बाल्यावस्था के अनुभवों का व्यक्ति विकास से क्या सम्बन्ध है ? ( Relationship of childhood experiences to personality development.)
बाल्यावस्था व्यक्ति के जीवन की महत्त्वपूर्ण अवस्था है । इस अवस्था में किसी बालक को अपने विकास के लिये जो अवसर प्राप्त होते हैं तथा इस अवस्था के जो सुखद व दुखद अनुभव होते हैं वे केवल उसके वर्तमान को ही प्रभावित नहीं करते हैं अपितु उसके व्यक्तित्व पर जीवन भर के लिये अमिट छाप लगा देते हैं ।
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Relation to childhood development. |
इसलिये मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से बाल्यकाल के प्रभावों और अनुभवों को वंश परम्परा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं । उनका मानना है कि वं परम्परागत गुण जन्मजात होते हैं किन्तु उनमें लचीलापन भी होता है । फलस्वरूप बालक को उपयुक्त वातावरण प्रदान कर उसके अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है और वंशानुक्रम से प्राप्त किये गये अच्छे गुणों को बाल्यकाल के सुखद अनुभवों द्वारा अधिक विकसित किया जा सकता है ।
बाल्यकाल में किसी भी बालक को अपने विकास के विभिन्न क्षेत्रों ( शारीरिक , मानसिक , सामाजिक , संवेगात्मक ) में जो भी अनुभव प्राप्त होते हैं वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जन्मजात गुणों का विकास करके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं । पूर्व बाल्यावस्था ( 2-6 वर्ष ) में तो बालक चलना, फिरना, उठना, बैठना तथा शारीरिक क्रियाओं को नियन्त्रित करना सीखता है।
किन्तु 5-6 वर्ष के बाद ही वह उन सभी व्यहारों को सीख पाता है जो उसके व्यक्ति का निर्माण करते हैं, जैसे उचित - अनुचित में भेद करना, अपने विचारों को व्यक्त करना तथा दूसरे के विचारों और भाषों का अनुकरण करना, अन्य व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना और व्यवहारों के अनुसार क्रिया प्रतिक्रिया करना ।
ये सभी क्रियायें बाल्यकाल में ही उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाते हैं । यदि बाल्यकाल से ही बालक शर्मीला है , समूह में रहना पसन्द नहीं करता है , संकोची प्रकृति का है तो आजीवन उसका यही आचरण बना रहता है यदि बाल्यकाल में उसके इस आचरण का निदान नहीं किया जाता है । और मानसिक आवश्यकताओं को पूर्ति होना आवश्यक है जो बालक इन महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं किसी भी बालक के स्वस्थ व्यक्तित्व के निर्माण के लिये बाल्यकाल में उसकी शारीरिक की पूर्ति से वंचित रह जाते हैं ।
उनमें मानसिक और आंतरिक तनाव रहने के कारण भावना ग्रंथियों बन जाती है जो आजीवन उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करती रहती शारीरिक विकास आती है । हैं । पूर्ति शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अन्तर्गत और स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से उपयुक्त भोजन , वस्त्र और आवास की इसके विपरीत मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति में प्रेम , स्नेह , आत्मसम्मान की प्राप्ति और जिज्ञासा की सन्तुष्टि आती है ।
शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति से शारीरिक विकास होता है और व्यक्ति बाह्य शारीरिक गठन अच्छा प्राप्त करता है किन्तु सन्तुलित और उत्तम व्यक्तित्व के निर्माण के लिये मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति होना परम आवश्यक है । मानसिक रूप से सन्तुष्ट बालक का सामाजिक समायोजन अच्छा होता है । नीचे बाल्यकाल के कुछ ऐसे अनुभवों का वर्णन किया गया है जिनका व्यक्तित्व विकास पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है ।
1. प्रेम की प्राप्ति –
बाल्यकाल एक ऐसी अवस्था है जिसमें प्रत्येक बालक प्रेम व स्नेह की आवश्यकता को तीव्रता से महसूस करता है । उसे ऐसे वयस्कों की आवश्यकता होती है जिन्हें बालक प्यार करे और बालक को वे भरपूर प्यार दें । ऐसे बालक जिनके परिवार में माता - पिता में निरंतर झगड़ा होता रहता है या माता और पिता का देहान्त हो जाने के कारण बालक को भरपूर वात्सल्य की प्राप्ति नहीं होती है तो बालकों में भय और निस्सहायता का भाव पैदा हो जाता है ।
