सामाजिक अध्ययन की शिक्षण विधियाँ - Teaching Methods of Social Studies

सामाजिक विज्ञान शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली शिक्षण विधियाँ

"सिखाना एक कला है और पद्धतियाँ इस कला के औजार हैं। जिनके पास औजारों के उपयोग का ठीक ज्ञान होता है वह शिक्षक धीरे-धीरे ही क्यों न हो सिखाने की कला में कुशल हो जाता है. किन्तु जिसने कोई तैयारी ही नहीं की है वह कैसे सिखा सकता है।" - गिजु भाई


विधि वह साधन है जिसके द्वारा अध्यापक, किसी भी प्रकार की विषय-वस्तु का ज्ञान शिक्षार्थी को देता है, अध्यापक अपने शिक्षण कार्य को सम्पन्न करने के लिए जो कदम उठाता है, वही विधि है। अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया में विषय-वस्तु के साथ-साथ शिक्षण विधियों का भी बहुत महत्त्व है क्योंकि यदि शिक्षण कार्य करते समय सही विधि नहीं अपनायी जाती है तो शिक्षार्थी ठीक प्रकार से नहीं सीख सकता है।


अब प्रश्न उठता है कि कौन-सी विधि सही है? इस प्रश्न का उत्तर देना बड़ा कठिन है क्योंकि कोई विधि एक अध्यापक के लिए अधिक अच्छी है, तो दूसरी विधि दूसरे अध्यापक के लिए अच्छी है। यह भी देखने में आया है कि एक ही अध्यापक के लिए, एक विधि, एक कक्षा के लिए तो ठीक बैठती है, परन्तु दूसरी कक्षा में जाने पर वह अध्यापक उस विधि को अपेक्षाकृत कम प्रभावकारी मानता है।


अतः कौन-सी विधि सफल विधि है? इस बात का निर्धारण करने रने के के लिए यही कहा जा सकता है कि जिस विधि से शिक्षार्थी अच्छी प्रकार से सीखने में समर्थ होते हैं, वहीं विधि सफल एवं श्रेष्ठ विधि है। सामाजिक अध्ययन के अध्यापक को सामाजिक अध्ययन की विषय-वस्तु के साथ-साथ शिक्षण-विधियों का ज्ञान होना भी आवश्यक है, ताकि वह समय की माँग एवं परिस्थितियों के अनुसार सही विधि का चयन कर, शिक्षण कार्य सम्पन्न कर सके।


शिक्षण-विधि की विशेषताएँ - Characteristics of teaching method


एक अच्छी शिक्षण-विधि में सामान्यतः निम्नांकित विशेषताओं का होना अपेक्षित है-


1. व्यक्तित्व के सर्वाङ्गीण विकास में सहायक

एक अच्छी शिक्षण विधि उसे ही कहा जा सकता है जो कि न केवल शिक्षार्थी के मानसिक विकास में सहायक हो, बल्कि शारीरिक, नैतिक एवं संवेगात्मक विकास भी करे. ताकि शिक्षार्थी का व्यक्तित्व अच्छा बन सके।


2. मनोवैज्ञानिक

वही शिक्षण विधि अच्छी हो सकती है जो कि मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का पालन करती हो। अर्थात् उसका निर्माण शिक्षार्थी की आवश्यकता, योग्यता, क्षमता एवं रुचि आदि को ध्यान में रखकर किया गया हो वह विधि बाल-केन्द्रित होनी चाहिए।


3. क्रियाशीलता

यदि कोई शिक्षण विधि कक्षा में शिक्षार्थी को सक्रिय रखने में समर्थ रहती है तो उसे अच्छी विधि कहा जा सकता है, क्योंकि यह माना जाता है कि जिस कार्य में शिक्षार्थी जितना अधिक सक्रिय रूप से भाग लेगा तो वह उस कार्य को उतनी ही जल्दी सीख लेता है।


