सामाजिक विज्ञान के अध्ययन की आवश्यकता
सामाजिक विज्ञान का अध्ययन अभी अपनी आरम्भिक अवस्था में ही है। सामाजिक शिक्षा आयोग ने इसको जूनियर हाई स्कूल तथा दो वर्ष के लिए उच्चतर माध्यमिक स्तर पर निर्धारित किया है। इससे पूर्व शिक्षालयों के पाठ्यक्रम में तीन और विषयों को स्थान प्रदान किया जाता था। इसके कुछ समय बाद पाठ्यक्रम में इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र तथा अर्थशास्त्र आदि को स्थान दिया गया, जिनका ध्येय सांस्कृतिक माना गया, परन्तु जनसंख्या के विकास तथा शिक्षा के प्रसार से ऐसा ज्ञात हुआ कि प्रायः शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य की उपेक्षा की गयी है।
इसका प्रमुख कारण यह था कि उस काल में समाज सरल था। व्यक्ति को उसे समझाने के लिए किसी प्रकार की व्यवस्थित शिक्षा की आवश्यकता नहीं थीं, परन्तु आधुनिक समाज बहुत जटिल है। व्यक्ति तथा समाज में सम्बन्ध बहुत जटिल हो गये हैं, जिनको समझने के लिए व्यवस्थित रूप से शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता अनुभव हुई। इसलिए शिक्षाशास्त्रियों ने सामाजिक शिक्षा को शिक्षालय में व्यवस्थित रूप से प्रदान करने के लिए जोर दिया।
आज का भारतीय समाज अतीत के भारतीय समाज से पर्याप्त रूप से भिन्त्र है। इसके आधार, प्रकार एवं संगठन आदि में बहुत परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों ने सामाजिक विज्ञान की शिक्षा की आवश्यकता को सबके समक्ष प्रकट किया। अतः वर्तमान परिवर्तनों ने देश में सामाजिक अध्ययन की आवश्यकता को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया है-
1. लोकतन्त्रात्मक शासन की स्थापना
सदियों की गुलामी के बाद 15 अगस्त, सन् 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ। यह दिन भारतवासियों के जीवन में पुण्य पर्व बन गया। इसने भारतीयों के कन्धों पर बहुत भार डाला। उन्होंने दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह उठाया कि भारत को 26 ज 1950 ई० को एक गणतन्त्रात्मक राज्य घोषित किया। इससे उन पर प्रजातन्त्रात्मक समाजको 195 से संचालित करने के लिए विभिन्न प्रकार के दायित्व आ गये।
इसके साथ ही विभिन्न प्रका अधिकार प्राप्त हुए। इस कदम की सफलता के लिए यह आवश्यक हो गया कि देश के भ नागरिकों को ऐसी शिक्षा प्रदान की जाय जिससे वे योग्य नागरिक बनकर प्रजातन्त्रात्मक समार भली प्रकार समायोजित हो सकें। इस आवश्यकता की पूर्ति में सामाजिक अध्ययन की अ आवश्यकता प्रतीत हुई।
इसकी पुष्टि हेतु वाइनिंग तथा वाइनिंग के शब्दों में कह सकते हैं-"सामाजि अध्ययन की पाठ्य-वस्तु के द्वारा एक ऐसा आधार प्रदान किया जाता है, जिसके द्वारा। हम अपने क के समक्ष आधुनिक विश्व को स्पष्ट एवं सरल बना सकते हैं। इसके द्वारा उनको अनिवार्य आदतों एवं कुशलताओं में प्रशिक्षण एवं उनमें ऐसी अभिरुचियों तथा आदतों को विकसित किया जा सकता। जिनको प्राप्ति से बालक तथा बालिकाएँ प्रजातन्त्रीय समाज में अपना स्थान ग्रहण करने में समर्थ सकें।" इस कारण शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षालयों के पाठ्यक्रम में सामाजिक अध्ययन को एक स्वतन विषय का स्थान दिया।
2. समाजवादी राज्य की स्थापना
