सामाजिक आन्दोलन ( Social Movement ) सामाजिक आन्दोलन, अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं
प्रश्न 1. ' सामाजिक आन्दोलन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए ।
प्रश्न 2. सामाजिक आन्दोलन पर एक निबन्ध लिखिए ।
प्रश्न 3. सामाजिक आन्दोलन की परिभाषा कीजिए । सामाजिक आन्दोलन के प्रमुख स्वरूप कौन - कौन से हैं ?
प्रश्न 4. सुधारवादी और क्रान्तिकारी आन्दोलनों की तुलना कीजिए ।
सामाजिक आन्दोलन विशालतर समाज में मनोवृत्तियों, व्यवहार एवं सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन लाने हेतु एकत्रित प्रयासों में लीन लोगों की ऐच्छिक समिति है । " - लुण्डबर्ग एवं अन्य “ सामाजिक आन्दोलन को जीवन की नई व्यवस्था स्थापित करने का सामूहिक प्रयास कह सकते हैं । " - हर्बर्ट ब्लूमर प्रस्तावना - सामाजिक आन्दोलन भी सामाजिक परिवर्तन की एक प्रमुख प्रक्रिया है ।
सामाजिक आन्दोलन का उद्देश्य वर्तमान सामाजिक व्यवस्था या संरचना को बदलना होता है । कई बार ऐसा भी होता है कि परिवर्तन को रोकने के लिए भी सामाजिक आन्दोलन किया जाता है । सामाजिक आन्दोलन एवं समिति में अन्तर है । समिति सदैव एक संगठित समूह होती है , इसके विपरीत सामाजिक आन्दोलन संगठित एवं असंगठित किसी प्रकार का भी हो सकता है ।
सामाजिक आन्दोलन का उद्देश्य व्यवहार प्रतिमानों में परिवर्तन होता है , जबकि समिति का उद्देश्य परम्परागत व्यवहारों का पालन करना होता है । सामाजिक आन्दोलन एवं संस्था में भी अन्तर है । संस्था में स्थायित्व का तत्व होता है लेकिन सामाजिक आन्दोलन में अनिश्चितता की विशेषता होती है । सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं की विवेचना करने से पूर्व इसकी परिभाषा एवं अर्थ को जानना आवश्यक है ।
सामाजिक आन्दोलन का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Social Movement )
अनेक सामाजिक परिवर्तन व्यक्तिगत एवं सामूहिक प्रयासों द्वारा लाये जाते हैं , ऐसे प्रयासों को ही सामाजिक आन्दोलन कहा जाता है । समाजशास्त्री लुण्डबर्ग ( Lundberg and Others ) एवं उनके सहयोगियों का कहना है " यह विशालतर समाज में मनोवृत्तियों , व्यवहार एवं सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन लाने हेतु एकत्रित प्रयासों में लीन लोगों की ऐच्छिक समिति है । "
" Social movement is a voluntary association of people engaged in a concerted effort to change attitudes behavour and social relationships in o - Lundberg and Others . larger society . "
हर्बर्ट ब्लूमर ( Herbert Blumer ) के अनुसार, " सामाजिक आन्दोलन को जीवन की एक नई व्यवस्था स्थापित करने का सामूहिक प्रयास कह सकते हैं । "
" Social movement can be viewed as collective enterprises to establisha -Herbert Blumer . new order of life . "
रोज ( A.M. Rose ) का कहना है " सामाजिक आन्दोलन समाज की आर्थिक प्रभावशाली सांस्कृतिक जटिलताओं , संस्थाओं अथवा इसके विशिष्ट वर्गों को संशोधित करने तथा इसके स्थान पर दूसरे प्ररूपों को स्थापित करने के लिए बहुत से व्यक्तियों द्वारा किया गया सामूहिक प्रयास होता है । "
एण्डरसन एवं पार्कर का कहना है " हम सामाजिक आन्दोलन को एक गतिशील सामूहिक व्यवहार के एक स्वरूप के रूप में परिभाषित कर सकते हैं । "
कैमरॉन का कहना है, " सामाजिक आन्दोलन तब होते हैं , जब एक बड़ी संख्या में लोग वर्तमान संस्कृति या सामाजिक व्यवस्था के किसी भाग को परिवर्तित करने अथवा उसके स्थान पर दूसरी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए एक साथ बंध जाते हैं । "
