आदर्शवाद क्या है?
आदर्शवाद: राज्य की प्रत्ययवाद और काल्पनिक व्याख्या करने वाले इस ' वाद ' अथवा ' सिद्धान्त ' को अनेक नामों , जैसे- दार्शनिक सिद्धान्त , आध्यात्मिक सिद्धान, रहस्यात्मक सिद्धान्त तथा निरंकुशतावादी सिद्धान्त के नाम से भी पुकरा जाता है । तो आधुनिक काल में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन 19 वीं शताब्दी में प्रारम्भ हुआ परन्तु इसके अनेक आधारभूत तत्व प्लेटो , अरस्तु तथा रूसो के विचारों में भी मिलते हैं । प्लेटो और अरस्तु के विचारों में इसके तत्व मिलने से इसे अति प्राचीन कलाई सम्बद्ध माना जाता है । ऐसी मान्यता है कि इस सिद्धान्त का बीजारोपण प्लेटो और अरस्तू ने अपने विचारों में किया । उन्होंने अपने विचारों में मुख्यतः और मूलतः दो बातों पर बल दिया है—( 1 ) राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं है । राज्य ए आत्मनिर्भर संस्था है जिसमें एकरूपता है तथा व्यक्ति को सभी आवश्यकताओं के पूर्ति करने के कारण वह एक नैतिक संस्था है ,
( 2 ) व्यक्ति स्वभावतः एक सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है । इस प्रवृत्ति का विकसित रूप ही राज्य है अतः वह पल प्राकृतिक अथवा स्वाभाविक संस्था है । स्वाभाविक होने के कारण वह अनिवार्य है । क्योंकि उसके अभाव में व्यक्ति न तो अपने जीवन का निर्वाह और न ही अपन विकास कर सकता है । राज्य के ही नैतिक और सदाचारपूर्ण जीवन बिताकर पूर्णता की प्राप्ति कर सकता है । अच्छे और नैतिक जीवन के लिए राज्य आवश्यक और अनिवार्य है । प्लेटो और अरस्तू ने अपने विचारों में इन दो बातों पर बल देकर आदर्शवाद का बीजारोपण किया ।
19 वीं शताब्दी के विचारकों और दार्शनिकों इन्हें आधार मानकर अपने आदर्शवादी विचारों का प्रतिपादन किया । यही कारण कि प्लेटो और अरस्तू के विचारों को आदर्शवाद का स्रोत माना जाता है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उन्होंने इसका बीजारोपण किया और आधुनिक काल में यह प्रस्फुटित हुआ । इस प्रकार हम देखते हैं कि 19 वीं शताब्दी में प्रस्फुटित होने वाले आदर्शवत का बीजारोपण प्लेटो और अरस्तू के विचारों में हुआ परन्तु हम इसका विकास कम के विचारों में भी पाते हैं ।
रूसो ने अपने विचारों में सामान्य इच्छा ' के जिस सिद्धान का प्रतिपादन किया उसे अनेक आदर्शवादियों ने अपनी विचारधारा का आभार बनाया । प्लेटो , अरस्तू और रूसो की विचारधाराओं को आधार मानकर कान्ट हीगल , बोसांके , टी . एच . ग्रीन तथा बैडले आदि ने अपनी जिन विचारधाराओं का विकास किया , उन्हें आदर्शवाद की संज्ञा से अभिभूत किया जाता है । सभी आदर्शवादी विचारक एक ही विचारधारा के नहीं हैं । इन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
( 1 ) उपवादी आदर्शवादी,
( 2 ) उदार आदर्शवादी हीगल ट्रीटस्की और बर्नहार्डी आदि पहली तथा ग्रीन , बोसांके और ब्रेडले आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं ।
( 1 ) राज्य का रूप साम्यवादी है तथा उसमें सावयवी एकता पायी जाती है । जिस प्रकार शरीर विभिन्न अंगों का योग होता है तथा उसमें एकता पायी जाती है , उसी प्रकार राज्य में भी अनेक संस्थाएँ और समुदाय पाये जाते हैं तथा उनके अलग - अलग उद्देश्य एवं कार्य होते हैं , परन्तु भिन्नता के बावजूद उसमें उसी प्रकार की एकता होती है जैसी शरीर में पायी जाती है ।
