ग्लोबल वार्मिंग ( Global Warming )
पर्यावरणीय मुद्दों (खतरों) के कारण प्रकृति असंतुलित रहती है। प्रत्येक वर्ष लगभग तीन बार अपना ही सौ वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ रही है। सर्दियों में तापमान अत्यन्त कम हो रहा है। बर्फवारी प्रत्येक वर्ष नये-नये स्थानों पर होती है और सर्दी के लिए नए रिकॉर्ड बनाती है।
सर्दी का सामना हमारे लिए चुनौती बन जाती है। सर्दियों में ग्लोबल कूलिंग का एक नया प्रश्न चर्चा में आता है और लोग यह सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग है या ग्लोबल कूलिंग। वहीं गर्मियों में हम असाधारण गर्मी का सामना करते हैं।
यह सत्य है कि ग्लोबल वार्मिंग और दूषित वातावरण से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। हमारी पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति भी बदल रही है। हिमालय और दूसरे बर्फ के पहाड़ों के बड़े भाग जो सामान्यतः बर्फ से ढँके रहते थे वे अब सामान्य पहाड़ हैं। बहुत-सी नदियाँ गायब हो चुकी हैं और गर्मियों में अधिकतर नदियों का पानी बहुत कम हो जाता है। गर्मी में हम प्रतीक्षा करते हैं बारिश की। बारिश में पहले हम सूखे का सामना करते हैं।
इस तरह हम प्रत्येक वर्षा के नये रिकॉर्ड के साथ प्रकृति की पराकाष्ठा देखते हैं और विनाशलीला देखते हैं। इससे यह पता चलता है कि प्रकृति असंतुलित हो चुकी है और प्रकृति का यह असामान्य असंतुलित बर्ताव हमारे अस्तित्व के लिए गम्भीर खतरा है। भूकम्प, ज्वालामुखी और सुनामी प्रकृति के दूसरे विनाशकारी चेहरे हैं लेकिन यह सोचना है कि कौन हमारी दुनिया असंतुलित बना रहा है। हमारी प्रकृति हमसे रूठ क्यों गई है। कौन जिम्मेदार है इस प्रकृति के बदलाव के लिए ?
आज की दुनिया में हम भाग रहे हैं लेकिन हमें पता नहीं है कि हमारा लक्ष्य क्या है ? अब हमें देखना है कि हम प्रकृति के विरुद्ध काम करते हैं। हम औद्योगीकरण एवं आधुनिकीकरण के नाम पर पेड़ तथा जंगलों को काट रहे हैं। हम बिना किसी चिता के वातावरण को दूषित करते हैं। प्रकृति शोर नहीं करती है। ग्लोबल वार्मिंग पर बहुत-सी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी करते हैं।
आज़ की दुनिया में शुद्धता की बात करना कठिन है। सब कुछ बनावटी है। हम प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं, वातावरण को दूषित कर रहे हैं। हम स्वयं अपने साथ धोखा कर रहे हैं। यह सत्य है कि संसार अशांत है, प्रकृति असंतुलित है। हम सर्दी, गर्मी, सूखा एवं बाढ़ में चिल्लाते रहते हैं और इन विनाशकारी परिस्थितियों में अपने आपको असहाय पाते हैं, हमें भविष्य के लिए सोचना होगा। यदि प्रकृति हमारा विनाश करती है तो कोई भी विज्ञान या तकनीक इसको बचा नहीं पाएगी।
विश्वतापन बढ़ते हरित गृह प्रभाव (Green House Effect) का परिणाम है, जिसमें पृथ्वी के तापक्रम में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इस बढ़ते तापमान का असर विश्व भर के मौसम तंत्र पर पड़ना अवश्यम्भावी है, जिससे कई समस्याओं की उत्पत्ति सम्भव है। विश्व के अनेक क्षेत्रों में पानी (वर्षा) अधिक होगा तो कहीं-कहीं क्षेत्र सूखे (कम वर्षा वाले अथवा रेगिस्तानी) हो जायेंगे।
