आदर्शवाद और शिक्षा (Idealism and Education) - Questionpurs

आदर्शवाद की अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Idealism)

आदर्शवाद की अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Idealism): शिक्षा की विभिन्न विचारधारा में आदर्शवाद एक प्रमुख एवं प्राचीनतम विचारधारा है। विचारों क प्रक्रिया के सहारे जीवन लक्ष्य की प्राप्ति को प्रमुखता देने के कारण दर्शन के क्षेत्र में आदर्शवाद का विकास हुआ। आदर्शवाद संपूष्ण ब्रह्माण की बुनियाद में विचारों का अस्तित्व मानता है और कहता है कि संपूर्ण सृष्टि विचारों का प्रतिफल है।


आदर्शवाद ने मन को सत्ता के रूप में स्वीकार करते हुए प्रमुख माना गया है। इसके अनुसार मन पदार्थ से उत्तम है और जगत को मन के द्वारा ही जाना जा सकता है पाश्चात्य दर्शन ने मन को मस्तिष्क के रूप में न प्रयुक्त करके आत्मा के पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। पाश्चात्य जगत के ऐतिहासिक क्रम को देखने से प्लेटो से आदर्शवाद का प्रारम्भ व विकास माना जा सकता है। प्लेटो के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति भौतिकता से न होकर उसके वास्तविक प्रत्यय या विचारों से हुई है। प्लेटो की यही धारणा आदर्शवाद के रूप में मानी जाती है। 


आदर्शवाद अंग्रेजी भाषा के 'आइडियालिज्म' (Idealism) शब्दः का हिन्दी रूपान्तरण है। यह आइडियलिज्म शब्द मुख्य दो शब्दो 'आइडिया' (Idea) और 'इज्म' (Ism) के योग से बना है। यहा आइडिया का अर्थ 'विचार' या' आदर्श' है तथा' इज्म' का अर्थ 'वाद' है। इस प्रकार आइडियालिज्म का अर्थ विचार या आदर्श का वाद अर्थात् विचारवाद या आदर्शवाद है। आइडियालिज्म शब्द की उत्पत्ति प्लेटो के विचारवादी सिद्धान्तों से हुई है। इस सिद्धान्त के अनुसार इस सृष्टि की अंतिम सत्ता विचारों अथवा विचारवादी है।


विषय वस्तु के हिसाब से Idealism के स्थान पर Idealism नाम अधिक समीय और अर्थपूर्ण मालूम पड़ता है। आदर्शवाद का सही अंग्रेजी Idealism शब्द ही है, किन्तु उच्चारण सुविधा की दृष्टि से अंग्रेजी भाषा के 'L' अक्षर को जोड़कर इसे आइडियालिज्म कहकर सम्बोधित किया जाता है। यद्यपि शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से इसे विचारवाद कहना अधिक उपयुक्त है। लेकिन शब्द की रूढ़ि प्रक्ति के कारण आदर्शवाद अधिक प्रचलन में है।


दार्शनिक सिद्धान्त के रूप में आदर्शवाद भौतिकता को अपेक्षा विचारों वा आदी के महत्व को स्वीकार करते हुए प्रकृति की अपेक्षा मानव तथा उसके व्यक्तित्व के विकास एवं आध्यात्यिक मूल्यों को जीवन का लक्ष्य स्वीकार करता है। यह विचारधारा सुकरात, प्लेटी, इंकार्टस, स्वनीजा, बर्फले, काष्ट, शैलिग, होगल, ग्रोन, शोपेनहावर आदि दार्शनिकों के योगदान से तीवयति से आगे बढ़ी तथा आधुनिक चिंतकों पेस्टालॉजी, फ्रोबेल, हार्न हरवर्ट, नन आदि अनेक पाश्चात्य दार्शनिकों से लेकर वेदों एवं उपनिषदों के प्रणेता महर्षियों से लेकर श्री अरबिन्द तक अनेक दर्शनिकों ने शिक्षा जगत में इसे समाहित कर अपना योगदान दिया।


आदर्शवाद के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ प्रमुख विद्वानों की परिभाषाएँ दी जा रहीं हैं।


1. जे. एस. गॅस के अनुसार "आदर्शवादी दर्शन के विभिन्न प्रारूप है, परन्तु सभी प्रारूपों के पीछे एक हो मान्यता है कि मन या आत्माजगत को सार वस्तु है और सच्ची वास्तविकता मानसिक होती है।"


2. डी.एम.दत्ता के अनुसार "आदर्शवाद वह सिद्धान्त है जो अंतिम सत्ता आध्यात्मिक मानता है।"


3. एस. बी. हेण्डरसन के अनुसार "आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर बल देता है। इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक का विश्वास है कि मनुष्य अपने सीमित मस्तिष्क को अभिमित मस्तिष्क से प्राप्त करता है। व्यक्ति और संसार दोनो बुद्धि को अभिव्यक्तियों हैं और भौतिक संसार की व्याख्या मस्तिष्क से ही की जा सकती है।" 


4. बबेकर के अनुसार : " आदर्शवादियों का कहना है कि संसार को समझने के लिए मन सर्वोपरि है। उनके लिए इससे अधिक वास्तविक बात कोई नहीं है कि मन संस्तर को समझने में लगा रहे और किसी बात को इससे अधिक वास्तविकता नहीं दो जा सकती है क्योंकि मन से अधि एक किसी और बात को वास्तविक समझना स्वयं मन को कल्पना होगी।" 


5. डी. डब्ल्यू पैट्रिक के अनुसार "आदर्शवादियों का विश्वास है कि संसार का एक निश्चित अभिप्राय और एक निश्चित लक्ष्य है और सृष्टि के लक्ष्य तथा मनुष्य की आत्मा में एक प्रकार का आन्तरिक सामन्जस्य है। यह सामंजस्य ऐसा है कि मानव बुद्धि प्रकृति के बाह्य का भेद कर कम से कम कुछ सीमा तक आन्तरिक शक्ति परम तत्व तक पहुँच सकती है।"


