शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education) - Questionpurs

शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education)

शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education) या स्वरूप क्या है ? शिक्षा विज्ञान है या कला। इन समस्याओं पर विद्वानों में मतभेद चला आ रहा है। इसकी प्रकृति के निर्धारण से पहले विज्ञान और कला क्या है ? जानना आवश्यक है। विज्ञान क्या है ? विज्ञान दो शब्दों विज्ञान से मिलकर बना है। 'वि' का अर्थ विशेष या विशुद्ध और ज्ञान का अर्थ ज्ञान देना होता है।

इस प्रकार विज्ञान किसी विषय का विशेष ज्ञान होता है विज्ञान नियमित ज्ञान है, जो प्रयोगात्मक तथा निरीक्षणात्मक ढंग से प्राप्त किया जाता है। विज्ञान सैद्धान्तिक होता है यह सप्यों की एक व्यवस्था है इसके प्रमुख लक्षण तथ्यात्मक, प्रमाणिकता, कार्यकार सम्बन्धों की खोज, सार्वभौमिकता तथा उसके सम्बन्ध में भविष्यवाणी करना आदि है।

शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education)
शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education)

कला क्या है ? ( What is art? )

कला ज्ञान में न होकर कुशलता में होती है। कला को कसौटी कलाकार का कौशल होता है। कला का लक्ष्य करना है न कि जानना। यह व्यक्ति के श्रेष्ठ बनाती है। जहां विज्ञान का उद्देश्य जानना होता है वही कला का उद्देश्य 'करना' या कुछ उत्पन्न करना होता है विज्ञान सैद्धान्तिक पक्ष पर बल देता है जब कि कला व्यवहारिक पक्ष पर बल देता है। कला में कौशल तथा अभ्यास शामिल है, बिना अभ्यास के कला नहीं आती ।

शिक्षा विज्ञान और कला दोनों है -

शिक्षा के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है कि शिक्षा विज्ञान है या कला। शिक्षा को न तो विज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है और न ही कला के। यह विज्ञान भी है और कला भी। विज्ञान पक्ष में इसके सिद्धान्तों, कार्यों, नियमों आदि को निध् र्धारित करने व इसका निष्कर्ष प्राप्त करने में किया जाता है। वैज्ञानिक प्रवृत्ति ने शिखा की प्रकृति में बदलाव किया है।

इसी बदलाव के फलस्वरूप शिक्षा को एक विज्ञान के रूप में देखा जाने लगा है। शिक्षा में बालक की रूचि, रूझान, योग्यता आदि का दर्शन होता है किस विषय को किस प्रकार पढ़ाया जाय, इसकी जानकारी प्राप्त होती है। इसमें शिक्षण सिद्धान्त, विधियां, पाठ्यक्रम, अनुशासन, शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध, विद्यालय आदि पर विचार किया जाता है। इसी दृष्टिकोण में शिक्षा को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है।

इसी दृष्टिकोण में शिक्षा को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है परन्तु इस विज्ञान का स्वरूप सामाजिक है, साथ ही वह प्रमाणिक भी है। कला पक्ष में शिक्षक का शिक्षण कार्य और बालक का अभ्यास कार्य आता है। शिक्षा के प्रायोगिक रूप को व्यवहार में लाने के लिए कला की आवश्यकता होती है और जब तक हम शिक्षा विज्ञान को जानकारी प्राप्त कर उसे व्यवहारिक रूप से नहीं जाएंगे तब तक शिक्षक नहीं बन सकते।

अतः शिक्षा का प्रायोगिक रूप भी महत्वपूर्ण है। उस दृष्टि से शिक्षा एक कला है। इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप शिक्षा के विषय क्षेत्र में शैक्षिक मूल्यांकन, अनुसंधान तकनीकी आदि को स्थान मिला। इस दृष्टि से शिक्षा को न तो पूर्णतः सैद्धान्तिक कहा जा सकता है और न तो पूर्णतः व्यवहारिक। इसयमें सिद्धांत और व्यवहार दोनों निहित है। इसमें गौतिक विज्ञानों के साथ-यसाथ मनोविज्ञान तथा सामाजिक विज्ञानों का भी अध्ययन किया जाता है।

