ऑगस्ट कॉम्टे के तीन अवस्थाओं के नियम की व्याख्या कीजिए ।
कॉम्टे का ' त्रिस्तरीय सिद्धान्त '
सामाजिक विचारधारा स्वयं नये सामाजिक विज्ञान की रचना के क्षेत्र में कॉम्ट द्वारा प्रतिपादित चिन्तन की तीन अवस्थाओं का नियम उनकी महत्वपूर्ण देन है । इस नियम का प्रतिपादन कॉम्टे ने सन् 1822 में 24 वर्ष की आयु में ही कर लिया था । यह नियम कॉम्टे के समाजशास्त्र का आधार है ।
इस नियम के अनुसार सामाजिक विकास का अध्ययन मानव के बौद्धिक विकास के स्तर के आधार पर किया जा सकता है । मानव के बौद्धिक विकास को कॉम्टे ने तीन अवस्थाओं में विभाजित किया है
( 1 ) धार्मिक स्तर
( 2 ) तात्विक स्तर
( 3 ) प्रत्यक्ष स्तर ।
( 1 ) धार्मिक या काल्पनिक स्तर —
इस अवस्था में समाज की से घटनाओं की व्याख्या धार्मिक आधार पर की जाती है । मनुष्य प्रत्येक घटना के पीछे किसी न किसी अलौकिक शक्ति की कल्पना करता है । मनुष्य यह मानता था कि कोई भी घटना अलौकिक शक्ति की क्रिया का ही परिणाम है ।
जब मनुष्य ने बिजली को चमकते, बादलों को गरजते, पेड - पौधों को उगते और फलते - फूलते देखा तो इसमें उसने अलौकिक शक्ति की कल्पना की , जो कि इन घटनाओं को नियन्त्रित एवं निर्देशित करती है । कॉम्टे ने इस स्तर के भी तीन उपभागों का उल्लेख किया है-
( i ) जीवित सत्तावाद –
इसके अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु में जीव की कल्पना की जाती है । कोई भी वस्तु जड़ नहीं मानी जाती । पत्थर , पेड़ - पौधे , नदी , बादल तथा प्रकृति की अन्य सभी वस्तुओं में जीवन की कल्पना की जाती है । जादू -टोने में विश्वास किया जाता है । आदिवासी लोग प्रत्येक पदार्थ में अलौकिक शक्ति का निवास मानते हैं । प्रत्येक वस्तु में कोई न कोई आत्मा निवास करती है , जो साक्षात् अथवा स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर नहीं होती । इसे प्रेतवाद भी कहते हैं ।
( ii ) बहुदेववाद –
इस स्तर पर मनुष्यों का मस्तिष्क अधिक सुसंगठित होता है , इस कारण अनेक देवता व जादू - टोनों आदि से मानव परेशान हो जाता है और उन्हें सम्मिलित रूप से देखने की भावना उत्पन्न होती है , जिसके परिणामस्वरूप जीवन के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित एक - एक देवी - देवता का , जन्म होता है । यही बहुदेववाद का स्तर है । इसमें अनेक देवताओं पर विश्वास किया जाता है , जो कि जीवन के विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
( iii ) एकेश्वरवाद या अद्वैतवाद -
इस स्तर पर पहुँचकर मानव - चिन्तन सूक्ष्म व विवेकपूर्ण हो जाता है । इस स्थिति में मानव समस्त विश्व के संचालन का स्रोत एक शक्ति में केन्द्रित कर लेता है । वह विभिन्न प्रकार के देवताओं की कल्पना की उलझन में न पड़कर समस्त चराचर वस्तुओं में एक सार्वभौमिक व सर्वव्यापी शक्ति का निवास मानने लगता है । यह विश्वास किया जाता है कि सभी पदार्थों तथा घटनाओं का संचालन एक ही पारलौकिक शक्ति द्वारा विभिन्न स्थानों पर किया जा रहा है । -
( 2 ) तात्विक या अमूर्त अवस्था ( स्तर )
यह अंवस्था धार्मिक और वैज्ञानिक अवस्था के बीच की है । मस्तिष्क के विकास के साथ - साथ मनुष्य की तर्कशक्ति बढ़ती गयी और इस अवस्था में मनुष्य यह सोचने लगा कि प्रत्येक घटना के पीछे ईश्वर प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं होता, वरन अमूर्तस्वरूप में सभी जगह विद्यमान होता है और मनुष्य संसार में जो कुछ भी घटित होता है , उसकी व्याख्या ईश्वर के आधार पर नहीं, वरन् अदृश्य या निराकार शक्ति के आधार पर करता है ।
