संस्कृति और व्यक्तित्व के बीच सम्बन्ध | Relationship between culture and Personality in Hindi
संस्कृति और व्यक्तित्व ( Culture and Personality ) में परस्पर सम्बन्ध:
संस्कृति अर्थ एवं परिभाषा -
संस्कृति शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है। संस्कृत और संस्कृति दोनों ही शब्द ' संस्कार ' से बने हैं । संस्कार का अर्थ है कृत्यों की पूर्ति करना। संस्कृति का अर्थ होता है विभिन्न संस्कारों के द्वारा सामूहिक जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति।
मानवशास्त्र में संस्कृति शब्द का प्रयोग उपर्युक्त अर्थों से भिन्न अर्थों में हुआ है।
मजूमदार एवं मदान, " लोगों के जीने के ढंग को ही संस्कृति मानते हैं । " मारम्भिक मानवशास्त्रियों में टापतर की परिभाषा विस्तृत है, " संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिससे ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून , प्रथा और ऐसी ही अन्य समताओं एवं आदतों का समावेश है जो मनुष्य समाज एक सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है । "
संस्कृति की विशेषताएँ –
संस्कृति की विशेषताएँ निम्नवत् हैं
( 1 ) संस्कृति मानव निर्मित है - संस्कृति केवल मनुष्य समाज में ही पायी जाती है ।
( 2 ) संस्कृति सीखी जाती है - संस्कृति मानव के सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का योग है ।
( 3 ) संस्कृति हस्तान्तरित की जाती है - संस्कृति एक समूह से दूसरे समूह को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित की जाती है ।
व्यक्तित्व का अर्थ एवं परिभाषा
ड्रीवर कहते हैं , “ व्यक्तित्व व्यक्ति के उन शारीरिक , मानसिक , नैतिक और सामाजिक गुणों का सुसंगठित और गतिशील संगठन है जिसे व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ दैनिक , सामाजिक जीवन के आदान - प्रदान में एक - दूसरे के प्रति प्रदर्शित करते हैं । "
किम्बाल यंग के अनुसार , “ व्यक्तित्व एक व्यक्ति की आदतों , मनोवृत्तियों , लक्षणों तथा विचारों का एक ऐसा संगठित योग है जो बाहरी तौर पर न तो विशिष्ट एवं सामान्य कार्यों तथा स्थिति के रूप में तथा आन्तरिक रूप से उसकी आत्म - चेतना , स्व की धारणा , मूल्यों तथा उद्देश्यों के चारों ओर संगठित होता है । "
इन परिभाषाओं में व्यक्तित्व के शारीरिक , मानसिक , सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्षों से सम्बन्धित आन्तरिक एवं बाह्य पक्षों पर जोर दिया गया है । व्यक्तित्व निर्माण मुख्यतः चार पक्षों से सम्बन्धित है— शारीरिक , सामाजिक , सांस्कृतिक तथा मनोवैज्ञानिक ।
संस्कृति और व्यक्तित्व
संस्कृति एवं व्यक्तित्व के सम्बन्धों को दो रूपों में देखा जा सकता है
( 1 ) संस्कृति व्यक्तित्व का निर्माण करती है तथा
( 2 ) व्यक्ति द्वारा संस्कृति का निर्माण और विकास होता है ।
( 1 ) संस्कृति व्यक्तित्व का निर्माण करती है-
प्रत्येक मनुष्य किसी - न - कि संस्कृति में ही जन्म लेता है और वह पूर्व निर्मित सांस्कृतिक पर्यावरण में प्रवेश करता है । व्यक्ति संस्कृति के भौतिक पक्षों जैसे मकान, औजार, मशीन, कलाकृति, फर्नीचर, आदि को ही नहीं अपनाता, वरन उसके अभौतिक पक्षों जैसे धर्म, रीति - रिवाज, नियम आदर्श, मूल्य, ज्ञान, विश्वासों आदि को भी अपनाता है और इन सभी का व्यक्तित्व निर्माण पर प्रभाव पड़ता है । संस्कृति ही व्यक्ति को एक विशेष ढंग से व्यवहार करना सिखाती है तथा समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा ही व्यक्ति संस्कृति ग्रहण करता है ।
