जनजातीय सामाजिक संगठन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए । Describe the main features of tribal social organization in Hindi.
जब विभिन्न संस्थायें , संघ , समूह और व्यक्ति अपने निर्धारित पद तथा कार्य के अनुसार क्रिया करते हैं और परिवर्तित दशाओं से युक्तिपूर्वक अनुकूलन करने में सफल होते हैं , तब इस स्थिति को हम सामाजिक संगठन कहते हैं ।
आगबर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, "सामाजिक संगठन किसी कार्य को करवाने की प्रभावशाली युक्ति है । ”
मार्शल जोन्स ( Marshall E. Jones ) के अनुसार, “सामाजिक संगठन वह व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज के विभिन्न अंग एक - दूसरे से और पूरे समाज से सार्थक ढंग से सम्बन्धित रहते हैं । "
लेपियर ( R. T. Lapiere ) के अनुसार, “ सामाजिक संगठन का तात्पर्य उच्च कोटि के क्रियात्मक सन्तुलन से है । "
रायटर तथा हार्ट लिखते हैं कि, " सामाजिक संगठन एक स्थिति या दशा है जिसमें समाज की विभिन्न संस्थाएँ किसी मान्य या अन्तर्निहित उद्देश्य के अनुसार कार्य करती हैं । "
इलियट और मेरिल ( Elliott & Merrill ) के अनुसार, " सामाजिक संगठन एक स्थिति या दशा है जिसमें समाज की विभिन्न संस्थाएँ किसी मान्य या अन्तर्निहित उद्देश्य के अनुरूप कार्य करती है । "
जॉनसन ( M. Jonson ) के अनुसार, " सामाजिक संगठन के अन्तर्गत उ समस्त प्रक्रियाओं को शामिल किया जा सकता है , जो सामूहिक जीवन का निर्माण करती हैं जिनमें संकट तथा संघर्ष की स्थितियों का सामना करने की क्षमता होती है । "
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सामाजिक संगठन समाज की एक ऐसी दशा है जिनमें सभी तत्व शान्तिपूर्वक मिलकर सहयोग के साथ कार्य करते हैं ।
सामाजिक संगठन के आधारभूत तत्व या कारक ( Fundamentals or factors of social organization )
1. निश्चित उद्देश्य तथा उसे प्राप्त करने का स्वीकृत-
कार्यक्रम किसी भी समाज के संगठन के लिए आवश्यक है कि उसका कोई निश्चित उद्देश्य हो , लक्ष्य हो और उसे प्राप्त करने के लिए कोई मान्यता प्राप्त , कार्यक्रम हो । यदि किसी समाज का निश्चित लक्ष्य और निर्धारित कार्यक्रम नहीं होता , तो उस समाज में संगठन बना रहना सन्देहात्मक होता है ।
ऐसी परिस्थिति में विघटन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । समाज के सभी प्रकार के संगठनों को चाहे वे औपचारिक हों या अनौपचारिक अपना एक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति का अपना एक विशेष तरीका होता है । यदि कार्यक्रम लक्ष्य के अनुरूप नहीं होगा तो उसकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती । फिर उस स्थिति में समाज में संगठन का बना रहना सम्भव नहीं हो पायेगा । इसलिए लक्ष्यों और कार्यक्रमों में सामंजस्य का होना आवश्यक है ।
2. सामाजिक संरचना-
कोई सामाजिक संरचना सदस्यों के मध्य सम्बन्धों की मात्रा पर निर्भर करती है । टालकॉट पारसन्स ने लिखा है कि , " सामाजिक संरचना से हमारा तात्पर्य उस विशेष व्यवस्था से है जिसका निर्माण परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं , अभिकरणों , सामाजिक प्रतिमानों तथा समूह के सदस्यों के पदों तथा कार्यों से होता है । " पद तथा कार्य में सन्तुलन होने से ही सामाजिक संगठन का सबसे मजबूत आधार बनता है ।
3. सामाजिक नियन्त्रण -
सामाजिक संगठन की स्थापना में समाज का किसी निश्चित व्यवस्था द्वारा नियन्त्रित होना एक महत्वपूर्ण तत्व है । सामाजिक नियन्त्रण में सामाजिक संगठन की स्थिरता बनी रहती है । स्टर्न ( Stern ) के अनुसार, सामाजिक नियन्त्रण जिसे एक समूह अपने सदस्यों पर लादता है , मानव कार्य में छ हद तक स्थिरता और स्थायित्व प्रदान करता है ।