( 2 ) व्यक्ति राज्य का अविभाज्य अंग होता है अर्थात् वह अपने को राज्य से अलग नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने से उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा तथा उसके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जायेगा । राज्य का सदस्य रहने से ही उसका अस्तित्व है तथा उसी में उसके व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो पाता है ।
( 3 ) राज्य ऐसी अवस्थाओं तथा परिस्थितियों का निर्माण करता है जिनमें उसके लिए स्वतन्त्र और नैतिक जीवन व्यतीत कर पाना सम्भव हो सकता है । ऐसी अवस्थाओं और परिस्थितियों का निर्माण होने के कारण वह सामाजिक नैतिकता की चरम अभिव्यक्ति होता है । हीगल का कहना है कि राज्य सत्य का प्रतीक होता है । | उसका आदेश भगवान का आदेश होता है ।
( 4 ) व्यक्ति को राज्य की आज्ञा का पालन करना चाहिए । ऐसा करना उसका | परम पुनीत कार्य है क्योंकि राज्य पूर्ण , अखण्ड , सर्वशक्तिमान तथा न्याय और नैतिक मूल्यों का रक्षक होता है ।
( 5 ) राज्य साध्य तथा व्यक्ति साधन है । राज्य तक पहुँचना व्यक्ति का लक्ष्य है । उसका सदस्य बने रहने तथा उसके आदेश का पालन करने से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो पायेगा । राज्य की शक्ति असीमित और निर्वाध है ।
( 7 ) राज्य और व्यक्ति में परस्पर कोई विरोध नहीं है — राज्य जो कुछ करता है , वह व्यक्ति के हित में होता है । वह उसके व्यक्तित्व का विकास करता है । तथा उसके जीवन को नैतिक बनाता है अतः राज्य के विरुद्ध उसका कोई अधिका नहीं होता है । राज्य का स्थान प्रधान और व्यक्ति का गौण है ।
( 8 ) राज्य की शक्ति व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करती है ।
( 9 ) राज्य एक जीवन और व्यक्तित्व होता है जो व्यक्ति के जीवन और व्यक्तित्व से भिन्न होता है । वह ( राज्य ) एक स्वचेतन , नैतिक , स्वज्ञानी और सार्थक प्राणी होता है । उसका सदस्य बनकर ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है ।
( 10 ) कानून सम्प्रभु का केवल आदेश नहीं बल्कि विवेक का परिणाम होता है । वह व्यक्ति की नैतिक स्वतन्त्रता की रक्षा करता है । वह राज्य त वैयक्तिक स्वतन्त्रता में समन्वय स्थापित करता है । आदर्शवादियों की राज्य सम्बन्ध यह धारणा रूसो के विचार से प्रभावित है ।
( 11 ) राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं है ।
( 12 ) शक्ति नहीं बल्कि इच्छा ही राज्य की आधारशिला है । वह राज्य में मौलिक तत्व के रूप में है । राज्य जनता की सामान्य इच्छा का प्रतिबिम्ब है अर्थात उसकी इच्छा ही जनता की सामान्य इच्छा होती है । यह बात उल्लेखनीय है कि आदर्शवादी शक्ति की एकदम उपेक्षा नहीं करते हैं परन्तु वे उसे मौलिक तत्व नहीं मानते हैं ।
रूसो ने अपने विचारों में सामान्य इच्छा ' के जिस सिद्धान का प्रतिपादन किया उसे अनेक आदर्शवादियों ने अपनी विचारधारा का आभार बनाया । प्लेटो , अरस्तू और रूसो की विचारधाराओं को आधार मानकर कान्ट हीगल , बोसांके , टी . एच . ग्रीन तथा बैडले आदि ने अपनी जिन विचारधाराओं का विकास किया , उन्हें आदर्शवाद की संज्ञा से अभिभूत किया जाता है । सभी आदर्शवादी विचारक एक ही विचारधारा के नहीं हैं । इन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
( 1 ) उपवादी आदर्शवादी,
( 2 ) उदार आदर्शवादी हीगल ट्रीटस्की और बर्नहार्डी आदि पहली तथा ग्रीन , बोसांके और ब्रेडले आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं ।
आदर्शवाद के सामान्य मान्यताएँ अथवा लक्षण
