शिक्षा का अर्थ, अवधारणा एवं परिभाषाएँ (Meaning & Concept Of Education)

शिक्षा का अर्थ, अवधारणा एवं परिभाषाएँ (Meaning & Concept Of Education)

परमात्मा ने तीन- प्राणि, वनस्पति तथा खनिज-जगतों का निर्माण किया है। प्राणि जगत् में मानव उसकी सर्वोत्तम कृति है। मानव के चार पक्ष हैं- 

(1) जैविक (Biological), 

(2) मनोवैज्ञानिक (Psychological), 

(3) समाजशास्त्रीय (Sociological) तथा 

(4) दार्शनिक (Philosophical) । 

शिक्षा का अर्थ, अवधारणा एवं परिभाषाएँ

जैविक पक्ष के अन्तर्गत उसकी शारीरिक संरचना आती है जिसकी अभिवृद्धि होती है। मनोवैज्ञानिक पक्ष मनस् (Mind) की विभिन्न प्रक्रियाओं के प्रस्फुटीकरण में सहायक होता है। साथ ही मानव के व्यक्तित्व का निर्माण करता है। समाजशास्त्रीय पक्ष उसमें लगाव की भावना (State of Belongingness) विकसित करता है। उसमें भ्रातृत्व की भावना का विकास करता है।


यह पक्ष उसे पशु से मानव बनाता है। दूसरे शब्दों में, यह उसे मानवीय गुणों से सुसज्जित करता है। दार्शनिक पक्ष उसे यह खोजने के लिये तैयार करता है कि वह स्वयं क्या है ? उसे किसने बनाया है ? परम सुख की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है ? आदि।


शिक्षा मानव जीवन का समग्रीय अंश (Integral part) है। यह 'शिक्षा' 'समग्र मानव' (Whole Man) के विकास की बुनियादी दशा है। इसके अभाव में 'कल्याण' एवं 'समृद्धि' को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। साथ ही मानव इसके अभाव में एक गुलाम या दास की भाँति अपना जीवन व्यतीत करता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इसके (शिक्षा) अभाव में मानव तर्कयुक्त बर्बर के समान है। अतः मानव के इस पृथ्वी पर अवतरित होने के समय से ही शिक्षा चली आ रही है। इसलिये शिक्षा के बारे में सभी के द्वारा चर्चा की जाती है।


शिक्षा : अतीत की विरासत (EDUCATION: A HERITAGE OF THE PAST)


शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण और सर्वव्यापी विषय है। यह मानव की एक विशेष उपलब्धि है। अतीतकाल से मनुष्य ने जागरूक रहकर अपनी वाक्-शक्ति का व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, समुदाय तथा समुदाय के बीच तथा सन्तति और सन्तति के बीच अपने व्यावहारिक अनुभव भण्डार का संचार करने के लिए उपयोग किया है। इनमें प्राकृतिक घटनाओं, नियमों, विधि-निषेध की संकेत भाषा का उपयोग है ताकि व्यक्ति का समाजीकरण हो सके और वैयक्तिक स्मृति के माध्यम से पूरी जाति जीवित रह सके। 


प्रारम्भ में शिक्षा एक जैविक आवश्यकता के रूप में विकसित हुई। जैविकी और शरीरक्रिया विज्ञान ने मनुष्य को नग्न ही रचा और वह अपने वातावरण में जीवित रहने के लिए सक्षम नहीं था, किन्तु अपनी मूलप्रवृत्तियों की जन्मजात कमजोरियों के बावजूद, स्वयं को जीवित रखने तथा अपना विकास करने में शनैः शनै: वह सफल हो सका।


वातावरण से निरन्तर संघर्ष करते हुए उसने जीना सीखा और क्रमश: सामूहिक प्रयासों के लिए अपना एक समाज गठित किया। परिवार को इकाई तथा आदिम कबीले आरम्भ कर, जीवन सम्बन्धी भौतिक कार्यों पर ध्यान केन्द्रित कर, उसने अपने ज्ञान और अनुभव की पूँजी की उत्तरोत्तर वृद्धि की अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पहचानना और उन्हें अभिव्यक्त करना सीखा और इस तरह अपनी मानसिक शक्तियों का विकास किया।


शिक्षा एक सामाजिक आवश्यकता है। शिक्षा के इतिहास में, अतीत को जिस सीमा तक हम जा सकते हैं, जो बहुत लम्बी नहीं है, जाने पर हम पाते हैं कि शिक्षा मनुष्य व समुदाय की स्वाभाविक विशेषता रही है। उसने सामाजिक विकास के हर युग में समाज को दिशा और स्वरूप देने में सहायता दी है। स्वयं शिक्षा का विकास कभी अवरुद्ध नहीं हुआ।


मनुष्य के सर्वोच्च आदर्शों को उसने प्रवाहित किया है। मानव इतिहास की व्यक्तिगत और सामूहिक उल्लेखनीय उपलब्धियों को शिक्षा से अलग नहीं किया जा सकता। इतिहास के प्रवाह मार्ग को भी शिक्षा ने काफी सच्चाई से अंकित किया है, जिसमें कुछ युग उत्थान के हैं, कुछ पतन के, कुछ संघर्ष के और कुछ निराशा के, कुछ काल सन्तुलन के हैं और कुछ बिखराव के।