कॉम्टे इस अवस्था की व्याख्या इस प्रकार करता है , " तात्विक अवस्था में जो कि प्रथम अवस्था का संशोधन मात्र है , मस्तिष्क यह मान लेता है कि अलौकिक प्राणियों के स्थान पर अमूर्त शक्तियाँ , यथार्थ सत्ता सभी जीवों में अन्तर्निहित है और समस्त घटनाचक्र को उत्पन्न करता है । " तात्विक अवस्था में अलौकिक व्यक्ति का स्थान अदृश्य शक्ति ले लेती है ।
धार्मिक अवस्था स्वाभाविक रूप से तात्विक अवस्था में परिवर्तित हो जाती है । इस अवस्था को और अधिक स्पष्ट करते हुए जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा है , " इस अवस्था में कोई ऐसा देवता नहीं रहता , जो प्रकृति के विभिन्न अंगों को उत्पन्न तथा संचालित करता है, बल्कि यह एक सत्ता होती है, एक शक्ति अथवा रहस्यपूर्ण गुण, जिसकी वास्तविक स्थितियाँ मानी जाती हैं, जो साकार वस्तुओं में विद्यमान होते हुए भी उनसे अलग है । '
चिन्तन की इस अवस्था में मनुष्य भावना से अधिक प्रेरित रहता है , विवेक से कम । वह सृष्टि के पदार्थों और वस्तुओं की पूजा उन्हें देवता मानकर नहीं करता , बल्कि उनसे सम्बन्धित गुणों का मानवीकरण करता है । वस्तुओं को मानव के समान विशिष्ट गुणों के आधार पर क्रियाशील समझता है ।
( 3 ) प्रत्यक्षवादी या वैज्ञानिक अवस्था ( स्तर ) –
इस अवस्था में मानव मस्तिष्क धार्मिक और काल्पनिक विचारों को छोड़कर घटनाओं की व्याख्या तर्क और वैज्ञानिक आधार पर करता है । कॉम्टे का कथन है कि तर्क और निरीक्षण सम्मिलित रूप से वास्तविक ज्ञान के आधार हैं ।
जब हम किसी घटना की व्याख्या करते हैं , तो कुछ सामान्य तथ्यों और उस घटना विशेष के बीच सम्बन्ध ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं । यह अन्वेषण निरीक्षण के द्वारा ही यथार्थ हो सकता है । निरीक्षण ही प्रमाण है , क्योंकि वह वास्तविक है , न कि काल्पनिक । प्रत्यक्ष स्तर पर इसीलिए मनुष्य न तो काल्पनिक किला बनाता है और न ही तात्विक दृष्टि में संसार के विभिन्न तत्वों को देखने का प्रयास करता है ।
इस स्तर पर ज्ञान का संग्रह ही एकमात्र साध्य या अन्तिम उद्देश्य है । तर्क वैज्ञानिक अवस्था का आधार है और अवलोकन साधन । आधुनिक वैज्ञानिक दर्शन तर्क पर ही टिका है । आत्मा , भावना और कल्पना पर आधारित कोई सूचना इस युग में स्वीकार नहीं की जाती । किसी भी समाज में जितनी तार्किक अवस्था विकसित होती है , उतनी अधिक वैज्ञानिकता भी उसमें बढ़ती है ।
इस अवस्था में अन्धविश्वास समाप्त हो जाता है । कॉम्टे के अनुसार तर्क ही चिन्तन है । तर्क मस्तिष्क का व्यायाम है । भावना या कल्पना मस्तिष्क की शैशवावस्था का परिचायक है । परिपक्व और वयस्क मस्तिष्क केवल उन्हीं तथ्यों पर विश्वास करता है, जिनका अवलोकन किया जा सकता है , जिन्हें तर्क पर तौला जा सकता है । कॉम्टे लिखता है कि " तर्क और अवलोकन का अपेक्षित सम्मिश्रण इस ज्ञान का साधन है ।
" कॉम्टे कहता है कि उक्त तीनों अवस्थाओं का सिद्धान्त व्यक्ति , समाज एवं बौद्धिक तथा सामाजिक जीवन पर लागू होता है , अर्थात् ये सभी इन तीनों अवस्थाओं से होकर गुजरते हैं । विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का विकास भी इन्हीं स्तरों से हुआ है ।
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