बौद्ध कालीन शिक्षा के अर्थ, अवधारणा, उद्देश्य, आदर्श एवं गुण-दोष

बौद्ध कालीन शिक्षा के अर्थ, अवधारणा, उद्देश्य, आदर्श एवं गुण-दोष

बौद्ध काल की अवधारणा (CONCEPT OF BUDDHIST ERA)


बौद्ध काल का प्रारम्भ वैदिक काल की समाप्ति के बाद अर्थात् लगभग 500 वर्ष ई. पू. में हुआ था। चीनी यात्री फाह्यान ने अपनी भारत यात्रा के दौरान बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली का वर्णन विस्तार से किया है। जब वैदिककालीन शिक्षा जनजीवन की परिवर्तित आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में असमर्थ होने लगी और इसमें विश्रृंखलता की भावना का उदय होने लगा था, तो वैदिक कालीन कठोर वर्ण व्यवस्था व कर्मकाण्ड की अति के विरोधस्वरूप चार्वाक और आजीवकों ने अपने विरोधी विचार व्यक्त किये, परन्तु इसका प्रभाव अधिक समय तक नहीं रहा।


बौद्ध कालीन शिक्षा के अर्थ, अवधारणा, उद्देश्य, आदर्श एवं गुण-दोष

परन्तु ई. पू. 563 में भारत की इस पुण्य भूमि पर महात्मा बुद्ध के अवतरण के बाद, जनजीवन को समयानुकूल बनाने के विचार से वैदिक धर्म के स्वरूप में परिवर्तन करके बौद्ध शिक्षा का प्रारम्भ हुआ। इस शिक्षा के सम्बन्ध में एफ.ई. केई (F. E. Keay) ने लिखा है-"बौद्ध शिक्षा 1,500 वर्ष से अधिक समय तक प्रचलित रही और उसने ऐसी शिक्षा पद्धति का विकास किया, जो ब्राह्मणीय शिक्षा पद्धति की प्रतिद्वन्द्वी थी, पर अनेक बातों में उसके सदृश्य थी।"


वैदिक कालीन शिक्षा में संस्कृत भाषा की प्रधानता थी और स्त्री एवं शूद्र की शिक्षा का पतन हो रहा था। इसके अतिरिक्त कर्मकाण्ड का भी अधिक प्रचार था। संस्कृत भाषा व कर्मकाण्ड सर्वसाधारण की समझ से परे थे। बुद्ध ने यज्ञ एवं कर्मकाण्ड के स्थान पर सदाचार, अहिंसा, सत्य पर बल दिया तथा धार्मिक कार्यों में संस्कृत की बजाय जन साधारण की भाषा को स्थान दिया।


इसके अतिरिक्त बौद्ध धर्म वेद की तथा ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता था। भारतीय समाज में जातिवाद की प्रधानता थी, जबकि बौद्ध धर्म जातिवाद का प्रबल विरोधी था। परन्तु फिर भी उन्होंने मूल भारतीय विचारधारा का त्याग नहीं किया था। इस प्रकार बौद्धकालीन शिक्षा प्रणाली का आरम्भ हुआ, जो अपने आप में एक विशिष्ट व पृथक् दर्शन था, जिसमें जीवन और शिक्षा के नये आदर्श व उद्देश्य निर्धारित किये गये थे।


बौद्ध शिक्षा का अर्थ (MEANING OF BUDDHIST EDUCATION)


बौद्ध कालीन शिक्षा प्रणाली में शिक्षा से तात्पर्य बौद्ध मठों एवं विहारों में चलने वाली शिक्षा से ही लिया जाता था। बौद्ध दर्शन के अनुसार जीवन में दुःख-ही-दुःख है और इन दुःखों को समझना तथा दुःखों को दूर करने के उपायों का उपयोग करना ही बोच है तथा वास्तव में यहीं बौद्ध दर्शन की शिक्षा है। शिक्षा दुःखों का ज्ञान व दुःखों को दूर करने का अष्टांग मार्ग दिखाती है। जब इसका बीच अथवा अनुभूति होती है और इससे मुक्ति पाने का प्रयास किया जाता है, वही शिक्षा कहलाती है। अतः शिक्षा व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक जीवन में आर्य सत्य देने वाले तथा सन्मार्ग की ओर अग्रसर करने वाली किया है।


बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्म-बोध या आत्म-ज्ञान ही वास्तव में शिक्षा है। निर्वाण की अवस्था तक शिक्षा प्रक्रिया ही पहुँचाती है। शिक्षा द्वारा हो शील, समाधि तथा प्रज्ञा प्राप्ति, जैसे गुणों का विकास होने से अविद्या का नाश होता है। अत: इस काल में शिक्षा का पर्याय न होकर ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया के रूप में स्वीकार की जाने लगी थी।


बौद्धकालीन शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श (AIMS AND IDEALS OF EDUCATION OF BUDDHIST ERA)


सामान्यतः बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श अति व्यापक थे व वैदिक शिक्षा प्रणाली से मिलते-जुलते थे। परन्तु उनका स्वरूप कुछ भिन्न था। इनका क्रमबद्ध विवेचन निम्न प्रकार है-


1. व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)

बौद्धकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना था। इसमें उनका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक आदि सभी प्रकार का विकास सम्मिलित था। गुरु छात्रों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से शिक्षा प्रदान करते थे। छात्र को स्वयं का विकास करने के लिये अनेक अवसर दिये जाते थे। वह छात्रों में परस्पर सम्पर्क से भी अपने ज्ञान में वृद्धि करता था।


2. चरित्र का निर्माण (Formation of Character)

इस काल की शिक्षा व्यवस्था में छात्रों के चरित्र निर्माण हेतु उन्हें प्रारम्भ से ही बौद्ध मठों व विहारों में 10 नियमों का पालन कराया जाता था व सादा जीवन जीने और विनयपूर्ण व्यवहार करने में प्रशिक्षित किया जाता था तथा बुरे कार्यों से दूर रखा जाता था। इसका कारण बौद्ध धर्म में सबसे अधिक आत्मसंयम, करुणा व दया को महत्त्व दिया जाना था। बौद्धों की दृष्टि में इन गुणों का पालन करने वाला ही चरित्रवान माना जाता था।


3. धार्मिक शिक्षा का विकास (Development of Religious Education)

बौद्धकालीन शिक्षा में धर्म का स्थान सर्वोपरि होने के कारण बौद्ध धर्म की शिक्षा के साथ ही अन्य मुख्य धर्म एवं दर्शनों की शिक्षा की व्यवस्था भी की गई थी। पाठ्य विषयों में धार्मिक ग्रन्थों की अधिकता थी तथा धर्म के माध्यम से ही पारलौकिक अर्थात् मोक्ष प्राप्ति हेतु प्रयास किये जाते थे। छात्रों को सर्वप्रथम महात्मा बुद्ध द्वारा खोजे गये चार आर्य सत्यों का ज्ञान कराया जाता था व इसके बाद उन्हें निर्वाण की प्राप्ति हेतु अष्टांगिक मार्ग (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् वाक्, सम्यक् आजीव, सम्यक व्यायाम और सम्यक् समाधि) में प्रशिक्षित किया जाता था।