अनौपचारिक शिक्षा का प्रारम्भ


आदिम शिक्षा में शिक्षा का स्वरूप जटिल और प्रक्रिया सतत् थी। उसका उद्देश्य चरित्र, प्रवृत्ति, कौशल और नैतिक गुणों का व्यक्ति में निर्माण करना था, जिसको शिक्षा (उसे शिक्षित बनाने की अपेक्षा) सहजीवी जीव प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होती थी। परिवार या कबीले का जीवन, काम अथवा खेल, कर्मकाण्ड या अनुष्ठानों द्वारा सीखने का प्रतिदिन अवसर व्यक्ति को मिलता था।


माता की देखरेख और शिकारी पिता से शिक्षा मिलती थी। ऋतु परिवर्तनों को तथा जानवरों को देखकर अथवा बूढ़ों के मुख से सुनी कहानियों और मुनियों के गान से उसे शिक्षा मिल जाती थी। इस प्रकार की स्वाभाविक अनौपचारिक शिक्षा आज तक व्यक्ति को मिल रही है। पॉल गुडमैन ने इस तथ्य को इन शब्दों में स्पष्ट किया है-"किन्तु आदिम और अत्यन्त सभ्य समाज, दोनों में अभी तक अधिकांश बच्चों की अधिकांश शिक्षा जीवन की सहज प्रक्रिया द्वारा ही सम्पन्न हुई है, न कि शिक्षा देने के लिए विशेष रूप से खोली गई शालाओं द्वारा।


प्रौढ़ अपने आर्थिक और अन्य सामाजिक कार्य करते थे, बालकों को इन कामों से अलग नहीं रखा जाता था, उन पर ध्यान दिया जाता था, वे इन कामों में शामिल होना सीखते थे। बच्चों को औपचारिक ढंग (Formal way) से नहीं पढ़ाया जाता था। अनेक प्रौढ़ संस्थाओं में संयोगवश दी जाने वाली शिक्षा उनके कार्यक्रम का अभिन्न अंग थी।" इस प्रकार को शिक्षा, संसार के बड़े भागों में चल रही है जहाँ लाखों लोगों की शिक्षा का एकमात्र साधन यही है।


यह भी है कि शालाएँ चलाने वाले वर्तमान समाजों में भी परिस्थिति उतनी भिन्न नहीं जितनी दिखाई पड़ती है, क्योंकि बच्चों और प्रौढ़ों को भी शिक्षा के तत्व उनके वातावरण, कुटुम्ब और समाज से प्राप्त होते हैं। उन्हें सीधे या प्रत्यक्ष अनुभव से, जीवन की क्रिया से शिक्षा प्राप्त होती है। इस प्रकार प्राप्त ज्ञान का महत्त्व और भी बढ़ जाता है जब यह पता चलता है कि अनुभवजन्य ज्ञान शालेय ज्ञान के लिए आकर्षण उत्पन्न करता है और शालेय ज्ञान, वातावरण से प्राप्त ज्ञान को संगठित और संकल्पित करने में सहायक होता है।


औपचारिक शिक्षा का विकास


विद्यालय (शिक्षा के औपचारिक साधन) ऐतिहासिक दृष्टि से एक आवश्यक संस्था थी, इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि सभी समाजों में, विभिन्न कालों में किन्तु समान अवस्था के चरण में शालाओं का विकास हुआ। शिक्षा में शालाओं की व्यवस्था का सीधा सम्बन्ध लिखित भाषा के संगठन तथा प्रयोग के क्रमिक विकास से स्पष्ट दिखाई पड़ता है। पढ़ना सोखने की प्रक्रिया में गुरु और उसके आसपास शाला के कमरे में शिष्यों का होना स्वाभाविक और आवश्यक था।


लेखन कला और बाद में मुद्रण कला ने जो शक्ति मनुष्य को दी तथा शिक्षा को जो योगदान दिया, उसके महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता, विशेषतः पुस्तकों ने ज्ञान प्रसारण के प्राचीन तरीके को बदल दिया और उसके स्थान पर इन पूर्वाग्रहों को पोषित किया कि लिखित शब्द और उसकी मौखिक पुनरावृत्ति में जानने लायक जो भी है वह सब ज्ञान सन्निहित है और वह ज्ञान दैनिक जीवन से प्राप्त ज्ञान से श्रेष्ठतर है।


ज्ञान और परम्पराओं का उत्तरोत्तर विकसित भण्डार हजारों वर्षों से गुरु से शिष्य को हस्तान्तरित होता आया। इस शिक्षा विधि में अनुशासन कड़ा, आदेशात्मक तथा शैक्षिक था, जिसमें उन समाजों का ही प्रतिबिम्ब झलकता है जो स्वयं सत्तावादी सिद्धान्तों पर आधारित थे। इस प्रकार मौखिक शब्द की अपेक्षा लिखित शब्द की महत्ता का विश्वास आज की शाला व्यवस्था में घर कर गया और गुरु और शिष्य के बीच सत्तावादी सम्बन्ध का ढाँचा इस प्रकार गढ़ा गया जो आज भी संसार की अधिकांश शालाओं में विद्यमान है।


