सामाजिक विज्ञान शिक्षा का उद्देश्य

सामाजिक विज्ञान शिक्षा का उद्देश्य | Saamaajik Vigyaan Shiksha ka Uddeshy

किसी विषय के अध्ययन से पूर्व उसके उद्देश्यों को निर्धारित करना भी जरूरी है। उद्देश्यों को निर्धारित किये बिना उसकी प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के कार्यक्रम को बनाना सम्भव नहीं है। अतः पढ़ाने की सामग्री का चुनाव करने तथा विधियों का निर्माण करने से पूर्व उद्देश्यों को निश्चित करना अत्यावश्यक है। अन्य सभी विषयों की भाँति सामाजिक अध्ययन शिक्षण के भी अपने विशिष्ट उद्देश्य होते हैं जो निम्नलिखित हैं-


1. बालकों के जीवन को उनके वातावरण के भीतर विकसित एवं समृद्ध करना

विद्यार्थियों को यह बात विधिवत् रूप से जान लेनी चाहिए कि वातावरणे का निर्माण कैसे होता है, यह व्यक्ति तथा समाज को कैसे प्रभावित करता है तथा व्यक्ति व समाज सामूहिक रूप से इसे कैसे प्रभावित करते हैं। विद्यार्थियों को इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र व समाजशास्त्र के सामाजिक अध्ययन के रूप में एकीकृत सामग्री से अपने वातावरण के विभिन्न तत्त्वों को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।


उन्हें मानव द्वारा वर्तमान तथा भूतकाल में किए गए संघर्षों का ज्ञान होना चाहिए तथा भावी प्रगति की दिशा में अपने व्यक्तिगत योगदान के बारे में सोचना चाहिए। धार्मिक संस्थाओं, राज्य परिवार तथा व्यापारिक संस्थाओं जैसे प्राचीन संगठनों तथा समयानुसार उनमें नित्य प्रति होने वाले परिवर्तनों का ज्ञान भी बालकों को होना जरूरी है। 


2. ज्ञान-प्राप्ति

अच्छी नागरिकता के लिए कुछ मात्रा में निश्चित ज्ञान का होना आवश्यक है। इससे सामाजिक प्रगति में बहुत बड़ी सहायता मिलती है, क्योंकि स्पष्ट चिंतन व उचित निर्णय के लिए सही ज्ञान का होना अनिवार्य है। वस्तुस्थिति के ज्ञान से भी बालकों की स्वाभाविक जिज्ञासा शान्त होती है, कल्पना-शक्ति का विकास होता है तथा व्यक्तिगत रुचियों के निर्माण में सहायता मिलती है।


स्पष्ट चिंशन व तर्कपूर्ण निर्णय के बिना आधुनिक सभ्यता की बहुत-सी बातों का समाधान हो ही नहीं सकता। वस्तुस्थिति का ज्ञान ही सहानुभूति व सद्भावना का आधार है जो सामाजिक दृढ़ता व सामाजिक आदान-प्रदान के लिए आवश्यक है। सामाजिक अध्ययन का उचित ज्ञान सारे इतिहास तथा सारे मानव-अनुभवों को, परिवर्तन तथा विकास के माध्यम के रूप में दिखलाता है।



इसके बालकों को यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि वैज्ञानिक प्रगति के कारण सामाजिक परिवर्तन होन स्वाभाविक ही और वर्तमान युग में व्यक्ति के स्थान पर समाज का महत्त्व बढ़ रहा है।


3. ठीक प्रकार के आचरण का प्रशिक्षण

प्राचीनकाल में घर तथा धार्मिक संस्थाएँ बालक की शिक्षा में योगदान करती थीं, किन्तु ये ये संगठन बालकों को चरित्र तथा व्यवहार का देने के महान् कार्य में कोई खास सहायता नहीं करते। अतः उनका कर्त्तव्य आज स्कूल को ही पर करना पड़ता है, क्योंकि इस प्रकार का प्रशिक्षण देने का सारा भार अब स्कूल पर ही आ गया है।


स्कूल का यह कत्र्तव्य है कि बालकों में सही प्रकार के आचार का विकास करें और उत्तम नागरिक बनाने के उद्देश्य से उनके चरित्र निर्माण में मदद करें। केवल सामाजिक अध्ययन शिक्षक ही स्थिति में होता है कि विषयवस्तु तथा शिक्षण विधियों के द्वारा बालकों को ऐसा प्रशिक्षण दे सके।


