शिक्षा की प्रक्रिया ( Process of Education )

शिक्षा की प्रक्रिया ( Process of Education )

शिक्षा रूपी प्रक्रिया के साथ विभिन्न शिक्षाविदों ने विभिन्न विशेषण प्रयुक्त किये हैं। उनमें से प्रमुख प्रक्रियाओं का विवेचन नीचे प्रस्तुत किया गया है-


शिक्षा : द्विमुखी प्रक्रिया (Education : Bipolar Process)


एडम्स ने शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया बताया है। एडम्स के अनुसार शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को ज्ञान प्रदान करके उसके व्यवहार को विकसित और परिवर्तित करता है।


द्विमुखी प्रक्रिया में दो व्यक्ति होते हैं। एक ध्रुव पर शिक्षक होता है और दूसरे पर शिष्य। दोनों के कार्यों का समान महत्त्व होता है। एक बोलता है, दूसरा सुनता है। एक पढ़ाता है, दूसरा पढ़ता है। एक पथ-प्रदर्शन करता है. दूसरा अनुगमन करता है। उनके कार्यों का एक-दूसरे से सम्बन्ध होता है। सहयोग के बिना वे अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। उनके व्यक्तित्व एक-दूसरे पर क्रिया और प्रतिक्रिया करते हैं। इसका परिणाम होता है- 

शिक्षा की प्रक्रिया ( Process of Education )

इस प्रक्रिया को चलाने के लिए शिक्षक और शिष्य को एक-दूसरे का ज्ञान स्पष्ट होना चाहिए। शिक्षक को शिष्य के स्तर पर और शिष्य को शिक्षक के स्तर पर पहुँचना आवश्यक है। ऐसा किये बिना शिक्षा देने और शिक्षा लेने का कार्य नहीं चल सकता है। इस प्रकार, शिक्षा एक चेतन और विचारपूर्ण प्रक्रिया (Conscious and Deliberate Process) है। इस प्रक्रिया में 'कर्त्ता और कर्म का सम्बन्ध' (Subject-Object Relationship) होता है।


शिक्षा : त्रिमुखी प्रक्रिया (Education: Tri-polar Process)


सर. जे. ई. एडमसन (J. E. Adamson) जॉन एडम्स को द्विमुखी प्रक्रिया से सन्तुष्ट नहीं थे। उन्होंने इसके विपरीत शिक्षा के त्रिमुखी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार शिक्षा का सार व्यवस्थापनों (Adjustments) में निहित है। उनका कहना है कि शिक्षा व्यक्ति तथा उसके विश्व में सम्बन्ध कायम करती है। व्यक्ति का विश्व या जगत् तीन प्रकार का है-प्रकृति (Nature), समाज (Society) तथा नैतिकता (Morality)।


ये तीनों जगत् मानवीय अनुभव की तीन क्रियाओं - ज्ञानात्मक (Knowing), भावात्मक (Feeling) तथा क्रियात्मक (Willing) के अनुरूप हैं। उनका मानना है कि समाज तथा नैतिकता के जगत् कुछ सीमा तक परस्पर आच्छादित हैं। बालक को पर्यावरण द्वारा परिवर्तित किया जाता है, परन्तु वह भी अपने वातावरण को परिवर्तित करने के योग्य होता है।


एडमसन शिष्य या बालक तथा उसके पर्यावरण में प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करता है, जबकि एडम्स अपनी द्विमुखी प्रक्रिया में शिक्षक तथा शिष्य के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करता है। एडमसन शिक्षक या गुरु को एक बाहरी कारक स्वीकार करता है। उनके अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया व्यक्ति तथा उसके जगत् के बीच चलती है जिसमें शिक्षक इसके बाहर रहता है।


