सामाजिक स्तरीकरण क्या है? भारत में ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण के मुख्य तत्वों की व्याख्या कीजिए। अथवा समकालीन ग्रामीण भारत में सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख अभिलक्षणों का विश्लेषण कीजिए ।
सामाजिक स्तरीकरण: प्रत्येक समाज अपनी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपने सदस्यों को विभिन्न प्रकार के अधिकार और भूमिकाएँ सौंपता है, जिससे सभी व्यक्तियों को सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी योग्यता और कुशलता के अनुसार एक विशेष पद प्राप्त हो सके ।
इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण समाज में विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच उच्चता और निम्नता का एक क्रम बन जाता है जिसे हम सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण वह व्यवस्था है जो समाज को विभिन्न स्तरों में विभाजित करके सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बनाने का प्रयत्न करती है । संक्षेप में सामाजिक विभाजन अथवा स्तर - निर्माण की इसी प्रक्रिया का नाम सामाजिक स्तरीकरण है । जिस्बर्ट ( Gisbert ) के अनुसार, "
सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसे स्थायी समूहों और श्रेणियों में विभाजित कर देने वाली व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत सभी समूह उच्चता और अर्धनता के सम्बन्धों द्वारा एक - दूसरे से बँधे हों । "
मूरे ( Murray ) ने सामाजिक स्तरीकरण को स्पष्ट करते हुए कहा है कि "स्तरीकरण समाज का एक ऐसा विभाजन है जिसमें सम्पूर्ण समाज को कुछ उच्च तथा निम्न सामाजिक इकाइयों में विभक्त कर दिया जाता है । " लगभग इन्हीं शब्दों में सदरलैण्ड तथा वुडवर्ड ( Sutherland and Woodward ) ने सदस्यों की स्थिति सम्बन्धी भिन्नता के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण को परिभाषित किया है । आपके अनुसार, "स्तरीकरण केवल विभेदीकरण की यह प्रक्रिया है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे व्यक्तियों की तुलना में उच्च स्थिति प्राप्त होती है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्तरीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कुछ सामाजिक मूल्यों अथवा नियमों के अनुसार समाज एक-दूसरे से उच्च और निम्न अनेक समूहों में विभाजित हो जाता है । अपने अधिकार तथा भूमिका के दृष्टिकोण से यह समूह एक दूसरे से पृथक् दिखाई देते हैं लेकिन कार्यात्मक रूप से वे एक-दूसरे के सहयोनी होते हैं तथा अपने अपने कार्यों द्वारा सामाजिक व्यवस्था को दृढ़ बनाने में योगदान करते हैं।
ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण के तत्व ( Elements of Rural Social Stratification )
ग्रामीण सामाजिक संरचना में स्तरीकरण के तत्व अन्य समाजों की तुलना में कुछ भिन्न हैं । जहाँ तक भारतीय ग्रामीण संरचना का प्रश्न हैं , यहाँ व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का निर्धारण तथा विभिन्न समूहों के बीच स्तर निर्माण की प्रक्रिया बहुत कुछ परम्परागत रूप में विद्यमान है । ऐसी दशा में उन प्रमुख तत्वों अथवा विशेषताओं का सामान्य ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है जो भारतीय स्तरीकरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण हैं ।