इसके परिणामस्वरूप खाद्यान्न उपज गड़बड़ा जायेगी और भोजन की कमी की आशंका बन सकती है। इस बात की भी सम्भावना है कि ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगे जिससे समुद्री जल सतह की ऊँचाई में वृद्धि हो और अनेक निचले भू-भाग जलमग्न हो जायें। यह अनुमान है कि वर्तमान तापमान की वृद्धि गति से अगले 100 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 3°C तक बढ़ जायेगा और फलस्वरूप 10 से 15 सेमी तक की जल सतह की वृद्धि से विश्व की स्थिति बहुत अस्त-व्यस्त हो जायेगी।
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अनेक देशों के महत्त्वपूर्ण नम भूमि क्षेत्र, कच्छ वनस्पति और प्रवाल भित्ति क्षेत्र समाप्त हो जायेंगे, जिससे सम्पूर्ण विश्व की जैविक विविधता और उससे प्राप्त होने वाले आर्थिक लाभ से वंचित होना पड़ेगा। निचले पारितंत्र नष्ट हो जायेंगे, नवीन पारितंत्र जन्म लेंगे और प्राणियों की जीवन शैली पर भी शनैः शनैः प्रभाव पड़ेगा।
ग्लोबल वार्मिंग / विश्वतापन (GLOBAL WARMING)
वायु में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा अधिक होने से पृथ्वी की सतह का वातावरण का तापक्रम निरन्तर बढ़ रहा है जिसे ग्लोबल वार्मिंग (Global warming) कहते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव तथा विस्तार
1. पूर्व शताब्दी में समुद्री जल स्तर 15 cm से 20 cm बढ़ा है। इसके साथ दो सेन्टीमीटर वृद्धि समुद्री जल प्रसार से हुई है।
2. लगभग सारे संसार में 90 का दशक सबसे गर्म दशक रहा है।
3. पहले मौसमी परिवर्तन प्राकृतिक होते थे। यद्यपि पौधे की श्वसन क्रिया और उनके सड़ने-गलने से वायुमण्डल में मानवीय क्रिया-कलापों से दस गुना अधिक होते हुए भी औद्योगिक क्रान्ति की पूर्वस्थिति सन्तुलित थी।
4. विश्व मौसम संगठन के अनुसार भूतल के औसत तापमान में पिछली शताब्दी के दौरान 0.45°C से 0.60°C तक वृद्धि हुई है।
ग्लोबल वार्मिंग का कारण
1. औद्योगिक क्रान्ति के बाद सब कुछ बदल गया-खेती, जीवन शैली आदि। औद्योगिक क्रान्ति से पहले मानवीय क्रियाओं से वायुमण्डल कम प्रदूषित होता था। औद्योगीकरण के इन कारणवश हम अपने जलवायु और वातावरण को बदलते रहते हैं।
2. पूरे विश्व में व्यावसायिक रूप में होने वाले उपयोग के 100 गुना सेभी. अधिक होता है। ग्रीनहाउस गैसे तो- पहले ही विश्व में ऊर्जा सन्तुलन बिगाड़ चुकी है।
3. औद्योगीकरण के बाद ही पृथ्वी के वायुमण्डल की ताप अवशोषण क्षमता बढ़ी है। वायुमण् डल में CO₂ 3.00%, मीथेन 1.00%, N₂O 1.5% बढ़ी है।
4. ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन मुख्यतया जलाए गए कोयले, तेल और प्राकृतिक गैस से होता
ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव
जंगल और रेगिस्तानों पर एक नया संकट छा गया है जिससे गर्मी और पानी के कारण होने वाले रोगों से वृद्धि हुई है। तटीय क्षेत्रों का क्षय हो रहा है। वर्षा के तरीके में आये बदलाव से जल स्रोतों पर प्रभाव पड़ रहा है आर्थिक गतिविधियों पर निम्न प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है-