4. स्वस्थ वातावरण बनाने में सहायक

अच्छी विधि वही है जिसका प्रयोग करने से कक्षा का वातावरण सजीव एवं मधुर बन जाता है, जिससे अध्यापक एवं छात्र दोनों ही अध्ययन प्रक्रिया में पूर्ण रुचि लेते हैं।


5. विषय शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक

एक अच्छी विधि वही है जो कि विषय-विशेष के लिए निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हो।


6. व्यावहारिकता

शिक्षण विधि व्यावहारिक होनी चाहिए। उसका अनुसरण करना आसान होना चाहिए तथा उसमें विषय सामग्री नियत समय से पूर्ण होनी चाहिए, ताकि समय पर पाठ्यक्रम को पूरा करना सम्भव हो सके, साथ ही उपलब्ध पाठ्य पुस्तकों से भी मेल खा सके।


सामाजिक विज्ञान या अध्ययन शिक्षण की प्रमुख विधियाँ


सामासिक अध्ययन की विषय सामग्री विस्तृत तथा विविधता लिये हुए है। अतः इसकी शिक्षण- विधियाँ भी विभिन्न हैं। अध्ययन की सुविधा के लिए सामाजिक अध्ययन शिक्षण विधियों को निम्नलिखित प्रकार से बाँटा जा सकता है-


(अ) परम्परागत विधियाँ -

वे वे विधियाँ हैं जिनका प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है। इसीलिए इन्हें 'प्राबीन विधियों' के नाम से भी जाना जाता है। इन विधियों में मुख्यतः दो विधियाँ सम्मिलित हैलिए

(1) पाठ्य-पुस्तक विधि,

(2) व्याख्यान या भाषण विधि।


(ब) आधुनिक विधियाँ -

इन विधियों का प्रयोग मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुई खोजों के बाद हुआ है। आजकल इन विधियों पर ही अधिक जोर दिया जा रहा है। इसमें निम्नांकित विधियों को रखा जा सकता है।


(1) निरीक्षण विधि,

(2) वाद-विवाद विधि,

(3) प्रयोगात्मक विधि,

(4) योजना विधि,

(5) समस्या समाधान विधि,

(6) इकाई विधि,

(7) सर्वेक्षण विधि,

(8) स्रोत विधि,

(9) समाजीकृत अभिव्यक्ति विधि,

(10) आगम विधि,

(11) निगमन विधि,

(12) तुलनात्मक विधि,

(13) प्रादेशिक विधि,

(14) भ्रमणात्मक विधि,

(15) प्रश्नोत्तर विधि,

(16) डाल्टन विधि,

(17) कहानी विधि,

(18) क्रियात्मक विधि,

(19) संकेन्द्रीय विधि।


(अ) परम्परागत विधियाँ


1. पाठ्य-पुस्तक विधि


यह विधि सबसे अधिक प्रचलित विधि है। "यह विधि पाठ्य-पुस्तक को आधार मानती है, जैसे कोई अन्य विधि किसी समस्या या योजना को आधार मानकर चलती है।" इस विधि का प्रयोग भाषा-शिक्षण में किया जाता है। सामाजिक अध्ययन शिक्षण के अन्तर्गत भूगोल में क्रियात्मक पक्ष एवं मानचित्र सम्बन्धी ज्ञान देने के लिए यह विधि उपयोगी है।


आजकल कुछ विद्वान् इस विधि को 'तू' पढ़ मैं सुनूँ' या 'तू पढ़ विधि' के नाम से भी पुकारते हैं जो कि युक्तिसंगत नहीं है बल्कि इसका बिगड़ा हुआ रूप है, क्योंकि विद्यार्थी बारी-बारी से पढ़ते हैं और अध्यापक सुनता है अथवा अध्यापक पढ़ता है तो विद्यार्थी सुनते हैं।


इस प्रकार पुस्तक का प्रयोग करने को 'पाठ्य पुस्तक विधि' नहीं कहा जा सकता। इसका प्रयोग तो शिक्षण सामग्री के रूप में होता है और शिक्षण सामग्री का प्रयोग करते समय कौन-कौन सी सावधानियाँ रखनी चाहिए? यह बात अध्यापक को मालूम होनी चाहिए तभी वह इस विधि का प्रयोग कर सकता है।