भारतवासियों ने दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम समाजबाद र ओर उठाया। भारतवासियों ने समाजवादी राज्य स्थापित करने के लिए शान्तिपूर्ण तरीकों को अपनाय इसके लिए उन्होंने भूदान, सर्वोदय- जैसे आन्दोलनों को ग्रहण किया। भूतपूर्व प्रधानमंत्री पं० जवाह लाल नेहरू ने कहा- "मैं समाजवादी राज्य में विश्वास करता हूँ और शिक्षक को इस उद्देश्य को प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए।" इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पाठ्यक्रम में उस विषय-वर को रखना पड़ेगा जिसके द्वारा नागरिकों में सामाजिक कुशलता, सहयोग, सहकारिता, सामूहिकत आदि गुणों का विकास हो सके। इस ध्येय की प्राप्ति में सामाजिक अध्ययन बहुत सहायक है।
3. कल्याणकारी राज्य की स्थापना
हमारे देशवासियों ने अपने राज्य को एक कल्याणकारी राज्य घोषित किया। इसकी पूर्ति के लिए उन्होंने प्रत्येक क्षेत्र में विभिन्न कदम उठाये उदाहरणार्थ- पंचवर्षीय योजनाओं का कार्यान्वयन, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा आदि। इससे नागरिकों के ऊपर इनके संचालन एवं संगठन का भार आया। इससे उनके दायित्वों, संस्थाओं, समुदायों, वर्गों, समितियों आदि में वृद्धि हुई। इस प्रकार उनका सामाजिक जीवन जटिल हो गया। इस जटिलता को समझने के लिए सामाजिक शिक्षा की आवश्यकता हुई। सामाजिक अध्ययन इस जटिलता को स्पष्ट करने में बहुत सहायक है। इसलिए उसकी शिक्षा की आवश्यकता प्रतीत हुई।
4. सर्वोदय तथा ग्राम पंचायतों की व्यवस्था
सर्वप्रथम भारत में सन्त विनोबा भावे ने सर्वोदय आन्दोलन चलाया। इसका मुख्य उद्देश्य हर वर्ग व व्यक्ति को ऊपर उठाना है, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। इस आन्दोलन ने समाज के ढाँचे में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया। इसके अतिरिक्त महात्मा गाँधी ने भारतीयों की उन्नति के लिए ग्रामों के विकास एवं प्रगति को आवश्यक बताया क्योंकि भारत की आत्मा ग्रामों में निवास करती है।
गाँधी जी ग्रामों को स्वशासित एवं आत्मनिर्भर इकाई के रूप में देखना चाहते थे। उन्होंने इस प्रकार ग्राम समाजवाद की नींव डाली। इन आन्दोलनों के कारण घर, परिवार, ग्राम तथा समाज के वातावरण में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के कारण यह आवश्यकता अनुभव हुई कि नागरिकों को ऐसी शिक्षा प्रदान की जाय जिससे ये परिवर्तित वातावरण में अपने को व्यवस्थित कर सकें तथा मानवीय सम्बन्धों की जटिलता को समझ सकें। इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु सामाजिक अध्ययन की शिक्षा को आवश्यक समझा गया। अतएव सामाजिक अध्ययन को शिक्षालय के पाठ्यक्रम में स्थान प्राप्त हुआ।
5. औद्योगिक प्रगति एवं वैज्ञानिक आविष्कारों का प्रभाव
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् धारों ने देश के प्राकृतिक साधनों के उपयोग पर बल दिया। इससे देश में औद्योगिकीकरण राष्ट्र की लहर उत्पन्न हुई। देश में स्थान-स्थान पर कल-कारखाने खुले। इससे देश के उत्पादन पर भी प्रभाव पड़ा। इसका प्रभाव नागरिकों पर भी पड़ा।