शिक्षक शिक्षा की प्रक्रिया के बाहर रहकर वह एक प्रेक्षक या दर्शक, स्वार्थसाधक तथा बाधा उत्पन्न करने वाला होता है। वह इस प्रक्रिया में कभी नहीं रहता है। एडमसन के अनुसार शिक्षक तथा छात्रा में द्विमुखी सम्बन्ध नहीं होता वरन् छात्र तथा उसके पर्यावरण "जगत्" के बीच होता है। उसने यह व्याख्या अपनी पुस्तक 'Evolution of Education Theory' के पृष्ठ 39 पर दी है।


जॉन ड्यूवी (John Dewey) शिक्षा को द्विमुखी प्रक्रिया न मानकर त्रिमुखी प्रक्रिया मानता है। उसका कथन है कि शिक्षा में शिक्षक व शिष्य के अतिरिक्त एक तीसरा तत्व भी है। यह तत्व' सामाजिक शक्तियाँ' (Social Forces) है। शिक्षा में इन तीनों तत्वों की पारस्परिक क्रिया निहित है। सामाजिक शक्तियाँ समाज या सामाजिक पर्यावरण के माध्यम से शिक्षक तथा शिष्य को विषय-सामग्री देती हैं। इसी विषय-सामग्री को हम विस्तृत अर्थ में 'शिक्षा-क्रम' कहते हैं।


जॉन ड्यूवी के अनुसार, "शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका पर्यावरण को उपलब्ध कराने वाले की है जो शिष्य के कार्य को संचालित तथा उसकी प्रतिक्रियाओं को प्रोत्साहित करती है।"


शिक्षा : बहुमुखी प्रक्रिया (Education: Multipolar Process)


आधुनिक युग में शिक्षा की अवधारणा को बड़े ही व्यापक रूप में अनुभूत किया गया है। आज शिक्षा को प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं तथा सुविधा के अनुसार, मनुष्य की समस्त आयुओं केअनुकूल बनाने पर बल दिया जा रहा है। इसलिए उसे समस्त शिक्षा के वास्तविक प्रयोजन- वैयक्तिक अधिगम, स्व-अध्यापन तथा स्व-प्रशिक्षण को ध्यान में रखते हुए, आरम्भ से और एक प्रावस्था से दूसरी प्रावस्था तक अभिविन्यस्त किया जा रहा है।


शिक्षा को शाला भवन की दीवारों में सीमित नहीं किया जा रहा है। सभी प्रकार की विद्यमान संस्थाओं, चाहे वे अध्ययन के लिए अभिकल्पित हों या नहीं और सामाजिक तथा आर्थिक क्रियाकलाप के सभी रूपों का शैक्षिक प्रयोजन के प्रयुक्त करने पर बल दिया जा रहा है। इस दृष्टि से आज शिक्षा स्वयं एक विश्व भी है और विशाल विश्व का एक प्रतिविम्व भी है।


शिक्षा की उपर्युक्त अवधारणा ने विद्यालय तथा शिक्षक के एकाधिकार को समाप्त करने पर बल दिया है। इसने विद्यालय के अतिरिक्त अन्य अनौपचारिक (Informal) तथा निरौपचारिक या अनौपचारिकेतर (Non-formal) साधनों को शिक्षा प्रदान करने के लिए स्वीकार किया है। आधुनिक समाज में शिक्षा को बहुविध साधनों के माध्यम से प्रदान तथा प्राप्त करने पर बल दिया जा रहा है।


शिक्षार्थी को साधनों तथा प्रणालियों के बारे में चयन की स्वतन्त्रता प्रदान की जा रही है। इनमें पूर्णकालिक शिक्षा, अंशकालिक शिक्षा, पत्राचार द्वारा शिक्षा एवं सूचना के स्रोतों का प्रत्यक्ष उपयोग करने वाले स्वशिक्षा के अनेक रूप भी शामिल हैं।