पाठ्य-पुस्तक विधि के लाभ


(1) इस विधि के प्रयोग से भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक शब्दावली, भौगोलिक संकेतों आदि को कण्ठस्थ कराया जा सकता है।

(2) इस विधि द्वारा शिक्षक निर्दिष्ट कार्य को पूरा करने में समर्थ होता है।

(3) अध्यापक को विषय-सामग्री सम्बन्धी तैयारी नहीं करनी पड़ती है।

(4) पाठ्य-पुस्तकें विद्यार्थियों को लक्ष्य करके लिखी जाती हैं, अतः विद्यार्थियों के लिए लाभकारी होती हैं।

(5) यदि कोई बात कक्षा में पूर्ण रूप से समझ में नहीं आती है तो विद्यार्थी पुस्तक की सहायता पे उस बात को समझ सकता है।


पाठ्य-पुस्तक विधि के दोष


पाठ्य-पुस्तक विश्वि का प्रयोग करने से कुछ हानियाँ होने का भय रहता है, जिसका विवरण निम्नांकित है-


(1) इसके अत्यधिक प्रयोग से शिक्षण-प्रक्रिया का उद्देश्य पूरा नहीं होता, क्योंकि सम्भव है कि विद्यार्थी अथवा शिक्षक निश्चित पृष्ठों को पूरा करने तक ही सीमित रहे।

(2) पाठ्य-पुस्तक में भूल रहने की सम्भावना रहती है, जिससे विद्यार्थियों को उस समय हानि होने का भय रहता है, जबकि अध्यापक उस भूल को सुधारने में सक्षम न हो।

(3) पाठ्य-पुस्तक के प्रयोग से विद्यार्थियों की स्मरण शक्ति का विकास अधिक होता है जबकि अन्य पक्षों का उतना विकास नहीं हो पाता है।


2. व्याख्यान या प्रवचन विधि


यह विधि भी प्राचीन विधि है। इस विधि में केन्द्रबिन्दु अध्यापक होता है। अध्यापक विषय सामग्री को विद्यार्थियों के समक्ष भाषण के माध्यम से रखता है और विद्यार्थी उसके सामने बैठकर सुनते रहते हैं। इस विधि में अध्यापक विषय सामग्री को पहले घर पर तैयार करता है या रटता है और फिर उसे ज्यों-का-त्यों कक्षा में जाकर उँडेल देता है। अतः अध्यापक को मुख्यतः दो कार्य करने होते हैं-


(1) विषय-वस्तु का चयन कर तैयारी करना 

(2) कक्षा में विषय-वस्तु का भाषण के रूप में प्रस्तुतीकरण।


इस विधि में अध्यापक जहाँ एक अच्छा वक्ता होना चाहिए, वहीं विद्यार्थी में भी अच्छे श्रोता का गुण होना चाहिए तथा विद्यार्थी को नोट करते रहना चाहिए एवं आवश्यक हो तो प्रश्न भी पूछने चाहिए।


व्याख्यान विधि के लाभ


(1) इस विधि द्वारा ज्ञान तीव्रगति से दिया जा सकता है।

(2) यह विधि अध्यापक के लिए सुविधाजनक है क्योंकि कक्षा में आते ही अध्यापक भाषण देने लगता है और भाषण पूरा कर कक्षा से चला जाता है। वह विद्यार्थियों की विभिन्न समस्याओं का हल करने से बच जाता है।

(3) इस विधि के द्वारा पाठ्यक्रम आसानी से पूर्ण किया जा सकता है।

(4) भारतीय परिवेश में कक्षाएँ बड़ी होती हैं तथा शिक्षण सामग्री का अभाव-सा रहता है, यहाँ तक कि कई स्थानों पर श्यामपट्ट भी उपलब्ध नहीं होते, अतः यह विधि अनुकूल रहती है।