इसके साथ इसमें नीतिशास्त्र तथा तर्कशास्त्र जैसे विषयों को भी स्थान प्राप्त है। इसमें शिक्षा के शिक्षण कार्य तथा बालक अभ्यास कार्य को स्थान प्राप्त है। इन्हीं कार्यों के माध्यम से शिक्षण कौशल को प्राप्त किया जा सकता है यहां पर शिक्षा के वैज्ञानिक पक्ष को सैद्धान्तिक और कलात्मक पक्ष को व्यवहार की संज्ञा दी जा सकती हैं शिक्षा में ये दोनों पक्ष एक दूसरे पर आधारित एवं अन्योन्याश्रित हैं। अतः कहा जा सकता है कि शिक्षा की प्रकृति विज्ञान, और कला दोनों की है।

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अनेक विद्वानों ने विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर शिक्षा की प्रकृति के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत करते हैं- 

1. शिक्षा एक साउद्देश्य प्रक्रिया है, इसके सभी उद्देश्य समाज द्वारा निर्धारित होते है
2. शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है क्योंकि शिक्षा समाज में के लिए, समाज द्वारा संचालित प्रक्रिया है।
3. शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। संकुचित अर्थों में यह विद्यालयों के चलती है। लेकिन व्यापक अर्थ में यह समाज में निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। 
4. शिक्षा व्यक्ति और समाज दोनों के विकास में सहायक होती है। संकुचित अर्थ में इसे निश्चित समय, निश्चित स्थान और निश्चित पाठ्यक्रम तक सीमित किया जाता है लेकिन व्यापक औं में इसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता।
5. शिक्षा में प्रयुक्त होने वाली शिक्षण विधियां भी निरन्तर चलती रहती हैं। संकुचित अर्थ में इन शिक्षण विधियों को निश्चित कर दिया जाता है लेकिन व्यापक अर्थ में ये शिक्षण विधियां अत्यन्त वृहद और व्यापक होती है।
6. शिक्षा का स्वरूप समाज की सभ्यता, संस्कृति, संरचना, शासन तंत्र, अर्थतंत्र, धर्म दर्शन, सामाजिक एवं वैज्ञानिक प्रगति आदि पर निर्भर करता है 
7. शिक्षा का सैद्धान्तिक रूप वैज्ञानिक और व्यवहारिक रूप कला है।
8. शिक्षा के कार्य विधियों के निर्माण में वैज्ञानिक नियमों और सिद्धांतों का आश्रय लिया जाता है और फिर उसे कलात्मक ढंग से व्यवहार में लाया जाता हैं इसलिये शिक्षा को विज्ञान और कला दोनो माना गया है।
9. समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार शिक्षा में भी परिवर्तन होता रहता है व्यक्ति और समाज के विकास के साथ -साथ भी शिक्षा के स्वरूप में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार शिक्षा की प्रकृति गतिशील होती है।

जॉन डीवी के अनुसार -जॉन डोवो भी शिक्षा के दो हो अंग मानते हैं परन्तु ये जॉन एडम्स से भिन्न हैं। वे हैं मनोवैज्ञानिक सोखने वाले मानसिक स्थिति, सामाजिक (सीखने वाले का सामाजिक पर्यावरण)।

डॉ० अदावल के अनुसार- इन्होंने शिक्षा के तीन अंग बताए हैं- शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षण कार्य और शिक्षण का परिणाम' या मूल्यांकन ।

रायबर्न के अनुसार- रायबर्न महोदय ने भी शिक्षा के तीन अंग बताए है, शिक्षार्थी, शिक्षक और पाठ्यक्रम।

हैण्डरसन के अनुसार - इन्होंने भी शिक्षा के तीन अंग बताए है- प्रशिक्षण, निर्देश और प्रेरणा।

अन्य विद्वानों के अनुसार कतिपय अन्य विद्वानों ने सामान्य रूप से शिक्षा के निम्नलिखित अंग माने है शिक्षार्थी, शिक्षक, पाठ्यक्रम शिक्षण विधियां एवं शिक्षण उपकरण प्राकृतिक पर्यावरण, सामाजिक पर्यावरण, मापन एवं मूल्यांकन।