विश्व के सर्वप्रथम विश्वविद्यालय भारत में ब्राह्मणों द्वारा चलाये गये, जिनमें दर्शन और धर्म पर आधारित एक उत्तम शिक्षा का उदाहरण मिलता है। इनमें गणित, इतिहास, ज्योतिष तथा अर्थशास्त्र के नियमों की पढ़ाई पर बल दिया जाता था। बाद में बुद्धकालीन शिक्षा, ब्राह्मणों के जाति सिद्धान्त और शिक्षा में उनके एकाधिकार के मतों की प्रतिक्रिया के रूप में उभरी, किन्तु कालान्तर में वह भी उतनी ही जड़ हो गई।


मध्यकालीन यूरोप में उच्च शिक्षा की बड़ी संस्थायें, जिन्हें आधुनिक विश्वविद्यालय का महत्त्वाकांक्षी नाम दिया गया, निर्मित हुईं। सम्पन्न, उद्योगशील व्यापारी नगरों ने अपनी प्रतिष्ठा और मतदान अधिकार की सुरक्षा के लिए इस प्रकार की संस्थाओं के निर्माण का उदाहरण बहुधा प्रस्तुत किया। यूरोप से आरम्भ होकर ये विश्वविद्यालय अमेरिका में फैल गये। इनमें सूक्ष्म दर्शन तथा मानविकी की पढ़ाई पर अधिक ध्यान दिया जाता था। बाद में पठन-पाठन में प्राकृतिक विज्ञान को भी शामिल कर लिया गया। इस दिशा में श्रेय अरब और मुस्लिम जगत की विकसित संस्कृति को है जिसका प्रसार एशिया और अफ्रीका से होकर यूरोप तक पहुँचा।


पुनर्जागरण से धर्म सुधार तक तथा आधुनिक युग के प्रारम्भ तक मध्य युगोत्तर यूरोप ने सभ्यता के विकास को अत्यधिक प्रभावित किया। ज्ञान के नवीन क्षितिज उभरे और नवीन सामाजिक प्रवृत्तियाँ प्रभावित हुईं, जिन्होंने मानवता को नवीन परिभाषा दी। किन्तु कुछ अंशों में इन प्रभावों से शिक्षा में परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे हुआ। यद्यपि दार्शनिक विचारों का विकास हुआ, मनोविज्ञान में नवीन खोजें हुई और जीवित भाषाओं को शैक्षणिक माध्यम से आसन पर प्रतिष्ठित किया गया, जिससे दृष्टिकोण का दायरा बढ़ा और जहाँ-तहाँ नये प्राण का संचार हुआ।


जिन देशों ने औद्योगिक प्रगति के क्षेत्र में पहला कदम बढ़ाया वहाँ औद्योगीकरण और शिक्षा की लोकप्रियता के बीच सीधा सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई पड़ा। औद्योगिक क्रान्ति का प्रसार जैसे-जैसे अन्य देशों में हुआ, उससे शिक्षा प्रसार को बढ़ावा मिला और सार्वजनिक तथा अनिवार्य शालेय उपस्थिति की अवधारणा उत्पन्न हुई, जिसका ऐतिहासिक सम्बन्ध सार्वजनिक मताधिकार से था।


समाज व्यवस्था ने, जिसमें वर्ग-संघर्ष में कमी होने के बदले वह तीव्र से तीव्रतर होता गया, ज्ञान के लोकतन्त्रीकरण को संकुचित सीमाओं में बाँध दिया। शहरों और ग्रामों में बालकों को प्रारम्भिक शिक्षा देना एक बात थी, जिससे रोजगार के लिए पर्याप्त संख्या में मजदूर उपलब्ध हो सकें। किन्तु सभी लोगों के लिए उत्तम और विश्वविद्यालयीन शिक्षा के द्वार खुले कर देना दूसरी बात थी जो धनिक और उच्चवर्गीय कुल में जन्म लेने वालों की सम्पत्ति थी।


औद्योगिक क्रान्ति के बाद


और उससे भी अधिक आधुनिक वैज्ञानिक तथा तकनीकी परिवर्तनों के बाद-जीवन-शैली के ढंग, उत्पादन के तरीकों, मनुष्य की आशाओं और आशंकाओं, उसकी चिन्ताओं और खुशियों में गुणात्मक परिवर्तन आ गया है। शिक्षा की सम्भावनाओं में परिवर्तन और वृद्धि हुई है, जिसके अनेक कारण हैं। केन्द्रीकृत अविशेषज्ञ समाजों को राज्य की आवश्यकताओं के लिए प्रशिक्षित व्यक्तियों की अधिक आवश्यकता हुई।


आर्थिक विकास ने अर्हता प्राप्त लोगों के लिए काम और व्यवसाय की सुविधा बढ़ा दी, जिसके लिए उसे अधिकाधिक व्यावसायिक प्रबन्धकों तथा तकनीशियनों को प्रशिक्षित करना पड़ा। मजदूर भी शिक्षा के अपने अधिकार को समझने लगा है। उसमें यह चेतना बढ़ी है कि सामाजिक मुक्ति का प्रधान साधन शिक्षा है। द्रुत आधुनिकीकरण (Modernization) से अनेक समाजों में प्राथमिक, व्यावसायिक तथा सामान्य शिक्षा में मूलभूत गुणात्मक तथा मात्रात्मक परिवर्तन हुए।