(5) विद्यार्थी को अपना सिर नहीं खपाना पड़ता। वह आराम से भाषण सुनता रहता है। 

(6) भाषण विधि से विषय सामग्री के साथ-साथ विद्यार्थी में भाषण सम्बन्धी योग्यता का भी विकास होता है।

(7) यह विधि व्ययकारी नहीं है।


व्याख्यान विधि के दोष 


उपर्युक्त गुणों के होते हुए भी यह विधि दोषरहित नहीं है। इसमें निम्नांकित दोष पाये जाते हैं-


(1) इस विधि का प्रयोग केवल उच्च कक्षाओं में ही किया जा सकता है, निम्न स्तर पर नहीं।

(2) इस विधि में विद्यार्थी के स्तर का ध्यान नहीं रखा जाता है, वह सुनना चाहता हो या सुनना न चाहता हो, उसे भाषण सुनना ही पड़ता है।

(3) यह विधि 'बाल-केन्द्रित' नहीं है, अतः छात्र की रुचि, क्षमता आदि का ध्यान नहीं रखा जाता है।

(4) यह विधि बालक को श्रोता बनाती है, अतः वह निष्क्रिय होता जाता

(5) इसके प्रयोग से कक्षा का वातावरण सजीव नहीं बन पाता है।

(6) यह विधि 'रटने की प्रवृत्ति' को बढ़ावा देती है।

(7) सभी अध्यापक इस विधि का अनुसरण नहीं कर सकते, क्योंकि सभी अध्यापकों को न ती विषय-वस्तु का अच्छा ज्ञान ही होता है और न वे भाषण देने में निपुण ही होते हैं।


(ब) आधुनिक विधियों का वर्णन नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है-


1. निरीक्षण विधि


यह विधि सामाजिक अध्ययन के अन्तर्गत भूगोल शिक्षण में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें बालक किसी वस्तु, स्थान या व्यक्ति को देखकर हो उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करता है। यह विधि 'देखकर सीखना' (Learning by Secing) नामक सिद्धान्त पर आधारित है। सामाजिक अध्ययन शिक्षण की यह विधि सभी स्तरों पर काम में लायी जा सकती है।


छोटी कक्षाओं में इस विधि का प्रयोग गृह प्रदेश के भूगोल (Home Region Geography) से शुरू किया जा सकता है तथा स्तरानुसार इसका क्षेत्र भी बढ़ता जाता है। इस विधि का प्रयोग विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों, पृथ्वी की बाह्य शक्तियाँ, ज्वार-भाटा, वन, मिट्टी, खनिज, उद्योग-धन्धे, विभिन्न प्रकार की फसलें, यातायात एवं सन्देश वाहन के साधन, विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों आदि को पढ़ाने में किया जा सकता है।


निरीक्षण पद्धति की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि अध्यापक बालकों को जिस स्थान पर ले जाय उसे वह पूर्व में ही देख ले तथा उसके बारे में योजना बना ले। हैं-


निरीक्षण विधि के लाभ


(1) इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है।

(2) क्रियाशीलता के सिद्धान्त का पालन करती है।

(3) बालक वास्तविक स्थिति से ज्ञान प्राप्त करता है।

(4) छात्र में सीखने की जिज्ञासा एवं उत्सुकता बनी रहती है।

(5) छात्र में कल्पनाशक्ति एवं तुलनात्मक शक्ति का विकास होता है।


निरीक्षण विधि से हानि


(1) इस विधि द्वारा सीखने में बहुत समय नष्ट होता है।

(2) बालकों को कक्षा से बाहर दूर ले जाने के लिए धन की आवश्यकता होती है।

(3) बाहर जाकर छात्रों को अनुशासित रखने में भी कठिनाई आती है।

(4) अभिभावकों की स्वीकृति माँगना आवश्यक होता है और कई अभिभावक इसके लिए राजी नहीं होते।