मनुष्य के सामाजिक व्यवहारों पर नियन्त्रण रखने के लिए अनेक अनौपचारिक एवं औपचारिक विधियों का निर्माण किया है । इन सबकी अवहेलना करने पर व्यक्ति को सामाजिक स्वीकृति की निन्दा का पात्र बनना पड़ता है जबकि एक सामाजिक प्राणी होने के नाते कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहता कि वह जिस समाज में रह रहा है, वहाँ उसकी निन्दा हो या उसकी कोई सामाजिक मान्यता न हो ।
फलतः वह सदैव समाज के अन्य सदस्यों की भाँति संगठित होकर कोई कार्य करता है । नियन्त्रण के औपचारिक नियमों का पालन व्यक्ति राज्य के भय से करता है । इसलिए मौका मिलते ही वह उसकी अवहेलना भी कर देता है लेकिन अनौपचारिक नियम का सम्बन्ध आत्मिक होता है जिसका पालन करना व्यक्ति अपना कर्तव्य समझता है । "
4. मतैक्यता -
इलिएट और मेरिल ( Elliot & Merrill ) के अनुसार , “ सामाजिक संगठन मौलिक रूप से मतैक्यता की समस्या है । " समाज के मौलिक आदर्श नियमों के प्रति व्यक्तियों के सामान्य विचारों में मतैक्य हुए बिना समाज का अस्तित्व ही कठिन हो जायेगा । मतैक्य का तात्पर्य यह नहीं है कि समाज में सभी व्यक्ति प्रत्येक विषय पर एकमत हों ।
प्रत्येक समाज में सदस्य अलग - अलग उद्देश्यों को लेकर कार्य करते हैं और भिन्न - भिन्न व्यवहार भी करते हैं , लेकिन इसके बावजूद यदि अधिकांश व्यक्तियों में समान चेतना पायी जाती है तो इस स्थिति को भी मतैक्यता की स्थिति ही कहा जायेगा । ऐकमत्य उन स्थितियों की सामान्य परिभाषाओं की अभिव्यक्ति है जो सम्पूर्ण समाज के लिए महत्वपूर्ण है ।
5. प्रस्थिति और भूमिका -
ऑगबर्न और निमकॉफ कहते हैं कि " व्यक्ति को प्रस्थिति से तात्पर्य उस स्थिति से है जो वह अपने आयु , जन्म , विवाह , शारीरिक गुण , निष्पत्ति और सुपुर्द किये गये कर्तव्य के कारण धारण करता है । भूमिका व जो वह प्रत्येक प्रस्थिति के कारण करता है ।
यदि व्यक्ति अपने पद के अनुरूप कार्य करने में सफल होते हैं तब सामाजिक संरचना सन्तुलित रहती है और इस स्थिति को हम सामाजिक संगठन कहते हैं । प्रस्थिति एवं भूमिका में निश्चितता होने से व्यक्तियों का मानसिक जीवन सन्तुलित रहता है और यही सन्तुलन सामाजिक संरचना को संगठित करके सामाजिक संरचना की स्थापना करता है । "
सामाजिक संगठन की विशेषताएँ ( Characteristics of Social Organisation )
सामाजिक संगठन की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. अनेक इकाइयों का क्रमबद्ध योग सामाजिक संगठन का निर्माण बहुत सी इकाइयों से होता है । इनमें से कुछ इकाइयाँ भौतिक होती हैं अभौतिक । उदाहरण के लिए व्यक्ति, परिवार, राज्य, समितियाँ, समुदाय, और बहत से समूह इसका निर्माण करने वाली इकाइयाँ हैं जबकि आर्थिक, धार्मिक और राजनैतिक संस्थाएँ , प्रथाएँ , परम्पराएँ , सामाजिक मूल्य का व्यवहार के अन्य बहुत से नियम सामाजिक संगठन की अभौतिक इकाइयाँ हैं । यह सभी इकाइयाँ जब एक - दूसरे से सम्बद्ध रहकर एक - दूसरे के कार्य में सहयोग प्रदान करती हैं तभी सामाजिक संगठन का निर्माण होता है ।
2. कार्यात्मक एकता-
सामाजिक संगठन को बनाने वाली इकाइयों में एक कार्यात्मक एकता पायी जाती है । कार्यात्मक एकता का तात्पर्य यह है कि सभी इकाइयाँ समान कार्य करती हों , उनके कार्यों में असमानता होना आवश्यक है लेकिन सभी का उद्देश्य समान सामाजिक मूल्यों में बँधे रहकर कार्य करना होता है । इस प्रकार सामाजिक संगठन की प्रकृति एक मशीन की तरह है जिसके विभिन्न अंग पृथक् - पृथक् कार्य करके उसे एक सम्बद्ध इकाई के रूप में क्रियाशील बनाते हैं ।
3. उपयोगिता का गुण –