तो सभी आदर्शवादी विचारकों की विचारधाराओं में अनेक भिन्नताएं है परन्तु उनकी कुछ मान्यताएँ तथा धारणायें सामान्य है अर्थात् वे सामान्यतः सभी में पायी जाती हैं ।( 1 ) राज्य का रूप साम्यवादी है तथा उसमें सावयवी एकता पायी जाती है । जिस प्रकार शरीर विभिन्न अंगों का योग होता है तथा उसमें एकता पायी जाती है , उसी प्रकार राज्य में भी अनेक संस्थाएँ और समुदाय पाये जाते हैं तथा उनके अलग - अलग उद्देश्य एवं कार्य होते हैं , परन्तु भिन्नता के बावजूद उसमें उसी प्रकार की एकता होती है जैसी शरीर में पायी जाती है ।
( 2 ) व्यक्ति राज्य का अविभाज्य अंग होता है अर्थात् वह अपने को राज्य से अलग नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने से उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा तथा उसके व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जायेगा । राज्य का सदस्य रहने से ही उसका अस्तित्व है तथा उसी में उसके व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो पाता है ।
( 3 ) राज्य ऐसी अवस्थाओं तथा परिस्थितियों का निर्माण करता है जिनमें उसके लिए स्वतन्त्र और नैतिक जीवन व्यतीत कर पाना सम्भव हो सकता है । ऐसी अवस्थाओं और परिस्थितियों का निर्माण होने के कारण वह सामाजिक नैतिकता की चरम अभिव्यक्ति होता है । हीगल का कहना है कि राज्य सत्य का प्रतीक होता है । | उसका आदेश भगवान का आदेश होता है ।
( 4 ) व्यक्ति को राज्य की आज्ञा का पालन करना चाहिए । ऐसा करना उसका | परम पुनीत कार्य है क्योंकि राज्य पूर्ण , अखण्ड , सर्वशक्तिमान तथा न्याय और नैतिक मूल्यों का रक्षक होता है ।
( 5 ) राज्य साध्य तथा व्यक्ति साधन है । राज्य तक पहुँचना व्यक्ति का लक्ष्य है । उसका सदस्य बने रहने तथा उसके आदेश का पालन करने से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो पायेगा । राज्य की शक्ति असीमित और निर्वाध है ।
( 6 ) राज्य का मुख्य लक्ष्य अच्छे जीवन की प्राप्ति है । इस प्रकार वह मुख्य एक नैतिक संस्था है । कहने का तात्पर्य यह है कि आदर्शवादियों ने मुख्य रूप राज्य के नैतिक पक्ष पर बल दिया है । उसके अनुसार राज्य का लक्ष्य केवल सु वृद्धि ही नहीं है , उसे तो ' अच्छे जीवन ' की प्राप्ति के लिए अपेक्षित अवस्थाओं क निर्माण करना चाहिए ।
( 7 ) राज्य और व्यक्ति में परस्पर कोई विरोध नहीं है — राज्य जो कुछ करता है , वह व्यक्ति के हित में होता है । वह उसके व्यक्तित्व का विकास करता है । तथा उसके जीवन को नैतिक बनाता है अतः राज्य के विरुद्ध उसका कोई अधिका नहीं होता है । राज्य का स्थान प्रधान और व्यक्ति का गौण है ।
( 8 ) राज्य की शक्ति व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करती है ।
( 9 ) राज्य एक जीवन और व्यक्तित्व होता है जो व्यक्ति के जीवन और व्यक्तित्व से भिन्न होता है । वह ( राज्य ) एक स्वचेतन , नैतिक , स्वज्ञानी और सार्थक प्राणी होता है । उसका सदस्य बनकर ही व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकता है ।
( 10 ) कानून सम्प्रभु का केवल आदेश नहीं बल्कि विवेक का परिणाम होता है । वह व्यक्ति की नैतिक स्वतन्त्रता की रक्षा करता है । वह राज्य त वैयक्तिक स्वतन्त्रता में समन्वय स्थापित करता है । आदर्शवादियों की राज्य सम्बन्ध यह धारणा रूसो के विचार से प्रभावित है ।
( 11 ) राज्य और समाज में कोई अन्तर नहीं है ।
( 12 ) शक्ति नहीं बल्कि इच्छा ही राज्य की आधारशिला है । वह राज्य में मौलिक तत्व के रूप में है । राज्य जनता की सामान्य इच्छा का प्रतिबिम्ब है अर्थात उसकी इच्छा ही जनता की सामान्य इच्छा होती है । यह बात उल्लेखनीय है कि आदर्शवादी शक्ति की एकदम उपेक्षा नहीं करते हैं परन्तु वे उसे मौलिक तत्व नहीं मानते हैं ।
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