उपर्युक्त वर्णित विभिन्न विद्वानों को शिक्षा के अंगों के सन्दर्भ में विचार करने से स्पष्ट होता है कि शिक्षा के मुख्य रूप से तीन अंग हैं- शिक्षार्थी, शिक्षक और पाठ्यक्रम। आज अधिकतम विद्वानों ने इन तीन अंग है शिक्षार्थी, शिक्षक और पाठ्यक्रम आज अधिकतर विद्वानों ने इन तीन अंगों के साथ-साथ शिक्षण विधियां प्राकृतिक पर्यावरण, अपने सामाजिक पर्यावरण, मापन और मूल्यांकन को भी शिक्षा का अंग स्वीकार कर लिया है। संक्षेप में इनका वर्णन निम्नलिखित हैं-

1. शिक्षार्थी :-

शिक्षार्थी का अर्थ है सीखने वाला। यह शिक्षा प्रक्रिया का प्रथम और मुख्यतम अंग होता है। शिक्षार्थी शिक्षा की प्रक्रिया का केन्द्र बिन्दु हैं शिक्षार्थी की अनुपस्थिति में शिक्षा प्रक्रिया चलने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसलिए शिक्षक को चाहिए कि वह शिक्षार्थी का पूर्ण अध्ययन करें।

वह शिक्षार्थी की नैसर्गिक शक्तियों नहीं एवं जन्मजात योग्यताओं, उसकी पारिवारिक, सामुदायिक एवं वातावरणीय विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त करे। क्योंकि शिक्षार्थी अपनी रूचि, रूझान, योग्यता, आवश्यकता के अनुसार ही ज्ञान प्राप्त करता है। शिक्षार्थी की रूचि, रूझान और योग्यता उनकी आनुवंशिकता और पर्यावरण पर निर्भर करती है।

अत: शिक्षक को उनकी आनुवांशिकता और पर्यावरण का ज्ञान होना चाहिए क्योंकि इनका ज्ञान होने पर ही शिक्षक शिक्षार्थी का उचित पथ प्रदर्शन तथा विकास कर सकता है। शिक्षाथी की शिक्षा के समय अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है समय का तात्पर्य शिक्षार्थी की जीवन काल की अवस्थाओं से है।

जिसमें शैशवावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक ये अवस्थाएँ शारीरिक परिपक्वता और अनुभव पर आधारित होती है क्योंकि सीखने की क्रिया में शिक्षार्थी के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, उसकी अभिवृद्धि और विकास, परिपक्वता, सीखने की इच्छा, उसका चरित्र, नैतिक गुण, थकान, अनुभव व ज्ञान, उत्साह उसकी अध्ययनशीलता पर निर्भर करती है।

यहां शिक्षक शिक्षार्थी के एक सहायक के रूप में कार्य करता है। यही कारण है कि शिक्षार्थी शिक्षा का केन्द्र माना जाता है और पूरी शिक्षा उसकी रूचि, रूझान, योग्यता को ध्यान में रखकर नियोजित की जाती है। यही कारण है कि आधुनिक युग में पाठ्यक्रम, पाठ्य-विषय तथा पाठ्य पुस्तकें सब बालकेन्द्रित हो गई है।

अतः अब कोई शिक्षक अपने कार्य में तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक उसे शिक्षार्थी के विषय में पूरा ज्ञान न हो। अत: शिक्षक द्वारा शिक्षार्थी को ज्ञान प्रदान करने से पूर्व उपर्युक्त तथ्यों का भलीभांति ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए, तभी शिक्षा की प्रक्रिया सही ढंग से आगे बढ़ सकती है।

2. शिक्षक :-

प्राचीन काल में शिक्षक ही शिक्षा प्रक्रिया का सर्वेसर्वा माना जाता था उस समय शिक्षक का प्रमुख स्थान था और बालक का गौण। शिक्षा को अगर व्यापक अर्थ में लिया जाय तो हम सभी शिक्षक और शिक्षार्थी है क्योंकि हम सभी एक दूसरे से कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। परन्तु वर्तमान समय में कुछ ऐसे विशेष व्यक्ति जो दूसरे के आचारों-विचारों में परिवर्तन करते हैं, शिक्षक कहे जाते हैं।

