सती प्रथा का उन्मूलन Abolition of Sati in Hindi
सन् 1829 से पहले सती प्रथा भारत में प्रचलित थी। मुसलमानों के आ जाने के बाद हिन्दुओं में रक्त की शुद्धता को बनाये रखने की समस्या काफी गम्भीर हो गयी थी। क्योंकि मुसलमानों को हिन्दू स्त्रियों से यहाँ तक की विधवाओं से भी विवाह करने में कोई आपत्ति न थी । इस कारण एक ओर बाल-विवाह का बहुत चलन हुआ और दूसरी ओर विधवाओं को यह लालच दिखाकर कि अपने पति की चिता में जिन्दा जलकर मर जाने से उन्हें सीधा स्वर्ग मिलेगा , समाज से विधवाओं का नाम तक मिटा देने का प्रयत्न किया गया ।
धीरे-धीरे यह प्रथा अत्यन्त अमानुषिक और हृदयस्पर्शी हो गयी। सती होना विधवाओं की इच्छा पर निर्भर न रहकर तथाकथित समाज नेताओं के आदेश पर आधारित हो गया । विधवा को अफीम खिलाकर बेहोश करके उसे जबरदस्ती जलती हुई चिता में डाल दिया जाता है और अगर वह भागने की कोशिश करती थी, तो उन्हें बलपूर्वक जिन्दा ही जला कर राख हो जाने को बाध्य किया जाता था। चिता को घेरकर ढोल, नगाड़ा आदि के साथ अनेक व्यक्तियों को इतना उल्लास - नृत्य होता था कि उस जलती हुई विधवा की चीत्कार उस कोलाहल में दब जाती थी ।
उस समय के सुप्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय ने इस प्रथा का सर्वप्रथम घोर विरोध किया और उनके नेतृत्व में जो आन्दोलन उस समय बंगाल में चला उसके फलस्वरूप सन् 1829 में सती प्रथा निषेध अधिनियम पास किया गया , जिसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी भी विधवा को सती होने के सम्बन्धमें किसी प्रकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहायता करेगा, तो वह दण्डनीय होगा। धीरे-धीरे जनमत भी इस नियम के अनुकूल हो गया, जिसके कारण आज यह प्रथा समाप्त हो गयी है।
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