आधुनिक परिस्थितियों में शिक्षा


शिक्षा के प्रति आज जितनी रुचि है उतनी पहले कभी नहीं थी। दलों, पीढ़ियों तथा समूहों में, यह एक विवाद का विषय बन गयी है; जो बहुधा राजनैतिक तथा वैचारिक संघर्षों का रूप धारण कर लेती है। शिक्षा आनुभविक या वैज्ञानिक, सामाजिक आलोचना का विषय बन गयी है।


पहले लोक अधिकारियों के प्राधिकार को प्रबुद्ध लोगों द्वारा सौजन्यतापूर्वक चुनौती दी जाती थी, परन्तु अब सामूहिक रूप से क्रुद्ध तथा विद्रोही छात्रों द्वारा दी जाती है। आज का मानव शिक्षा को भविष्य की दृष्टि से देख रहा है; क्योंकि आज का शिक्षा-विकास आर्थिक विकास की अगुवाई कर रहा है। इस दृष्टि से "इतिहास में प्रथम बार शिक्षा, मनुष्य को उस समाज के लिए तैयार कर रही है, जिसका निर्माण अभी तक नहीं हुआ है।"


शिक्षा के लिए यह चुनौती पूर्णत: नवीन है, क्योंकि शिक्षा का अब तक का कार्य समकालीन समाज को उसी रूप में जीवित रखना और उसके सामाजिक सम्बन्धों को बनाये रखना था, परन्तु आज उसका लक्ष्य अपरिचित बालकों को अपरिचित दुनिया के लिए शिक्षित करना है।


अत: शिक्षाशास्त्रियों के ऊपर आज यह दायित्व आ गया है, जिसके द्वारा उन्हें भविष्य का निर्माण करना होगा। उनको इस दायित्व के लिए चिन्तन करना होगा। इस चिन्तन के फलस्वरूप शिक्षा के नवाचारों, नवीन आन्दोलनों - संस्था विहीनीकरण, समाज का शाला विहीनीकरणको जन्म मिला। इन आन्दोलनों ने खुली शिक्षा, सतत् शिक्षा, आजीवन शिक्षा, जैसी अवधारणाओं को विकसित किया।


शिक्षा की अवधारणा (CONCEPT OF EDUCATION)


शिक्षा का जीवन के प्रत्येक पक्ष से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों ही रूपों में गहन सम्बन्ध है। एक व्यक्ति के जीवन के सभी पक्ष शिक्षा से जुड़े हैं। वे इससे प्रभावित भी होते हैं और इसे प्रभावित भी करते हैं। अत: समाज के अलग-अलग वर्ग शिक्षा के बारे में अपनी अलग-अलग धारणाएँ रखते हैं।


शिक्षा मनुष्य के विकास का मूल साधन है। इसी शिक्षा के द्वारा मानव अपनी जन्मजात शक्तियों का विकास, अपने ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि तथा व्यवहार में परिवर्तन ला सकता है तथा स्वयं को सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जा सकता है। वस्तुत: शिक्षा अपने परिष्कृत एवं शुद्ध रूप से मानव को विवेकशील बनाती है। मानव जीवन एवं मानव विकास में शिक्षा का कितना महत्त्व है।


इस सन्दर्भ में सुप्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री जॉन लॉक का यह कथन सत्य प्रतीत होता है-"Plants are developed by cultivation and men by education." अर्थात् जिस प्रकार पौधों का विकास खेती को अच्छी जुताई से होता है, उसी प्रकार मानव का विकास शिक्षा द्वारा होता है।

शिक्षा सुनियोजित, सुव्यवस्थित तथा क्रमबद्ध रूप में चले, इसके लिए शिक्षाशास्त्रियों, दार्शनिकों मनोवैज्ञानिकों तथा समाजशास्त्रियों द्वारा निरन्तर प्रयास किया जा रहा है।


शिक्षा की विभिन्न अवधारणाएँ (Various Concepts of Education)


1. शिक्षा : मानव के विकास का प्रयास (Education: An Attempt to Develop Man)


शिक्षा भावी सन्तति के विकास के लिये एक प्रयास है, जो समाज के प्रौढ़ सदस्यों द्वारा किया जाता है। यह सभी व्यक्तियों के लिये वैयक्तिक पूर्णता हेतु सुविधा प्रदान करने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है; इस सम्बन्ध में जॉन ड्यूवी (John Dewey) ने लिखा है-"शिक्षा, व्यक्ति की उन पब शक्तियों या क्षमताओं का विकास है, जिनसे वह अपने वातावरण पर अधिकार प्राप्त कर सके और अपनी भावी आशाओं को पूरा कर सके।"


जिस व्यक्ति में सोचने-समझने की शक्ति होती है, उसी को विकसित कहा जा सकता है। जो व्यक्ति अपने चारों ओर होने वाली घटनाओं की आलोचना कर सकता है, वही व्यक्ति समाज को कुछ योगदान दे सकता है। ऐसे व्यक्ति को सदैव बदलने वाले समाज से अपना सामंजस्य स्थापित करने में कोई कठिनाई नहीं होती है। उसे इस स्थिति में शिक्षा द्वारा ही पहुँचाया जाता है। दूसरे शब्दों में, शिक्षा द्वारा ही उसका विकास किया जाता है।


यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने इस बात पर बल दिया है कि 'शिक्षा' व्यक्ति को विकसित करने का प्रयत्न है। प्लेटो (Plato) ने लिखा है-"शिक्षा, छात्र के शरीर और आत्मा में उस सब सौन्दर्य और पूर्णता का विकास करती है, जिसके योग्य वह है।"


अरस्तू (Aristotle) ने भी करीब-करीब इसी विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया है-"शिक्षा, मनुष्य की शक्ति का, विशेष रूप से मानसिक शक्ति का विकास करती है, जिससे कि वह परम सत्य, शिव और सुन्दरम् का चिन्तन करने के योग्य बन सके।"


संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि शिक्षा, व्यक्ति का विकास करने में सहायता देती है। यह उसकी जन्मजात शक्तियों का शैशव से प्रौढ़ता तक इस प्रकार विकास करती है कि वह अपने वातावरण से अपना सामंजस्य स्थापित कर सके और उस पर अधिकार प्राप्त करके उसे उत्तम भी बना सके।


2. शिक्षा प्रशिक्षण कार्य है (Education is an Act of Training)


कुछ विचारकों का मत है कि शिक्षा प्रशिक्षण का कार्य है, जिसके द्वारा व्यक्ति को सामाजिक जीवन में अपना उचित स्थान ग्रहण करने के योग्य बनाया जाता है। मनुष्य मूलतः पशु होता है अर्थात् वह पशु-प्रवृत्ति रखता है। अत: उसे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, जिससे कि वह अपनी भावनाओं, अभिलाषाओं और व्यवहारों पर अधिकार करना सीख जाये। ऐसा प्रशिक्षण प्राप्त करके ही वह समाज का उत्तरदायी सदस्य बन सकता है। उसे यह प्रशिक्षण, शिक्षा द्वारा ही दिया जाता है। इस प्रशिक्षण के बिना वह नैतिक और व्यवस्थित जोवन व्यतीत करने में कठिनाई का अनुभव कर सकता है।


यह कहा गया है कि शिक्षा नेत्रों और मस्तिष्क को प्रशिक्षित करती है, पर किस प्रकार ? यदि एक व्यक्ति अपने से बड़ों को अपने सामने देखकर नमस्कार करता है, तो हम उसे प्रशिक्षित व्यक्ति कहते हैं, पर यदि वह सम्मान से नतमस्तक हो जाता है, तो हम उसको शिक्षित व्यक्ति कहते हैं। व्यक्ति के पहले कार्य का सम्बन्ध उसके शरीर से और दूसरे का उसके मस्तिष्क से है। दूसरे शब्दों में, प्रशिक्षण का सम्बन्ध शरीर से और शिक्षा का सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है।


पर क्योंकि शिक्षा, प्रशिक्षण का कार्य है, इसलिये सच्ची शिक्षा का अर्थ है- मनुष्य को शारीरिक और मानसिक प्रतिक्रियाओं के स्तरों पर अच्छे और बुरे के अन्तर को समझने के योग्य बनाना। यह प्रशिक्षण शरीर और मस्तिष्क को इस प्रकार अनुशासित करता है कि व्यक्ति ठीक काम को ठीक अवसर पर, ठीक प्रकार से करते हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि शिक्षा शरीर, मस्तिष्क और आत्मा का प्रशिक्षण है।


3. शिक्षा मार्ग-प्रदर्शन है (Education is Direction)


बालकों को शिक्षा देने का अर्थ है-उनका उचित मार्ग-प्रदर्शन करना। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों की अविकसित योग्यताओं, क्षमताओं, शक्तियों और रुचियों को इस प्रकार निर्देशित करना है कि वे अधिक-से-अधिक लाभप्रद बन सकें। ऐसी दशा में ही बच्चे दूसरों को ठेस पहुँचाये बिना और स्वयं अपमानित हुए बिना अपनी इच्छाओं को पूर्ण कर सकते हैं।


अत: यह आवश्यक है कि बच्चों का कुशलता से मार्ग-प्रदर्शन किया जाये। इसके लिये निम्नांकित बातें आवश्यक हैं-


1. निर्देशन, बालक के स्वभाव के विरुद्ध नहीं होना चाहिये।

2. बालक के ऊपर कोई अनावश्यक विचार नहीं लादा जाना चाहिये।

3. निर्देशन के समय भय, दण्ड और डाँट-डपट का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये।

4. जिस लक्ष्य पर बालक पहुँचना चाहता है, उसका उसे ठीक ज्ञान होना चाहिये।

5. निर्देशन करने वाले अर्थात् शिक्षक को साध्य और साधन का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये।

6. शिक्षक को उस ढाँचे का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये, जिसमें समाज बालक को ढालना चाहता है।

7. निर्देशन से पहले बालक की आवश्यकताओं, योग्यताओं, क्षमताओं और रुचियों का अध्ययन कर लेना चाहिये।