4. सही अभिवृत्तियों का विकास

उचित अभिवृत्तियों का विकास भी सामाजिक अध्यक के मुख्य उद्देश्यों में से एक है। उचित अभिवृत्तियाँ इसलिए अत्यावश्यक हैं, क्योंकि वे व्यवहार के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। अभिवृत्तियाँ बौद्धिक तथा भावात्मक दोनों ही प्रकार की हो सकती है वैज्ञानिक अभिवृत्तियाँ बौद्धिक कही जा सकती हैं, क्योंकि इनके अन्तर्गत लिए जाने वाले निर्ण तथ्यों पर आधारित होते हैं और व्यक्तिगत भावनाओं का इनमें कोई स्थान नहीं होता।


दूसरी ओ भावनात्मक अभिवृत्तियों से पूर्वाग्रह, ईर्ष्या, अभद्र व्यवहार, आज्ञा का उल्लंघन तथा सुस्ती आति सम्मिलित हैं। इन अभिवृत्तियों में से अधिकांश में चाहे वे अच्छी हों या बुरी, बौद्धिक तथ भावनात्मक दोनों ही प्रकार के अंश पाए जाते हैं। अतः अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बालको की उचित अभिवृत्तियों के निर्माण में सहायता करे।


किन्तु ऐसा करने से पूर्व हर समय अध्यापक को स्वयं आत्मसंयम, धैर्य, सहानुभूति तथा आत्मसम्मान का परिचय देना होगा तभी अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है। इस प्रकार वह स्वयं अपने उदाहरण द्वारा अपने विद्यार्थियों में उचित अभिवृत्तियों का विकास कर सकेगा।


5. आदतों तथा कौशलों का निर्माण

सामाजिक अध्ययन में आदतों च कौशलों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। कार्य करने की एक सामान्य प्रवृत्ति को ही आदत कह सकते हैं। सामाजिक अध्ययन में हमारा उद्देश्य अध्ययन सम्बन्धी आदतों का ही निर्माण करना नहीं होता, अपितु पाठ्य- पुस्तकों के बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग से लेकर असीम उत्तेजक परिस्थितियों में भी भावनाओं को नियन्त्रण में रखने जैसी आदतों का निर्माण भी करना होता है।


कौशल, साधारण आदतों की ही उच्च अवस्था का नाम है, जिसका प्रयोग परिणाम को ध्यान में रखकर बड़ी सावधानी से किया जाता है। सामाजिक अध्ययन में मानचित्रों, चार्टी, ग्राफों तथा मॉडल आदि के निर्माण का कौशल भी शिक्षण कार्य का महत्त्वपूर्ण अंग होना चाहिए।


6. अपनेपन की भावना का विकास

सामाजिक अध्ययन-शिक्षण के प्रमुख उद्देश्यों में से एक उद्देश्य विद्यार्थियों में अपनेपन की भावना का विकास करना भी है। जैसे किसी स्थान, समाज राष्ट्र तथा विश्व से ही अपनेपन की भावना का विकास करना। इसके लिए हमें बालकों को मानव के विभिन्न सम्बन्धों का विस्तृत परिचय देना चाहिए।


7. विद्यार्थियों का समाजीकरण

सामाजिक अध्ययन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण उद्देश्य विद्यार्थियों का समाजीकरण करना भी है, ताकि वे सुशिक्षित तथा सुयोग्य नागरिक बनकर सबकी भलाई के लिए काम कर सकें। समाजीकरण से बालकों में आत्मविश्वास, साहस तथा प्रसन्नता का विकास भी हो सकेगा। इसके अतिरिक्त उनमें सत्य, औचित्य, रचनात्मक चिंतन, तर्कसंगत निर्णय सहनशीलता, सहयोग, भाईचारा तथा त्याग जैसे व्यक्तिगत व सामाजिक गुण भी उत्पन्न हो सकेंगे जिससे वे विश्वसनीय साथी व अच्छे पड़ोसी बन सकेंगे।


शैक्षिक पाठ्यक्रम में सामाजिक विज्ञान की अनिवार्यता


यह विषय मूलतः 20वीं शताब्दी की देन है। भारत में इस विषय के महत्त्व की ओर माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा अन्तर्राष्ट्रीय टीम ने ध्यान आकर्षित किया था। उनका मत था कि इस विषय द्वारा बालकों को मानवीय सम्बन्धों का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों रूपों में ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। इन सम्बन्धों के ज्ञान के अभाव में छात्रों में सामाजिक आदतों एवं गुणों का विकास कठिन है। शैक्षिक कार्यक्रम में सामाजिक अध्ययन को स्थान प्रदान करने के पक्ष में अग्रांकित बातें प्रस्तुत की जा सकती हैं-