एक अन्य परिभाषा में कहा गया है- “ किसी सामाजिक आन्दोलन की परिभाषा ऐसी सामूहिक क्रियाओं के रूप में की जा सकती है , जो विद्यमान सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने अथवा उसे प्रभावित करने के लिए किसी विशेष समूह द्वारा की जाती है , जिसका निर्माण किसी इसी प्रयोजन से किया गया है । "
सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि सामाजिक आन्दोलन का आधार वैचारिक होता है और उस वैचारिक आधार पर एक सामाजिक संगठन बनाकर सामाजिक जीवन में परिवर्तन करने का संगठित प्रयास किया जाता है ।
सामाजिक आन्दोलन की विशेषताएँ
सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में निम्नवत् किया जा सकता है
( 1 ) सामूहिक प्रयास-
सामाजिक आन्दोलन की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक सामूहिक प्रयास होता है । किसी एक या दो व्यक्तियों के व्यक्तिगत प्रयास को आन्दोलन नहीं कहा जा सकता । सामाजिक आन्दोलन के सदस्य परिवर्तन लाने के लिए सामूहिक रूप से प्रयास करते हैं ।
( 2 ) वैचारिक आधार-
सामाजिक आन्दोलन की एक विशेषता यह भी है कि इनका निश्चित उद्देश्य एवं लक्ष्य अवश्य होता है । वैचारिक आधार आन्दोलन को संगठित एवं गतिशील करने का प्रयास करता है । वैचारिक आधार ही आन्दोलन करने वालों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास करता है । वैचारिक आधार के कारण भूत , वर्तमान और भविष्य में की व्याख्या की जाती है । विचारधारा के द्वारा ही आन्दोलन के उद्देश्यों एवं साधनों का निर्धारण किया जाता है । विचारधारा सदस्यों को सामूहिक प्रयास की प्रेरणा देती है ।
( 3 ) संगठन-
सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषता औपचारिक संगठन है । इस संगठन के द्वारा ही आन्दोलन के कार्यक्रमों का निर्धारण होता है और उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है । सामूहिक प्रयास के द्वारा औपचारिक संगठन विकसित होता है । जिस प्रकार शस्त्र के द्वारा कोई सैनिक युद्ध जीतता है , उसी प्रकार संगठन के द्वारा आन्दोलन आगे बढ़ता है । औपचारिक संगठन अपने सदस्यों का दिशा निर्देश करता है ।
( 4 ) स्वीकृत नेतृत्व —
आन्दोलन के द्वारा स्वीकृत नेतृत्व का विकास होता है । कुशल नेता आन्दोलन को गति प्रदान करता है और अपने सदस्यों की आशा एवं आकांक्षा की पूर्ति सामूहिक रूप से करने का प्रयास करता है । नेता आन्दोलन को दिशा प्रदान करता है और किसी भी स्थिति में सदस्यों को हताश नहीं होने देता ।
( 5 ) विकास -
किसी भी सामाजिक आन्दोलन की रचना एवं संगठन पहले से ही विकसित नहीं होता है , वरन यह अपने जीवन काल में विकसित होते हैं । सामाजिक आन्दोलन जब धीरे - धीरे विकसित होते हैं तब संगठित एवं ठोस रूप ग्रहण कर लेते हैं । आरम्भ में उत्तेजना या अशान्ति आन्दोलन को जन्म देती है, तत्पश्चात् उत्तेजना का उद्देश्य जनता को उत्तेजित करके उसे आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित करना होता है । उत्तेजना व्यक्तियों को नये विचारों को ग्रहण करने एवं पुराने विचारों को त्यागने के लिए प्रेरित करती
डासन ( Dawson ) एवं गेटिस ( Gettys ) आन्दोलन के विकास के चार चरणों का उल्लेख किया है—
( 1 ) सामाजिक असन्तोष
( 2 ) जन उत्तेजना
( 3 ) स्वरूप ग्रहण करना एवं
( 4 ) संस्थीकरण ।
( 6 ) नियोजित प्रयास-
सामाजिक आन्दोलन के विकास के लिए केवल उत्तेजना अथवा अशान्ति ही आवश्यक नहीं है वरन् नियोजित रूप से सामूहिक प्रयास द्वारा आन्दोलन को गति प्रदान की जाती है । नियोजित प्रयास के अभाव में सामाजिक आन्दोलन का विकास हो ही नहीं सकता ।
( 7 ) परिवर्तन उद्देश्य -
सभी प्रकार के सामाजिक आन्दोलनों का उद्देश्य परिवर्तन भारत में आन्दोलन का समाजशास्त्र लाना होता है । वर्तमान सामाजिक व्यवस्था एवं सामाजिक मूल्यों में सम्पूर्ण परिवर्तन अथवा आंशिक परिवर्तन लाना होता है । समाज का एक वर्ग परिवर्तन यथास्थितिवादी होता है . उसके द्वारा परिवर्तन का विरोध किया जाता है , उस विरोध का प्रतिरोध का विरोध किया जाता है और परिवर्तन द्वारा उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है ।