8. शिक्षक को उस समाज की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं का पूर्ण ज्ञान होना चाहिये, जिसका सदस्य बालक है।


4. शिक्षा समग्र अभिवृद्धि है (Education is Integrated Growth)


अभिवृद्धि क्या है ? अभिवृद्धि का अर्थ है- शारीरिक अंगों और मानसिक शक्तियों का विस्तार। अभिवृद्धि के दो महत्त्वपूर्ण तत्व हैं-

(1) प्रशिक्षण (Training) और

(2) वातावरण (Environment) ।


प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रशिक्षण और वातावरण के अनुसार क्रिया और प्रतिक्रिया करता है। फलतः वह अपने प्रारम्भिक रूप और स्वभाव से परिवर्तित होकर एक नई सूरत में आ जाता है। परिवर्तन की ये सब प्रक्रियायें, अभिवृत्ति की प्रक्रियायें हैं और इसलिये शिक्षा की प्रक्रियायें कहलाती हैं। अतः शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक ढाँचे की अभिवृद्धि शिक्षा है और शिक्षा प्राप्त करना अभिवृद्धि करना है।


अब प्रश्न उठता है-' अभिवृद्धि कौन कर सकता है ?' इसका केवल एक ही उत्तर है-'केवल वही व्यक्ति जो अपरिपक्व या अविकसित है।' पर इसको जाना किस प्रकार जा सकता है ? इसको जानने के लिये दो बातें हैं-

(1) निर्भरता (Dependence) और

(2) लचीलापन (Elasticity)


प्रत्येक अपरिपक्व व्यक्ति में इन दोनों बातों का पाया जाना आवश्यक है। अपरिपक्व व्यक्ति, परिपक्व व्यक्ति पर निर्भर रहता है, क्योंकि उससे जीवन का अनुभव नहीं होता है। इसके साथ ही वह परिपक्व व्यक्ति के अनुभव से कुछ-न-कुछ सीखने के लिये सदैव तैयार रहता है।


इसी को 'लचीलापन' कहते हैं। व्यक्ति में जितना अधिक लचीलापन होता है, उतना ही अधिक ज्ञान वह प्राप्त कर सकता है। उसमें जितने अधिक समय तक लचीलापन रहता है, उतने अधिक परिवर्तन उसमें होते हैं। फलस्वरूप, उसका व्यक्तित्व उतना ही अधिक 'सन्तुलित और संगठित' हो सकता है।


वयस्क की अपेक्षा बच्चे में लचीलापन अधिक होता है। लचीलापन हो उसे आदतों का निर्माण करने में सहायता देता है। आदतें ही उसकी कुशलता को बढ़ावा देकर, उसकी अभिवृद्धि में योग देती हैं। अतः बच्च्त्चे और वयस्क दोनों की अभिवृद्धि के लिये यह आवश्यक है कि वे आदतों का निर्माण करें। पर ये आदतें अच्छी होनी चाहिये। ये आदतें नैतिक, मानसिक और संवेगात्मक हो सकती हैं।


नैतिक आदतों को मानसिक आदतों से बल प्राप्त होता है। बुद्धि का जितना ही अधिक प्रयोग किया जायेगा, कार्यकुशलता उतनी ही अधिक होगी। परिणामतः उतनी ही अधिक अभिवृद्धि होगी। अतः हम कह सकते हैं कि अधिक-से-अधिक बुद्धि के प्रयोग से अधिक-से-अधिक अभिवृद्धि होती है।


अब प्रश्न उठता है-' अभिवृद्धि किस प्रकार की होनी चाहिये ? इसका उत्तर केवल यह है कि अभिवृद्धि उचित प्रकार की होनी चाहिये। बच्चों का निर्देशन इस प्रकार किया जाना चाहिये कि उनके व्यक्तिगत गुणों और सामाजिक सम्बन्धों का विकास हो। उनकी अभिवृद्धि, जीवन के उचित लक्ष्यों, उच्चतम मूल्यों, आकांक्षाओं और महानताओं की दिशा में होनी चाहिये। उन्हें श्रेष्ठतम मानव चरित्र की दिशा में प्रशंसनीय अभिवृद्धि करनी चाहिये।


प्रशंसनीय अभिवृद्धि से कहीं अधिक आवश्यक सन्तुलित, सामंजस्यपूर्ण और सुसंगठित अभिवृद्धि है। ऐसी अभिवृद्धि तभी सम्भव है, जब बालक के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं- शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक, सौन्दर्यात्मक और सामाजिक-का समान रूप से सम्पूर्ण विकास किया जाये।


अन्त में, कह सकते हैं कि सम्पूर्ण विकास का अर्थ है- बालक के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का सामंजस्यपूर्ण विकास। इनमें उसकी शक्तियाँ-जन्मजात, प्रकट और अप्रकट आ जाती हैं। उसे स्वयं यह अनुभव करना चाहिये कि वह अपने भाग्य का निर्माता है और वह जिस प्रकार का व्यक्ति बनना चाहे, बन सकता है।


5. शिक्षा : व्यवहार का रूपान्तरण है (Education is Modification of Behaviour)