2. वाद-विवाद विधि


'वाद-विवाद विधि' क्रियाशीलता के सिद्धान्त का पालन करती है। इस विधि में शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों ही मिल-जुलकर किसी विषय अथवा प्रश्न पर विचार-विमर्श करते हैं तथा आम सहमति द्वारा किसी निर्णय पर पहुँचने का प्रयास करते हैं। इसी बात को विभिन्न विद्वानों ने अपने ढंग से कहा है। कुछ विद्वानों के विचार इस प्रकार से हैं-


1. जेम्स एम० ली के अनुसार, "वाद-विवाद एक शैक्षणिक सामूहिक प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक तथा विद्यार्थी सहयोगपूर्ण ढंग से किसी समस्या या प्रकरण पर बातचीत करते हैं।"


2. योकम तथा सिम्पसन के अनुसार, "वाद-विवाद बातचीत या संवाद का एक विशिष्ट रूप है। इसमें सामान्य बातचीत की अपेक्षा अधिक विस्तृत एवं विवेकयुक्त विचारों का आदान-प्रदान होता है। सामान्यतः वाद-विवाद में महत्त्वपूर्ण विचारों को शामिल किया जाता है।


वाद-विवाद विधि के सोपान


वाद-विवाद विधि के कुछ सोपान हैं, जिस पर चलकर ही किसी निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है। ये सोपान निम्नांकित हैं-


(1) समस्या का प्रस्तुति,

(2) समस्या तथा समाधान के स्रोतों से अवगत कराना,

(3) विद्यार्थियों द्वारा वाद-विवाद से पूर्व की जाने वाली तैयारी, 

(4) वाद-विवाद का संचालन,

(5) वाद-विवाद के बाद का कार्य, 

(6) मूल्यांकन।


वाद-विवाद विधि के लाभ


(1) इस विधि में छात्रों की सक्रिय क्रियाशीलता बनी रहती है।

(2) क्योंकि तर्क-वितर्क द्वारा ही किसी निर्णय तक पहुँचा जाता है, अतः सामूहिक निर्णय करने की शक्ति का विकास होता है।

(3) इस विधि में सभी विद्यार्थी भाग लेते हैं तथा प्रत्येक विद्यार्थी अपनी बात कहता है एवं दूसरे की बात सुनता है। धीरे-धीरे इस प्रकार से उनमें सहिष्णुता की भावना का विकास हो जाता है।

(4) इस विधि से प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है।

(5) इस विधि के द्वारा विश्लेषण करना, संश्लेषण करना, तुलना, तर्कशक्ति आदि क्षमताओं का विकास होता है।


वाद-विवाद विधि के दोष- 


(1) वर्तमान परिवेश में जहाँ पर कक्षा में बालकों की संख्या बहुत अधिक है तथा पाठ्यक्रम भी बड़ा है, इस विधि को अनुकूल नहीं कहा जा सकता।

(2) इस विधि का प्रयोग करने से पूर्व पर्याप्त तैयारी की आवश्यकता होती है, क्योंकि वाद-विवाद किसी रिक्तता से शुरू नहीं हो सकता है।

(3) इसमें समय का अपव्यय होता है। कई बार विद्यार्थियों में अपने-अपने विचार रखने को प्रतियोगिता-सी लग जाती है, जिससे समय बरबाद होता है,

(4) तीस या चालीस मिनट के कालांश में इस विधि द्वारा शिक्षण कार्य करना बड़ा कठिन है। 

(5) वाद-विवाद के समय कई बार अनुशासन की समस्या का सामना भी करना पड़ता है।


उपर्युक्त गुण-दोषों के आधार पर कहा जा सकता है कि एक कुशल नेता (सामाजिक अध्ययन शिक्षक) अपने व्यक्तित्व एवं क्षमताओं का उपयोग कर इसके अधिकांश दुर्गुणों को दूर कर सकता है और सामाजिक अध्ययन शिक्षण के कुछ चुने हुए प्रकरणों के शिक्षण कार्य में इस विधि का उपयोग कर सकने में समर्थ हो सकता है, जिससे छात्र इस विधि से जीवनोपयोगी लाभ प्राप्त कर सकते हैं।


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