4. जीवन की तैयारी हेतु कला कौशल व व्यवसायों की शिक्षा (Education for Arts and Occupations for Preparation of Life)

इस शिक्षा प्रणाली में धार्मिक शिक्षा के अतिरिक्त छात्रों को सांसारिक तथा व्यावहारिक ज्ञान देने की भी व्यवस्था थी, जिससे वे जीवन में प्रवेश कर अपना जीविकोपार्जन कर सकें क्योंकि बौद्ध दर्शन में मनुष्यों को संसार से विमुख होने की अपेक्षा उसे संसार के दुःखों से बचने का उपदेश दिया गया है।


अत: छात्रों के लिये कृषि, पशुपालन, कला-कौशल और वाणिज्य के क्षेत्र में विकास हेतु इनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था मठों व विहारों में की गई। उत्तर वैदिक काल में जहाँ व्यवसाय की शिक्षा वर्णानुसार दी जाती थी, वहीं बौद्धकाल में इसे छात्रों की योग्यता और क्षमता के आधार पर देना प्रारम्भ किया गया।


परिणामत: इन क्षेत्रों में और अधिक प्रगति हुई। उन्हें कातना, बुनना, चित्रकला, संगीत तथा चिकित्सा आदि विषयों का भी समुचित ज्ञान कराये जाने से दस्तकारी, औद्योगिक तथा कृषि शिक्षा की उन्नति भी इस काल में हुई। सैनिक प्रशिक्षण तथा स्त्री शिक्षा पर भी समुचित ध्यान दिया गया।


5. नैतिकता का विकास (Development of Morality)

बौद्ध दर्शन के अष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत बताये जाने वाले आचरण सम्बन्धी विषयों में सैद्धान्तिक पक्ष की अपेक्षा व्यावहारिक पक्ष को प्रधानता दी गई है, जिससे नैतिक मूल्यों का विकास होता है। बौद्ध दर्शन के साथ ही बौद्ध धर्म के अन्तर्गत भी नैतिक आचरणों को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों में शिक्षकों के लिये भी आचरण मार्ग का सूत्र दिया। शिष्य द्वारा गुरु के आदर्शों का अनुसरण करने से नैतिक आचरणों का विकास होता है।


6. मानव संस्कृति का संरक्षण व विकास (Development and Preservation of Human Heritage)

बौद्ध धर्म के अन्तर्गत भारतीय संस्कृति को अधिक महत्त्व दिया गया है तथा इसके प्रचार व प्रसार हेतु वेद उपनिषद आदि का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया गया, जिसके परिणामस्वरूप बौद्ध संस्कृति का विकास हुआ। जिसे भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान कहा जा सकता है। उस काल में सैकड़ों विद्वान प्राचीन साहित्य के संरक्षण और नवीन साहित्य के निर्माण में लगे थे। ये प्राचीन ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करते थे और भिन्न भाषाओं में उनका अनुवाद करते थे।


7. सामाजिक विकास (Social Development)-

बौद्ध दर्शन में सामाजिक आचार-विचार की शिक्षा को महत्त्व दिये जाने से व्यक्तियों में सामाजिक योग्यताओं और क्षमताओं का विकास होता था। बौद्ध भिक्षु देश-विदेश में जाकर उपदेश तथा दीक्षा देते थे, जिससे बौद्ध धर्म का प्रचार तथा प्रसार हुआ। इसके परिणामस्वरूप बौद्ध धर्म का प्रचार तथा प्रसार अधिक व्यापक हो गया। सामाजिक विकास हेतु जनतान्त्रिक दृष्टिकोण को अपनाये जाने पर बल दिया जाता था।


8. निर्वाण प्राप्ति (Attainment of Salvation)

बौद्ध शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य सादा जीवन, उच्च विचार' के सिद्धान्त को अपनाते हुये समाधि लेना अर्थात् निर्वाण प्राप्त करना था। निर्वाण के लिये जीवन में उदारता, दया, करुणा, सत्य, अहिंसा, पवित्रता, शुद्धता, त्याग, तप, बलिदान, मानवता और कत्र्तव्यपरायणता आदि गुणों का होना बहुत आवश्यक है।


अतः बौद्ध शिक्षा प्रणाली में इसे सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता था। यही कारण था कि भिक्षु एक विशेष प्रकार का अत्यधिक सादा पहनावा धारण करते थे, जिसे चीवर (Chivar) कहा जाता था। वे भिक्षा पात्र में ही भिक्षा लेकर सादा भोजन करते थे और पेड़ों के नीचे भूमि पर ही सोते थे। अपनी न्यूनतम आवश्यकता से अधिक का संग्रह भी नहीं करते थे। गुरु तथा शिष्य दोनों को ही इस प्रकार की जीवन पद्धति का निर्वाह करना पड़ता था।


9. सम्बोधि का विकास करना (Development of Inner Awakening')

बौद्ध शिक्षा का एक मुख्य लक्ष्य सम्बोधि या आन्तरिक जागृति करना है। सभी प्रकार की शिक्षा आन्तरिक जागृति की ओर उन्मुख करती है।


10. प्रकृति का व्यावहारिक ज्ञान (Practical Knowledge of Nature)

बौद्ध दर्शन में प्रकृति और भौतिक संसार के अस्तित्व में विश्वास करने के कारण संयमित व वैराग्यपूर्ण जीवन की सिफारिश की गई है तथा शरीर को अत्यधिक प्रताड़ित करने का निषेध किया गया है। अतः मनुष्य को अपने परिवेश के साथ सन्तुलन बनाये रखते हुये अपनी इच्छाओं को सीमित रखना चाहिये। मठों व विहारी के भवनों की विशालता व सुन्दरता उनके प्रकृति प्रेम की परिचायक है।


बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था की विशेषताएँ (CHARACTERISTICS OF BUDDHIST EDUCATION SYSTEM)


बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था की विशेषताएँ (CHARACTERISTICS OF BUDDHIST EDUCATION SYSTEM)


बौद्धकाल में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ जिसे बौद्ध शिक्षा प्रणाली कहते हैं। इसके प्रमुख अभिलक्षणों का क्रमबद्ध वर्णन निम्न प्रकार है


बौद्ध शिक्षा की प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था (Administrative and Economic Organization of Buddhist Education)


बौद्ध शिक्षा प्रणाली के प्रशासन व वित्त के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य दृष्टव्य है-


1. शिक्षा पर बौद्ध संघों का नियन्त्रण-

विहारों का प्रशासन बौद्ध संघ के अन्तर्गत होता था। सर्वोच्च ज्ञानी भिक्षुक इनका प्रधान आचार्य होता था, जिसके अधीन दो समितियाँ होती थीं। पहली शैक्षणिक कार्यों की देख-रेख तथा दूसरी प्रशासनिक कार्यों की देख-रेख करती थी। प्रवेश, परीक्षा, पाठ्यक्रम, छात्रावास, भोजन, चिकित्सा, पुस्तकालय तथा विभिन्न पाठ्य विषयों के अलग-अलग विभाग होते थे। जिनके पृथक् पृथक् अध्यक्ष होते थे। विहारों का प्रबन्ध जनतन्त्र के सिद्धान्तों पर आधारित था। प्रत्येक निर्णय मतदान द्वारा लिये जाते थे।