प्रेम के अभाव के कारण ये बालक स्वयं को असुरक्षित समझते हैं इसमें आत्मविश्वास की कमी हो जाती है । यह भावना उनमें जीवनपर्यन्त के लिये विकसित हो जाती है जिससे व्यक्तित्वका विकास कुंठित हो जाता है । परन्तु व्यक्तित्व के विकास के लिये इसका निदान है । यदि बालक के इस प्रेम की क्षतिपूर्ति शिक्षक या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा कर दी जाती है तो बालक में आत्मविश्वास पैदा करके उसके व्यक्तित्व को संजोया जा सकता है ।
2. आत्म सम्मान -
आत्म सम्मान एक ऐसा गुण है जिसकी यदि सराहना की जाती है तो व्यक्ति इसमें वृद्धि करने के लिये अपनी कमियों से स्वयं अवगत होता है और उन्हें दूर कर स्वयं अपने व्यक्तित्व को निखारने का कार्य करता है किन्तु इसके विपरीत यदि किसी व्यक्ति के आत्म सम्मान को ठेंस पहुँचायी जाती है, उसकी कमियों को बार - बार दोहराया जाता है, बात - बात में आलोचना की जाती है तो बालक में हीनभावना का विकास होता है ।
उसके मन में ऐसी भावना ग्रंथियाँ बन जाती हैं कि उसका व्यक्तित्व सदा के लिये कुंठित हो जाता है । बच्चों के आत्म सम्मान को ठेंस न पहुँचे । इसके लिये आवश्यक है कि बाल्यकाल में उन्हें अधिक मारा पीटा न जाये । उनकी जरा - जरा सी गल्तियों के लिये उनकी आलोचना की जाये बल्कि इसके विपरीत उनके कार्यों और विचारों की सराहना करके उनके आत्म सम्मान की भावना को सन्तुष्ट किया जाये जिससे उनके व्यक्तित्व का सही विकास हो ।
3. जिज्ञासा की सन्तुष्टि -
मनोवैज्ञानिकों ने बाल्यकाल को ' खोजी अवस्था ' कहा है । इस अवस्था में बालक अपने आप - पास के वातावरण की विभिन्न वस्तुओं के बारे में जानना चाहता है और जिज्ञासावश अनेक प्रकार के प्रश्न पूछता है । सर्वप्रथम इस जिज्ञासा की सन्तुष्टि वह अपने माता - पिता और परिवार के सदस्यों से करता है और यदि माता - पिता तथा परिवार के सदस्यों द्वारा जिज्ञासा की सन्तुष्टि नहीं की जाती है तो फिर मित्र व समूह के साथियों से करता है ।
बालक की जिज्ञासा की सन्तुष्टि जिस प्रकार से की जाती है उसी प्रकार की उचित व अनुचित धारणायें उसके मन में बनती हैं । अतः यह जरूरी है कि बालक को जिज्ञासा की सन्तुष्टि अवश्य की जाये । गलत तरीके से उसके प्रश्नों का उत्तर न दिया जाये ।
4. सामाजिकता के पर्याप्त अवसर -
व्यक्तित्व के अन्तर्गत शारीरिक और मानसिक गुणों के साथ व्यक्ति की क्षमता भी आती है जो व्यक्ति जितना अधिक अच्छा सामाजिक समायोजन कर लेता है । उसका व्यक्तित्व उतना ही अच्छा माना जाता है । जो व्यक्ति जितना अधिक सामाजिक होता है उसका सामाजिक समायोजन उतना ही अच्छा होता है । समयोजन बालकों में सामाजिकता की भावना के विकास के लिये यह आवश्यक है कि उन्हें समूह के बीच रहने का पर्याप्त अवसर दिया जाये ।
जन्म के बाद बालक को परिवार के रूप में सम्मान प्राप्त होता है । परिवार के बाद पास - पड़ौस और विद्यालय में समान आयु के बालकों का समूह प्राप्त होता है । बाल्यावस्था में बालक अपने समूह का चुनाव स्वयं अपने रुचि व प्रकृति के अनुसार करता है । समूह के बीच रहकर वह अपने उम्र के साथियों के आचार - विचार , व्यवहार और संवेगों का अनुभव करता है ।
समूह का सदस्य बने रहने के लिये अपने अवांछित गुणों में परिवर्तन लाता है । और व्यक्तित्व निर्माण के लिये अपने अच्छे चरित्र का निर्माण करता है । किन्तु कभी - कभी दुर्भाग्यवश जिन बालकों को अच्छी संगति प्राप्त नहीं होती है तो उनके व्यक्तित्व में कुछ अवांछित गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है ।
बालक के स्वस्थ व्यक्तित्व निर्माण के लिये यह आवश्यक है कि माता - पिता बालकों को समूह में रहने के लिये प्रेरित करें । कुछ माता - पिता अपने इकलौते बालकों को घर से बाहर नहीं जाने देते हैं । ऐसे बालक अन्तर्मुखी और स्वार्थी हो जाते हैं । अतः सामाजिकता के विकास के लिये बालक का समूह में रहना परम आवश्यक है ।
5. पर्याप्त स्वतन्त्रता -