आधुनिक समय में शिक्षक की स्थिति बदलती हुई दिखाई दे रही है इसकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होने के कारण शिक्षा के कार्य में रुचि थोड़ी कम होतो प्रतीत हो रही है। आज के युग में शिाक का कार्य केवल पथ प्रदर्शक का मात्र रह गया है फिर भी शिक्षक को नियुक्ति शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ही होतो है क्योंकि शिक्षण विधि का ज्ञाता शिक्षक होता है।

जो शिक्षार्थी की रुचि, रुझान, आवश्यकता आदि को ध्यान में रखकर उपर्युक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग करता है और उसे सफलता प्राप्त करने में सहायता देता है। वह व्यक्तित्व के प्रभाव से शिक्षार्थी के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है तथा वातावरण से समायोजन करना सिखाता है। अतः कहा जा सकता है कि शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

जॉन डीवी के अनुसार "शिक्षक सदैव ईश्वर का पैगम्बर होता है वह ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने वाला होता है।" शिक्षक केवल शिक्षार्थी को ही नहीं बल्कि व्यवहारिक जगत को भी सत्य का मार्ग दिखाता है। शिक्षक की सहायता के बिना शिक्षा के उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता इसलिए कहा जा सकता है कि शिक्षक राष्ट्र का महत्वपूर्ण अंग होने के साथ-साथ राष्ट्र का निर्माता भी होता है।

3. पाठ्यक्रम :

शिक्षा की प्रकृति में शिक्षा का तीसरा महत्वपूर्ण अंग पाठ्यक्रम को माना जाता है। पाठ्यक्रम एक साधन है जो प्रयोजन का ध्यान में रखकर निर्मित किया जाता है यह शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच की कड़ी है अर्थात यह शिक्षक और शिक्षार्थी को मिलाने का कार्य करता है तथा दोनों की सीमाओं को निश्चित करके शिक्षा की समस्त योजना को शिक्षा के उद्देश्यों के अनुसार संचालित करता है क्योंकि इसके माध्यम से शिक्षक को यह पता रहता है कि उसे शिक्षार्थी को क्या सिखाने में सहायता करनी है और शिक्षार्थी को यह पता रहता है कि उसे क्या सीखना है।

वास्तव में अलग-अलग राष्ट्रों की शिक्षा प्रणाली अलग-अलग तरह से संचालित होती है। एक तंत्र शासन प्रणाली वाले राष्ट्रों और साम्यवादी राष्ट्रों में पूर्ण रूप से शिक्षा राज्य द्वारा संचालित होती है वहां पर न तो शिक्षक ही और न तो शिक्षार्थी ही अपनी अभिव्यक्त और योग्यता का विकास कर करते हैं, वचहां केवल राष्ट्र की विचारधारा का अनुसरण करना होता है। लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में अवश्य ही कुछ छूट देखने को मिलती है। लोकतंत्रात्मक शासन में पाठ्यक्रम में कठोरता, व्यवस्था तथा नियंत्रण की अपेक्षा लचीलापन, अनुकूलन तथा स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया जाता है।

जिससे शिक्षक अपनी अभिव्यक्ति और शिक्षार्थी अपनी रूचि, रूझान, आवश्यक और योग्यता के अनुसार विकास कर सकता है। अतः राज्यों को ऐसे पाठ्यक्रम को विकसित और निश्चित करना चाहिए, जिसमें शिक्षार्थी को अपनी रूचि, रूझान, आवश्यकता, योग्यता अपने पाठ्य विषय को छांटने की छूट हो। इसलिए पाठ्यक्रम को व्यापक, लचीला, आवश्यकताओं के अनुकूल तथा उद्देश्यों एवं आदर्शों की पूर्ति के लिए निर्मित करना चाहिए।

