लोक संस्कृति का अर्थ,परिभाषा विशेषताएँ एवं महत्त्व
ग्रामीण समाजशास्त्र के अन्तर्गत एक व्यवस्थित अवधारणा के रूप में लोक संस्कृति को प्रतिपादित करने का श्रेय मुख्य रूप से राबर्ट रेडफील्ड को है । रेडफील्ड ने आरम्भ में लोक संस्कृति की अवधारणा के लिए कृषक संस्कृति शब्द का प्रयोग किया था । इसके कुछ समय पश्चात् जार्ज एस फास्टर ने ग्रामीण विशेषताओं से युक्त स्कृति को लोक संस्कृति नाम से संबोधित किया जिसे बाद में रेडफील्ड ने भी ग्रहण कर लिया । इस दृष्टिकोण से रेडफील्ड की रचनाओं में लोक संस्कृति तथा कृषक संस्कृति शब्दों का प्रयोग समान अर्थों में ही हुआ है ।
लोक संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा ( Lok sanskriti Ka Arth evm paribhasha )
सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि लोक समाज की संस्कृति ही लोक संस्कृति है । इस दृष्टिकोण में लोक संस्कृति सम्पूर्ण मानव संस्कृति का ही एक विशेष अंग अथवा अभिव्यक्ति है । रेडफील्ड का मत है कि नगरीय समाज से भिन्न विशेषताएँ प्रदर्शित करने वाले समाज को हम लोक समाज कहते हैं । लोक समाज एक ऐसा समज है , जिसका आकार छोटा होता है तथा जिसके अन्तर्गत व्यवस्थित शिक्षा का अभाव , सदस्यों के व्यवहारों में समरूपता , रूढ़िवादिता तथा सामूहिक दृढ़ता की विशेषताएँ पायी जाती हैं ।
इस समाज में व्यक्तियों के व्यवहार , कानून से उतने प्रभावित नहीं होते जितने कि परम्पराओं तथा धार्मिक नियमों से प्रभावित होते हैं । यहाँ बुद्धिजीवी जैसा न तो पृथक वर्ग होता है और न ही वैज्ञानिक चिन्तन का प्रभाव होता है । इस दृष्टिकोण से लोक - समाज की सांस्कृतिक विशेषताओं से समन्वय का नाम ही लोक संस्कृति है ।
डॉ . सम्पूर्णानन्द के अनुसार , " लोक संस्कृति वह जीवित तथ्य है , जिसके माध्यम से ग्रामीण जीवन की आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती है । यह कथन समाजशारूक्षीय दृष्टिकोण से भले ही स्वीकृत न हो , लेकिन यह लोक संस्कृति के प्रभाव तथा महत्व को अवश्य स्पष्ट करता है । "
जार्ज एम . फास्टर के अनुसार , " लोक संस्कृति को जीवन की क ऐसी सामान्य विधि के रूप मे समझा जा सकता है जो एक क्षेत्र विशेष के बहुत से गाँवों , कस्बों तथा नगरों के कुछ या सभी व्यक्तियों की विशेषताओं के रूप में स्पष्ट होती है तथा लोक - समाज उन व्यक्तियं का एक संगठित समूह है , जो एक लोक संस्कृति से बंधा होता है । "
उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि लोक संस्कृति का तात्पर्य परम्पराओं पर आधारित जीवन के एक सामान्य ढंग से है । इसका तात्पर्य यह है कि लोक - संस्कृति सभी धार्मिक विश्वास , धार्मिक आचरण , कर्मकांडों की पूर्ति , ज्ञान , व्यवहार के तरीके , कला , लोक गाथाएँ तथा चिन्तन किसी - न किसी धर्मग्रंथ अथवा स्थानीय परम्परओं से प्रभावित होते हैं ।
लोक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ ( lok sanskriti ki pramukh visheshtayen )
प्रमुख विद्वानों के मतानुसार लोक संस्कृति में निम्नांकित प्रमुख विशेषताएँ निहित होती हैं-
( क ) सरलता ( Simplicity )
लोक संस्कृति में सम्मिलित सभी पक्षों तथा विषयों की प्रकृति अत्यधिक सरल होती है तथा इनमें किसी भी प्रकार की जटिलता , दुरूहता और विशेषीकरण आदि नहीं पायी जाती है । किसी भी लोकगीत या कहावत में उसकी सरल और प्रचलित स्थानीय भाषा , सीधा - सादा अर्थ अत्यधिक सरल होता है । इसी प्रकार लोक कला के अन्तर्गत निर्मित कलात्मक वस्तुओं में भी सरलता निहित होती है ।
( ख ) मौखिकता ( Orality )
