पाठ्यक्रम का क्या अर्थ है? सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत

पाठ्यक्रम का क्या अर्थ है? सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत

पाठ्यक्रम का अर्थ और परिभाषा


'करीकुलम' (Curriculum) शब्द लैटिन भाषा के 'क्यूरेर' शब्द से बना है जिसका अर्थ है- 'दौडू का मैदान'। इसके अनुसार पाठ्यक्रम वह मार्ग है जिसका अनुसरण करके लक्ष्य प्राप्ति संभव है, ठीक उसी प्रकार जैसे-खिलाड़ी को अपने लक्ष्यप्राप्ति हेतु दौड़ का मैदान पार करना आवश्यक होता है। पाठ्यक्रम के अर्थ को स्पष्ट करने वाली कुछ प्रमुख परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-


1. मुनरो, "पाठ्यक्रम में वे सब अनुभव निहित हैं जिनको विद्यालय द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयोग में लाया जाता है।"


2. कनिंघम, "पाठ्यक्रम कलाकार (अध्यापक) के हाथ में वह साधन है जिससे वह अपने स्टूडियो (स्कूल) अपनी सामग्री (विद्यार्थी) को अपने आदर्श (उद्देश्य) के अनुसार ढालता है।"


3. को एण्ड क्रो, "पाठ्यक्रम में छात्र के वे सभी अनुभव सम्मिलित रहते हैं, जिन्हें वह विद्यालय में या विद्यालय के बाहर प्राप्त करता है। इन अनुभवों को इस प्रकार एक कार्यक्रम के रूप में व्यवस्थित तथा नियोजित किया जाता है जिससे वह छात्रों के मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, भावात्मक, आध्यात्मिक तथा नैतिक विकास को अग्रसित कर सके।"


सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धांत


सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय सामान्यतया शिक्षक, शिक्षार्थी से सम्बन्धित मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखना आवश्यक है। इन्हों • बिन्दुओं से सम्बन्धित कतिपय सिद्धान्तों का विवरण इस प्रकार है-


1. पर्यावरण को केन्द्र मानने का सिद्धांत

पर्यावरण वह महत्त्वपूर्ण घटक है जो कि मानव की प्रत्येक गतिविधि को प्रभावित करता है। अतः सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम का निर्माण पर्यावरण पर आधारित होना चाहिए और पाठ्यक्रम में न केवल भौतिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण का ज्ञान कराने सम्बन्धी तथ्यों का उल्लेख होना चाहिए बल्कि पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्द्धन पर भी बल देना चाहिए, ताकि विविध पर्यावरणीय समस्याओं, यथा-प्रदूषण का मानव पर प्रभाव, ओजोन परत की समाप्ति, रासायनिक उर्वरकों का अन्धाधुन्ध उपयोग, ग्रीन हाउस प्रभाव, जीव-जन्तुओं की प्रजातियों का विलोपीकरण, वेन क्षेत्रों का लगातार कम होना, मृदा क्षरण, विश्व में तापमान का बढ़ना आदि का समाधान करना संभव हो सके।


2. समाज को केन्द्र मानने का सिद्धांत

सामाजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए कि उससे समाज को अधिकाधिक लाभ हो सके, क्योंकि प्रत्येक समाज यह अपेक्षा करता है कि जिस बालक को वह पढ़ा रहा है, वह छात्र भविष्य में शिक्षा पूर्ण करने के बाद उस समाज की उन्नति में सहायक सिद्ध होगा और यह भी तभी सम्भव है, जबकि पाठ्यक्रम निर्माण के समय उस समाज की अपेक्षाओं, आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं को महत्त्व प्रदान किया जाय।


पाठ्यक्रम ऐसा हरों जो समाज या राष्ट्र के उत्पादन में वृद्धि करने में सहायक हो सके, विविध समुदायों एवं धर्मों में आपसी सामंजस्य स्थापित हो सके, जिससे न केवल राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता कायम रखी जा सके, बल्कि आपस में बन्धुत्व की भावना को सुदृढ़ करने वाली शक्तियों को बल मिल सके।


3. उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को दृष्टि में रखने का सिद्धांत