4. शिक्षण विधियां एवं शिक्षण उपकरण-

शिक्षण एक क्रिया है जिसके अन्तर्गत शिक्षक-शिक्षार्थियों को ज्ञान प्राप्त करने तथा उनको विभिन्न क्रियायों में दक्षता प्रदान करने के लिए प्रशिक्षण देना है। शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने के लिए शिक्षक के लिए यह जानकारी अत्यन्त आवश्यक है कि शिक्षार्थी को सौखने के लिए कैसे प्रशिक्षित किया जाय कि वह कम समय में भी अधिक से अधिक सीख सके और सीखने में उसकी रूचि और अभिरूचि जागृत हो सके।

विभिन्न विद्वानों ने इस पर विचार करते हुए अधिक से अधिक कार्य किया। उन्होंने शिक्षण सिद्धान्तों, शिक्षण सूत्रों, शिक्षण युक्तियों, शिक्षण साधनों तथा शिक्षण विधियों का निर्माण कर शिक्षा को सरल बनाने का प्रयास किया। इसीलिए शिक्षण विधियां और शिक्षण उपकरण शिक्षा के आवश्यक अंग माने जाने लगे।

5. प्राकृतिक पर्यावरण:-

प्राकृतिक पर्यावरण से अभिप्राय प्राकृतिक परिस्थितियों से है। अनेक शोधों, अनुसंधानों और अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि यदि प्राकृ‌क्तिक पर्यावरण प्रदूषित हो तो वहां पर बच्चे बहुत ही जल्दी थक जाते हैं। वर्तमान समय में यह आवश्यक समझा जाने लगा है कि जहा भी विद्यालय स्थापित किए जाय वहां का प्राकृतिक वातावरण शुद्ध एवं स्वच्छ हो, वह प्रदूषण से रहित हो तथा उनका समय मौसमानुकूल निश्चित किया जाय। यही कारण है कि शिक्षाविद् उसे भी शिक्षा का अनिवार्य अंग मानने लगे हैं।

6. सामाजिक पर्यावरण :

आज के समय में सामाजिक पर्यावरण को भी शिक्षा का एक अंग माना जाने लगा है। चूंकि बालक वैसा ही बनता है जैसा उसका सामाजिक पर्यावरण होता है। इसलिए उनहें उनके सामाजिक पर्यावरण को ध्यान में रखकर शिक्षा दी जानी चाहिए।

आज इस बात पर अधिक जोर दिया जाता है कि परिवार, समाज, विद्यालय सभी स्थानों पर बालक के साथ प्रेम, सद्भाव, सहानुभूति सद्भावना एवं सहयोगपूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए क्योंकि बालक अपने समाज में प्रचलित परम्पराओं, मूल्यों, आदर्शों को ही अपनाता है और उनके प्रभाव में आकर ही आचरण व्यवहार करता है।

अतः बालक को शिक्षा प्रदान करते समय उसके सामाजिक पर्यावरण को ध्यान में रखना चाहिए। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए शिक्षाविदों ने सामाजिक पर्यावरण को भी शिक्षा का अंग स्वीकार किया है। 

मापन एवं मूल्यांकन :-

वर्तमान समय में बालकों की अभिरूचि, बुद्धि, व्यक्तित्व आदि का मापन किया जाता है और उनकी उपलब्धियों के आधार पर ही उनको शैक्षिक एवं व्यवसायिक निर्देश प्रदान किया जाता है। मूल्यांकन प्रक्रिया द्वारा शिक्षण कार्य को उद्देश्यनिष्ठता की ओर अग्रसर किया जाता है।

मापन और मूल्यांकन की प्रक्रिया के द्वारा ही छात्रों की कठिनाईयों का पता लगाया जाता है तथा शिक्षक के व्यवहार के गुण एवं दोषों को देखा व समझा जाता है। इनके माध्यम से शिक्षा के लक्ष्यों, उद्देश्यों और शिक्षण विधियों में सुधार किया जा सकता है।

मापन और मूल्यांकन के माध्यम से ही बालकों की शैक्षिक उपलब्धियों तथा सीखने के प्रभाव का पता लगाया जा सकता है। इनके माध्यम से शिक्षक निदानात्मक एवं उपचारात्मक शिक्षण कर सकता। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए आज मापन एवं मूल्यांकन को शिक्षा का अंग माना जाने लगा है।

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