2. शासन का संरक्षण प्राप्त-

बौद्ध काल में तत्कालीन राजा शिक्षा व्यवस्था हेतु समुचित धन उपलब्ध कराते थे व शिक्षण संस्थाओं के संचालन हेतु गाँव के गाँव दान में दे देते थे। अतः वैदिक काल की अपेक्षा बौद्ध काल में शासन के सहयोग व संरक्षण से शिक्षा संस्थाओं की अधि एक उन्नति हुई।


3. आर्थिक व्यवस्था-

बौद्ध काल में शिक्षण की व्यवस्था मठों व विहारों में होती थी। इन विहारों के संचालन का व्ययभार उसके संस्थापकों व अनुयायियों द्वारा वहन किया जाता था। अधिकांशतः विहारों को दान में इतनी स्थायी सम्पत्ति दे दी जाती थी, कि इसकी आय से विहार का व्यय सुविधापूर्वक चल सकता था। विहारों हेतु विशेष भवन की भी व्यवस्था की जाती थी।


4. प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क तथा उच्च शिक्षा सशुल्क-

बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक स्तर की शिक्षा व्यवस्था निःशुल्क थी। आरम्भ में शिक्षा केवल बौद्ध भिक्षुकों को दी जाती थी, परन्तु इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ से सामान्य जन को भी शिक्षा देने का प्रबन्ध किया गया था। उच्च शिक्षा के छात्रों से शुल्क लिया जाता था। विद्यार्थी से रहने खाने का व्यय लिया जाता था, परन्तु निर्धन एवं योग्य विद्यार्थी धन के स्थान पर अपनी सेवाएँ भी अर्पित कर सकता था।


बौद्ध शिक्षा प्रणाली में शिक्षा की संरचना व संगठन (Organization and Structure of Education)


बौद्ध शिक्षा प्रणाली में शिक्षा को निम्न स्तरों में बाँटा गया था-


1. प्राथमिक शिक्षा (Primary Education)

जातक कथाओं द्वारा ज्ञात होता है कि प्राचमिक शिक्षा केवल बौद्ध धर्मावलम्बियों को ही नहीं, वरन् सब जातियों के बालकों को दी जाती थी और आरम्भ में पूर्णतया निःशुल्क थी। कुछ समय पश्चात् प्रतिद्वन्द्वी शिक्षण संस्थाओं में लौकिक शिक्षा के आरम्भ से, इन मठों में भी इस शिक्षा की व्यवस्था कर दी गई। प्राथमिक शिक्षा आरम्भ करने की आयु 6 वर्ष थी व शिक्षण अवधि भी 6 वर्ष की थी, जिसकी व्यवस्था बौद्धमठों एवं विहारों में की जाती थी। यह शिक्षा 12 वर्ष की आयु तक चलती थी।


2. उच्च शिक्षा (Higher Education)

प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद उच्च शिक्षा में प्रवेश हेतु परीक्षा होती थी और योग्य छात्रों को उच्च शिक्षा में प्रवेश दिया जाता था। यह शिक्षा सामान्यतः 12 वर्ष की आयु से आरम्भ होकर 20-25 वर्ष तक चलती थी। इनसे कुछ शुल्क भी लिया जाता था। उच्च शिक्षा के बाद कुछ छात्र गृहस्थ जोवन के लिये चले जाते थे, परन्तु कुछ योग्य व इच्छुक छात्रों को आगे की भिक्षुक शिक्षा हेतु उपसम्पदा संस्कार किया जाता था।


3. भिक्षु शिक्षा (Monk Education)

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद जो छात्र बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार कार्य में लगना चाहते थे, उन्हें उपसम्पदा संस्कार के बाद भिक्षु शिक्षा में प्रवेश दिया जाता था। यह शिक्षा सामान्यतः 8 वर्ष की अवधि की थी जिसे पूरा करने के बाद वे भिक्षु कहलाते थे व धर्म का प्रचार व शिक्षण कार्य करते थे। जो व्यक्ति भिक्षु शिक्षा के बाद बौद्ध धर्म दर्शन में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे, उन्हें अधिक वर्षों तक अपनी भिक्षु शिक्षा जारी रखनी पड़ती थी।


4. शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु (Beginning Age of Education)

प्राथमिक शिक्षा के लिये 8 वर्ष व उच्च शिक्षा हेतु 20 वर्ष प्रवेश की आयु थी। उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिये योग्यता की कठिन परीक्षा ली जाती थी। प्रवेश में जाति बन्धन नहीं था।


5. बौद्ध शिक्षा के तीन वचन (सरनत्रय) एवं नियम (पब्बज्जा संस्कार) (Three Words of Shelter and Laws of Buddhist Education)-

बौद्ध शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत जब कोई बालक अपने घर से शिक्षा प्राप्ति हेतु संघ में प्रविष्ट होता था, तो मठ या विहार के अधिष्ठाता या शिक्षक भिक्षु (Monk as a teacher) उसका पब्बज्जा संस्कार करते थे। इस संस्कार के दौरान शिक्षक शिष्य को निम्न तीन वचन उच्चारित करने का आदेश देता था-


(i) बुद्धं शरणं गच्छामि (I go to the Shelter of Buddha)

( ii) धम्मं शरणं गच्छामि (I go to the Shelter of Religion)

(iii) संघ शरणं गच्छामि (I go to the Shelter of Sangh)


उक्त तीन वचन लेने के बाद गुरु अपने शिष्य को दस नियमों से अवगत कराता था, जिसमें झूठ न बोलना, जीव हत्या न करना, चारित्रिक शुद्धि, नशीली वस्तुओं का सेवन न करना, अभद्र भाषा का प्रयोग न करना, सोने चाँदी की वस्तुएँ उपहार में न लेना व श्रृंगार-प्रसाधनों का प्रयोग न करना आदि बातें शामिल थीं।


इस प्रकार संघ के उक्त तीन वचनों (Vows) के बाद, जिन्हें 'सरनत्रय' भी कहा जाता था। बालक 'शरणत्रयी' लेता था। उसके बाद ही शिष्य को 'छात्र भिक्षु' के रूप में स्वीकार किया जाता था। पब्बज्जा संस्कार के बाद बालक 'सामनेर' कहलाता था और उसे मठ में ही रहना होता था।


बौद्धमठों में विकलांग, दंडित व्यक्तियों तथा राज्य के कर्मचारी व सैनिक को पब्बज्जा का अधिकार नहीं था। यह संस्कार वैदिक युग के उपनयन संस्कार से मिलता-जुलता था। 'विनय पिटक' में इस संस्कार का वर्णन इस प्रकार दिया गया है " छात्र अपने सिर के बाल मुँड़ाता था, पोले कपड़े पहनता था।