दूसरे शब्दों में, शिक्षा की बन्द तथा मुक्त पद्धतियों पर बल दिया जा रहा है। इनके अतिरिक्त विभिन्न शैक्षणिक क्रियाकलापों का भी प्रयोग किया जा रहा है। 'वैकल्पिक' शालाओं, बहुइकाई शालाओं तथा व्यक्तिगत रूप से निर्धारित शिक्षण का प्रयोग हो रहा है, जिनमें संरचनाओं तथा कार्यक्रमों में पर्याप्त लचीलापन है। स्व-अधिगम केन्द्र, कार्य-अध्ययन योजनायें तथा मुक्त विश्वविद्यालय जैसी भी शैक्षिक सुविधायें प्रदान की जा रही हैं।


आज की शैक्षणिक प्रक्रिया में लोगों को स्वयं को पढ़ाने में सहायता पहुँचाने के लिए नई प्रकार की संस्थाओं और सेवाओं- भाषा प्रयोगशालाओं, तकनीकी प्रशिक्षण प्रयोगशालाओं, सूचना केन्द्र, पुस्तकालय तथा सम्बद्ध सेवाओं, आधार सामग्री बैंक, कार्यक्रमबद्ध तथा वैयक्तिक अध्यापन साधन, श्रव्य-दृश्य आदि के प्रयोग पर बल दिया जा रहा है। इस दृष्टि से शिक्षा को एक बहुमुखी प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है।


शिक्षा : सामाजिक प्रक्रिया (Education : Social Process)


शिक्षा- सामाजिक कार्य है। इसका अर्थ है कि शिक्षा की प्रक्रिया सामाजिक है। दूसरे शब्दों में. हम कह सकते हैं कि व्यक्ति को सामाजिक वातावरण में ही अत्यधिक लाभप्रद ढंग से शिक्षा दी जाती है। किसी व्यक्ति में अभिवृत्तियों तथा रुझानों का विकास समाज के जीवन की निरन्तरता द्वारा ही सम्भव है। इनका विकास प्रत्यक्षतः विश्वासों, संवेगों तथा ज्ञान के माध्यम से सम्भव नहीं है। इनका विकास पर्यावरण के माध्यम से सम्भव है। पर्यावरण में वे समस्त दशाएँ निहित होती हैं जो कि जीवित प्राणी की क्रियाओं से सम्बन्धित होती हैं। अत: जब व्यक्ति इन स्थितियों में भाग लेता है तब उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है।


जॉन ड्यूवी के शब्दों में, "सभी शिक्षा का प्रारम्भ उस समय होता है जब व्यक्ति प्रजाति की सामाजिक चेतना में भाग लेता है।"

"All education proceeds by the participation of the individual in the social consciousness of the race." -John Dewey


सामाजिक पर्यावरण में व्यक्ति क्रिया एवं प्रतिक्रिया करके शिक्षा प्राप्त करता है। जॉन ड्यूवी का कथन है-"सामाजिक पर्यावरण में उसके प्रत्येक सदस्य की सभी क्रियाएँ आ जाती हैं। इसका प्रभाव उतनी ही मात्रा में वास्तविक रूप में शिक्षाप्रद होता है, जितनी मात्रा में एक व्यक्ति समाज की सहयोगी क्रियाओं में भाग लेता है।"


इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक वातावरण ही व्यक्ति को वास्तव में शिक्षित करता है। ऐसा प्राचीन समाज में भी था और आज भी है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं, "समस्त शिक्षा का, जो पारिवारिक शिक्षा से प्रारम्भ होती है, कार्य बालकों तथा किशोरों का समाजीकरण है। यह कार्य सामाजिक वातावरण के माध्यम से किया जाता है।


इस वातावरण का चयनित एवं नियन्त्रित भाग (विद्यालय) नागरिक प्रशिक्षण तथा वैचारिक प्रशिक्षण के कर्तव्यों का निर्वाह करता है और निर्वाह करता रहेगा। यद्यपि आज का सामाजिक वातावरण बहुत जटिल हो गया है, फिर भी इस विचारधारा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ कि शिक्षा एक सामाजिक कार्य है। बच्चे अब भी परिवार तथा आस-पड़ोस, साथी समूहों आदि से अपना समाजीकरण करते हैं।


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