1. बढ़ती गर्मी और मानसून की अनिश्चितता से कटिबंधीय क्षेत्रों में पैदावार में कमी की जा सकती है।
2. जलवायु तन्त्र में परिवर्तन होने में समय लगता है ग्रीन हाउस गैस वायु मण्डल में दशकों शताब्दियों तक बनी रहती है।
3. संसार की जनसंख्या 7 अरब के लगभग है। इसमें 2 अरब जनसंख्या समुद्र तट से 100 km के दायरे में रहती है। करोड़ों लोग पहाड़ी क्षेत्रों और अर्द्ध मरुस्थलीय क्षेत्र में रहते हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा न होने से प्रायः फसल प्रभावित होती है। उस पर तूफान तथा बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
वैश्विक प्रयास
1. क्योटो समझौते में विश्व के 55% ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार 55 देशों से औपचारिक स्वीकृति देने को कहा गया तथा अमेरिका ने यह स्वीकार कर लिया है कि इससे उसकी अर्थव्यवस्था प्रभावित होगी।
2. वर्ष 1997 में U. S. A आमसभा का सत्र बुलाया गया और रियो-डीजेनरो के बाद की स्थिति को समीक्षा की गई।
हरित गृह का प्रभाव (GREENHOUSE EFFECTS)
ठण्डे प्रदेशों में जहाँ जाड़े के मौसम में जरूरत के अनुसार पेड़-पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिये पर्याप्त मात्रा में सूर्य का प्रकाश नहीं मिल पाता, वैसी जगहों में इस कठिनाई से निपटने के लिये पेड़-पौधों को काँच से निर्मित एक घर यानि गृह में उगाया जाता है।
इस गृह की मुख्य विशेषता ये होती है कि ये अपने अंदर प्रवेश किये हुए सौर विकिरणों में से सूक्ष्म तरंगदैर्ध्य (Micro wavelength) को विकिरणों (Radiations) को छत और दीवारों को पार करके बाहर निकल जाने देती है किन्तु दीर्घ तरंगदैर्ध्य (Long wavelength) की अवरक्त किरणों (Infrared ras) को बाहर नहीं जाने देती है। ये किरणें छत एवं दीवारों से टकराकर परावर्तित (Reflect) होती रहती हैं फलस्वरूप हरित गृह का तापमान बढ़ जाता है।
अतः काँच घर के अंदर पलने वाले पेड़-पौधों की वृद्धि में कोई बाधा नहीं पहुँचती क्योंकि पेड़-पौधों को अपनी वृद्धि और विकास के लिये आवश्यक ऊष्मा यानि ताप ऊर्जा की प्राप्ति होती रहती है। इस प्रकार से कहा जा सकता है कि, "किसी उद्यान या पार्क में काँच से निर्मित उस घर को जिसके चारों तरफ दीवार एवं ऊपर छत होती है। उसमें उन पौधों को उगाया जाता है जिन्हें अधिक गर्मी यानि ताप की जरूरत है जो सौर विकिरणों से आने वाली दीर्घ तरंगदैघ्यं वाली किरणों को अपने अंदर आने तो देती है किन्तु बाहर नहीं जाने देती है, हरित गृह-ग्रीन हाऊस कहते हैं।
काँच के गृह के अंदर उत्पन्न इस ताप को हरित गृह प्रभाव कहा जाता है। हमारी धरती पर वायुमण्डल में उपस्थित CO₂ गैस एक कम्बल की भाँति कार्य करती है जो हरित गृह की छत और दीवारों की तरह पृथ्वी की सतह से परावर्तित (Reflected) दीर्घ तरंगदैर्ध्य (Long wavelength) की अवरक्त किरणों (Infrared rays) को वायुमण्डल में ही रोक देती है। जिससे धरती का तापमान बढ़ जाता है। जिसे विश्वतापन (Global warming) के नाम से जाना जाता है। हरितगृह प्रभाव के लिये हरित गृह गैसें जिम्मेदार हैं।
विश्वतापन / CO₂ समस्या / हरित गृह प्रभाव (Global Warming / CO₂ Problem / Green House Effect)