6. हार्न के अनुसार : "आदर्शवादी शिक्षा दर्शन मानसिक जगत का मानव को अभिन्न अंग समझने की अनुभूति का विवरण है।"


आदर्शवाद में पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों का वर्णन कीजिए।


आदर्शवाद और शिक्षा के उ‌द्देश्य (Idealism and Aims of Education)


आदर्शवाद के अनुसार मनुष्य की व्याख्या न तो भौतिक आधार पर की जा सकती है और न ही अन्य जीवधारियों से उसका सम्बंध स्थापित किया जा सकता है। उसके अनुसार मनुष्य, मनुष्य इसलिए, है कि उसमें आत्मा का निवास है। मनुष्य की आत्मिक प्रकृति हो उसके जीवन का सारभूत तत्व है। आत्मा का निवास होने के कारण मनुष्य को इस संसार की सर्वश्रेष्ठ कृति माना गया।


इसलिए मनुष्य के जीवन का उद्‌देश्य आत्मा की अनुभूति है और मनुष्य को आत्मा को अनुभूति उसके व्यक्तित्व का विकास करके किया जा सकता है। अतः मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास करना ही आदर्शवादी शिक्षा का मुख्य उद्‌देश्य है। इन उद्‌देश्यों का वर्णन निम्नलिखित है-


1. व्यक्ति का उच्चतम् विकास

आदर्शवादियों के अनुसार व्यकि के विभिन्न पक्षों का विकास करना शिक्षा का प्रमुख उ‌द्देश्य माद गया है। व्यक्तित्व के संपूर्ण एवं उच्चतम विकास के आदर्शवाद शाश्वत मूल्यों सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम, के विकास को निहित माना है। उनका कहना है कि जीवन का सर्वोच्चलक्ष्य व्यक्तित्व का उच्चतम विकास अथवा स्वानुभूति है।


मानव जीवन का लक्ष्य यही है कि व अपने वास्तविक स्वरूप को पहचाने और उसको अनुभूति कर सके। आर्दशवादियों ने आत्मानुभूति के चार सोपान बताए है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का उच्चतम विकास करके आत्मानुभूति को प्राप्ति कर सकता है। ये सोपान निम्न है:


(1) शारीरिक स्व:- यह आत्मानुभूति की प्रथम सोढ़ी है। इसक माध्यम से मनुष्य का शरीरिक एवं जैविक विकास होता है। 


( 2 ) सामाजिक स्व- इसमें सामाजिक सम्बंधी की अभिव्यक्ति होती है। सामाजिक हितों के लिए वैयक्तिक त्याग, सामाजिक नियमों की स्वीकृति और पालन आदि सामाजिक स्व के अन्तर्गत आते हैं। 


(3) बौद्धिक स्व:- इसके अन्तगर्त विवेक और बुद्धि के द्वारा सद-असद् तथा श्रेयस और प्रेयस में विभेद किया जा सकता है। इसमें सामाजिक स्वीकृति तथा अस्वीकृति के कारण व्यक्ति का व्यवहार नियंत्रित नहीं होता, बल्कि वृद्धि और विवेक के द्वारा उसे 'स्व' को अनुभूति होती है।


(4) आध्यात्मिक स्व:- इसमें संपूर्ण व्यक्तित्व का रूपान्तरण हो जाता है, इसमें गुण सहज बन जाते हैं वे न तो शारीरिक सुख के कारण होते हैं, न सामाजिक स्वीकृति के कारण होते हैं और न ही बौद्धिक तृभि के लिए होते हैं। इसमें व्यक्ति का विश्वास के साथ तादात्यय स्थापित हो जाता है। उसके व्यक्तित्व का उच्चतम् विकास हो जाता है।


आदर्शवादियों के अनुसार चार सोपानों के विकास से मनुष्य के व्यक्तित्व का उच्चतम विकास हो जाता है।


2. आध्यात्मिक विकास

आदर्शवादियों के अनुसार शिक्षाका एक उद्देश्य मनुश्य का आध्यात्मिक विकास है। उनका कहना है कि आध्यात्मिक विकास के लिए प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि यह शाश्वत मूल्यों सत्यं शिवं सुन्दरम् के प्राप्ति के लिए यथोचित प्रयास करे।


डॉ० राम शकाल पाण्डेय के अनुसार सत्य परिवर्तन में नहीं है. अपूर्ण भौतिक जगत में नहीं है, सत्य सापेक्ष नहीं है। यह निरपेक्ष है. बरम है, अविनाशी है, प्रत्यात्मक है तथा संपूर्ण विश्व का आधार है। उसी निरपेक्ष सत्य का जान प्राप्त करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। जो सत्य है वही शिव में है। भौतिक जगत की वस्तुओं में कल्याण देखना भ्रम है।


शिवत्व ती परम शिव में है और उसी परम शिवम की अनुभूति करनी चाहिए। यही बात सुन्दरम के विषय में लागू है होती हैं। संसार के विशेष पदार्थों में सुन्दरता को एक किरण कहीं से भी आ जाती है तो व्यक्ति आनन्दमान हो जाता है, किन्तु में विशेष पदार्थ बोड़े काल की लिए ही सुन्दर रहते हैं, किन्तु क्या सौन्दर्य भी नष्ट हो सकता है। सौन्दर्य की उपासना करनी चाहिए, सुन्दर को नहीं। सौन्दर्य ही चरम सत्ता है, वही परम शिव है और वही हमारी उपासना का विषय है।" इस प्रकार मनुष्य को इन तीन शास्वत मूल्यों की प्राप्ति कर अपना आध्यात्मिक विकास करना चाहिए। 


3. मनुष्य के भावनाओं का उदात्तीमरण

आदर्शवाद के अनुसार बिना शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्य के भावनाओं का उदात्तीकरण करना है। जो जीवन कला सीखाने में निहित हैं शिक्षा का यह उद्‌देश्य है कि वह मनुष्य में प्रेम, स‌द्भाव, उत्साह, सहानुभूति, त्याग, सच्चरित्रता, धैर्य, दानशीलता आदि गुणों का विकास करें क्योंकि इसी के विकास में उनका ब्दात्तीकरण है।