( 8 ) संकट अथवा समस्या
किसी भी सामाजिक आन्दोलन का विकास तभी होता है , जब कोई संकट या समस्या समाज में विकसित होती है । उस संकट या समस्या के समाधान के लिए ही सामाजिक आन्दोलन का विकास होता है संकट अथवा समस्या का समाधान जैसे ही होता है , समाज में पुरानी व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था विकसित होने लगती है और समाज में नये मूल्य स्थापित हो जाते हैं । संकट या समस्या से समाज में उत्तेजना एवं प्रेरणा विकसित होती है ।
( 9 ) सुनिश्चित दिशा -
सामाजिक आन्दोलन के द्वारा जिस परिवर्तन की दिशा को अपनाया जाता है , वह दिशा सुनिश्चित होती । अर्थात् पुरानी व्यवस्था के स्थान पर जो नई व्यवस्था लाने का प्रयास किया जाता है , उस परिवर्तन की दिशा सुनिश्चित होती है ।
( 10 ) सुधारात्मक प्रकृति -
लगभग सभी सामाजिक आन्दोलनों की प्रकृति एवं प्रवृत्ति सुधारात्मक होती है । सामाजिक आन्दोलन द्वारा सामाजिक कुरीतियों , रूढ़ियाँ , हानिकारक परम्पराओं आदि को बदल कर एक ऐसी व्यवस्था लाने का प्रयास किया जाता है , जिसके द्वारा एक नई व्यवस्था को लाने का सामूहिक प्रयास किया जाता है । यह नई व्यवस्था सामाजिक कुरीतियों एवं दोषपूर्ण विकारों से मुक्त होती है । समाज नई आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगता है । जन सामान्य के व्यवहार में भी परिवर्तन हो जाता है । संक्षेप में कहा जा सकता है कि दोषपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर दोषहीन सामाजिक व्यवस्था लाने का प्रयास वाली प्रकृति सामाजिक आन्दोलन की होती है ।
( 11 ) त्याग एवं समर्पण की भावना -
सामाजिक आन्दोलनकर्ताओं में त्याग एवं समर्पण की भावना होती है । आन्दोलनकारियों के त्याग एवं समर्पण अन्य लोगों को भी प्रेरित करती है , परिणामतः सामाजिक आन्दोलन को व्यापकता मिलती है । त्याग एवं समर्पण की भावना के कारण आन्दोलन स्फलता के उच्च शिखर पर पहुँच जाता है ।
( 12 ) मनोबल -
त्याग एवं समर्पण के साथ - साथ आन्दोलनकर्ताओं का मनोबल भी शक्तिशाली होता है । मनोबल का विकास आन्दोलन को एक निश्चित एवं ठोस स्वरूप प्रदान करता है । विभिन्न संकटों का सामना करने के लिए मनोबल सहायक होता है । मनोबल का विकास किन्हीं विश्वासों पर आधारित होता है ।
विश्वासों पर आधारित मनोबल व्यक्ति को संकटों का सामना करने की प्रेरणा देता है और संकटों के तूफान के सामने एक ठोस चट्टान बनकर खड़ा हो जाता है । ठोस मनोबल आन्दोलन में भाग लेने वाले सदस्यों के मन में अटल विश्वास को जन्म देता है । यह अटल विश्वास ही आन्दोलन की प्राण वायु बन जाता है ।
( 13 ) समाज विरोधी प्रकृति-
अधिकतर सामाजिक आन्दोलन तत्कालीन समाज की कुरीतियों , निरर्थक सामाजिक मूल्यों के विरोधी होते हैं , अतः उनकी इस समाज विरोधी प्रकृति के कारण अवैध माना जाता है । इस विशेषता के कारण ही सामाजिक आन्दोलन को अपने प्रारम्भिक काल में बड़ी धीमी गति से चलते हैं और उन्हें जनता का भरपूर समर्थन भी नहीं मिलता है । सामाजिक आन्दोलन प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर ऐसी नूतन व्यवस्था लाना चाहता है, जो उनके विचारों एवं उद्देश्यों के अनुकूल हो ।
सामाजिक आन्दोलन का उद्देश्य ( Aim of Social Movement )
सामाजिक आन्दोलनों का उद्देश्य वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित करके परिवर्तन लाना होता है । इसके लिए सामूहिक प्रयास किये जाते हैं । सामाजिक आन्दोलन एक सामूहिक क्रिया है । इसका उद्देश्य तत्कालीन अथवा दीर्घकालीन भी हो सकता है । सामाजिक आन्दोलन की प्रमुख विशेषता वैचारिकता है । यह संगठित या असंगठित दोनों प्रकार का हो सकता है ।