शिक्षा मानव के मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार को मानवीय व्यवहार में रूपान्तरित करती है। मानव आवेगात्मक व्यवहार न करके विवेकयुक्त व्यवहार करता है। इस प्रकार शिक्षा मनुष्य को नवीन रूप प्रदान करती है। शिक्षा मनुष्य को नवीन आदतों एवं कौशलों को सिखाकर उसका रूपान्तरण करती है। यह वह साधन है जिसके द्वारा बालक अपने जातीय अंनुभवों को प्राप्त करके अपने व्यवहार को परिवर्तित करता है। शिक्षा की विषय-वस्तु, प्रकृति तथा विधियाँ मनुष्य को अच्छा या बुरा बनाती हैं।


6. शिक्षा: मुक्ति है (Education is Emancipation)


शिक्षा अज्ञानता से मुक्ति दिलाती है। यह मनुष्य को स्वार्थपरता से छुटकारा दिलाती है और उसे परोपकारी तथा सामाजिक रूप से जागरूक बनाती है।


7. शिक्षा : उत्पाद है (Education is a Product)


शिक्षा को एक उत्पाद के रूप में देखा जाता है। जो व्यक्ति ज्ञान अर्जित कर लेता है और विभिन्न कौशलों को सीख लेता है तथा अपनी अभिवृत्तियों को विकसित कर लेता है, उसे हम शिक्षित व्यक्ति कहते हैं। ज्ञान, विभिन्न कौशल तथा अभिवृत्तितं सामूहिक जीवन के उत्पाद हैं जिनको प्राप्त करने के लिये अधिक समय व्यतीत करना पड़ता है तथा कठिनाइयाँ उठानी पड़ती है। शिक्षा तभी उत्पाद हो पाती है जब उसका प्रयोग किया जाता है।


8. शिक्षा : प्रभाव है (Education is Influence)


शिक्षा व्यक्ति पर पर्यावरण का प्रभाव है। साथ ही यह परिपक्व व्यक्ति के अपरिपक्व व्यक्तित्व पर पड़ने वाला प्रभाव भी है। इन प्रभावों है फलस्वरूप व्यक्ति उन क्षमताओं का विकास करता है जिनसे वह अपने पर्यावरण पर नियन्त्रण कायम कर सके तथा स्वयं का अपने पर्यावरण से सामंजस्य स्थापित कर सके। शिक्षा पर्यावरण के प्रभाव के रूप में स्वयं के दो अर्थों को स्पष्ट करती है-


(अ) व्यापक अवधारणा (Wider Concept) तथा

(ब) सीमित या संकुचित अवधारणा (Narrower or Limited Concept)


शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषाएँ (MEANING AND DEFINITIONS OF EDUCATION)


शिक्षा' (Education) शब्द एक व्यापक गुणार्थ है। इस कारण इसको सार रूप में परिभाषित करना कठिन है। जीवशास्त्री, धर्मप्रवर्तक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, कूटनीतिज्ञ, शिक्षक, अभिभावक राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री आदि सभी इसको विभिन्न अर्थों में परिभाषित करते हैं। इस कारण शिक्षा बहुअर्थी है। प्रत्येक व्यक्ति जो इस शब्द 'शिक्षा' के विषय में पढ़ता है या सुनता है; वह इसको अपने हित की दृष्टि से विवेचित या परिभाषित करता है।


ये सभी व्यक्ति जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण से इसकी विवेचना करते हैं। उदाहरणार्थ-अभिभावक इसको एक सकारात्मक शक्ति के रूप में देखता है जो उसके बालक को समाज में समृद्धि, प्रतिष्ठा तथा नाम प्रदान करने के योग्य बनाती है। शिक्षक इस शब्द की व्याख्या इस प्रकार करता है-यह बालक को नवीन मानव बनाने में सहायता प्रदान करती है।


साथ ही यह समाज तथा राष्ट्र के लिये उपयोगी बनाती है। छात्र इसको दूसरे रूप में देखता है-शिक्षा ज्ञान, अभिवृत्तियाँ तथा कौशल प्रदान करने वाला साधन है। साथ ही यह डिग्री व प्रमाण-पत्र प्रदान करती है। धर्मप्रवर्तक इस शब्द की व्याख्या करता है- इसके द्वारा भौतिक बर्बरता को समाप्त करके आध्यात्मिक मूल्यों को ग्रहण किया जा सकता है। इस प्रकार सभी व्यक्ति 'शिक्षा' शब्द की विवेचना अपने-अपने दृष्टिकोण से करते हैं।


शिक्षा का अंग्रेजी पर्यायवाची शब्द 'Education' है। 'Education' की उत्पत्ति लैटिन भाषा के निम्न शब्दों से मानी जाती है-


1. Educatus - पढ़ाना (To teach), प्रशिक्षित करना (To train)

2. Educatum (यह शब्द लैटिन के दो मूल शब्दों 'e' तथा 'duco' से मिलकर बना है। - 'e' का अर्थ है- out of और 'duco' का अर्थ है - to lead forth or to extract out (अन्दर से बाहर की ओर ले जाना) 

3. Educare - संवर्द्धन करना (To nourish), पालन-पोषण करना (To bring up) 

4. Educere - बाहर निकालना (To lead out)


शिक्षा के शाब्दिक अर्थ को निम्न रेखाग्राफ द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है-