इन्हीं गुणों के उदात्तीकरण से मानव पूर्ण होगा और उसे महामानव बनने का आधार प्राप्त होगा। इस सम्बंध में महर्षि अरविन्द का कथन है कि "मानव को मानव बनाना और उसको भी आगे अतिमानव बनाना शिक्षा का कार्य है।" इसलिए शिक्षा का एक उद्‌देश्य मानव को भावनाओं का उदात्तीमरण करना है जिससे वह पूर्ण मानव बनकर महामानव बनने की ओर अग्रसर हो सके।



4. सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास

आदर्शवादी शिक्षा का उद्‌देश्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास है। मामाजिक विकास के माध्यम से मनुष्य समाज द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करता है। यह सामाजिक हितों के लिए अपने व्यक्तिगत हितों का त्याग कर देता है। इसलिए शिक्षा का उददेश्य इस प्रकार का होना चाहिए कि ममुष्य में सामाजिक संबंधों की अभिव्यक्ति का विकास हो सके।


आदर्शवादियों के अनुसार शिक्षा का उ‌द्देश्य संस्कृति का संरक्षरण एवं हस्तान्तरण करना है। विलियम हाकिंग के जुनस्तर "आति द्वारा संचित की गई संस्कृति को जाति के युवा लोगों तक पहुंचाने का उत्तरदायित्व शिक्षा का है। इस प्रकार युवा पीढ़ी को उन अनुभवों से लाभ मिल जाता है जो जाति ने संस्कृति के रूप में संचित किए हैं।" प्रत्येक जति अपनी सांस्कृतिक निधि को अपने भाची संतति के लिए इसी कारण संरक्षित रखती है कि उसके संतति उच्यतम आदर्श को प्राप्त कर अपनी सांस्कृतिक सपनि के बारे में जानकर अपना आध्यात्मिक विकास कर सकीं।


इस सम्बंध में रक महोदय का कथन उल्लेखनीय है शिक्षा को जाति को वह अपनी संस्कृति की सहायता से अधिक पूर्णता से प्रवेश कर सके और आध्यात्मिक जगत की सीमाओं का विस्तार भी कर सके। इसलिए आदर्शवादी शिक्षा द्वारा मनुष्य को संस्कृति के संरक्षण और विकास पर बल देते हैं और उसे शिक्षा का एक उद्‌देश्य निश्चित करते हैं।


5. नैतिक एवं चारित्रिक विकास:

आदर्शवादी दार्शनिक मनुष्य के नैतिक एवं चारित्रिक विकास करना शिक्षा का उद्‌देश्य है। उनका कहना है कि जब तक मनुष्य में नैतिक एवं चारित्रिक विकास नहीं होगा तब तक वह शाश्चत मूल्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता। उनका स्पष्टीकरण है कि जब मनुष्य सामाजिक नियमों को स्वीकार कर स्वेच्छा से करता तथा अपने वैयक्तिक विकास हो जाता है।


नैतिक एवं आरित्रिक विकास हो जाने पर व्यकित प्रत्येक परिस्थिति में सद्‌मार्ग पर ही बरता है रबर्ट म्येनार ने तो नैतिक विकास को ही शिक्षा का प्रमुख उद्‌देश्य माना करे है। अतः शिक्षा का यह उद्‌देश्य के नैतिक एवं चारित्रिक विकास जिससे वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो सके। 


6. बुद्धि एवं विवेक शक्ति का विकास

आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का एक उद्‌देश्य मनुष्य के बुद्धि और विवेक उसके सभी आर्दशी तथा आध्यात्मिक चेतनाओं का आधार होता है। उनके बुद्धि का ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के विवेक नहीं हो सकता। काण्ट सबसे अधिक बल मनुष्य के बौद्धिक पर देते हुए कहते है कि शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य बालक का विकास होना चाहिए। तभी यह अपनी बौद्धिक क्षमता व विवेकशीलता के द्वारा इन नियमों व सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।


7. पवित्र जीवन की प्राप्ति

आदर्शवादियों के अनुसार शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य पवित्र जीवन को प्राप्ति है। आदर्शबादी नैतिक और पवित्र जौवनके लिए शाश्वत मूल्यों मत्थं, शिवं, सुन्दरम् पर बल देता है। उनका कहना है कि यदि हम इन मूल्यों को आधार बनाकर शिक्षा देंगे तो बालक में ऐसे गुण अपने आप ही विकसित हो जाएंगे।


इस सम्बंध में फ्रोबेल का कथन उल्लेखनीय है उसके अनुसार "शिक्षा का उद्‌देश्य भक्तिपूर्ण पवित्र तथा कलंक रहित अर्थात पवित्र जीवन की प्राप्ति है। शिक्षा को मनुष्य का पथ प्रदर्शन इस प्रकार करना चाहिए कि उसे अपने आपका सामाना करने का एवं ईश्वर से एकता स्थापित करने का स्पष्ट ज्ञान हो जाए।"


8. वातावरण के साथ अनुकूलन

वातवारण के साथ अनुकूलन करना आदर्शवादी शिक्षा का परम उद्‌देश है। हार्म के अनुसार "शिक्षा का उ‌द्देश्य मानव को अपने प्रकृति (वातावरण) अपने साथियों एवं विश्व की अंतिम प्रकृति के साथ अनुकूलन कराने को क्षमता प्रदान करना है।" या अनुकूलन केवल प्राकृतिक एवं भौतिक बातावरण के साथ नहीं होता बल्कि सांस्कृतिक एवं आध्यात्यिक वातावरण के साथ होता है।


एडम्स का विचार है कि शिक्षा का उ‌द्देश्य मानव में प्राकृति को सूझ-बूझ विकसित करना होना चाहिए तथा इसके वातावरण के साथ अनुकूलन करने के लिए बालक को शिक्षित किया जाना चाहिए। इसके लिए बालकों को इस प्रकार का ज्ञान दिया जाना चाहिए जिससे वह प्राकृतिक, भौतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक वातावरण के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं आध्यात्यिक वातावरण से अनुकूलन कर सकें।