1. प्रदत्त स्थिति का महत्व –
भारतीय ग्रामीण जीवन की यह विशेषता है कि यहाँ व्यक्ति की सामाजिक स्थिति अर्जित न होकर प्रदत्त होती है । परम्परागत रूप से व्यति की जाती , वंश तथा धार्मिक विश्वासों के आधार पर उसे समूह के द्वारा एक विशेष स्थिति प्रदान की जाती है । इस स्थिति में उसके अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर अधिक बल दिया जाता है । केवल सामान्य व्यक्तियों की स्थिति का निर्धारण ही इस रूप में नहीं होता ।
बल्कि ग्रामीण नेताओं की स्थिति भी बहुत कुछ प्रदत्त ही होती है । स्तरीकरण के अन्तर्गत साधारणतया एक ग्रामीण नेता के जो अधिकार होते हैं वही उसके कर्तव्यों को भी स्पष्ट करते हैं । यदि कोई नेता अपने कर्तव्यों का समुचित रूप से निर्वाह नहीं करता तो ग्रामीण समूह द्वारा उसे अपने अधिकारों से वचित कर दिया जाता है ।
2. वर्गों के बीच अन्तनिर्भरता
भारतीय ग्रामीण समाज में विभिन्न सामाजिक व आर्थिक वर्गों के समान एक - दूसरे से पूर्ण तथा पृथक नहीं है बल्कि उनके बीच एक अन्तनिर्भरता का क्रम देखने को मिलता है । उदाहरण के लिए , संयुक्त परिवार र सम्बन्धों पर आधारित एक विशेष सामाजिक वर्ग है । रक सम्बन्धी विभिन्न वर्गों के द्वारा ही अनेक जातीय समूह का निर्माण होता है ।
इनमें से प्रत्येक जातीय समूह अपने ग्रामीण समूह के प्रति उत्तरदायी होता है और प्रत्येक ग्रामीण समुदाय जीवन - विधि की निरन्तरता को बनाये रखने में अपना योगदान देता है । विपिन आधारों पर बने सभी ग्रामीण सामाजिक वर्ग एक - दूसरे पर निर्भर है तथा उनकी यह पारस्परिक निर्भरता ही ग्रामीण समुदाय की विशेष सामाजिक संरचना को निरन्तरता प्रदान करती है ।
3. सामाजिक वर्गों की विद्यमानता - सामाजिक वर्ग का तात्पर्य किसी भी ऐसे समूह से है जिसकी सामाजिक तथा सांस्कृतिक विशेषताएँ अन्य समूहों से भिन्न है । भारतीय ग्रामों में इन सामाजिक वर्गों का निर्माण सम्पत्ति अथवा भूमि के आधार पर ही नहीं होता बल्कि व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा उसकी शिक्षा और नैतिक जीवन को भी महत्व दिया जाता है । दूसरी विशेषता यह है कि आर्थिक वर्गों के अन्तर्गत व्यक्ति की स्थिति में जितनी तेजी से परिवर्तन होता रहता है , वैसा परिवर्तन वर्गों की सामाजिक वर्ग - संरचना के अन्तर्गत देखने को नहीं मिलता ।
4. भू - स्वामित्व की प्रधानता -
जिस व्यक्ति के पास कृषि योग्य भूमि नहीं होती , उसे साधन सम्पन्न होने के बाद भी ग्रामीण नेतृत्व तथा सामाजिक जीवन में उच्च स्थिति प्राप्त नहीं हो पाती । अन्य बातों के समान होने पर भी बड़े भू - स्वामी उच्च स्थिति प्राप्त कर लेते हैं जबकि भूमिहीन श्रमिकों की स्थिति ग्रामीण स्तरीकरण में निम्नतम होती है । जिन व्यक्तियों के पास भूमि और पशु क कि ग्रामीण समुदाय में कृषि जीवन की एक विधि है तथा व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को इस जीवन विधि से पृथक करके निर्धारित नहीं किया जा सकता ।
5. जाति - संस्तरण का महत्व - भारत में ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण के अन्तर्गत ब्राह्मण जातियाँ आज भी उच्च सामाजिक स्थिति के कारण या तो स्वयं हल चलाना अच्छा नहीं समझती अथवा अन्य जातियाँ द्वारा उन्हें जो सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं , उसके कारण उन्हें स्वयं खेती करने की आवश्यकता भी नहीं रहती ।