अगर हम सन्तुलित पर्यावरण की बात करते हैं, जहाँ प्रत्येक गैस एक निश्चित अनुपात में उपस्थित रहती है यानि CO₂ और O₂ की मात्रा के साथ अन्य गैसों; जैसे-मेथेन, ओजोन इत्यादि में मात्रा सामान्य रहती है तब पर्यावरण का तापमान सामान्य रहता है किन्तु वातावरण में CO2 की सान्द्रता में वृद्धि होने से वातावरण का तापमान वैसे बढ़ जाता है जिनसे हरित गृह (Green House) के तापमान में वृद्धि हो जाती है।
हरित गृह की दीवारें एवं छत काँच की बनी होती है जिससे सूर्य से आने वाली विकिरण (Radiation) अंदर तो आती है, लेकिन यहाँ से पुनः वापस नहीं जा पाती परिणमस्वरूप इस गृह का तापमान बढ़ जाता है। डी. बी. बोटकिन एवं ई. ए. केलर (D. B. Botkin and E. A. Keller, 1982) के अनुसार, दृश्य प्रकाश (Visible light) काँच की छत और दीवार को पार करके अंदर उपस्थित मृदा एवं पौधों को गर्म कर देती है।
गर्म मृदा द्वारा पुनः अवरक्त किरणों (Infrared rays) जैसी लम्बी तरंगदैर्ध्य वाली विकिरणें उत्सर्जित की जाती हैं, लेकिन काँच अवरक्त जैसी लम्बी तरंगदैर्ध्य वाली विकिरणों के लिये अपारदर्शी (Opaque) होता है अतः यह कुछ विकिरणों को अवशोषित कर लेता है और कुछ को परावर्तित कर देता है। फलतः हरित गृह का तापमान बाह्य वातावरण की अपेक्षा बढ़ जाता है।
इसी प्रकार से वातावरण में उपस्थित CO₂ काँच की दीवार एवं छत की तरह काम करती है, ये सौर विकिरणों को पृथ्वी तक आने तो देती है किन्तु पृथ्वी द्वारा उत्सर्जित ऊष्मा एवं विकिरणों को वापस नहीं जाने देती जिसके कारण वायुमण्डलीय तापमान बढ़ता जा रहा है। इसे हरित गृह प्रभाव (Green House Effect) कहते हैं जो विश्वतापन (Global Warming) का मुख्य कारण है।
अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि कार्बन डाईऑक्साइड की अधिक सान्द्रता एवं अन्य हरित गृह गैसों की उपस्थिति की वजह से वातावरण में एक ऐसा स्तर बन जाता है। गैसें जो लघु एवं दीर्घ तरंगदैर्ध्य वाली सौर विकिरणों को वातावरण में प्रवेश तो करने देती हैं किन्तु अधिक तरंगदैर्ध्य वाली ऊष्मीय विकिरणों (Heat Radiations) को पृथ्वी से बाहर नहीं जाने देती हैं जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है, जिसे हरित गृह प्रभाव (Greenhouse Effect) के नाम से -जाना जाता है।
हरित गृह प्रभाव शब्द का उपयोग जे. फूरियर (J. Fourier) ने सबसे पहले 1827 में किया था जिसे वायुमण्डलीय प्रभाव (Atmospheric Effect), ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) अथवा CO₂ समस्या (CO₂ Problem) के नाम से भी जाना जाता है।
आहीं नियस ने बताया था कि CO₂ गैस की वजह से ही वातावरण गर्म रहता है। इस गैस की विशेषता के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि यह गैस वायुमण्डल की निचली सतह और धरती को गर्म रखती है परन्तु ऊपरी वायुमण्डल की सतह को ठण्डा रखती है।
वैज्ञानिकों के अनुसार हरित गृह प्रभाव के कारण पृथ्वी के तापमान में 0.8°C से 2.5°C की वृद्धि हुई है तथा अगली सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में 3°C से 5°C तक बढ़ोत्तरी की सम्भावना व्यक्त की गई है। हरित गृह प्रभाव के बाद आइये अब हम हरित गृह गैसों के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