मठ के भिक्षुओं के चरणों में अपना माथा टेकता था और फिर पालथी मारकर बैठ जाता था। मठ का सबसे बड़ा भिक्षु उससे 'सरणत्रयी' लेता था व दस प्रतिज्ञाएँ (Vows) कराता था।" इस हेतु माता-पिता की अनुमति आवश्यक होती थी।


बौद्ध शिक्षा का दूसरा संस्कार उपसम्पदा (Upsampada) था। इसके पश्चात् उच्च शिक्षा में प्रवेश मिलता था। यह संस्कार 20 वर्ष की आयु के पूर्व नहीं होता था। 10 विद्वत् भिक्षुकों के समक्ष विद्यार्थी का परिचय कराया जाता था और वे कठिन परीक्षा के बाद बहुमत से यह निर्णय लेते थे, कि नवागत को प्रवेश दिया जाये अथवा नहीं।


उपसम्पदा के पश्चात् श्रमण भिक्षुक बन जाता था और जीवन भर अथवा शिक्षा समाप्ति तक भिक्षुक ही रहता था। उपसम्पदा के समय भिक्षु को चार व्रत धारण करने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी


(1) वृक्ष के नीचे सोना,

(ii) भिक्षा पात्र में भिक्षा लेकर भोजन करना,

(iii) माँगे हुये वस्त्रों को धारण करना,

(iv) औषधि के रूप में गोमूत्र का सेवन करना।


इसके अतिरिक्त भिक्षु को चोरी, प्राणी हत्या तथा चमत्कारिक प्रदर्शन करना वर्जित होता था।


6. विद्यार्थीत्व (Studentship)

बौद्ध शिक्षा प्राप्ति का अधिकार सभी धर्मों, वर्गों व जातियों के लिये था। केवल चांडालों को इस शिक्षा से वंचित रखा गया था। छात्रों में राजाओं, व्यापारियों, दर्जियों और मछली पकड़ने वालों के पुत्र थे। इनमें अधिकांशत: ब्राह्मण और क्षत्रिय जाति के छात्र थे।


7. विद्यार्थियों का चुनाव (Selection of Students)-

यद्यपि सिद्धान्त के रूप में समाज के सभी व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। परन्तु निम्न 10 वर्गों के किसी भी व्यक्ति को विद्यार्थित्व के लिये नहीं चुना जाता था नपुंसक, दास, यात्री, राजा की नौकरी में लगा हुआ व्यूक्ति, डाकू, कारावास से भागा व्यक्ति, अंग-भंग युक्त व्यक्ति, शारीरिक विकृति से युक्त, राज्य द्वारा दण्ड प्राप्त व्यक्ति, माता-पिता की आज्ञा न मानने वाला तथा क्षय, कोढ़ या खुजली आदि छूत के रोग से ग्रसित व्यक्ति। इनके अतिरिक्त सभी व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार था।


8. अध्ययन की आयु व अवधि (Age and Period of Study)-

इस काल में अध्ययन आरम्भ करने की न्यूनतम आयु 8 वर्ष थी। 'पब्बज्जा' संस्कार के बाद अध्ययन की अवधि 12 वर्ष व' उपसम्पदा' की 10 वर्ष थी। 'पब्बज्जा' संस्कार 8 वर्ष की आयु में होता था, अत: शिक्षा की पूर्ण अवधि 30 वर्ष थी।


9. अध्ययन के विषय (Subjects of Study)

डॉ. ए. एस. अल्तेकर के अनुसार अध्ययन के विषय न तो पूरी तरह धार्मिक थे न पूरी तरह लौकिक। शिक्षा में बौद्ध दर्शन की प्रधानता होते हुये भी हिन्दू और जैन धर्मों के अध्ययन के प्रति पर्याप्त ध्यान दिया जाता था। शिक्षा केवल धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र तक ही सीमित न रहकर संस्कृत, न्यायशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र आदि विषय भी बौद्धकालीन शिक्षा में सम्मिलित किये गये थे।


बौद्ध कालीन शिक्षा के शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)


बौद्ध काल में शिक्षण विधि प्रायः मौखिक थी। सामान्यतः भाषण प्रवचन व प्रश्नोत्तर विधि प्रचलित थी, क्योंकि शिक्षा सामूहिक रूप से दी जाती थी। इसके अतिरिक्त देशाटन, प्रकृति निरीक्षण, तर्क, वाद-विवाद, व्याख्या व शास्त्रार्थ विधि का भी प्रयोग होता था।


ह्वेनसांग ने शिक्षण विधि के सम्बन्ध में लिखा है "शिक्षक सामान्य अर्थ को स्पष्ट करते हैं और सूक्ष्म विवेचन से उन्हें पढ़ाते हैं: वे उन्हें क्रिया (परिश्रम) हेतु प्रेरित करते हैं और प्रगति के लिये कुशलता से उन्हें प्रवृत्त करते हैं तथा निष्क्रिय छात्रों को निर्देशित करते हैं, व मन्दबुद्धि छात्रों को उत्साहित करते हैं।"


अत: इस शिक्षा व्यवस्था में चिन्तन, मनन तथा स्वाध्याय को भी उचित स्थान प्राप्त था। समय-समय पर धार्मिक चर्चा, गोष्ठी, परिषद् तथा विद्वत् सभा का भी आयोजन किया जाता था। बौद्धकाल की शिक्षा में निम्नलिखित शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता था-


1. व्याख्या विधि (Explanation Method)

चीनी यात्री हेनसांग के अनुसार, शिक्षक छात्रों को पाठ्यवस्तु का अर्थ बताते थे और पाठ्यवस्तु की सविस्तार व्याख्या करते थे। इस विधि का प्रयोग उच्च स्तर पर विशेष रूप से किया जाता था।


2. अनुकरण विधि (Imitation Method)

अनुकरण विधि सीखने-सिखाने की स्वाभाविक विधि है। बौद्धकाल में इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर पर किया जाता था। भाषा की शिक्षा की शुरुआत तो इसी विधि से की जाती थी। शिक्षक अक्षरों का उच्चारण करते थे तथा छात्र उनका अनुकरण करते थे। शिक्षक अक्षरों को लिखकर दिखाते थे व छात्र उनका अनुकरण कर अक्षर लिखना सोखते थे। क्रिया प्रधान विषयों के शिक्षण में भी इसी विधि का प्रयोग किया जाता था।


3. प्रश्नोत्तर विधि (Question-Answer Method)

शिक्षण के दौरान प्रायः शिष्य गूढ़ प्रश्नों तथा अपनी शंकाओं के निवारण द्वारा विषयवस्तु को समझने का प्रयत्न करते थे। गुरु भी उदाहरणों तकों और व्याख्याओं द्वारा उनको संतुष्ट करने का यथासम्भव प्रयास करते थे।


4. वाद-विवाद व तर्क विधियाँ (Debates)

विवादास्पद विषयों का शिक्षण वाद-विवाद व तर्क विधियों से होता था। अपने-अपने मत की पुष्टि में 8 प्रकार के प्रमाण प्रस्तुत किये जाते थे।


