निदानात्मक और उपचारात्मक शिक्षण क्या है?
निदानात्मक शिक्षण
निदानात्मक परीक्षणों की सहायता से वे बिन्दु स्पष्ट किये जाते हैं जहाँ पर छात्र का ज्ञान अधूरा या अस्पष्ट होता है जिसकी जानकारी सफल शिक्षण के लिए आवश्यक होती है। सफल शिक्षण हेतु तीन बातें प्रमुख होती हैं- प्रथम, सीखने के अनुभवों की पूरी व्यवस्था हो, द्वितीय, अनुभव छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन करें तथा तीसरा, शिक्षण के उद्देश्यों की पूर्ति हो, इन सभी के लिए आवश्यक है कि शिक्षक को शिक्षण की विभिन्न क्रियाओं का ज्ञान होना चाहिए। निदानात्मक प्रक्रिया के तहत शिक्षण के पूर्व क्रिया अवस्था के सभी तथ्य निहित होते हैं।
बर्ट ने अपने शोधकार्य द्वारा देखा था कि 60 प्रतिशत छात्रों में पिछड़ेपन का कारण बुद्धि को मन्दता है। 14 प्रतिशत विद्यार्थियों का कारण घर का असन्तोषजनक वातावरण और १ प्रतिशत स्वभावगत दोष, 8 प्रतिशत दूषित विद्यालय वातावरण तथा । प्रतिशत का कारण शारीरिक दोष है।
"निदानात्पक प्रक्रिया द्वारा संज्ञान में आये कमियों के सुधार हेतु जो शिक्षण प्रदान किया जाता हैं, उसे उपचारात्मक्र शिक्षण कहते हैं।" - एन० के० सिंह
"उपचारात्मक शिक्षण वास्तव में छात्र ने जो कुछ सीखा है, उसको ध्यान में रखकर उसको उन्नति प्राप्त करने के लिए होता है।" - एस० एस० माधुर
"उपचारात्मक शिक्षण शुरू से दूषित शिक्षण तथा दूषित अधिगम प्रभावों को एक प्रकार से दूर करने की प्रक्रिया है।" - आर० एम० मिश्रा
उपचारात्मक शिक्षण विधि
उपचारात्मक प्रक्रिया मुख्यतः दो प्रकार से सम्पन्न होती है-
1. अनुवर्ग शिक्षण प्रणाली-
इस प्रक्रिया के अन्तर्गत कक्षा को छोटे-छोटे सजातीय वर्गों में बाँट दिया जाता है अर्थात् एक सी कठिनाई वाले छात्रों के समूह तथा प्रत्येक अनुवर्ग के लिए एक अध्यापक को उत्तरदायित्व दिया जाता है, जो उस वर्ग के छात्रों की शिक्षण अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों का समाधान करता है। अनुवर्ग शिक्षण प्रणाली कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होती है-
(a) व्यक्तिगत विविधता का सिद्धांत।
(b) छात्र-शिक्षक निकट संपर्क का सिद्धांत।
(c) शैक्षिक निर्देशन की उपलब्धता का सिद्धान्त।
(d) शिक्षण में व्यक्तिगत कठिनाइयों के समाधान के अवसरों की उपलब्धता।
(e) उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था।
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2. स्वामित्व अधिगम रणनीति-
इस प्रविधि के प्रणेता बी० एस० ब्लूम हैं। इसके अन्तर्गत कक्षा शिक्षण, पुनर्बलन, सुधारात्मक प्रविधि तथा व्यक्तिगत अधिगम त्रुटियों को स्थान दिया गया है। इसमें कमजोर छात्रों को अधिक समय देकर अधिगम में स्वामित्व प्रदान करने के अवसर देन का प्रावधान होता है। ब्लूम की इस रणनीति को समूह आधारित अनुदेशन भी माना जाता है जिसका अनुसरण सुधारात्मक दृष्टि से किया जाता है। इस प्रक्रिया में निम्नलिखित सोपानों का अनुसरण होता है-
1. पाठ्य-वस्तु का इकाइयों में विभाजन।
2. अनुदेशन इकाइयों की पहचान किस इकाई द्वारा कौन से उद्देश्य प्राप्त होंगे।
3. अधिगम इकाइयों तथा उद्देश्यों के आधार पर स्वामित्व स्तर का निर्धारण (एक अधिगम इकाई में स्वामित्व-80 से 85 प्रतिशत प्रश्नों के सही उत्तर)।
4. प्रत्येक इकाई का सामूहिक कक्षा-शिक्षण।
5. उपलब्धि परीक्षा के द्वारा स्वामित्व का मूल्यांकन, अधिगम स्तर में स्वामित्व प्राप्त न कर पाने वाले छात्रों को निदानात्मक परीक्षा देकर अधिगम कठिनाइयों का पता लगाना।
उपचारात्मक एवं निदानात्मक शिक्षण में क्या सम्बन्ध है?
निदानात्मक मूल्यांकन एवं उपचारात्मक शिक्षण का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। वास्तव में दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं, एक के बिना दूसरा असम्भव है। निदानात्मक मूल्यांकन छात्रों की कमियों तथा उसके लक्षणों का पता कर पाता है और तभी उपचारात्मक शिक्षण उन्हें दूर कर पाता है। यदि उपचारात्मक शिक्षण न हो तो निदानात्मक मूल्यांकन के प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं। अतः दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
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