सामाजिक अध्यवन का पाठ्यक्रम नला होना चाहिए जिससे शिक्षपण अधिगम के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त किया जाना सम्भव हो सके। दि पाठ्यक्रम उक्त बिन्दु पर खस नहीं उतरता है तो फिर पाठ्यक्रम निर्माण करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।


4. उपयोगिता का सिद्धांत

'उपयोगिता' अच्छे पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण गुण है। अतः "माजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम भी उपयोगी होना चाहिए। पाठ्यक्रम ऐसा हो कि वह बालक के भावी जीवन निर्वाह हेतु उपयोगी सिद्ध हो सके, वह अपनी आजीविका कमाने में समर्थ हो सके।


अतः पाठ्यक्रम केवल सैद्धान्तिक ही नहीं होना चाहिए, बल्कि वह व्यावहारिक भी होना चाहिए। पाठ्यक्रम के माध्यम से बालक में समाज के साथ सामंजस्य बैठाने की क्षमता के विकास के साथ साथ अपना एवं अपने परिवार का पेट भरने की क्षमता का विकास भी होना चाहिए।


5. क्रियाशीलता का सिद्धांत

बालक स्वभाव से ही क्रियाशील होता है, वह हर समय कुछ न कुछ अवश्य करता रहता है। सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम के माध्यम से बालक के कार्य करने की प्रवृत्ति को और अधिक बल मिलना चाहिए।


इससे कई प्रकार के कार्य कराये जा सकते हैं, यथा-चित्र या रेखाचित्र बनवाना, मिट्टी से मॉडल बनवाना, भित्ति चित्र बनवाना, नमूने एकत्र करना, माप-तौल का कार्य करना, गत्ते या थर्माकोल से वस्तुएँ बनवाना आदि कार्य कराये जा सकते हैं, जिससे बालक न केवल इन वस्तुओं को बनाना सीखेगा बल्कि वह क्रियाशील रहना भी सीख जायेगा, उसे कार्य करने में आलस्य का अनुभव नहीं होगा अर्थात् वह परिश्रमी बन जायेगा।


6. लचीलेपन का सिद्धांत

पाठ्यक्रम कितना भी अच्छा क्यों न बनाया गया हो उसमें देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन एवं परिमार्जन की आवश्यकता अनुभूत होती है। अतः सामाजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम ऐसा लचीला होना चाहिए कि उसमें परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप आसानी से परिवर्तन कर आकांक्षाओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करना सम्भव हो सके। 


7. अध्यापक से परामर्श का सिद्धांत

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अध्यापक का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। वह न केवल शिक्षण बल्कि बालक एवं स्थानीय परिवेश के विविध घटकों से भली-भाँति परिचित होता है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम निर्माण से पूर्व हमें उस अध्यापक से अवश्य ही विस्तार से परामर्श कर लेना चाहिए, जिसके लिए हम पाठ्यक्रम का निर्माण कर रहे हैं, क्योंकि पाठ्यक्रम को लागू करने अथवा पाठ्यक्रम में निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति उस अध्यापक पर ही निर्भर करती है और दूसरे यदि परामर्श न लिया जाय तो अध्यापक में आत्मसंतुष्टि के अभाव में असन्तोष का पनपना स्वाभाविक है, जिससे निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति सन्देहास्पद हो जाती है। 


8. बाल केन्द्रीयता का सिद्धांत

पाठ्यक्रम के निर्माण करने का मुख्य उद्देश्य एक ही होता है कि बालक का नियोजित ढंग से सर्वांगीण विकास किया जाना सम्भव हो सके। बालक के लिए हो स्कूल में अध्यापक होता है और बालक के लिए ही पाठ्यक्रम। अतः यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय बालक को समुचित महत्त्व प्रदान किया जाय।


बालक की आवश्यकता, रुचि योग्यता, अभियोग्यता एवं व्यक्तिगत भिन्नता आदि महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक सम्प्रत्ययों का ध्यान रखना चाहिए, साथ ही साथ ग्रामीण परिवेश या श ते परिवेश का, उसके माता-पिता एवं परिवार शिक्षित हैं अथवा अशिक्षित आदि बातों का भी ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि विविध प्रकार के शोधों से यह सिद्ध हो चुका है कि उक्त बातों का बालक के 'सीखने की गति' पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। अतः उक्त बिन्दु को ध्यान में रखकर ही सामाजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम बनाना अपेक्षित है।


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