जनजातीय समाज का बदलते परिवेश का संक्षेप में वर्णन कीजिए ।
जनजातीय समाज का बदलता परिवेश: यह कहना बिल्कुल सच है कि भारत में जनजातयों का जीवन अनेक समस्याओं से ग्रस्त है लेकिन उनकी समस्याओं पर विचार करते समय इस तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक है कि यहाँ की अधिकांश जनजातियां अपने मूल रूप को छोड़कर एक नया परिवेश ग्रहण कर चुकी हैं ।
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जनजातीय समाज का बदलता परिवेश |
अनेक जनजातियों ने अपने निकटवर्ती समूहों की संस्कृति और जीवन शैली को इस सीमा तक ग्रहण कर लिया है । कि वे बाह्य समूहों के साथ एक संयुक्त समूह के रूप में बदल गईं हैं । जनजातीय समाजों के बदलते परिवेश को निम्नवत् दर्शाया जा सकता है
( 1 ) सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तन -
भारत की अनेक जनजातियों की सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक विशेषताओं में आज व्यापक परिवर्तन हुए हैं । यह परिवर्तन बाहरी सम्पर्क और आधुनिकीकरण का परिणाम है । प्रो ० श्रीनिवास ने ऐसी अनेक जनजातियों का उल्लेख किया है जिन्होंने उच्च जाति के हिन्दुओं की विशेषताओं का अनुकरण करके अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया है ।
( 2 ) शैक्षणिक परिवर्तन -
जनजातियों में कुछ समय पहले तक शिक्षा का रूप पूरी तरह सांस्कृतिक और अनौपचारिक था । उन्हें अपने परिवार , नातेदारी संगठन तथा युवागृह आदि के द्वारा ही अपने धर्म , संस्कृति तथा व्यवहार के ढंगों की शिक्षा मिलती थी ।
भारत में स्वतंत्रता के बाद जब अनुसूचित जनजातियों में शिक्षा को बढ़ाने के लिए तरह - तरह की विशेष सुविधाएं देने का प्रावधान किया गया तो जनजातीय समूहों में इन्हें तेजी से ग्रहण किया जाने लगा । इसके फलस्वरूप आज जनजातीय लोगों में केवल शिक्षा के प्रतिशत में ही वृद्धि नहीं हुई है बल्कि जब अब बहुत से जनजातीय लोग भी सभ्य समूहों के समान विभिन्न प्रकार के व्यवहारों और नौकरियों के द्वारा आजीविका उपार्जित करने लगे हैं ।
( 3 ) आर्थिक परिवर्तन -
जनजातियों में परिवरतन का एक अन्य रूप उनके आर्थिक जीवन के संक्रमण के रूप में देखने को मिलता है । अन्य समूहों की विशेषताओं के अनुसार ही जनजातियों के अधिकांश लोग भी अब कृषि के विकसित साधनों जैसे उन्नत बीजों , रासायनिक खादों और तरह - तरह की मशीनों का उपयोग करने लगे हैं । उन्होंने स्थानान्तरित खेती को छोड़कर सघन कृषि के तरीकों को ग्रहण किया है ।
( 4 ) धार्मिक परिवर्तन -
परम्परागत रूप जनजातियों के धार्मिक विश्वास , प्रकृतिवाद , जीवित सत्तावाद , आत्मावाद तथा पूर्वज - पूजा आदि से सम्बन्धित थे । आज अधिकांश जनजातियों ने अपने धर्म को छोड़कर किसी नये धर्म को मानना आरम्भ कर दिया है । नियंत्रण रखा जाता था । स्वयं मुखिया का पद भी आनुवंशिक था । समाज में व्यक्ति को प्राप्त इकाई के रूप में थी तथा नजजातीय कानूनों के अनुसार मुखिया के द्वारा लोगों के व्यवहारों पर
( 5 ) राजनैतिक परिवर्तन
परम्परागत रूप से सभी जनजातियाँ एक पृथक् राजनैतिक होने वाली स्थिति और अधिकारों का निर्धारण भी जनजाति के गोत्रीय संगठन तथा मुखिया किया जाता था । आज राजनैतिक क्षेत्र में जनजातीय समूहों तथा सभ्य समूहों की मनोवृत्तियों और व्यवहार के तरीकों में कोई विशेष अन्तर दिखलायी नहीं देता । वर्तमान जनतान्त्रिक व्यवस्था में जनजातीय सपूहों को अन्य लोगों के ही समान वोट देने और चुनाव लड़ने का अधिकार है ।
इसके फलस्वरूप जनजातियों में अपने अधिकार के प्रति न केवल एक जागृति पैदा हुई है , ल उन्होंने चुनी हुई पंचायतों को अपनी परम्परागत विरादरी पंचायतों से कहीं अधिक महत्व देन आरम्भ कर दिया है । जनजातीय लोगों ने भी अब अखिल भारतीय स्तर के राजनैतिक दलों की सदस्यता ग्रहण करके राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेना आरम्भ किया है ।
इससे जनजातीय क्षेत्रों में भी अब उसी तरह के संघर्ष और गुटबन्दी की घटनाएँ देखने को मिलने लगी है जिस तरह एक सभ्य समूहों में पायी जाती हैं । उपर्युक्त सभी परिवर्तनों से स्पष्ट होता है कि आज अधिकांश जनजातियों का सभ्य समूहों के साथ इतना अधिक सात्मीकरण हो चुका है कि अब उनके बीच कोई मूलभूत अन्तर दिखालार्य नहीं देते ।
अनेक मानवशास्त्रियों ने भारत की जनजातियों का चित्रण इस तरह कर दिया कि साधारणतया इन्हें बिल्कुल आदि और असभ्य समझ लिया जाता है । कुछ लोग ऐसा समझते से हैं कि जनजातियों का तात्पर्य ऐसे समूहों से है जिनके लोग अपने शरीर को पत्ते से ढके रहने हैं , उनके चेहरे बड़े भयानक और असामान्य होते हैं , सिर पर सींग की तरह कुछ वस्तु धारण किये रहते हैं तथा वे प्रत्येक दूसरे व्यक्ति के लिए आक्रामक होते हैं।
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