आदर्शवाद और पाठ्यक्रम ( Idealism and Curriculum)


पाठ्यक्रम शिक्षा के उद्‌देश्य को सम्पन्न करने का साधन होता है। आदर्शवादो शिक्षा का उ‌द्देश्य आयोन्नति (मोक्ष) मानते हैं और इसी के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण करते हैं। पाठ्यक्रम के सम्बंध में प्रसिद्ध आदर्शवादियों के विचार निम्नलिखित है-


1. प्लेटो के पाठ्यक्रम सम्बंधी विचार प्लेटों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम उद्‌देश्य आत्मानुभूति (मोक्ष) की प्राप्ति करना है। आत्मानुभूति की प्राप्ति के लिए तीन शाश्वत मूल्यों सत्य, शिव, सुन्दरम, जो मनुष्य के बौद्धिक, नैतिक और सौन्दययांमक क्रियायों से सम्बन्धित है। को निम्मरूप में पाठ्यक्रम से सम्मिलित किया जाना चाहिए।


3. रॉस के पाठ्यक्रम सम्बन्धी विचार रॉस के अनुसार व्यक्ति के विकास के लिए शिक्षा का स्वरूप आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना होना चाहिए। राँस के अनुसार मानव में दो प्रकार की क्रियार्य होती है- शारीरिक क्रिया और आध्यात्मिमक क्रिया। उसका यह विश्वास है कि मनुष्य का आध्यात्मिक विकास तभी संभव है जब वह शारीरिक रूप से स्वस्थ हो। राँस के अनुसार इन दोनों क्रियायों के अनुसार पाठ्यक्रम का निम्न स्वरूप होना चाहिए-


2. हरबर्ट के पाठ्यक्रम सम्बन्धी विचार हरबर्ट ने मनुष्य की आत्मोन्नति के लिए चारित्रिक विकास पर बल देते हुए पाठ्यक्रम को दो पक्षों में विभाजित करते हैं मुख्य विषय और गौण विषय। उसके अनुसार भाषा, साहित्य, इतिहास, कला, संगलत मुख्य विषय और भूगोल, गणित, विज्ञान को गौण विषय है। हरबर्ट के अनुसार इन दोनों विषयों का समन्वय करके मनुष्य का नैतिक या आध्यात्मिक विकास किया जा सकता है।


4. नन के पाठ्यक्रम सम्बन्धी विचार नने के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण इस प्रकार से होना चाहिए कि उससे बालकों को सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास से परिचित कराया जा सके। इसके लिए नर महोदय ने मानव क्रियायों को दो भांगों में विभाजित किया है। प्रथम भाग में वे वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन क्रियायों को और दूसरे भाग में सभ्यता और संस्कृति का निर्माण करने वाली सृजनात्मक क्रियाओं को रखते हैं। इन क्रियायों के अनुसार पाठ्यक्रम का स्वरूप निम्न प्रकार से होना चाहिए।


आदर्शवाद और शिक्षण विधि (Idealism and Method of Teaching) 


आदर्शवादी हमेशा शिक्षा के उद्‌देश्यों की ओर ध्यान देते हैं न कि शिक्षण विधि की और। उनका कहना है कि जब हमें लक्ष्य मालुम है तो उसकी प्राप्ति के लिए शिक्षण विधियों की खोज स्वयं को जा सकती है।ये अपने आपकों शिक्षण विधियों का निर्माता और निर्धारक मानते हैं। इस संबंध में बटलर का कथन है कि "आदर्शवादी स्वयं को किसी एक विधि का भक्त न मानकार, विधियों का निर्माता और निर्धारित समझते हैं।"


आदर्शवादियों के अनुसार यदि हमारे लक्ष्य और उ‌द्देश्य निश्चित हो तो हम बालकों को रूचियों, रुझानों और आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण विधियों को सरलतापूर्वक खोज सकते हैं। विभिन्न आदर्शवादी दार्शनिकों ने विभिन्न शिक्षण विधियों को अपनाया है। इस कारण आदर्शवाद को कोई एक शिक्षण विधि नहीं है। कुछ प्रमुख शिक्षण विधियों का उल्लेख निम्नलिखित हैं:- 


1. प्रश्नोत्तर विधि :-

इस विधि का प्रयोग सुकरात ने किया। सुकरात इस विधि के द्वारा उस समय के युवकों को शिक्षा दिया करते थे। वे किसी स्थान पर युवकों को एकत्रित करके उनके सामने प्रश्न प्रस्तुत करते थे। युवक उन प्रश्नों पर विचार कर उत्तर देते थे, तब वे उन प्रश्नों के संदर्भ में अपना मत स्पष्ट करते थे। सुकरात अपनी इस विधि में विद्यार्थी के तथ्यों का विस्तार उनकी आलोचना एवं अपने सिद्धान्तों का पालन करते थे। इस विधि को वाद-विवाद विधि भी कहा जाता था। 


2. संवाद विधि :-

प्लेटो ने प्रश्नोत्तर विधि के आधार परसंवाद विधि का विकास किया। प्लेटो ने अपनी अधिकतर रचनाएँ, संवादों के रूप में लिख है जो विश्वविख्यात है। 


3. आगमन एवं निगमन विधि

इस विधि का प्रयोग प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने किया था। इसका प्रयोग गणित, खगोल, ज्यामिति आदि के पढ़ाने में किया जाता था। आगमन विधि में विशिष्ट से सामान्य की ओर और निगमन विधि में सामान्य से विशिष्ट की और चला जाता है। पहले वह उदाहरण प्रस्तुत करते हैं फिर सामान्यीकरण करके प्राप्त सिद्धान्त का प्रयोग करते हैं। वैज्ञानिक तथ्यों में इस विधि के द्वारा अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। आज भी यह विधि प्रचलन में है। 


4. व्याख्यान विधि :

