टैबू का क्या मतलब होता है? | Taboo Ka Matlab Kya Hota Hai?
निषेधाज्ञा या टैबू : ' निषेधाज्ञा ' या ' निषेध ' अंग्रेजी के ' टैबू ' ( Taboo ) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है । वस्तुतः ‘ टेबू ’ अंग्रेजी भाषा का शब्द नहीं है । ' टैबू ' शब्द पोलिनेशियन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है - निषेध , नकारात्मक सामाजिक कानून । इसके पीछे अलौकिक शक्ति निहित मानी जाती है प्रत्येक धर्म में कुछ न कुछ कार्यों के करने की मनाही रहती है । इन्हीं को निषेधाज्ञाएँ कहते हैं । जनजातीय समाज में निषेधाज्ञाओं का अत्यधिक महत्व है । निषेधाज्ञायें जनजातियों के लिए अलिखित कानून है ।
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टैबू का क्या मतलब होता है? |
फ्रायड ( Freud ) का मत है कि “ इनमें पिशाचों की शक्ति का होना माना जाता है । जो लोग इन निषेधों का उल्लंघन करते हैं उनको अलौकिक या पैशाचिक शक्ति दण्ड देती है।
डॉ . मजूमदार ( Dr. Majumdar ) के अनुसार, निषेधाज्ञा को मानव - जाति की सबसे प्राचीन, अलिखित कानून संहिता माना जाता है और कहा जाता है कि वह देवताओं से भी प्राचीन है तथा उस युग की है , जब समाज में धर्म नहीं था । " टैबू का अर्थ ' वर्जन ' निषेध है । प्रत्येक समाज में कुछ कार्य वर्जित या निषिद्ध समझे जाते हैं , उनके करने की कल्पना भी नहीं की जाती । ये सब ' टैबू ' कहलाते हैं , जैसे - आदिवासियों में एक ही टोटम के व्यक्तियों की शादी अथवा अपनी जाति का टोटम समझे जाने वाले प्राणी या वस्तु का मारना और खाना वर्जित है ।
डॉ . मजूमदार ने निषेधाज्ञाओं के कार्यों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है , " प्रथायें और निषेधाज्ञायें समाज में इसलिए प्रचलित और स्थिर रहती हैं , क्योंकि वे इस व्यवस्था का अंग हैं, जिनके द्वारा एक व्यवस्थित समाज अपने को बनाये रखता है । प्रत्येक आदिम या सभ्य जाति की सामाजिक संहिता, परम्परागत निषेधाज्ञा या निषेधाज्ञाओं से परिपूर्ण होती है जो प्रायः कठोरतापूर्वक व्यक्तिगत संस्कार और सामाजिक व्यवहार की सीमाओं को निश्चित करते हैं । "
डॉ . राजबली पाण्डेय के अनुसार, “ संस्कारों के विविध विषयों में माने जाने वाले निषेधों का अपना स्वतन्त्र स्थान है । निषेध की तुलना ' पोलीनेशियन ' शब्द टैबू से की सकती है । प्राचीनकाल में मानव - धारणायें घातक वस्तुओं के विषय में , चमत्कारी शैलियों के विश्वास द्वारा प्रभावित थीं । औषधि विज्ञान और आयुर्वेद में भी इनका उपयोग होता था । ऐसे अनेक निषेध थे जो मनुष्य के जीवन विषयक धारणाओं से सम्बन्धित थे ।
आदिम मानव के लिए जीवन संसार के सम्पूर्ण रहस्यों का केन्द्र था, अतः जीवन से सम्बद्ध प्रत्येक वस्तु के साथ भय व रहस्यपूर्ण भावनाओं का योग हो गया। उसका उद्देश्य , वृद्धि और अन्त सभी महत्वपूर्ण थे । भविष्य की अमंगल आशंकाओं के प्रति पहले से सावधानी रखना , जीवन के विविध अवसरों पर रहस्य भावना की अभिव्यक्ति करना आवश्यक समझा गया , इसके अनेक प्रतिबन्धों का उद्भव हुआ जो आगे चलकर गर्भावस्था, जन्म, शैशव, किशोरावस्था, यौवन, विवाह, मृत्यु और दाह आदि के विषय में सुनिश्चित निषेधों में परिणत हो गया । "