उनकी आवश्यकताओं में भी वृद्धि हुई, जिससे उनके मानवीय सम्बन्धों में जटिलता आयी। इसके अतिरिक्त विज्ञान ने सम्पूर्ण समाज को औरयो जटिल बना दिया। विज्ञान के कारण हो आज का विश्व बहुत छोटा हो गया है। आज का ग्रामीण अपने बातावरण के ज्ञान से ही सन्तुष्ट नहीं रह सकता है। वह आज विजलो, रासायनिक खादों, कृषि के नवीन औजारों आदि का उपयोग करने लगा।
वह अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण की जानकारी के लिए लालायित रहता है। इसके अतिरिक्त विज्ञानजन्य इस भौतिक प्रगति ने मानव जाति को विनाश के कगार पर पहुँचा दिया है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि विज्ञान के आविष्कारों की इस प्रतिस्पर्दा ने उसे दो विश्व युद्धों का सामना कराया तथा उसको तीसरे युद्ध की ओर अग्रसर कर रही है। यदि मानव जाति को इस विनाश से बचाना है तो उसको सामाजिक शिक्षा का ज्ञान प्रदान कराया जाय।
इस कारण प्रत्येक राष्ट्र ने अपने शिक्षालयों में सामाजिक शिक्षा पर बल दिया। इसके अतिरिक्त भारत सदैव से वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त का पालन करता रहा है। इस सिद्धान्त की सफलता के लिए इस शिक्षा का होना आवश्यक है।
6. अन्य समस्याएँ
प्रायः समाज समस्याओं का खजाना होता है, अतः सामाजिक अध्ययन वह अध्ययन है, जिसके द्वारा छात्रों को विभिन्न पर्यावरणों तथा उनकी अन्योन्याश्रितता का ज्ञान कसकर उनमें यह सूझ एवं कुशलता विकसित की जाती है, जिससे वे अपने व्यावहारिक जीवन की समस्याओं को हल करने में समर्थ हो सकें। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सामाजिक अध्ययन की शिक्षा समस्याओं के हल के लिए लाभदायक सिद्ध होगी और इसके ज्ञान के द्वारा छात्र अपने राष्ट्र की समस्याओं को हल करके उसकी प्रगति में योगदान दे सकेंगे।
आन्तरिक विषय के रूप में सामाजिक विज्ञान की आवश्यकता
समाज का विज्ञान अर्थात् सामाजिक विज्ञान एक ऐसा विषय है जो विभिन्न विषय क्षेत्रों में अपनी सामग्री ग्रहण करता है, परन्तु वह उसी सामग्री को ग्रहण करता है जो व्यक्ति को जीवन की कला सिखाने में सहायक है। सामाजिक अध्ययन न केवल मानवीय सम्बन्धों से ही सम्बन्धित है, बल्कि वह उसको उसके - वातावरण एवं उनकी अन्योन्याश्रितता का ज्ञान कराकर जीवन की सामग्री, 'जीवन द्वारा' तथा जीवन के लिए प्रदान करता है।
इस कारण यह आवश्यक है कि इसके अध्ययन क्षेत्र को माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम में एक आन्तरिक विषय के रूप में समावेशित किया जाय, क्योंकि छात्रों की अधिकांश संख्या इस स्तर की शिक्षा को प्राप्त करके जीवन में प्रवेश करती है। दूसरे शब्दों में, यह शिक्षा उनके लिए अन्तिम सीढ़ी होती है। सामाजिक अध्ययन को आन्तरिक विषय का स्थान देने के पक्ष में कुछ अन्य तर्क इस प्रकार हैं-
(1) परम्परागत विषय
सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि पृथक् पृथक् विषय-वस्तु के रूप में पढ़ाये जाते थे। परन्तु इस दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता न मिल सकी। आज की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक के सन्तुलित एवं सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति में उक्त दृष्टिकोण सहायक नहीं हुए। इसी कारण से उनको समन्वित रूप में पढ़ाने की आवश्यकता महसूस हुई। इसीलिए सामाजिक विज्ञान को महत्त्वपूर्ण माना गया है।