इसकी प्रकृति हिंसक या अहिंसक किसी प्रकार की भी हो सकती है । सामाजिक अन्याय एवं सामाजिक विघटन इनके प्रमुख कारण हैं । स्थिर एवं संगठित समाजों में सामाजिक आन्दोलन कम होते हैं । सामाजिक आन्दोलनों में वे व्यक्ति अधिक सक्रिय होते हैं , जिन्हें सामाजिक , सांस्कृतिक या आर्थिक असुरक्षा का भय रहता है , जो सामाजिक अन्याय का विरोध करना अपना नैतिक कर्त्तव्य समझते हैं ।
सामाजिक आन्दोलन के स्वरूप ( Form or Type of Social Movement )
सामाजिक आन्दोलन के कई स्वरूप होते हैं । जैसे-
( 1 ) सामान्य सामाजिक आन्दोलन महिला आन्दोलन, युवा आन्दोलन एवं किसान आन्दोलन आदि इसके रूप हैं ।
( 2 ) काल्पनिक आन्दोलन कई आन्दोलन काल्पनिक विचारधारा एवं ऐसी सामाजिक व्यवस्था के लिए होते हैं , जिसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता । 19 वीं शताब्दी का काल्पनिक समाजवादी आन्दोलन इसी प्रकार का था ।
( 3 ) समाज - सुधार आन्दोलन अनेक आन्दोलन समाज सुधार की भावना से प्रेरित होते हैं । इसका उद्देश्य समाज सुधार करना होता है । जनमत जागृत करना इन आन्दोलनों का प्रमुख उद्देश्य होता है । ब्रह्म समाज एवं आर्य समाज के आन्दोलन हमारे देश के प्रमुख समाज सुधार आन्दोलन है । भारतीय समाज में समाज सुधार के अनेक कार्य इन आन्दोलन के प्रयासों से ही हुए
( 4 ) क्रान्तिकारी आन्दोलन – क्रान्तिकारी आन्दोलन विचारों एवं कार्य प्रणाली दोनों प्रकार से क्रान्तिकारी होता है । इनका उद्देश्य वर्तमान व्यवस्था को समाप्त करके नई व्यवस्था की स्थापना करना होता है ।
( 5 ) राष्ट्रीय आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य राष्ट्रीय भावनाओं एवं राष्ट्र प्रेम जागृत करना होता है ।
( 6 ) फैशन आन्दोलन – कई बार किसी फैशन का प्रचलन भी एक आंदोलन का रूप ग्रहण कर लेता है । फैशन केवल पहनावे तक ही सीमित नहीं रहता , वरन् इसका क्षेत्र साहित्य , कला , व्यवहार एवं दर्शन तक फैल जाता है । फैशन आन्दोलन सर्वप्रथम उच्च वर्गों में फैलता है , जिसका अनुकरण निम्न वर्गों द्वारा किया जाता है । फैशन आन्दोलन की प्रकृति चक्रीय होती है , और यह स्वतः विकसित होता है । परिणामतः सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को बल मिलता है ।
सुधारवादी एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन में अन्तर सुधारवादी एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन की प्रकृति, उद्देश्यों, कार्यों एवं कार्यविधि में अन्तर होता है ।
इस अन्तर को संक्षेप में निम्नवत् दर्शाया जा सकता है-
( 1 ) कार्यों में अन्तर –
सुधारवादी एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के कार्यों में अन्तर होता है । सुधारवादी आन्दोलन पूरी व्यवस्था में पूर्ण परिवर्तन लाना नहीं होता वरन् समाज में निश्चित आदर्शों एवं विश्वासों को सुदृढ़ करना होता है । इसके विपरीत क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्देश्य सम्पूर्ण परिवर्तन लाना होता है और नये मूल्यों एवं विश्वासों पर आधारित सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया जाता है ।
( 2 ) उद्देश्यों में अन्तर -
इन दोनों के उद्देश्यों में भी समानता नहीं होती है । सामाजिक आन्दोलन एक सीमित क्षेत्र एवं सामाजिक व्यवस्था तक सीमित रहता है । अर्थात् सामाजिक आन्दोलन का क्षेत्र सीमित होता है । जबकि क्रान्तिकारी आन्दोलन का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत होता है । इसके द्वारा सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है ।
( 3 ) कार्यविधि में अन्तर -