समाज में प्रचलित निषेधाज्ञाएँ ( Injunctions prevailing in the society )
1. गर्भावस्था से सम्बन्धित निषेधाज्ञाएँ - गर्भधारण करने के पश्चात् स्त्री को ऐसी वस्तुओं का सेवन करने का निषेध होता है , जिनसे गर्भ को नुकसान पहुँचने की सम्भावना होती है । गर्भावस्था में अकेले बाहर घूमना , संभोग नहीं करना , वजनदार वस्तुओं को नहीं उठाना आदि ।
2. विवाह सम्बन्धी निषेधाज्ञाएँ- प्रत्येक समाज में विवाह सम्बन्धी निषेध पाये जाते हैं । जैसे - गोत्र में विवाह नहीं करना । हल्दी लगाने के पश्चात् विवाह के समय तक वर तथा वधू को घर से बाहर अकेले नहीं जाने देना, अकेले नहीं सोना आदि ।
3. यौन सम्बन्धी निषेध- प्रत्येक समाज में कुछ विशेष सम्बन्धियों में यौन सम्बन्ध स्थापित करने की मनाही है - जैसे भाई - बहिन आपस में यौन सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकते ।
4. भोजन सम्बन्धी निषेध - भोजन सम्बन्धी निषेधों के अनुसार कुछ विशेष प्रकार की वस्तुओं को खाने की मनाही होती है ।
निषेधाज्ञा के उद्देश्य व प्रकार ( Objectives and types of injunction )
निषेधाज्ञाएँ प्रत्येक समाज में इस उद्देश्य से विकसित हुई हैं कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता सामाजिक संगठन में बाधक न हो सकें । लोग समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का यथावत् पालन करें और धर्म के क्षेत्र में जिन बातों को अच्छा नहीं समझा जाता , उन्हें करने से बचे रहें । इसके अतिरिक्त कुछ सम्भावित खतरों से बचने , दूसरों को कष्ट पहुँचाने से रोकने आदि का उद्देश्य भी निषेधाज्ञाओं में निहित रहता है ।
डॉ . मजूमदार ने लिखा है— “ विभिन्न लिंगीय निषेधाज्ञाएँ जो आदिम जनजातियों में पायी जाती हैं , नियन्त्रण और अनुशासन रखने में सामाजिक महत्व रखती हैं । लिंगीय निषेधाज्ञाएँ , लिंगीय सम्बन्धों को नियमित करती हैं , लिंगीय व्यवहारों को उचित दिशा में ले जाती हैं और जनजातीय समाज को महत्वपूर्ण आर्थिक कार्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित करने में सहायता देती हैं । " इन उद्देश्यों की दृष्टि से निषेधाज्ञाओं के तीन प्रकार बतलाये गये हैं
( क ) उत्पादक निषेध ( Productive Taboo ) ,
( ख ) संरक्षणात्मक निषेध ( Protective Taboo ) ,
( ग ) निषेधात्मक या प्रतिबन्धात्मक निषेध ( Prohibitive or Preventive Taboo )
उत्पादक निषेधज्ञायें वे हैं जिनका सम्बन्ध फसल की वृद्धि , उत्पादन वृद्धि आदि से होता है । इन निषेधाज्ञाओं का पालन करने से खेती की बाधायें दूर होती हैं . जिससे उपज बढ़ती है ।
संरक्षणात्मक निषेधाज्ञाओं का उद्देश्य लोगों की खतरे से रक्षा करना होता है । कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनके न करने से व्यक्ति और समाज दोनों की रक्षा होने का विश्वास किया जाता है ।
प्रतिबन्धात्मक या निषेधात्मक निषेधाज्ञाओं का उद्देश्य दूसरों को कष्ट पहुँचाने से रोकना होता है । इस दृष्टि से किन्हीं व्यक्तियों या वस्तुओं के सम्पर्क में आने का निषेध होता है ।
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