बाल्यकाल में बालक स्वयं को आत्मनिर्भर समझने लगता है और प्रत्येक कार्य स्वयं करना चाहता है । अपनी इच्छानुसार कार्य करने , खेलने तथा मनमानी करने में उसे आनन्द आता है । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि बालक को मनमानी करने दी जाये और प्रत्येक कार्य के लिये स्वच्छन्द कर दिया जाये ।
स्वतन्त्रता से तात्पर्य है कि माता - पिता तथा अन्य वयस्क व्यक्ति अपने विचार बालक पर न थोपें , उसे कार्य करने का तरीका बतला दें फिर स्वतन्त्र रूप से उस कार्य को करने दें । स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने देने से बालक का भय कम होता है और उसमें आत्मविश्वास जागता है तथा प्रयत्न तथा त्रुटि द्वारा वह विभिन्न क्रियाओं को सहज ही सीख जाता है । इससे उसकी नैसर्गिक शक्तियों का विकास होता है ।
6. अनुकरण करने की प्रवृत्ति —
बालकों में अनुकरण की प्रवृत्ति पायी जाती है और वे विभिन्न क्रियाओं के अनुकरण के द्वारा ही सीखे हैं । परिवार , पास - पड़ोस और खेल के साथियों के जैसे कार्यों और व्यवहारों का अनुकरण करते हैं वही कार्य और व्यवहार उसके व्यक्तित्व का अंग बन जाते हैं । अतः माता - पिता तथा शिक्षकों को चाहिये कि वे बालकों के सामने ऐसे कार्यों और व्यवहारों का प्रदर्शन न करें जो उनके व्यक्तित्व के निर्माण में बाधक हों ।
जैसे — जिन परिवारों में परिवार के सदस्यों के बीच लड़ाई - झगड़ा रहता है , वे झूठ बोलते या चोरी करते हैं तो बालक भी अनुकरण द्वारा उन व्यवहारों को सीख जाते हैं । अतः परिवार जो कि बालक की प्राथमिक पाठशाला है वहाँ माता - पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों को बालक के सामने नैतिक और नीतिगत आचरणों और विचारों का प्रस्तुतीकरण करना चाहिये ।
जैसे यदि वह अपने परिवार में देखता है कि परिवार के सदस्य अपने हित के लिये झूठ बोलते हैं तो उसके मन में भी यह भावना विकसित हो जाती है कि अपने स्वार्थ के लिये झूठ बोलना अनुचित नहीं है । बाल्यकाल की यह मानसिकता धीरे - धीरे मजबूत होकर उसके व्यक्तित्व को सदैव के लिये अशोभनीय बना देती है ।
7. शारीरिक व मानसिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि -
बालक के शारीरिक व मानसिक विकास के लिये शारीरिक व मानसिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि परम आवश्यक है । आवश्यकताओं की सन्तुष्टि न होने पर बालक के कोमल मन को आघात होता है । वह काल्पनिक जगत् में विचरण करने लगता है । काल्पनिक जगत् में विचरण कर वह मानसिक सन्तोष की प्राप्ति करता है । वह दिवास्वप्न देखने लगता है । बालकों की यह व्यक्तित्व का दोष मानी जाती है क्योंकि कल्पनालोक में विचरण करने वाले अपने बाह्य संसार से धीरे - धीरे दूर होते जाते हैं ।
8. परिवार के आदर्श , विचार और चरित्र —
अपने विकास क्रम में प्रत्येक बालक सर्वप्रथम पारिवारिक वातावरण और उनसे प्राप्त होने वाले अनुभवों को प्राप्त करता है । परिवार से ही वह नैतिकता , उच्च आदर्शों और व्यवहारों को सीखता है । परिवार ही बालक को नैतिकता का पाठ है । बालक अबोध होता है यदि प्रारम्भ में वह झूठ बोलता है या अपने साथियों के पेन चुरा लेता है तो माता - पिता ही उसके इस व्यवहार को रोकते हैं ।
यदि परिवार के द्वारा उसकी इन आदतों पढ़ाता का निराकरण नहीं किया जाता है तो ये बुरी आदतें उसके व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग बन जाती हैं । जैसे यदि किसी बालक में लड़ाई - झगड़ा करने की प्रवृत्ति है यदि उसके माँ - बाप उसकी इस आदत का विरोध नहीं करते हैं तो वह झगड़ालू प्रवृत्ति का हो जाता है । इसी प्रकार परिवार के व्यक्तियों का चरित्र भी बालक के व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करता है ।
चरित्रवान माता - पिता की सन्तानें भी चरित्रवान ही होती हैं । इस प्रकार परिवार के आदर्श , विचार और चरित्र बालक के व्यक्तित्व को उत्कृष्ट व निकृष्ट बनाते हैं । परिवार के उच्च आदर्शों द्वारा बालकों में व्यक्तित्व के विभिन्न शीलगुणों का विकास होता है जो आगे चलकर बालक के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन जाते हैं ।