हरित गृह गैसें (Greenhouse Gases)
गैसें जो हरित गृह प्रभाव के लिये उत्तरदायी हैं, हरित गृह गैसें कहलाती हैं। कुछ मुख्य हरित गृह गैसें निम्नलिखित हैं। आइये उनके बारे में उनकी सान्द्रता, जीवनकाल और उनके जीवन-काल के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करें-
इस सर्दी के अंत तक में वायुमण्डल में CO₂ में 25% मात्रा में वृद्धि, मीथेन में 10%, N₂O में 8% आँकी गई है। उत्तरी गोलार्द्ध में ओजोन की वृद्धि दर 1% पाई गई है।
उपर्युक्त परिवर्तन जो कि हरित गृह प्रभाव के कारण घटित होता है उनके कुछ मुख्य दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं-
1. विश्वव्यापी सतह तापमान में वृद्धि (Increase in Global Surface Temperature)
हरित गृह गैसों की वृद्धि से वायुमण्डल की सतह पर अविभेदकीय (Impenetrable) गैसों का स्तर बढ़ जायेगा जिससे पृथ्वी के तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जायेगी और पृथ्वी एक वात्याभट्ठी (Blast Furnace) में परिवर्तित हो जायेगी। तापमान की इस वृद्धि की वजह से पृथ्वी पर उपस्थित सभी जीवधारियों और वनस्पतियों के साथ-साथ हम मनुष्य भी प्रभावित होंगे फलतः सम्पूर्ण पारिस्थितिक तन्त्र नष्ट हो जायेगा यानि हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। नासा के अनुसार 2005 के समान 2010 में विश्वव्यापी सतही तापमान सबसे अधिक दर्ज किये गये।
2. ध्रुवों पर बर्फ का पिघलना (Ice Melting in Polars)
पृथ्वी के तापमान में लगातार वृद्धि के कारण ध्रुवीय (Polar) क्षेत्रों में बर्फ के पिघलने का खतरा बढ़ गया है। ग्रीनलैण्ड उत्तरी ध्रुव, अन्टार्कटिका एवं पहाड़ी हिमनदों पर वर्षों से जमी बर्फ के पिघलने से समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी जिससे समुद्री किनारों पर बसे देश; जैसे-ग्रीनलैण्ड, स्वीडन, नार्वे, अलास्का, फिनलैण्ड एवं साइबेरिया इत्यादि के समुद्र में डूब जाने की सम्भावना उत्पन्न हो जायेगी।
1979 से लेकर 2000 तक उपग्रह के रिकॉर्डों के अनुसार ये पाया गया कि औसत दर के हिसाब से उत्तर ध्रुवीय बर्फ में 11.5 प्रतिशत की दर से कमी आ रही है। प्रत्येक वर्ष सितम्बर माह में बर्फ अपने न्यूनतम स्तर पर चली जाती है। रिकॉर्ड के अनुसार 2010 के सितम्बर माह में बर्फ का स्तर सबसे कम था। नासा के ग्रेस उपग्रह से प्राप्त आँकड़ों से पता चला है कि अंटार्कटिका और ग्रीनलैण्ड दोनों जगह पर स्थलीय हिम की परत पिघल रही है। अंटार्कटिका महाद्वीप की बर्फ में 2002 से प्रतिवर्ष 100 घन किलोमीटर (करीब 24 घन मीटर) की कमी आ रही है जो कि नदी के लिये भी नुकसानदायक है। बर्फ पिघलने से नदी का अस्तित्व मिट जायेगा।
3. समुद्र के स्तर में वृद्धि (Sea Level Rise)
विश्वतापन की वजह से समुद्र का पानी गर्म होता है और विस्तृत पैमाने पर ध्रुवीय प्रदेश और स्थलीय क्षेत्रों में हिम की परत पिघलती है जिससे सामुद्रिक जलस्तर में वृद्धि हो जाती है। यू.एन.आई.पी.सी.सी. (U.N.I.P.C.C) के विशेषज्ञों के अनुसार अगली सदी तक पृथ्वी के तापमान में 4°C वृद्धि होने की सम्भावना है जिसके कारण दक्षिण-पूर्व एशिया एवं ब्राजील के निचले क्षेत्रों वाले तटवर्ती क्षेत्र समुद्र में डूब जायेंगे।