5. भ्रमण विधि (Tour Method)

बौद्ध शिक्षा में भ्रमण, पर्यटन व देशाटन के माध्यम से प्रकृति का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने की विधि को महत्त्व दिया गया है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करते हुये यहाँ की शिक्षा, जीवन पद्धति व दार्शनिक विचारों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उसने यहाँ आकर बौद्ध शिक्षा भी ग्रहण की थी।


6. सम्मेलन व शास्त्रार्थ विधि (Conference and Shastrarth Method)

बौद्धकाल में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सम्मेलनों का आयोजन भी होता था। इन सम्मेलनों में विषय विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता था। इसे विद्वत् सभा भी कहते थे। इनमें व्याख्यान व शास्त्रार्थ होता था।


7. प्रदर्शन व अभ्यास विधि (Demonstration and Exercise Method)

यह विधि अनुकरण विधि का ही उच्च रूप है तथा इसका प्रयोग विविध कलाओं, शिल्पों, व्यावसायिक विषयों व चिकित्सा विज्ञान के शिक्षण हेतु किया जाता था। अनुकरण द्वारा क्रिया का बार-बार अभ्यास करके दक्षता प्राप्त की जाती थी।


8. स्वाध्याय विधि (Self Study Method)

इस काल में लेखन कला का विकास होने से मुख्य ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ भी तैयार हो चुकी थीं, जो बड़े-बड़े पुस्तकालयों में उपलब्ध थीं। इससे अध्ययन की स्वाध्याय विधि का विकास हुआ।


9. व्याख्यान विधि (Lecture Method)

इस विधि के अन्तर्गत सम्बन्धित विषय के विशेषज्ञों को बुलाकर उनके व्याख्यान कराये जाते थे। जिससे शंका समाधान होता था व उच्च शिक्षा के छात्र विषयों का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे।


10. छात्र जीवन सम्बन्धी नियम (Rules Coverning Students Life)

बौद्ध मठों या विहारों में छात्र जीवन से सम्बन्धित अनेक नियम थे, जिनका पालन करना प्रत्येक छात्र के लिये अनिवार्य था। छात्रों को स्नान के समय खेल करना निषेध था। इसके अलावा वे एक-दूसरे पर जल नहीं फेंक सकते थे। उन्हें अपने शरीर को लकड़ी या अन्य छात्र के शरीर से रगड़ना वर्जित था।


छात्र प्रातः उठकर दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर भिक्षाटन के लिये जाते थे। वे मौन होकर अपनी आवश्यकता के अनुरूप भिक्षा माँग सकते थे। छात्रों का भोजन अत्यन्त सादा होता था। वे दिन में तीन बार भोजन कर सकते थे। रात्रि के भोजन के लिये अक्सर वे एवं उनके शिक्षक कहीं-न-कहीं आमंत्रित रहते थे। छात्रों को जनसाधारण से भिन्न परन्तु कम वस्त्र पहनने का निर्देश था। वे सामान्यतः त्रिसिवरा (Tricivara) नामक तीन वस्त्र धारण करते थे।


11. शिक्षा का जनतन्त्रीय संगठन (Democratic Organization of Education)

बौद्ध काल में शिक्षा को जनतन्त्रीय आधार प्रदान किये जाने से सभी जातियों के लोगों को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार दिया गया था। अतः शिक्षा केन्द्रों को भी जनतन्त्रीय आधार पर संगठित किया गया था। इन शिक्षा केन्द्रों में एक विद्वान भिक्षु, शिक्षा केन्द्रों का प्रधान संचालक नियुक्त किया जाता था, जिसकी अधीनता में विभिन्न विषयों के महोपाध्याय होते थे। इन शिक्षा केन्द्रों को तत्कालीन राजाओं तथा धनिकों से सहायता मिलती थी।


परन्तु इनके प्रबन्ध में किसी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप नहीं था। इस प्रकार वैदिक काल में संगठित शिक्षा संस्थाओं के अभाव के विरुद्ध इस काल में संगठित सार्वजनिक शिक्षा संस्थाओं का उदय हुआ। शिक्षा के अन्य पक्षों पर चर्चा करने से पूर्व हमें यह भी जान लेना आवश्यक है कि बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य व आदर्श क्या थे, ताकि हम शिक्षा व्यवस्था के बारे में सम्यक् ज्ञान व आवश्यकता को जान सकें।


बौद्ध शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum of Buddhist Education)


वैदिक शिक्षा की भाँति बौद्ध शिक्षा भी धर्म प्रधान थी। अतः धार्मिक व आध्यात्मिक शिक्षा इसके सभी स्तरों पर अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाती थी। जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति हेतु भी धार्मिक शिक्षा को प्रमुख आधार बनाया गया था। इसलिये धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत गौतम बुद्ध के उपदेश, धर्मशास्त्र, और बौद्ध धर्म के तीन ग्रंथ (त्रिपिटक) के अध्ययन को पाठ्यक्रम मैं सम्मिलित किया गया था।


बौद्ध धर्म की शिक्षा के पाठ्यक्रम में नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र व समाजशास्त्र को विशेष महत्त्व दिया जाता था तथा वेद, उपनिषद, पुराण, ज्योतिष, व्याकरण, सांख्य, योग आदि को सम्मिलित किया गया था। प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में पठन पाठन, लेखन, गणित आदि विषयों का ज्ञान कराया जाता था और इसे लौकिक पाठ्यक्रम भी कहा जाता था। इसके अन्तर्गत कृषि, पशुपालन, वाणि राज्य (व्यवसाय) तथा चिकित्सा आदि का भी समावेश किया गया था।


उच्च शिक्षा में दर्शन, धर्म, आयुर्वेद, सैन्य शिक्षा का सामान्य ज्ञान देने के बाद विशिष्ट शिक्षा शुरू की जाती थी। विशिष्ट शिक्षा की पाठ्यचर्या में पाली, प्राकृत और संस्कृत भाषा और इन भाषाओं के व्याकरण एवं साहित्य, खगोलशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र, न्यायशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, कला कौशल (मूर्तिकला, संगीत, कताई, बुनाई, रंगाई), भवन निर्माण विज्ञान, आयुर्विज्ञान, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, वैदिक धर्म, ईश्वर शास्त्र, तर्क, दर्शन और ज्योतिष आदि सभी विषयों एवं क्रियाओं को स्थान दिया गया था।


भिक्षु शिक्षा की अवधि, जो सामान्यत: 8 वर्ष थी, में जो भिक्षु बौद्ध-धर्म-दर्शन का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे, उन्हें केवल बौद्ध धर्म एवं दर्शन का ही ज्ञान कराया जाता था और उसके लिये इनकी पाठ्यचर्या में बौद्ध साहित्य (त्रिपिटक, सुत्त, विनय और धम्म) को रखा गया था। परन्तु धर्म के तुलनात्मक अध्ययन हेतु वैदिक धर्म का भी ज्ञान कराया जाता था। प्रारम्भ में लौकिक व धार्मिक शिक्षाएँ सभी को दी जाती थीं, परन्तु आगे उच्च शिक्षा स्तर पर लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा में विशेष योग्यता प्राप्त करने का प्रावधान था।