लोक संस्कृति में मौलिकता का विशेष गुण निहित होता है , अर्थात् इसमें लिखित रूप नहीं पाया जाता है । प्रमुख प्रमुख प्रथायें, परम्परायें, लोकाचार , कर्मकाण्ड और अनुष्ठान आदि सामान्यतया मौखिक रूप से ही प्रचलित रहते हैं तथा सभी सदस्यों को इसकी जानकारी मुंह जबानी आधार पर कहने-सुनने से ही होती है। लोक धर्म के अन्तर्गत प्रचलित पूजा पाठ प्रणाली, लोक रीतियाँ तथा लोक विश्वास आदि एक दूसरे को देखकर ही ग्रहण किये जाते हैं । इसी प्रकार लोक साहित्य में भी मौलिकता ही निहित होती है।
( ग ) सामूहिकता ( Collectivism )
लोक संस्कृति में सामूहिकता का गुण भी पाया जाता है। चूँकि इसकी रचना सम्पूर्ण समूह के द्वारा होती है , इसलिए इसमें पूरे समूह की संस्कृति भी निहित होती है। वास्तविकता तो यह है कि लोक संस्कृति का निर्माण किसी एक व्यक्ति विशेष के द्वारा नहीं , अपितु इसका निर्माण और विकास सामूहिक प्रेरणा के आधार पर ही होता है ।
( घ ) हस्तान्तरण ( Transmission )
लोक संस्कृति का प्रवाहकाल अज्ञात है अर्थात् यह अनादिकाल से प्रचलित है तथा इसका हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को अनवरत होता चला आया है। लोक साहित्य, लोक विश्वास, लोक गीत-नृत्य , लोक कलायें तथा लोक जनरीतियाँ इस प्रकार के हस्तान्तरण के परिणामस्वरूप ही अभी तक सुरक्षित रह सकी तथा इसके सन्दर्भ में यह तथ्य भी सदैव रहस्यपूर्ण रहता है और अमुक लोक गीत, लोकोक्ति अथवा अमुक लोक तथा वस्तुतः कब और किसके द्वारा प्रारम्भ हुई थी।
( च ) विविधता ( Veriety )
लोक संस्कृति में विविधता भी निहित होती है । चूँकि लोक संस्कृति का क्षेत्र अपने - अपने स्थानीय समूहों तक ही सीमित रहता है , इसलिए विभिन्न क्षेत्रों में थोड़ी - थोड़ी सी दूरी पर भी इसके स्वरूपों में विभिन्नता पाई जाती है । इस सन्दर्भ में निम्नांकित कहावत भी प्रचलित है " कोस - कोस पर बदले पानी बीस कोस पर बदले बानी । "
( छ ) कृषि आधारित ( Agriculture Based )
लोक संस्कृति कृषि पर ही आधारित होती है , क्योंकि यह पिछड़े हुए समूहों से सम्बन्धित है । विश्व के सभी पिछड़े हुए समुदाय प्रायः कृषि क्षेत्र से ही सम्बद्ध होते हैं , औद्योगिक और नगरीय क्षेत्रों से कदापि सम्बन्धित नहीं होते । भारतीय समाज के सन्दर्भ में तो यह विशेषता सर्वत्र दृष्टिगत है, क्योंकि यहाँ के ग्रामवासियों में अभी तक कृषि को ही सर्वप्रमुख महत्त्व दिया जाता है। भारतीय ग्रामीणों की सम्पूर्ण क्रियायें , दिनचर्या , सामान्य कार्य और व्यवहार तथा सामाजिक संगठन आदि से सम्बन्धित लोक संस्कृति प्रमुखरूप से कृषि पर ही आधारित हैं ।
( ज ) सामयिक उपयोगिता ( Timely Utility )
यह भी लोक संस्कृति की एक प्रमुख और महत्त्वपूर्ण विशेषता होती है कि इसके विभिन्न निर्माणक अंशों में समयानुसार परिस्थितियों के अनुरूप एक विशिष्ट उपयोगिता निहित होती है । जो भी रीति - रिवाज समयानुकूल और समय के अनुसार उपयोगी सिद्ध नहीं होते हैं, उनका महत्व स्वतः कम हो जाता है।
चूंकि लोक संस्कृति स्थानीय अथवा लघु समूह से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित होती है , इसलिए इसमें आवश्यकतानुसार आवश्यक परिवर्तन भी किये जा सकते हैं ।
( झ ) अव्यावसायिकता ( Non - Commercialization )
लोक संस्कृति में अव्यावसायिकता का गुण भी निहित होता है । ग्रामीण क्षेत्रों में लोक संस्कृति से सम्बन्धित जो कुछ कलायें प्रचलित होती हैं , उनके मूल में व्यापार अथवा व्यावसायिकता की भावना कदापि नहीं होती है । इसी के फलस्वरूप ग्रामीण शिल्पी जातियों में धनोपार्जन करने की प्रवृत्ति भी नहीं पायी जाती है।