इस विधि के द्वारा अध्यापक बालक में कलात्मक रचनाएँ एवं सौन्दर्यनुिभूति को भावना जागृत कर सकता है। आदर्शवादियों का ऐसा विचार है कि इस विधि के द्वारा बालक को वस्तुनिष्ठ ज्ञान दिया जा सकता है। यह विधि केवल उच्च कक्षाओं में अनुकूल है। वर्तमान समय में इस विधि का प्रयोग उच्च कक्षाओं में किया जा रहा है।



5. खेल विधि :-

इस विधि को 'किण्डरगार्डन' के नाम से भी जाना जाता है। फ्रॉवेल के इस विधि का प्रयोग शिक्षा में किया गया था। फ्रबिल के अनुसार विद्यालय एक उद्यान की तरह होता है और अध्यापक एक माली। जिसका प्रमुख कार्य अपने संरक्षण में बालक रूपी पौधे को सुन्दर और विकसित करने में सहायता प्रदान करना है। निर्देशन विधि:- इस विधि को 'हरबर्ट' ने अपनाया था। वह शिक्षा का प्रारम्भ ही निर्देशन के द्वारा मानता है। इस विधि में बालक को ऊपर कोई चीज थोपी नहीं जाती बल्कि उसे प्रोत्साहित किया जाता है। इससे बालक में सोचने व समझने की क्षमता का विकास होता है।


7. प्रोजेक्ट विधि:-

चूंकी पुस्तकीय ज्ञान सैद्धान्तिक होता है अतएवं इसे उपयोगी बनाने के लिए आदर्शवादी प्रोजेक्ट विधि को महत्व देते हैं। इस विधि के द्वारा बालक के प्रति भावी दृष्टिकोण विकसित करने और सोचने समझने की क्षमता का विकास अधिक होता है।


8. श्रवण-मनन-निदिध्यासन विधि

इस विधि के माध्यम से आदर्शवादी बालक को ज्ञान का श्रवण, मनन और इसको जो ज्ञान प्राप्त हो उस पर निरन्तर चिंतन करना चाहिए। इससे बालक की तर्कशक्ति बढ़ने के साथ बुद्धि और विवेक का भी विकास होता है। 


9. पाठ्यक्रम पुस्तक विधि:-

आदर्शवादी पाठ्यपुस्तक विधि का भी प्रयोग करते हैं। वह कहते हैं कि पाठ्यक्रम ही ऐसा माध्यम है जिससे ज्ञान की प्राप्ति होती है और लक्ष्य एवं उद्देश्य तक पहुँचने में सरलता खेती है। पुस्तकों का महत्व पहले की तरह आज भी उतनी ही है।


आदर्शवाद और शिक्षक (Idealism and Teacher)


आदर्शवादियों ने शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। उनका कहना है कि बालक को पशुत्व से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले जाने में शिक्षक की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षक के महत्व पर प्रकाश डालते हुए फ्रॉबल ने कहा है कि " अध्यापक रूपी माली के द्वारा ही शिक्षार्थी रूपी पौधे की सहायता से विद्यालय रूपी उद्यान को सजाया जा सकता है।"


आदर्शवाद के अनुसार शिक्षक आध्यात्मिक चेतना को स्रोत माना जाता है। वह बालक के लिए एक विशेष प्रकार का वातावरण तैयार करता है और से चरम सत्य और वास्तविकता की ओर ले जाता है। बालक जिन सत्यों को प्राप्त करता है वह विश्वसनीय और प्रमाणिक है की नहीं, यह जानने के लिए शिक्षक की आवश्यकता पड़ती है। हार्न के अनुसार "शिक्षक को शिक्षार्थी के व्यक्तिगत मित्र के रूप में देखा जा सकता है।


उनके अनुसार शिक्षक ही शिक्षार्थी में सोखने की इच्छा जागृत करते हैं और शिक्षक ही मानव को पूर्णता प्राप्त करने में था एक आदर्श व्यवस्था प्राप्त करने में सहायक होते हैं। शिक्षक बालक में सामाजिक भावना का विकास भी करता है। वह बालक में समाज के आदर्शी, मूल्यों एवं गुणों का विकास करता है। इस सम्बन्ध में रस्क महोदय का विचार है कि मनुष्य का आध्यात्मिक स्वभाव सामाजिक होता है। सांस्कृक्तिक संपत्ति का संरक्षण एवं हस्तानान्तरण इस बात को सिद्ध करता है। इसलिए मनुष्य के सामाजिक विकास के स्वभाव के लिए शिक्षक की आवश्यकता होती है।


आदर्शवादियों का कहना है कि शिक्षक होने के लिए व्यक्ति में पर्याप्त गुण होने चाहिए। भ्राम्यसन के अनुसार शिक्षक बालक के लिए वास्तविक सत्य का मूर्त रूप है। शिक्षक ईश्वर का प्रतिरूप होता है। आदर्शवाद के अनुसार शिक्षक सर्वगुण सम्पन्न तभी हो सकता है जब वह बालक को पूर्ण लक्ष्य तक पहुँचा दे। उनके अनुसार सचरित्र, नैतिक, व आध्यात्मिक शिक्षक ही बालकों के उचित निर्देशन में सफल हो सकता है।


आदर्शवाद और शिक्षार्थी (Idealism and Student)


आदर्शवादी बालक को केवल शरीर, इन्द्रिय और मस्तिष्क का बना हुआ न मानकर उसे आत्माधारी मानते हैं। वे बालक को मन और शरीर दोनों मानते हैं। जिस प्रकार उम भौतिक संसार में इकों को कल्पना कर सकते हैं उसी प्रकार बालक के शरीर में 'मन' के अस्तित्व को कल्पना की जा सकती है।


आदर्शवाद के अनुसार बालक मन या आत्मा है। ये यन को मस्तिष्क एक पर्याय न में निहित अंश मानते हैं। इस दृष्टि के साथ मानकर उसे मनुधा हुए कहते हैं कि सभी बालक एक समान होते हैं इसलिए वे सभी पूर्णता की अनुभूति करने योग्य होते हैं।