प्रत्येक समाज में व्यक्ति की कुछ आवश्यकताएँ होती हैं जिनके अनुसार ही उसके व्यवहारों का निर्धारण होता है । इनमें से अधिकांश आवश्यकतायें समाज द्वारा मान्य होती हैं जबकि कुछ आवश्यकतायें समाज व्यवहारों को प्रोत्साहन देती है ।
सामाजिक संगठन की प्रकृति यही निश्चित नहीं करती कि व्यक्ति की कौन - कौन - सी आवश्यकताओं को पूरा किया जायेगा बल्कि अनेक नियमों के द्वारा ऐसी आवश्यकताओं का दमन भी किया जाता है जो सामाजिक मूल्यों अनुसार उचित नहीं होती । समाज की सभी इकाइयों को उचित रूप अपना - अपना कार्य करने का अवसर मिलता है और लक्ष्यों को प्राप्त करना सरल हो । से जाता है । के
4. अनुकूलन का गुण -
एक ओर स्वयं सामाजिक संगठन समाज की परिवर्तित दशाओं से अपना अनुकूलन करता रहता है और दूसरी ओर यह इस प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करता है जिनके द्वारा व्यक्ति समाज से अनुकूलन कर सके । सामाजिक संगठन में अनुकूलन का गुण होने से ही यह व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूरा कर पाता है ।
5. संस्कृति का समावेश-
सामाजिक संगठन हमेशा एक विशेष संस्कृति से सम्बद्ध होता है । जितनी भी इकाइयाँ मिलकर सामाजिक संगठन का निर्माण करती हैं । उनका रूप एक समाज विशेष की संस्कृति के द्वारा निर्धारित होता है । इसलिए विभिन्न स्थानों की संस्कृतियाँ एक दूसरे से भिन्न देखने को मिलती हैं ।
उदाहरणार्थ हमारे समाज का सामाजिक संगठन पश्चिमी समाजों से इसलिए काफी भिन्न है कि हमारी संस्कृति ने जिन इकाइयों के द्वारा समाज को संगठित करने की स्वीकृति दी है वे पश्चिमी संस्कृति से बहुत भिन्न हैं । दूसरी बात यह है कि कुछ समाजों की संस्कृति अविकसित और सरल प्रकृति की होती है जबकि कुछ समाजों की संस्कृति ने बहुत जटिल रूप ले लिया है । यही कारण है कि कुछ समाजों में सामाजिक संगठन सरल प्रकृति का होता है और कुछ समाजों में बहुत जटिल ।
6. विचारपूर्वक निर्मित-
सामाजिक संगठन की स्थापना विचारपूर्वक की जाती है । यद्यपि यह सच है कि सामाजिक संगठन का निर्माण किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं होता बल्कि इसके निर्माण में अनेक पीढ़ियों के बहुत से व्यक्तियों के अनुभवों का समावेश होता है लेकिन फिर भी इसमें व्यक्ति के योगदान की अवहेलना नहीं की जा सकती । समय - समय पर जिन नियमों और व्यवहार के तरीकों को उपयोगी समझा जाता है उन्हें सामाजिक संगठन में स्थान दे दिया जाता है अथवा पुराने और अनुपयुक्त तत्वों को इसमें से निकाल दिया जाता है ।
7. तुलनात्मक धारणा-
सामाजिक संगठन एक तुलनात्मक धारणा है । प्रत्येक समाज में संगठन और विघटन के लक्षण साथ - साथ विद्यमान रहते हैं । सामाजिक संगठन का तात्पर्य एक ऐसी दशा से है जिसमें समाज को विघटित करने वाले तत्वों की अपेक्षा समाज को संगठित करने वाले तत्वों की संख्या अधिक हो । इस प्रकार सामाजिक संगठन और विघटन एक - दूसरे से बिलकुल भिन्न नहीं हैं बल्कि इनमें केवल मात्रा का भेद है ।
8. परिवर्तनशीलता-
सामाजिक संगठन में समय की आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी होता रहता है । इसके अनेक कारण हैं । पहला कारण यह है कि विभिन्न इकाइयों के कार्य में कोई बाधा पैदा होने पर समाज के संगठन में इस प्रकार परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है जिससे उन बाधाओं को दूर किया जा सके ।
दूसरे समय - समय पर व्यक्तियों की आवश्यकताएँ स्वयं बदलती रहती हैं और अन्तिम कारण यह है कि संस्कृति में स्वयं सरलता से जटिलता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति होती है । इन सभी दशाओं के फलस्वरूप सामाजिक संगठन में आवश्यक रूप से | परिवर्तनशीलता के गुण का समावेश हो जाता है ।
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