सांस्कृतिक चिन्तन के कारण ही एक समाज के व्यक्तित्व के लक्षण दूसरे समाज से भिन्न होते हैं , जैसे जापानी कानून को मानने वाले होते हैं , भारतीय धर्म भीरु और जर्मनवासी युद्ध - प्रिय होते हैं । विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व विभिन्न संस्कृतियों की ही देन है । एक हिन्दू व्यक्तित्व ईसाई एवं मुस्लिम व्यक्तित्व से संस्कृति के कारण ही भिन्न होता है । संस्कृति के विभिन्न तत्वों जैसे , मूल्य , धर्म , कला , दर्शन , कानून आदि का व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है । चूंकि विभिन्न समाजों के मूल्यों में भिन्नता पायी जाती है , अतः व्यक्तित्व में भी भिन्नता होती है ।
( 2 ) व्यक्ति द्वारा संस्कृति का निर्माण और विकास होता है -
भारत में ही ग्रामीण लोगों में शहरी लोगों की अपेक्षा आत्मीयता एवं मेहमान नवाजी सामान्यतः अधिक पायी जाती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न समाजों में पायी जाने वाली सांस्कृतिक भिन्नता व्यक्तित्व में भी भिन्नता पैदा करती है , क्योंकि संस्कृति व्यक्तित्व निर्माण में एक महत्वपूर्ण कारक है । बोहनन का मत है कि व्यक्तित्व संस्कृति को प्रकट करने का एक माध्यम है ।
मैलिनोवस्की ने अपने प्रकार्यवादी सिद्धान्त में संस्कृति को मानव आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम माना है । व्यक्तित्व एवं संस्कृति में यही भेद है जो चित्र के माध्यम एवं अन्तर्वस्तु में है । एक स्तर पर वे दोनों एक ही हैं , दूसरे स्तर पर वे इसलिए भिन्न हैं कि उन्हें विभिन्न उद्देश्यों से देखा जाता है । व्यक्तित्व के दो पक्ष हैं - बाह्य और आन्तरिक ।
बाह्य पक्ष में हम व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका को सम्मिलित करते हैं , आन्तरिक पक्ष में व्यक्ति के आदर्श , मूल्य , प्रेरणाएँ एवं जीवन दर्शन आदि को संस्कृति इन दोनों ही पक्षों को प्रभावित करती है । संस्कृति ही व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका तय करती है । प्रत्येक समाज में लगभग यह तय है कि एक व्यक्ति कौन - कौन सी प्रदत्त एवं अर्जित प्रस्थितियों व भूमिकाएँ प्राप्त कर सकता है ।
भारत में प्रदत्त प्रस्थितियाँ अधिक महत्वपूर्ण हैं । जाति ही व्यक्ति की प्रदत्त प्रस्थिति एवं भूमिका तय करती है । एक ही प्रस्थिति से सम्बन्धित भूमिकाएँ भी भिन्न - भिन्न संस्कृतियों में भिन्न - भिन्न होती है , जैसे पश्चिमी देशों में पिता , पति - पत्नी , पुत्र एवं पुत्री की भूमिका भिन्न - भिन्न हैं जिन्हें व्यक्ति समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति संस्कृति द्वारा पूर्व - निर्धारित प्रस्थिति एवं भूमिका को ही सामान्यतः ग्रहण करता है । इसी प्रकार से संस्कृति व्यक्तित्व के आन्तरिक पक्ष जैसे मूल्य, आदर्श, जीवनदर्शन एवं प्रेरणाओं आदि को भी प्रभावित करती है ।
आध्यात्मिक सुख भारतीय संस्कृति का आदर्श है तो भौतिक सुख पश्चिमी संस्कृति का व्यक्तित्व | स्वयं संस्कृति के घनिष्ठ सम्बन्ध को देखकर ही फेरिस एवं अन्य विद्वान व्यक्तित्व को संस्कृति का प्रातीतिक पक्ष मानते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है जो दूसरे समाज से भिन्न होती है तथा प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी संस्कृति की उपज होता है । एक संस्कृति की छवि हम उस समाज के लोगों के व्यवहारों एवं व्यक्तित्व में देख सकते हैं ।
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