(2) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी सामाजिक अध्ययन को एक आन्तरिक विषय के रूप में ग्रहण करने की आवश्यकता हुई। मनोविज्ञान मानव को वंशानुक्रम तथा वातावरण की उपज मानता है, परन्तु अधिकांश मनोवैज्ञानिक वातावरण को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इस दृष्टिकोण से सामाजिक अध्ययन की बहुत आवश्यकता है, क्योंकि इसके द्वारा बालक को सामाजिक एवं भौतिक वातावरण का व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता है।
साथ ही यह उनकी अन्योन्याश्रितता को भी स्पष्ट करता है। मनुष्य इस ज्ञान के आधार पर वातावरण को अपने विकास के अनुकूल बनाने में समर्थ हो सकता है, साथ ही वह ज्ञान की एकता को भी समझने में समर्थ हो सकता है।
(3) व्यहारिक दृष्टिकोण
व्यावहारिक दृष्टिकोण से सामाजिक अध्यन की बहुत आवश्कयता हैं। सामाजिक अध्ययन आधुनिक विश्व एवं उनकी सभ्यता को स्पष्ट करने में बहुत सहायक है। इस दृष्टिकोण से यह मनुष्यों को नागरिकता के बढ़ते हुए दायित्वों से अवगत करात है तथा उन्हें उनके निर्वाह के लिए भी तत्पर बनाता है। इसके अतिरिक्त सामाजिक अध्ययन की तत्कालीन घटनाओं, सामाजिक मामलों, प्रश्नों एवं समस्याओं से अवगत कराकर अन्तर्राष् सद्भावना के विकास के है।
सामाजिक अध्ययन जीवन की तैयार करता है। लिए पृष्ठभूमि तैया सामग्री प्रदान करके मानवीय सम्बन्धों का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त लोकतन्त्र के सिद्धान्तों, मूल्यों, आदर्शों तथा दायित्वों का भी व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करता। उक्त व्यावहारिक कारणों के फलस्वरूप इसको एक आन्तरिक विषय बनाने की आवश्यकता है अनुभव किया गया।
(4) विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की उन्नति
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की उन्नति ने मानी सम्बन्धों में जटिलता उत्पन्न करने में पर्याप्त रूप से सहायता की है। इन सम्बन्धों का ज्ञान प्रदान कार एवं उन्हें स्पष्ट बनाने के लिए सामाजिक विज्ञान का ज्ञान परम आवश्यक है।
सामाजिक अध्ययन का महत्त्व
स्वतन्त्रता से पूर्व शिक्षा पूर्णतया पुस्तकीय तथा सूचनात्मक थी। शिक्षा मूल रूप से जीविकोपार के उद्देश्यों से प्रभावित थी। परिणामस्वरूप केवल भाषा, गणित तथा भौतिक विज्ञान की शिक्षाक महत्त्व प्रदान किया जाता था। सामाजिक विषयों को उपेक्षा की जाती थी, क्योंकि उनका को व्यावसायिक महत्त्व नहीं था। आज के युग में सामाजिक अध्ययन के विषयों को महत्त्वपूर्ण माना जा है। सामाजिक अध्ययन की शिक्षा के महत्त्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1. सामाजिक दृष्टि से सामाजिक अध्ययन का महत्त्व
सामाजिक दृष्टि से सामाजिक अध्ययन का महत्त्व निम्नलिखित कारणों से है-
(i) सामाजिक अध्ययन छात्रों में स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक है।
(ii) सामाजिक अध्ययन देश की विरासत तथा संस्कृति के लिए प्रेम तथा सम्मान एवं श्रट जागृत करता है।
(iii) यह सहयोगी भावना विकसित करता है।
(iv) यह समाज की प्रगति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।