आधुनिक आदर्शवादियों ने बालकों के प्रति विचारों में परिवर्तन आया है। उनके अनुसार बालकों में अनेक आधारों पर भिन्नता पाई जाती है इसलिए उनके विकास में उनको भिन्नता को ध्यान में रखना चाहिए। इस सम्बंध में पेस्टालॉजी, हरबर्ट तथा फ्रॉबेल ने बालक के प्रवृत्तियों को जानने तथा उन्हीं प्रवृत्तियों के अनुसार उन्हें महत्व देने की बात स्वीकार करते हैं।


आदर्शवाद और विद्यालय (Idealism and School)


आदर्शवादियों के अनुसार विद्यालय सर्वाधिक शिक्षा का स्थल एवं केन्द्र है। उनके अनुसार विद्यालय का वातावरण सामाजिक व भौतिक दोनों दृष्टि से आदर्शात्मक होना बाहिए। विद्यालय ही ऐसा स्थान है जहाँ पर व्यक्ति को सामाजिक तथा आध्यात्मिक गुणों के अर्जन करने का अच्छा अवसर प्राप्त होता हैं।


नन के अनुसार "विद्यालय केवल ज्ञान प्राप्ति का स्थान नहीं है बल्कि यह वह स्थल है जहाँ पर निश्चित प्रकार को क्रियायों को अनुशासित ढंग किया और करवाया जाता है।" विद्यालय को समाज का लघुरूप माना जाता है। विद्यालय ही ऐसा स्थान है जहाँ चातावरण और अध्यापक की सहायता से बालक में तर्कशक्ति, तार्किक चिंतन और सृजनात्मक योग्यताओं का उचित विकास किया जा सकता है। जिससे उच्च आध्यात्मिक मूल्यों ओर आदशों को बालक प्राप्त कर सकते हैं।


आदर्शवाद और अनुशासन (Idealism and Discipline) 


आदर्शवादी प्रभावत्मक एवं दमनात्मक अनुशासन में विश्वास रखते है। आदर्शवादी शिक्षक स्वयं को अनुशासित रखकर बालक के समक्ष मूल्यों और सदगुणों को रखते हैं और बालक उन्हें ग्रहण करते हैं। आदर्शवाद के अनुसार अनुशासन को प्रभावित करने वाले तीन प्रमुख तत्व है- शिक्षक, सामाजिक एवं प्राकृतिक वातावरण और छात्र। विद्यालय में उचित अनुशासन बनाए रखने के लिए सामाजिक और प्राकृतिक वातावरण को स्वस्थ रखना चाहिए।


सामाजिक वातावरण का एक अंग शिक्षक ही है और शिक्षक का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव बालक पर पड़ता है। वह शिक्षक का हर तरह से अनुकरण करता है। इस प्रकार आदर्शवादी अनुशासन प्रभावात्मक है। आदर्शवादी शिक्षा बालका को स्वतंत्रता के लिए तैयार करती है उसके अनुसार वास्तव में स्वतंत्र व्यक्ति वह है, जिसकी संकल्प शक्ति स्वतंत्र हो और जो अपनी मूल प्रवृत्तियों का दास न होकर स्वामी हो और इसी में उसी स्वतंत्रता निहित होती है।


अतः बालक को अपने मूल प्रवृत्तियों का नियंत्रण करना हो दमनात्मक अनुशासन है। इन्हीं मूल प्रवृत्तियों के नियंत्रण से आत्मसंयम को भावना आती है। इस प्रकार आदर्शवादियों का विश्वास है कि बालक का पूर्ण विकास तभी हो सकता है, जब वह अनुशासन में रहे। अनुशासन में रहकर ही उसमें आत्मसंयम की भावना आती है और आध्यात्मिकत को प्राप्त करता है। 


आदर्शवादी शिक्षा के गुण एवं दोषों की व्याख्या कीजिए


आदर्शवाद के गुण आदर्शवादी शिक्षा के प्रमुख गुरु निम्नलिखित है-


1. आदर्शवादी दर्शन के कारण स्कूल एक सामाजिक संस्था बन गया है। 

2. आदर्शवादी बालक के व्यक्तित्व का आदर करता है तथा उसकी रचनात्मक शक्तियों के विकास पर बल देता है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि आदर्शवाद ने अपने सिद्धान्तों के द्वारा प्रकृतिवार आदि सम्प्रदायों को प्रभावित किया है।

3 आदर्शवादी शिक्षा, बालकों में 'सत्यम शिवम सुन्दरम्' जैसे श्रेष्ठ गुणों का विकास करती है जिसके फलस्वरूप बालक में उत्तम चरित्र का निर्माण होता है।

4. आदर्शवादी आत्मानुशासन और आत्म चरित्र के सिद्धान्तों को प्रतिपादित करता है। इस सिद्धान्तों का शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान है। 

5. आदर्शवाद की उद्देश्यों के क्षेत्र में अद्वितीय देन है केवल आदर्शवाद ही ऐसा सम्प्रदाय है, जिसके अन्तर्गत उद्देश्यों को विस्तृत व्याख्या को गई है। 

6 आदर्शवाद शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक को अतिमहत्वपूर्ण स्थान देता है। इसमें बालक और समाज दोनों का हित है।

7. आदर्शवादी शिक्षा आत्मबोध पर बल देती है, जो प्रत्येक व्यक्ति को करना है। इस प्रकार आदर्शवाद सर्वव्यापी शिक्षा का समर्थन करता है। 

8. आदर्शवाद में शिक्षक अपने उच्च तथा आदर्शमय जीवन से बालका को प्रभावित करता है तथा उसे सहानुभूतिपूर्वक विकसित करता है। अतः वर्तमान पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक विषयों को मुख्य स्थान मिलना चाहिए।


आदर्शवादी शिक्षा के दोष (Demerits of Idealistic Education)


आदर्शवादी शिक्षा के निम्नलिखित दोष है :- 


1. आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्य वर्तमान की उपेक्षा कर भविष्य पर अधिक बल देते हैं।

2. आदर्शवाद विचार तथा मन को अधिक महत्व देता है। इसमें बौद्धिकत से अधिक प्रोत्साहन दिया जाता है।