बौद्ध शिक्षा का अनुशासन (Discipline of Buddhist Education)


बौद्धकालीन शिक्षा में भी वैदिक शिक्षा को भाँति सभी गुरुओं और शिष्यों को कठोर अनुशास का पालन करना पड़ता था। इस काल में प्रभाववादी अनुशासन पर विश्वास किया जाता था। गुरु स्वयं अनुशासित जीवन व्यतीत करते थे। वे महान ज्ञानी, उच्च चरित्र और आत्मदर्शी होते थे। अत छात्र के मन में भी गुरु के प्रति सम्मान रहता था और वे स्वेच्छा से गुरु की आज्ञाओं का पालन कर थे।


इस काल में शारीरिक दण्ड नहीं दिया जाता था। परन्तु गुरु व शिष्यों को बौद्ध संघों के नियमों का कठोरता से पालन करना होता था। सामान्य छात्रों को पब्बज्जा संस्कार के समय बताये गये 10 नियमों का पालन करना होता था तथा भिक्षु की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को इनके अतिरिक्त 8 और नियो का पालन करना होता था। उस काल में इन नियमों के पालन को ही अनुशासन कहा जाता था। माह में सामान्यत: दो बार छात्र और शिक्षक एक स्थान पर एकत्रित होकर आत्मनिरीक्षण करते थे और अपने दोष स्वीकार करते थे।


इससे उनमें आत्मानुशासन की भावना का विकास होता था। गुरु व शिष्य दोनों किसी भी नियम के भंग होने पर एक-दूसरे को सचेत रखते थे। संघ की मर्यादा भंग करने वाले, भियु (शिक्षक) का अपमान करने वाले और शादी करने जैसे अपराध करने वाले छात्रों को मठ व विहारों से निकाल दिया जाता था।


बौद्ध शिक्षा में शिक्षक (उपाध्याय) (Teacher (Upadhyay) of Buddhist Education]


बौद्ध काल में शिक्षक को बहुत उच्च स्थान प्राप्त था। बौद्ध भिक्षु ही शिक्षण का कार्य करते थे तथा उन्हें 'उपाध्याय' कहा जाता था। शिक्षक के लिये शिक्षण योग्यता के अतिरिक्त बौद्ध धर्म का धर्मावलम्बी होना भी आवश्यक था। इसके अतिरिक्त आजीवन अविवाहित रहना, बौद्ध संघों के नियमों का कठोरता से पालन करना व अति विद्वान, आत्मसंयमी व चरित्रवान होना भी आवश्यक था। बौद्ध उपाध्याय ही अपने शिष्यों (श्रमणों) के आवास एवं भोजन की व्यवस्था करते थे, उनका ज्ञानवर्धन करते थे व उन्हें सांसारिक दुःखों से छुटकारा प्राप्त करने का मार्ग बताते थे।


बौद्ध शिक्षा में गुरु-शिष्य सम्बन्ध (Teacher-Taught Relationship in Buddhist Education)


बौद्धकाल में गुरु शिष्य सम्बन्ध वैदिक युग की भाँति ही उच्चकोटि के तथा मधुर थे। गुरु-शिष्यों को पुत्रवत् मानते थे तथा शिष्य भी गुरुओं को पिता तुल्य मानते थे। अतः गुरु शिष्य सम्बन्ध परस्या प्रेम और श्रद्धा पर आधारित था। छात्र के प्रति सद्भाव रखना और गुरु के प्रति श्रद्धा करना एक पुनीत कर्त्तव्य माना जाता था। उस समय गुरु प्रायः मठों एवं विहारों का प्रशासन एवं शैक्षणिक कार्य की व्यवस्था देखते थे और शिष्य उनके आदेशानुसार विभिन्न कार्यों का सम्पादन करते थे। यहाँ बौद्धकालीन गुरुओं के शिष्यों के प्रति और शिष्यों के गुरुओं के प्रति उत्तरदायित्व भिन्न-भिन्न थे।


1. गुरुओं के शिष्यों के प्रति उत्तरदायित्व -

बौद्धकाल में गुरु शिष्यों के आवास एवं भोजन की व्यवस्था करने के साथ ही उनके स्वास्थ्य की देखभाल भी करते थे तथा अस्वस्थ होने पर उपचार की व्यवस्था भी करते थे। शिक्षक का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य यह था कि वह प्रत्येक सम्भव विधि का प्रयोग करके छात्र का मानसिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास करें। इसके अतिरिक्त वह छात्र के भोजन, वस्त्र, भिक्षा-पात्र, रहन-सहन आदि की व्यवस्था करता था। गुरु शिष्यों को बौद्ध धर्म का ज्ञान कराने के साथ शिष्यों के आचरण पर दृष्टि रखता था व उसके चरित्र निर्माण में सहायता के साथ ही उसे निर्वाण प्राप्ति का मार्ग भी दिखाता था।


2. शिष्यों के गुरुओं के प्रनि उत्तरदायित्व

छात्र अपने शिक्षक के जागने से पहले ही उठकर गुरुओं के लिये दी और स्नानादि को व्यवस्था करने के उपरास गुरु के बैठने के स्थान को साफ ता था। वा शिक्षक के बर्तनों को साफ करता था व उसके साथ भिक्षाटन हेतु जाता था। गुरु के दने से पहले ही वह उनके लिये भोजन को व्यवस्था करके रखता था। शिष्य महों व बिहारों की अवस्था में गुरुओं का सहयोग करते थे व उनके आदेशानुसार सभी कार्यों को सम्पादित करते थे। शिक्षक के बीमार होने की स्थिति में शिष्य हरदम उसकी सेवा में उपस्थित रहता था।


परीक्षायें व उपाधियाँ (Examinations and Degrees)


बौद्धकाल में आज की तरह परीक्षाएँ नहीं होती थीं। प्राथमिक स्तर पर तो अधिकारी शिक्षक सन्तुष्ट होने पर उन्हें सफल घोषित करते थे। इस स्तर पर उत्तीर्ण छात्रों को किसी प्रकार का प्रमाणपत्र नहीं दिया जाता था। उच्च स्तर पर भिक्षुओं (शिक्षकों) का एक पैनल छात्रों से मौखिक रूप से परीक्षा लेता था और सफल छात्रों को उपाधियाँ दी जाती थीं।


बौद्ध काल में शिक्षा के अन्य पक्ष (OTHER ASPECTS OF EDUCATION IN BUDDHIST PERIOD)


1. जन शिक्षा (People Education)

जन शिक्षा का आरम्भ बौद्धकाल में हुआ था, परन्तु उसका क्षेत्र आज से कुछ भिन्न था। प्राथमिक एवं उच्च दोनों प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था मठों व विहारों में करना जन शिक्षा के सन्दर्भ में पहला प्रयास था, जिसे सभी वर्णों के बच्चों को अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के अधिकार से बल मिला।