क्षेत्रीय जातियाँ आज भी अन्य जातियों पर अपना प्रभुत्व बनाये रखने का प्रयत्न करती हैं । वैश्य जातियाँ तो कृषि के प्रति पूर्णतया उदासीन हैं । अनुसूचित जातियों के निवास स्थान आज भी उच्च जातियों के निवास स्थानों से दूरी पर स्थित हैं । कोई भी व्यक्ति यदि अपने जातिगत नियमों को तोड़कर अपनी जीवन - विधि में परिवर्तन करना चाहे तो उसे साधारणतया इसकी अनुमति नहीं दी जाती ।
6. तुलनात्मक स्थिरता-
आज जबकि नगरीय सामाजिक स्तरीकरण में तेजी से परिवर्तन हो रहा है . ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण की प्रकृति तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक स्थिर अथवा अपरिवर्तनशील है । इसका कारण यह है कि ग्रामीण स्तरीकरण में परम्पराओं , प्रथाओं , धार्मिक विश्वासों तथा जाति के नियमों का स्पष्ट प्रभाव है ।
गाँव की प्रभु जातियाँ भी अपने परम्परागत सामाजिक स्तरीकरण में किसी प्रकार का परिवर्तन होता नहीं है । परिवर्तन को प्रक्रिया गाँवों में भी कार्यशील है , लेकिन अन्य समूहों की तुलना में ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण में होने वाले परिवर्तन बहुत धीरे - धीरे और जीवन के कम महत्वपूर्ण पक्षों में ही होते हैं ।
प्रो . रामकृष्ण मुखर्जी ने अपने अध्ययन के आधार ग्रामीण भारत में पाये जाने वाले तीन प्रमुख वर्गों का उल्लेख किया है जिनके आधार पर सामाजिक स्तरीकरण की प्रकृति को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है ।
1. प्रथम वर्ग - भू - स्वामी एवं निरीक्षण करने वाले किसान ।
2. द्वितीय वर्ग - आत्मनिर्भर कृषक , जिनमें स्वयं कृषि करने वाले कृषक , दस्तकार तथा व्यापारी सम्मिलित हैं ।
3. तृतीय वर्ग – साझेदारी से कृषि करने वाले , कृषक मजदूर , नौकरी करने वाले तथा अन्य लोग ।
वास्तविकता यह है कि इस वर्गीकरण को सम्पूर्ण भारत के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में लागू नहीं किया जा सकता । विस्तृत दृष्टिकोण से गाँवों की वर्गीय संरचना को केवल दो मुख्य भागों में ही विभाजित किया जा सकता है - कृषक वर्ग और आकृषक वर्ग ।
यह वर्गीकरण इतना विस्तृत है कि इनमें से दोनों वर्गों के अन्तर्गत भी अनेक उप - वर्ग पाये जा सकते हैं । उदाहरण के लिए , कृषक - वर्ग के अन्तर्गत बड़े - कृषक, मध्यम कृषक , छोटे कृषक और सीमान्त कृषक जैसे उप - वर्गों का समावेश है ।
इसी प्रकार अकृषक - वर्ग में भूमिहीन श्रमिक , साहूकार , दस्तकार , व्यापारी और नौकरी करनेवाले उप - वर्ग आ जाते हैं । इनमें से किसी भी वर्ग को जाति - व्यवस्था के आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रत्येक वर्ग और उप - वर्ग में अधिक या कम संख्या में सभी जातियों के लोगों का समावेश है ।
उपरोक्त सभी विशेषताओं से स्पष्ट होता है कि भारत में ग्रामीण जीवन में भी एक स्पष्ट वर्ग व्यवस्था विद्यमान है तथा ग्रामीण सामाजिक स्तरीकरण को प्रभावित करने में इसकी भूमिका की अवहेलना नहीं की जा सकती । इसके पश्चात् भी नगरों की अपेक्षा गाँवों में आज भी इन वर्गों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम है तथा विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक दूरी इतनी स्पष्ट नहीं है जितनी कि नगरों में देखने को मिलती है ।
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