(अ) समाजशास्त्रीय कारण, 

(ब) शैक्षिक कारण, 

(स) मनोवैज्ञानिक कारण।


(अ) समाजशास्त्रीय कारण

सामाजिक महत्त्व के कारण सामाजिक विज्ञान को शिक्षालय के पाठ्यक्रम में स्थान प्रदान करने के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं-


(1) सामाजिक शिक्षा के लिए विश्व की एक प्रबल माँग है। शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि इसके द्वारा विश्व को विनाश की ओर अग्रसर होने से बचाया जा सकता है। इसके ज्ञान से बालकों को उत्तम मानवीय सम्बन्धों को बनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। वे अच्छे सम्बन्ध मानव जाति को कलह, द्वेष तथा संघर्ष से दूर करने में सहायक होंगे। 


(2) सामाजिक विज्ञान को पाठ्यक्रम में सामाजिकता की भावना के विकास के कारण स्थान दिया गया है। जॉन डीवी का मत है कि "समस्त शिक्षा नीति सामाजिक चेतना के विकास द्वारा ही स्फुटित होती है। आने वाली पीढ़ी को इस सामाजिक चेतना तथा सामाजिक वातावरण का ज्ञान देने के लिए इस विषय को पाठ्यक्रम में स्थान देना आवश्यक है।"


(3) छात्रों के सामाजिक चरित्र-निर्माण हेतु इसको पाठ्यक्रम में रखना आवश्यक है। 


(4) सामाजिक अध्ययन के द्वारा बालको को प्रजातन्त्र के विषय में शुद्ध जानकारी प्रदान की जाती है। आज के प्रजातन्त्रात्मक समाज को सफलतापूर्वक चलाने हेतु प्रजातन्त्र के आदशों तथा मूल्यों का ज्ञान होना आवश्यक है। सामाजिक अध्ययन प्रजातन्त्र के आदशों तथा मूल्यों की प्राप्ति में बहुत सहायक है।


(5) सामाजिक अध्ययन के द्वारा बालकों में नैतिक तथा बौद्धिक मूल्यों को विकसित किया जाता है। उदाहरणार्थ- स्वाध्याय की आदत का निर्माण, जो कि बालकों में बौद्धिक साहस उत्पन्न करती है। आत्मनिर्भरता तथा वैयक्तिक उत्तरदायित्व का भाव, सत्य तथा असत्य में भेद करना आदि। 


(ब) शैक्षिक कारण

शिक्षाशास्त्रियों के मतानुसार सामाजिक जीवन के शैक्षिक महत्त्व की पुष्टि में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं-


(1) सामाजिक अध्ययन में शिक्षा के स्थानान्तरण के लिए बहुत स्थान है। सिरिल वर्ट महोदय ने सामाजिक अध्ययन के इस शैक्षिक महत्त्व पर बहुत बल दिया है।

(2) इसके द्वारा छात्रों में मानसिक अनुशासन की. स्थापना में पर्याप्त रूप से सहायता मिलती है।

(3) समवाय के सिद्धान्त के कारण भी इस अध्ययन को पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया है।

(4) इसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया को बहुत प्रोत्साहन मिलता है।


(स) मनोवैज्ञानिक कारण

मनोवैज्ञानिकों की धारणा है कि बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में वातावरण का बहुत महत्त्व है। प्रायः सामाजिक विज्ञान का अध्ययन बालकों को सामाजिक और भौतिक वातावरण का ज्ञान प्रदान करता है तथा यह भी योग्यता प्रदान करता है कि कौन-सा वातावरण उपयुक्त है और कौन-सा अनुपयुक्त।


इनके अतिरिक्त इसके ज्ञान से वह वातावरण को अपने अनुकूल बनाने तथा उसमें व्यवस्थित होने की क्षमता भी प्राप्त करता है। बुद्धिलब्धि के घटने-बढ़ने के सिद्धान्त के समर्थकों का कहना है कि बालक की बुद्धिलब्धि को अनुकूल वातावरण द्वारा बढ़ाया जा सकता है।


सामाजिक विज्ञान वातावरण का ज्ञान प्रदान कर तथा उनकी अन्योन्याश्रितता को समझकर यह शक्ति उत्पन्न कर देता है कि अनुकूल वातावरण क्या है और इसका किस प्रकार निर्माण होना चाहिए? अतः उक्त सभी कारणों से ही सामाजिक विज्ञान के अध्ययन को पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

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