(v) सामाजिक अध्ययन में एकरूपता तथा दृढ़ता लाने में सहायता प्रदान करता है।
(vi) सामाजिक अध्ययन सामाजिक जागरूकता तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के विकास में सहायक है।
(vii) यह सामाजिक जीवन को उन्नत, सफल तथा समृद्ध बनाने में परम उपयोगी है।
(viii) यह साथियों के लिए सहिष्णुता, सहानुभूति तथा प्रेम की भाबना विकसित करता है।।
(ix) सामाजिक अध्ययन समीक्षात्मक चिन्तन की भावना विकसित करके पूर्ण जीवनयापन सहायता प्रदान करता है।
(x) सामाजिक अध्ययन पूर्वद्वेषों एवं पूर्वाग्रहों को दूर करके व्यापक दृष्टिकोण के विकास सहायुता प्रदान करता है।
2. वैयक्तिक दृष्टि से सामाजिक अध्ययन का महत्त्व
वैयक्तिक दृष्टि से इस अध्ययन के अधोलिखित महत्त्व प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
(i) सामाजिक चरित्र का निर्माण इसके अध्ययन द्वारा व्यक्ति में विभिन्न सामाजिक गुणों क विकास किया जाता है। सहयोग, सहकारिता, सहिष्णुता, निष्पक्षता आदि, ये गुण सामाजिक चरित्र के निर्माण में आधार का कार्य करते हैं।
(ii) विभिन्न सामाजिक आदतों तथा कुशलताओं का विकास किया जाता है।
(ii) व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का विकास किया जाता है।
(iv) व्यावहारिक समस्याओं के समाधान के लिए तैयार किया जाता है।
(v) व्यक्ति को अपने वातावरण में व्यवस्थित होने के लिए समर्थ बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त उसमें स्वयं को अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने की क्षमता भी प्रदान की जाती है।
सामाजिक अध्ययन तथा अन्य सामाजिक विज्ञान में अन्तर
सामाजिक अध्ययन
1. सामाजिक अध्ययन में विभिन्न विषयों (इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थ- शास्त्र तथा समाजशास्त्र) का समन्वित या एकीकृत रूप में अध्ययन किया जाता है।
2. सामाजिक अध्ययन विभिन्न विषयों के रूपों में एक व्यापक एवं विस्तृत अध्ययन-क्षेत्र होता है।
3. सामाजिक अध्ययन सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं तथा प्रत्ययों को व्यावहारिक रूप में स्पष्ट किया जाता है।
4. सामाजिक अध्ययन ज्ञान का एक नवीन प्रत्यय है तथा यह सभी समन्वित विषयों के रूप में स्वतन्त्र अध्ययन का विषय बन गया है।
5. सामाजिक अध्ययन की विधियों एवं उपागमों (समन्वित उपागम, केन्द्रित उपागम, चक्राकार उपागम, कालचक्र आदि) का प्रयोग किया जाता है।
अन्य सामाजिक विज्ञान
1. अन्य सामाजिक विज्ञानों (मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र तथा अन्य शास्त्र) का अलग-अलग रूप से अध्ययन किया जाता है।
2. अन्य सामाजिक विज्ञान में प्रत्येक सामाजिक विषय क्षेत्र का पृथक् पृथक् अध्ययन-क्षेत्र होता है।
3. अन्य सामाजिक विज्ञान अधिकांशतः ज्ञान के सैद्धान्तिक पक्ष पर बल देता है।
4. सामाजिक विज्ञान ज्ञान के विस्तृत रूप की ओर उन्मुख रहते हैं क्योंकि प्रत्येक सामाजिक विषय का पृथक् पृथक् अध्ययन किया जाता है।
5. अन्य सामाजिक विज्ञानों में प्रत्येक विषय से सम्बन्धित पृथक् पृथक् विधियों तथा उपागमों का प्रयोग किया जाता है।
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