परन्तु इसके बावजूद भी इसे जन शिक्षा कहना इसलिये भी उचित नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि इन मठों व विहारों में अस्वस्थ एवं विकलांगों को प्रवेश नहीं दिया जाता था तथा बौद्ध धर्मावलम्बियों को वरीयता दी जाती थी। इसके अतिरिक्त इतनी बड़ी संख्या में बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था भी इन मठों व विहारों में नहीं थी।


2. स्त्री शिक्षा (Women Education)

वैदिक काल के अन्त में स्त्री शिक्षा की जो अवनति होने लगी थी उसे महात्मा बुद्ध के प्रयासों से नवजीवन मिला, जब उन्होंने स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी, जिससे स्त्री शिक्षा का पर्याप्त विकास हुआ। यहाँ तक कि स्त्रियों ने उच्चकोटि की शिक्षा प्राप्त करके पुरुषों से बराबरी का प्रमाण दिया, किन्तु सामान्य स्त्रियों की शिक्षा के प्रति अधिक ध्यान नहीं दिया गया।


सहशिक्षा मठों एवं विहारों में स्त्रियों के रहने की अलग व्यवस्था किये जाने पर भी बहुत कम बालिकाएँ इनमें प्रवेश लेती थीं। इसका एक कारण संघ के कठोर नियमों का पालन करना भी चा, अतः उस युग में स्त्री शिक्षा की अच्छी व्यवस्था होने पर भी स्त्री शिक्षा का अधिक विकास नहीं हो पाया था।


3. व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education)

बौद्ध काल को भारत के इतिहास का स्वर्णकाल माना जाता है। इस काल में कला-कौशल और वाणिज्य के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई थो। परन्तु बौद्ध शिक्षा मूलतः धर्म प्रधान होने के कारण मठ व विहार इसी उद्देश्य की पूर्ति करते थे। परन्तु फिर भी व्यावसायिक शिक्षा में अपेश्चित उन्नति हुई।


बच्चों को उनकी योग्यता एवं क्षमतानुसार विभिन्न कला-कौशलों एवं व्यवसायों की शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध भिक्षुओं को कताई, बुनाई और सिलाई का प्रशिक्षण देने के साथ ही अन्य छात्रों को कृषि, पशुपालन और वाणिज्य की भी शिक्षा दो जाती थी। उस काल में चित्रकला, मूर्तिकला और भवन निर्माण कला आदि की शिक्षा भी दी जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में दस शिल्पों को शिक्षा को व्यवस्था थी।


यही कारण था कि तक्षशिला विश्वविद्यालय चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा का मुख्य केन्द्र बना व आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में अत्यन विकास हुआ। वैद्यराज धन्वन्तरि और चरक एवं शल्य चिकित्सक जीवक और सुश्रुत इसी काल में ही हुये थे। अत: हम यह कह सकते हैं कि बौद्धकाल में हस्तशिल्पों की शिक्षा लाभप्रद व्यवसायों की शिक्षा, भवन निर्माण कला, मूर्तिकला व चित्रकला की शिक्षा तथा प्राविधिक व वैज्ञानिक शिक्षा क साथ ही चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा भी सुलभ थी।


4. धार्मिक व नैतिक शिक्षा (Religious and Moral Education)

बौद्धकाल में बौद्ध महें एवं विहारों में बौद्ध धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी और बौद्ध संघों के नियमों का कठोरत से पालन कराया जाता था। बौद्ध धर्म के अनुसार आचरण को ही नैतिकता का प्रतीक माना जाता था। उच्च स्तर पर बौद्ध धर्म की शिक्षा के साथ-साथ तुलनात्मक रूप से वैदिक धर्म को शिक्षा भी दी जाएं थी, परन्तु यह ऐच्छिक थी। इस प्रकार बौद्ध मठों व विहारों में दी जाने वाली धार्मिक व नैतिक शिक्ष आज की धार्मिक सहिष्णुता का विकास करने वाली धार्मिक शिक्षा से भिन्न थी।


बौद्ध शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन (EVALUATION OF BUDDHIST EDUCATION SYSTEM)


किसी वस्तु, विचार अथवा क्रिया का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन किन्हीं आधारभूत मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया होने के नाते समाज की तत्कालीन परिस्थितियों और उसकी भविष्य की आकांक्षाओं और संभावनाओं के अनुकूल शिक्ष योजना बनाई जाती है। अतः किसी शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन इन्हीं आधारों पर किया जाना चाहिये। बौद्ध शिक्षा प्रणाली यद्यपि वैदिक शिक्षा प्रणाली से श्रेष्ठतर थी, परन्तु वर्तमान सन्दर्भ में भी यह उतनी हो उपयोगी है, जितनी उस समय; यह जानने के लिये भारत के सन्दर्भ में इस प्रणाली का मूल्यांकन या गुण-दोष विवेचन निम्न प्रकार है-


बौद्ध शिक्षा प्रणाली के गुण (Merits of Buddhist Education System)


बौद्ध शिक्षा प्रणाली के गुण निम्नलिखित हैं-


1. बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्रशासनिक व शैक्षणिक व्यवस्था अति उत्तम व गुरुओं के नियन्त्रण से मुक्त थी। यह संघों के केन्द्रीय नियन्त्रण में थी और इससे शिक्षा के स्वरूप में एकरूपता आ गई थी। आज के लोकतन्त्रीय भारत में शक्ति के विकेन्द्रीकरण की माँग के बावजूद शिक्षा को उचित स्वरूप और गति देने के लिये उस पर केन्द्र सरकार का नियन्त्रण होना आवश्यक है।


2. बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क थी, जबकि उच्च-स्तर पर शिक्षा में शुल्क लिया जाता था, जिससे इस स्तर पर अवांछित छात्र प्रवेश नहीं लेते थे।


3. मठों व विहारों की जनतांत्रिक व्यवस्था में विद्यार्थी को व्यक्तित्व के विकास के पूर्ण अवसा मिलते थे। यह व्यवस्था आज के जनतांत्रिक युग के लिये आवश्यक है।


4. विहार में प्रवेश के लिये सभी वर्णों के बच्चों को उनकी योग्यता के आधार पर शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया गया। इसी प्रकार जाति और लिंग के आधार पर कोई अन्तर नहीं किया जाता था तथा अवसरों की समानता के सिद्धान्त का पालन किया जाता था।


5. बौद्ध शिक्षा प्रणाली में एक व्यावहारिक सन्तुलन स्थापित करते हुये भौतिक, मानसिक उ आध्यात्मिक तीनों प्रकार की शिक्षा पर जोर दिया गया था।


6. इस शिक्षा में शिष्य बौद्ध धर्म के साथ-साथ सत्य, अहिंसा, चोरी न करना, दया, करुणा, प्रेम परोपकार, कर्तव्यनिष्ठता तथा पर-दुःखकातरता आदि मानवतावादी गुणों को भी सीखते थे।