यही नहीं बल्कि एक अनुमान यह भी लगाया जा रहा है कि अगर पृथ्वी पर उपस्थित समस्त बर्फ पिघल जाती है तो सभी समुद्रों एवं महासागरों के जलस्तर में 200 फुट की वृद्धि हो जायेगी जिससे बैंकॉक एवं वेनाइस जैसे शहर पूरी तरह से जलमग्न हो जायेंगे। समुद्री जलस्तर में 50 से 100 cm की बढ़ोत्तरी होने पर बांग्लादेश एवं पश्चिम बंगाल डूब जायेंगे। UNEP के अनुसार अगले 25 या इसके कुछ अधिक वर्षों में समुद्री जल स्तर में 1.5-3.5 मीटर की वृद्धि हो सकती है, जिससे कोलकाता एवं ढाका निचले क्षेत्रों के शहर समुद्र में डूब जायेंगे।
4. मानसून के दौरान बाढ़ में वृद्धि (More Flooding during Monsoon)-CO2 की संद्रताकी अधिकता और महासागरों के जल के तापमान में वृद्धि होने से चक्रवात (Cyclones) एवं कानी अंधड़ों (Hurricanes) के आने की गति तेज हो जाती है। परिणामस्वरूप तेज गति की वर्षा के साथ-साथ बाढ़ की सम्भावना भी बढ़ जाती है।
वर्तमान में वैश्विक ऊष्मन की स्थिति (SITUATION OF GLOBAL WARMING IN PRESENT)
9 जुलाई, 2020 के एक रिपोर्ट के अनुसार संयुक्त राष्ट्र की मौसम विज्ञान एजेंसी ने बताया कि आने वाले पाँच वर्षों में औसत वैश्विक तापमान पहली बार पूर्व-औद्योगिक औसत स्तर से 1-5 डिग्री सेल्सियस (2-7 फॉरनाहाइट) अधिक हो सकता है उल्लेखनीय है। कि 1-5 डिग्री सेल्सियस वह स्तर है जिस पर विभिन्न देशों में 'ग्लोबल वार्मिंग' को सीमित करने की कोशिश करने के लिए सहमति जतायी है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि दुनियाभर में औसत तापमान 1850-1900 की अवधि की तुलना में पहले ही कम से कम एक डिग्री सेल्सियस अधिक है इसका कारण मानव निर्मित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WHO) ने कहा है कि 20 प्रतिशत संभावना है कि 2020 से 2024 के मध्य कम-से-कम एक वर्ष में 1-5 डिग्री सेल्सियस स्तर तक पहुँच जाएग।
इस अवधि में वार्षिक औसतन तापमान पूर्व औद्योगिक औसत से 0.91 से 1.59 डिग्री सेल्सियस अधिक रहने का अनुमान है। यह पूर्वानुमान ब्रिट्रेन के मौसम विज्ञान कार्यालय की पहल पर तैयार किए गए वार्षिक जलवायु पूर्वानुमान में शामिल है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WHO) के प्रमुख पेट्री तालस ने कहा कि अध्ययन से पता चलता है कि 2015 के पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पूरा करने में देशों के समक्ष भारी चुनौती है।
समझौते में ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य रखा गया है। जो आदर्श रूप से 1-5 डिग्री से अधिक नहीं है। एजेंसी को कहा कि पूर्वानुमान के लिए उपयोग किए जाने वाले तौर-तरीकों में कोरोना वायरस महामारी के कारण पड़ने वाले प्रभावों पर विचार नहीं किया गया है।
इस महामारी के कारण कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों के उत्सर्जन में कमी आ सकती है। उन्होंने कहा कोविड-19 के कारण औद्योगिक और आर्थिक मंदी सतत् और समन्वित जलवायु के लिए विकल्प नहीं है।