नियंत्रित करना (To control)

पालन-पोषण करना (To bring up)

विकसित करना (To develop)

संवर्द्धन करना (To nourish)

आगे बढ़ना (To raise)


शिक्षा का शाब्दिक अर्थ


शिक्षित करना (To educate)

सीखना (To learn)

पढ़ाना (To teach)

बाहर निकालना (To lead out)

प्रशिक्षित करना (To train)


I. भारतीय भाषा के संदर्भ में शिक्षा का अर्थ


शिक्षा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों से मानी जाती है। प्रथम, 'शिक्ष' धातु जिसका अर्थ है-सीखना और सिखाना। दूसरी धातु 'शाक्ष' जिसका अर्थ है-अनुशासन में रखना, नियंत्रण में रखना तथा निर्देश देना। शिक्षा का एक समानार्थी शब्द 'विद्या' है, जो संस्कृत के 'विद्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'जानना'। 


शिक्षा के समानार्थी शब्द- शिक्षा के विभिन्न समानार्थी शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-


1. शिक्षण (Teaching) - यह शिक्षक, छात्र तथा विषय-वस्तु के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है । यह शैक्षणिक प्रक्रिया (Educative Process) का संकेत देता है।

2. निर्देश (Instruction)- निर्देश सूचना, ज्ञान या कौशल प्रदान करता है।

3. ट्यूशन (Tuition)- इसमें निर्देश के लिये पारिश्रमिक प्रदान किया जाता है।

4. प्रशिक्षण (Training)- यह व्यावहारिक शिक्षा (Practical Education) है। इसमें कौशल, धैर्य या सुविधा (Facility) को प्राप्त करने के लिये अभ्यास किया जाता है अर्थात् इसमें कार्य करना सीखा (Learning to do) जाता है।

5. अनुशासन (Discipline)- इसमें प्रभावी कार्य या सत्य आचरण के लिये क्रमबद्ध प्रशिक्षण प्राप्त किया जाता है।

6. सिद्धान्त बोधन (Indoctrination)- इसमें सिखाने या पढ़ाने पर बल दिया जाता है। इसमें किसी सिद्धान्त या विचारधारा या मत का बोध कराया जाता है।

7. पालन-पोषण (Breeding)- इसमें जीवन के शिष्टाचारों के प्रशिक्षण पर बल दिया जाता है।

8. संस्कृति (Culture)- इसमें शिक्षा द्वारा प्रेरित विचार तथा अनुभव करने की शैली के विकास पर बल दिया जाता है। इस प्रकार इसमें प्रक्रिया तथा अर्जन पर बल दिया जाता है।


II. शिक्षा का अर्थ चार 'H' के विकास के सन्दर्भ में


(i) मस्तिष्क का विकास (Development of Head)

(ii) हृदय का विकास (Development of Heart)

(iii) हाथ का विकास (Development of Hand)- यह व्यावसायिक क्षमता के विकास में सम्बन्धित है।

(iv) स्वास्थ्य (Health)- शिक्षा स्वस्थ जीवन तथा शैली के विकास से सम्बन्धित है।


III. शिक्षा का अर्थ 7R के विकास के सन्दर्भ में


1. पढ़ना (Reading)

2. लिखना (Writing)

3. गिनना (Arithmetic)

4. अधिकारों का ज्ञान (Rights)

5. उत्तरदायित्वों का ज्ञान (Responsibilities)

6. मनोरंजन (Recreation)

7. अधिकारों तथा उत्तरदायित्वों के सम्बन्धों का ज्ञान (Relationships between Rights and Responsibilities) |


जी. आर. हाव्स तथा एल. एस. हाव्स (G. R. Hawes and L. S. Hawes) ने शिक्षा-कोश में शिक्षा के अर्थ को इन रूपों में व्यक्त किया है-


(i) शिक्षा वह औपचारिक या अनौपचारिक प्रक्रिया है जो मानव-प्राणियों की भावनाओं के विकास में सहायता करती है।


(ii) शिक्षा वह विकास प्रक्रिया है जो विद्यालय या अन्य संस्था द्वारा प्रदान कराई जाती है। यह संस्था निर्देश तथा अधिगम या सीखने के लिये मुख्यतः संगठित की जाती है।


(iii) शिक्षा वह सम्पूर्ण विकास है जो व्यक्ति द्वारा निर्देश तथा अधिगम के माध्यम से अर्जित किया जाता है।


कार्टर वी. गुड (Carter V. Good) ने शिक्षा-कोश में इसके निम्न अर्थों पर बल दिया है-


(i) शिक्षा उन सभी प्रक्रियाओं का समूह है जिनके माध्यम से व्यक्ति उस समाज में, जिसमें वह निवास करता है, सकारात्मक ढंग के व्यवहारों, योग्यताओं तथा अभिवृत्तियों को विकसित करता है। 


(ii) शिक्षा वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति चयनित तथा नियन्त्रित पर्यावरण के अधीन रहते हैं और सामाजिक क्षमता तथा अधिकतम वैयक्तिक विकास को प्राप्त करते हैं।


(iii) शिक्षा वह कला है जिसके द्वारा प्रत्येक सन्तति अतीत के संगठित ज्ञान को प्राप्त करती है।



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