3. आदर्शवादी शिक्षा में शिक्षक को मुख्य स्थान और बालक को गौष स्थान देता है जो बालक को दृष्टि से उपयुक्त नहीं है।

4. आदर्शवादी शिक्षा में प्रयोगात्मक शिक्षण विधियों को अधिक  महत्व नहीं देता, जो वर्तमान शिक्षा की प्रमुख आवश्यकता है।

5. आदर्शवादी शिक्षा के पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धिा विधियों को मुख्य स्थान देते हैं, जबकि वर्तमान में पाठ्यक्रम का सम्बंध बालक के व्यवहारिक जीवन से होना अच्छा माना जाता है।

6. आदर्शवादी शिक्षा बालकों को आध्यात्मिक और आत्मानुभूति को ओर ले जाता है जो कि आज के वैज्ञानिक युग में कपोल कल्पना प्रतीत होता है क्योंकि आज हमारे सामने रोटी कपड़ा और मकान की समस्या है। आध्यात्मिक और आत्मानुभूति के बारे में सोचने के लिए समय नहीं है।


भारतीय शिक्षा के संदर्भ में आदर्शवाद की देन


आदर्शवाद की देन। आदर्शवाद का शिक्षा के क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण योगदान मिलता है, जिसके कारण शिक्षा सम्बन्धी कुछ विशेषताएँ भी प्रकट होती है। आदर्शवादियों के विचार में निम्नलिखित कुछ देने मिलती है-


1. उद्देश्य का निर्धारण

शिक्षा के क्षेत्र में उद्देश्यों के निर्धारण में दार्शनिक विचारधारा ही काम करती है। आदर्शवाद शिक्षा का उद्‌देश्य सायं, शिवं और सुन्दरम् को प्राप्त करना बताता है और वास्तव में जीवन के तीन पक्षों से सम्बन्धित है। इनके द्वारा व्यक्ति पूर्णता की ओर बढ़ता है और उसे प्राप्त करता है। प्राप्त आदर्शवाद के द्वारा ही सभी देशों के उद्‌देश्यों का निर्धारण हुआ है।


2. आदशों की स्थापना

शिक्षा के क्षेत्र में मूल्यों एवं आदों की स्थापना, उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न एवं साधन निकालना आदर्शवाद को हो देन कही जाती है।


3. शिक्षा का आधार दर्शन

आज मनोविज्ञान शिक्षा का आदर्श स्तर निर्धारित नहीं करता। शिक्षा का एकमात्र आधार मनोविज्ञान नहीं है, उसकी सहायता दर्शन भी करता है एवं इसमें आदर्शवाद प्रमुख है। 


4. आदर्शवाद की सर्वत्र मान्यता

आदर्शवाद की मान्यता इतनी अधिक हुई है कि वह प्राचीन समय से आज तक किसी ना किसी रूप में दूसरे सम्प्रदाय के साथ-साथ चलता है।


5. पाठ्यक्रम में आदर्शवाद

दृष्टिकोण शिक्षा में पाठ्यक्रम के निर्धारण में सिद्धान्तों का प्रयोग भी आदर्शवादी दृष्टिकोण को प्रकट करता है। सामान्य शिक्षा एवं उदार शिक्षा पर आदर्शवादी हो बल देता है। 


6. अध्यापक महत्वपूर्ण जो कुछ भी साम्प्रदायिक विचार हो अध्यापक को स्थिति महत्वपूर्ण होती है और उसके महत्व को भुलाया नहीं जा सकता । 


7. बालक के व्यक्तित्व को आदर व्यक्तित्व का विकास आदर्शवादी शिक्षा का मुख्य लक्ष्य है।


8. अनुशासन महत्वपूर्ण -

आदर्शवाद ने शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन को विशेष महत्व दिया है या अनुशासन स्वाभाविक हो ना कि दमन पर आधारित हो ।


9. आध्यात्मिक शिक्षा पर बल

आदर्शवाद आध्यात्मिक, धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा पर बल देता है। शिक्षा का सम्बन्ध आध्यात्मिक एवं धार्मिक तथा नैतिक जीवन से हों। यह आदर्शवाद की देन है। 


10. संस्कृक्ति की सुरक्षा पर बल

संस्कृति की सुरक्षा आदर्शवाद की देन कही जाती है। इस सम्बन्ध में रस्क महोदय का कथन है कि "यदि संस्कृति की रक्षा करनी है और यदि विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति प्रेम स्थापित करना है तो हमें आदर्शवाद का ही सहारा लेना होगा।"


आदर्शबादी विचारधारा ने प्लेटो, होगल, सुकरात और पेस्टालॉजी जैसे आदर्श शिक्षाविदों को पैदा किया जिनका शिक्षा पर गहरा प्रभाव पड़ा है।



प्लेटों के संदर्भ में आदर्शवादी शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए


प्लेटों ने जो विचार दिए हैं उनके आधार पर आदर्शवादी शिक्षा की निम्नलिखित विशेषताए बताई जा सकती हैं-


1. आत्मा में विश्वास

प्लेटों दो प्रकार के जगत की बात करता है वास्तविक और भैतिक जगत। वास्तविक जगत मानसिक व आध् यात्मिक ।प्राकृ‌क्तिक जगत तो हमारी इन्द्रियों के सामने हैं वह मिथ्या या अवास्तविक है। यह प्राकृतिक जगत आन्तरिक जगत का प्रकाशन या प्रतिक्षया स्वरूप है।


मन इसकी सृष्टि करता है अन्यथा इनका अस्तित्व ही नहीं। जीवन में हम जो कुछ भी धारण करते हैं वे केवल विचार के कारण ही है। इन सबके मूल में एक असीम मन या परम-आत्मा ही है जिका एक सीमित अंश हम सबके भीतर है। परम आत्मा संसार की समस्त वस्तुओं की सृष्टि करता है। इसका प्रसार चारों ओर है। उसके चिंतन एवं क्रियाशील के परिणाम से उसकी आत्मा का प्रक्षेपण होता है। 