इन दोनों आन्दोलनों की कार्य - विधि में भी अन्तर होता है । सुधारवादी आन्दोलन जनमत को जागृत करके अपने उद्देश्यों को प्राप्त करता है और जन समर्थन प्राप्त करने का प्रयास करता है । इसके विपरीत क्रान्तिकारी आन्दोलन को जनमत की चिन्ता नहीं होती, अतः जनमत का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास ही नहीं किया जाता । क्रान्तिकारी आन्दोलन की कार्यविधि का आधार होता है । यदि हमारे साथ आओ तो ठीक, यदि विरोध करते हो तो विरोध को कुचल कर उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है ।
( 4 ) प्रतिष्ठा का अन्तर -
सुधारवादी आन्दोलन के साथ प्रतिष्ठा तत्व जुड़ा रहता है । इस आन्दोलन को समाज में शीघ्र ही प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती अनेक सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं का इसे समर्थन भी प्राप्त हो जाता है , इसके विपरीत क्रान्तिकारी आन्दोलन के साथ प्रतिष्ठा तत्व जुड़ा नहीं रहता है , और कई बार क्रान्तिकारी आन्दोलन को भूमिगत रहकर अपनी गतिविधियों का संचालन करना पड़ता है ।
( 5 ) क्रियाशील समूहों में अन्तर -
इन दोनों प्रकार के आन्दोलन में यह भी अन्तर है कि दोनों के क्रियाशील समूहों में अन्तर पाया जाता है । सुधारवादी आन्दोलन मध्यम वर्ग की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास करता है और इसका नेतृत्व भी इसी वर्ग से विकसित होता है तो उस आन्दोलन से सहानुभूति रखता है । क्रान्तिकारी आन्दोलन का सम्बन्ध निम्न वर्ग से होता है और इसका नेतृत्व उस वर्ग से आता है जो अधिकारों एवं सुविधाओं से वंचित होता है ।
( 6 ) रूढ़ियों की स्वीकारता के आधार पर अन्तर-
सुधारवादी आन्दोलन समाज में विद्यमान रूढ़ियों को स्वीकार कर लेता है, क्योंकि इसका उद्देश्य सीमित होता है । विद्यमान रूढ़ियों के नैतिक औचित्य पर भी किसी प्रकार की चर्चा अथवा प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाती । इसके विपरीत क्रान्तिकारी आन्दोलन विद्यमान रूड़ियों की कटु आलोचना करता है और कठोरता से प्रहार करता है ।
भारत में सामाजिक आन्दोलन
भारत में भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व एवं पश्चात् अनेक सामाजिक आन्दोलन हुए हैं । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व के आंदोलन अधिकांशतः समाज सुधार एवं राष्ट्रीय आन्दोलन थे । राजा राममोहन राय का ब्रह्म - समाज, ऋषि दयानन्द का आर्य समाज, स्वामी विवेकानन्द का रामकृष्ण मिशन आदि समाज सुधार आन्दोलन थे । 1885 में स्थापित ' भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ' राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रमुख रूप था । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सामाजिक आन्दोलनों का राजनीतिकरण हो गया । इन आन्दोलनों के कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को बल मिला है ।
निष्कर्ष ( Conclusion )
उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि सामूहिक एवं व्यक्तिगत प्रयासों का नाम ही सामाजिक आन्दोलन है । यह सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया है । सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न स्वरूप होते हैं । इसका उद्देश्य तत्कालीन या दीर्घकालीन परिवर्तन है । विचारधारा सामाजिक आन्दोलन का प्रमुख आधार है ।
सामाजिक आन्दोलन के लिए शक्तिशाली नेतृत्व आवश्यक है । नेतृत्व के अभाव में कोई भी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता । नेता ही सामाजिक आन्दोलन को गति एवं दिशा प्रदान करता है । भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व एवं पश्चात् अनेक सामाजिक आन्दोलन हुए हैं ।
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