी हितकर नहीं है। भाषा या धर्म के आधार पर नये राज्यों के निर्माण की माँग देश को ऐसे खण्डों में बाँटना है, जो शायद कभी मिल नहीं सकेंगे।
इस प्रकार के दूषित वातावरण में सुधार तभी हो सकता है, जब देश के प्रत्येक बालक को शिक्षा देकर इस प्रकार तैयार कर दिया जाये कि वह इस वातावरण को परिवर्तित करने के लिए कमर कस ले। वातावरण का रूप परिवर्तन करके उस पर अधिकार रखने की आवश्यकता की ओर संकेत करते हुए जॉन ड्यूवी (John Dewey) ने लिखा है-" वातावरण से पूर्ण अनुकूलन करने का अर्थ है-मृत्यु। आवश्यकता इस बात की है कि वातावरण पर नियन्त्रण रखा जाये।”
4. मूल्यों का विकास (Inculcation of Values)
आज का भारतीय पाश्चात्य उपभोक्ता संस्कृ (Consumer culture) का पोषक बन गया है। उसने व्यावसायिक मानव का स्वरूप ग्रहण कर लि है। वह कर्त्तव्य प्रधान, आस्था भाव वाली संस्कृति का प्रतिनिधि नहीं बनना चाहता है। वह भौतिकता है। चकाचौंध में स्वयं को विदेशी जैसा प्रदर्शित करने में गर्व महसूस करने लगा है। भारतीयता; अनैतिका के माहौल में दम तोड़ रही है और उसकी आध्यात्मिकता निरर्थक सिद्ध हो रही है।
उपभोक्ता संस्कृ ने हमारी चेतना को इतना निस्तेज व निष्प्रभ कर दिया है कि आज अच्छे तथा बुरे का भेद तो छोड़ि जिसे हम ठीक समझते हैं; उसे करते हुए भी कतराते हैं। श्रेयस्ते का स्थान उपयोगिता ने ले लिया है। हाँ, अधिक ऊँचा पहुँचने पर; इसे कौशल का रूप देकर समाज; उसे एक मौन स्वीकृति दे देता है। इस संस्कृति में करनी और कथनी के बीच एक चौड़ी खाई उत्पन्न कर दी है। उक्त स्थिति। मुक्ति पाने तथा इस खाई को पाटने के लिए शिक्षा द्वारा मूल्यों का विकास करना एक महत्वपूर्ण का है। अत: आज हम चारों ओर से शिक्षा से इसी बात की अपेक्षा करते हैं।
अन्त में, हम एमरसन के शब्दों में कह सकते हैं-"शिक्षा इतनी विशद होनी चाहिए, जितना वि मनुष्य। उसमें जो भी शक्तियाँ हैं, शिक्षा को उन्हें पोषित और प्रदर्शित करना चाहिए।"
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