सामान्यतः देखा जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्ति रस्सी बुनने, चारपाई बुनने, लोक नृत्यों अथवा लोक गीतों में दक्ष होने, कुश्ती लड़ने , दीवारों पर कलाकृतियाँ बनाने, पंखे अथवा चटाई बुनने आदि के कार्यों के दक्ष होने आदि से परिपूर्ण अवश्य होते हैं , किन्तु वे लोग इन कार्यों के आधार पर धन नहीं कमाते हैं । इससे स्पष्ट है कि लोक संस्कृति में अव्यावसायिकता की विशेषता पाई जाती है।
( ट ) सामाजिक संस्थाओं से सम्बन्धित ( Related with Social Institutions ) -
लोक संस्कृति सामाजिक संस्थाओं में भी सम्बन्धित होती है । सामान्यतः यह ग्रामीण परिवार , विवाठों , धर्म , न्याय एवं मनोरंजन आदि संस्थाओं से सम्बन्धित रहती है , तथापि इनमें प्रमुख इकाई ग्रामीण परिवार ही है । सामान्यतः पारिवारिक स्तर पर ही अधिकांश लोकोत्तियाँ अपनाई जाती हैं तथा ग्रामीण संयुक्त परिवार ही लोक संस्कृति के निर्माणकों को सुरक्षित रखते हैं । कालान्तर में इसी के परिणामस्वरूप व्यक्तियों का सामाजीकरण भी सम्पन्न होता है । इससे स्पष्ट है कि लोक संस्कृति विभिन्न सामाजिक संस्थाओं से भी सम्बन्धित होती है ।
लोक संस्कृति का महत्त्व ( importance of folk art )
लोक संस्कृति से सम्बन्धित उपर्युक्त समस्त विशेषताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि लोक संस्कृति का प्रत्येक लोक समाज में एक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । कतिपय प्रमुख विद्वानों का दृढ़ मत है कि लोक संस्कृति वस्तुतः एवं आदर्शों का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं । लोक संस्कृति का महत्त्व भारतीय ग्रामीण समाज के परिप्रेक्ष्य में इसलिए और अधिक बढ़ जाता है कि यह ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था एवं कृषक समुदाय के निकटवर्ती सम्बन्ध स्थापित करती है ।
पिट्रिम सोरोकिन ने लिखा है कि- " कृषि के लक्षण ग्रामीण गीतों , संगीत , नृत्य , कहानियों , कहावतों , पहेलियों , साहित्य , नाटकों , पर्वो अभिनय क्रियाओं तथा अन्य इसी प्रकार की कलाओं में निहित होते हैं । यद्यपि यह सभी कृषि लक्षण ग्रामवासियों के द्वारा निर्मित आकृतियों , अलंकारों , भवन निर्माण और नक्काशी इत्यादि में अधिक स्पष्ट नहीं हो पाते हैं , तथापि यदि ठीक से इनकी व्याख्या की जाये , तो यहाँ पर भी कृषि की छाप अवश्य उपस्थित होती।
सोरोकिन के इस उद्धरण से स्पष्ट होता है कि यह सभी लक्षण ही अन्ततोगत्वा संपूर्ण कृषक या ग्रामीण समुदाय को एकता , समरूपता और स्थिरता प्रदान करते हैं और उनमें प्रकृति के प्रति एक अपूर्व स्वाभाविकता का प्रतिस्थापन भी करते हैं । इसके अन्तिम फलस्वरूप ही लोक संस्कृति दिखावटीपन अथवा कृत्रिमता इत्यादि से सुरक्षित रहती है ।
एक अन्य समाजशास्त्री ए . एल . क्रोबर ने भी इसके महत्त्व को स्पष्ट करते हुए उचित ही लिखा है कि " लोक संस्कृतियाँ अपने सदस्यों की क्रियाओं में पूर्ण रूपेण सहभागिता प्रदान करती हैं तथा ऐसी सहभागिता को वे आमन्त्रित और प्रोत्साहित भी करती हैं ।
उनकी क्रियाशीलता भले ही कितनी सीमित और अपर्याप्त क्यों न हो, वह वैयक्तिक एवं एकीकृत होती हैं । सांस्कृतिक तथ्य का छोटा क्षेत्र, उसमें घनिष्ठ सहभागिता, विस्तार का सीमित रहना इत्यादि संस्कृति के प्रतिमानों को तीव्र करते हैं, जो कि पूर्णतया लक्षित और अन्तर्सम्बन्धित होते हैं। संकीर्णता, गहराई एवं तीव्रता ही लोक - संस्कृतियों की विशेषतायें होती हैं । ”
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