7. नियम, संयम, आहार विहार, आवास तथा वस्त्रों आदि के लिये अनुशासन की व्यवस्था होने पर भी शारीरिक दण्ड नहीं दिया जाता था।


8. शिक्षा के विशिष्टीकरण पर बल दिया जाता था। इस हेतु पर्याप्त विस्तृत व संतुलित पाठ्यक्रम को व्यवस्था थी। व्यावसायिक शिक्षा का भी उत्तम प्रबन्ध था।


9 गुरु व शिष्य के सम्बन्ध आदर्श व मधुर थे।


10 शिक्षा का माध्यम लोकभाषा होने के कारण यह शिक्षा आम जनता के लिये भी लाभदायक थी। ।। सादा जीवन, उच्च विचार के सिद्धान्त का वास्तविक अनुपालन इसी काल में होता था।


12 बौद्ध शिक्षा के एक विशेष उपलब्धि पुस्तकालय थो, जिसमें प्रत्येक धर्म, प्रत्येक भाषा और प्रत्येक विषय की उच्चतम ज्ञान की पुस्तकें संग्रहीत थीं। यही कारण था कि इस काल में बुद्धिजीवियों ने अपने ज्ञान का बहुत विकास किया तथा दूसरी ओर विभिन्न कौशल भी फलते-फूलते रहे। इस प्रकार बौद्ध शिक्षा प्रणाली को एक आदर्श व महान शिक्षा प्रणाली कह सकते हैं।


बौद्ध शिक्षा प्रणाली के दोष (Demerits in Buddhist Education System)


बौद्ध शिक्षा प्रणाली अपने समय में संसार की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली होने के बावजूद कुछ समय के बाद दोषपूर्ण हो गई थी। अतः यह कालान्तर में उतनी उपयोगी नहीं रह गई थी। आज की परिस्थितियों को दृष्टिगत रखने पर हमें इस प्रणाली में निम्नलिखित दोष दिखाई देते हैं- 


1. इस शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का प्रशासन बौद्ध संघों के हाथों में होने से व आय का निश्चित साधन न होने से शिक्षा सर्वसुलभ नहीं थी। आज शिक्षा पर राज्य का उत्तरदायित्व है, अतः राज्य द्वारा शिक्षा की व्यवस्था करने से शिक्षा प्राप्ति का जन्मसिद्ध अधिकार सभी को सुलभ हो सकता है।


2. बौद्धकाल की शिक्षा का सबसे बड़ा दोष उसका धर्मप्रधान होना था। वैदिक धर्म एक श्रेष्ठ धर्म होने के बाद भी उसके कुछ दोषों व कठिनाइयों को देखते हुये बौद्ध धर्म ने धर्म व अध्यात्म से जुड़ी मूल भावना को त्याग कर अनीश्वरवादी स्वरूप ग्रहण कर लिया। अतः भारत से इस धर्म व शिक्षा का लोप हो गया।


3. बौद्धकाल में शिक्षा का अमनोवैज्ञानिक संगठन एक भिक्षुक को उसके घर, परिवार तथा अनेक भौतिक सुखों के परित्याग को विवश कर देता था। अतः धीरे-धीरे यह धर्म खण्डित होता चला गया। 4. बौद्धकाल में शिक्षा केवल प्राथमिक व उच्च दो ही स्तरों में विभाजित थी, जबकि आजकल शिक्षा को पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा के स्तरों में विभाजित किया गया है, जो अधिक संतुलित व मनोवैज्ञानिक है।


5. इस काल में शिक्षा के उद्देश्यों में भी संतुलन नहीं था। शिक्षा द्वारा ज्ञान, चरित्र, विभिन्न कला कौशल के विकास के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा भी दी जाती थी, परन्तु अधिक जोर धार्मिकता पर ही दिया जाता था। अत: जीवन के सभी पक्षों पर समान बल न देने से यह प्रणाली अमनोवैज्ञानिक थी।


6. शिक्षकों द्वारा शिक्षण कार्य अत्यन्त परिश्रम से किये जाने पर भी उचित शिक्षण विधियों का प्रयोग नहीं किया जाता था। इस काल में न तो वैदिक शिक्षा प्रणाली की तरह बालोचित नाटक एवं कहानी विधियों का प्रयोग किया गया और न ही अन्य किसी बालोचित विधि का विकास किया गया, जिससे केवल अनुकरण व रटने की विधि को ही प्रोत्साहन मिला, जो पूर्णतः अमनोवैज्ञानिक था।


7. बौद्ध शिक्षा का एक मुख्य दोष कठोर अनुशासन भी था, जो बाल, किशोर व युवा मनोविज्ञान के प्रतिकूल था।


8. मर्ने व विहारों में अत्यन्त कठोर जीवन पद्धति के कारण शिष्यों को आमोद प्रमोद के साधन उपलब्ध नहीं होते थे, जिससे वे व्यभिचार में लिप्त होते जाते थे तथा स्वतन्त्र रूप से अपना विकास नहीं कर पाते थे।


9. बौद्ध शिक्षा प्रणाली में स्त्रियों को पुरुषों की भाँति शिक्षा प्राप्ति के अधिकार होने के बावजूद स्त्री शिक्षा हेतु कोई विशेष प्रबन्ध नहीं किया गया था। उन्हें भी पुरुष छात्रों के समान कठोर नियमों का पालन करना पड़ता था, जिसके परिणामस्वरूप बहुत कम बालिकाएँ शिक्षा प्राप्ति हेतु प्रयास करती थीं, जिससे स्त्री शिक्षा में हास शुरू हो गया।


10. अहिंसा पर अधिक जोर दिये जाने के कारण, इस शिक्षा में सैन्य प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया, जिससे भारतीय जनता शत्रु से रक्षा हेतु पूरी तरह समर्थ नहीं बन पाई। यह धर्म जातिगत भेदभाव को तो स्वीकार नहीं करता था, परन्तु शिक्षा प्राप्त करने के नियम इतने कठोर थे कि आम जनता शिक्षा का लाभ नहीं उठा सकती थी।


12. धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के नाम पर बौद्ध धर्म की ही शिक्षा दी जाती थी। आज अधिकतर देशों में लोकतंत्र शिक्षा प्रणाली है जिसमें स्वतन्त्रता, समानता व भाईचारे की शिक्षा दी जाती है, परन्तु किसी धर्म को जबरदस्ती नहीं थोपा जाता है।


13. मठों व विहारों की विशाल सम्पत्ति का दुरुपयोग होने से ये षड्यन्त्रों का अखाड़ा बन गये थे। अतः हम कह सकते हैं कि बौद्ध विहारों की शिक्षा व्यवस्था अति उत्तम थी। भारत में शिक्षा के विकास व प्रसार में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। परन्तु भारतीय समाज की वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुये कुछ तत्त्व ग्रहणीय तो कुछ तत्व त्याज्य दिखते हैं। हमें इस शिक्षा प्रणाली के ग्रहणीय तत्त्वों को ग्रहण करके अपनी वर्तमान शिक्षा प्रणाली को और अधिक प्रभावी बनाना चाहिये।

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