2. चरम लक्ष्य

आध्यात्मिक वास्तविक की अनुभूति आत्मा स्वतंत्र है। मानव मन में तीन प्रकार की प्रतिक्रियायें होती है ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक। इसके द्वारा मनुष्य अपने भीतर असीम की अनुभूति करता है। ये तीन प्रक्रियायें उसे सत्य, शिव सुन्दरम के शाश्वत मूल्यों को प्रदान करती हैं। इन सबसे सम्पन्न होने पर मनुष्य चरम लक्ष्य की प्राप्ति करता है और उसमें असीम निरपेक्ष की अनुभूति होती है।


3. तीन शाश्वत मूल्यों में विश्वास

प्लेटो तीन शाश्वत् मूल्यों- सत्य, शिवं, सुन्दरम में विश्वास करता है और जीवन में इनकी प्राप्ति आवश्यक मानता है। ये तीनों मूल्य आध्यात्मिक होते हुए भी सामाजिक है। इन तीनों मूल्यों को अलग-अलग माना जात है परन्तु विचारपूर्वक देखा जाय तो इनमें सहसम्बंध है। सत्य में शिव और शिव में सुंदर के गुण होते हैं।


4. मन की स्वतंत्र सत्ता में विश्वास

प्लेटो के अनुसार मन भौतिक वस्तुओं पर आधारित नहीं रहता। वह अपने नियम स्वयं बनाता है। मन के द्वारा सभी समस्यायें हल होती हैं। मन बास्तव में आन्तरिक शक्ति है। इससे व्यक्ति अनुभव करता है और ये अनुभव अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। 


5. मनुष्य में विश्वास

सभी जीवों में मनुष्य उत्तम जीव माना जाता 'है क्योंकि उसके पास चिंतन, तर्क एवं बुद्धि के विशेष गुण है। इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व का व्यापक महत्व है क्योंकि उसी में विचारों का एकीकरण होता है। जीवन के जितने भी पहलू है- ज्ञान, विज्ञान, कला, नैतिकता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता सभी का उद्‌घाटन मानव की विचार शक्ति ही करती है। स‌ज्ञान की खोज में मानव मन जुटता है अन्तिम सत्यों की खोज भी उसे से होती है।


मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति उसे अपने चारों ओर के भौतिक वातावरण पर नियंत्रण करने में सहायता देती है तथा जिन सांस्कृक्तिक निधियों को मानव प्राप्त करता है वे सभी मानसिक सृष्टियाँ या उत्पादन है। दूसरे शब्दों में मानव का आध्यात्मिक स्वभाव उसके जीवन का सार कहा जाना चाहिए।


6. मूल्यों, आदशों आदि में विश्वास

प्लेटों मूल्यों, आदर्शी, सदगुणों में विश्वास रखता है। इसके अलावा इनकी कसौटी पर उचित का निर्णय करता है। इस प्रकार पाप-पुण्य की भावना भी आदर्शवाद में पाई जाती है। परमात्मा में केवल सद्‌गुण होते हैं और यो वैयक्तिक आत्माएँ होती है उनमें प्राकृतिक अथवा आध्यात्मिक वातावरण में गुणों का लोप हो जाता है जिससे व्यवहार में अंतर पड़ता है। इस प्रकार आदर्शवाद उनके लिए दण्ड का भी विचार रखता है।


7. सर्वोत्कृष्ट ज्ञान

आत्मा का ज्ञान वह ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा सभव नहीं है बल्कि तर्क के द्वारा होता है। ऐसा ज्ञान चाहे जिस विषय का हो वह विचारों से ही प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त जो भी ज्ञान मिलता है उसमें पूर्णता होती है, वह उस पूर्ण ज्ञान का एक अंश होता है जिससे यह जगत निर्मित है। तर्क से प्राप्त ज्ञान वास्तविक होता है।


8. व्यक्तित्व के पूर्ण विकास का लक्ष्य

प्लेटों के अनुसार व्यक्तित्व के विकास में आत्माभिव्यक्ति और आत्मानुभूति दो सोदिया है। आत्माभिव्यक्ति प्रथम सीढ़ी है और आत्मानुभूति दूसरी सोढ़ी है। आत्मा व्यक्तियों में अलग-अलग होती है लेकिन सभी का प्रयत्न महान आत्मा से मिलने की ओर रहता है। इस प्रयल के लिए सामाजिक और नैतिक धार्मिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों को बताया गया है। सामाजिक मूल्यों की प्राप्ति में आत्माभिव्यक्ति होती है और अन्य प्रकार के मूल्याकें से आत्मानुभूति होती है।


9. मानसिक अनुशासन, तर्क के नियम, शुद्ध बुद्धि और ज्ञानात्मक फैकल्टी पर बल मानसिक अनुशासन तथा तर्क के नियम शुद्ध बुद्धि, ज्ञानात्मक फैकल्टी आदि पर प्लेटों ने विशेष बल देता है। इसी कारण इन्द्रिय ज्ञान को भौतिक अनुभूति से निम्न माना जाता है।


10. नैतिकता और ज्ञान की अभौतिक वास्तविकता

नैतिक और ज्ञान अभौतिक है। यद्यपि ये हमारे प्रत्यक्ष अनुभव की वस्तुएँ हैं। ये भौतिक वस्तुओं से कहीं अधिक महत्व रखती है। पवित्र और उच्च है। वास्तव में प्लेटों को छोड़कर सभी आदर्शवादीयों ने ईश्वर को परम तत्व माना है। प्लेटों ने विचार को ही एक प्रकार से प्रमुखता दी है और की कहा है कि विचार तथ्य ही नैतिकता और ज्ञान को बढ़ाने वाले हैं।


11. अमरता में विश्वास

आदर्शवाद ईश्वर, जीव की स्वतंत्रता एवं आत्मा की अमरता में विश्वास रखता है। आदर्शवादी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखता है। मानवीय आचारण की उच्चता, नैतिकता एवं धर्म की पूरकता, कत्र्तव्य परायणता अन्तरात्मा की आवाज, मन एवं शरीर का यह सम्बंध आदि में विश्वास रखते हैं।


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