संवेगात्मक विकास किन-किन कारकों द्वारा प्रभावित होता है ?
अध्यापक एवं माता-पिता को बालकों की संवेगात्मक उलझनों से परेशान नहीं होना चाहिए बल्कि उन परिस्थितियों और वातावरण की दशाओं पर ध्यान देना चाहिए जो कि उनके संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती हैं । जिन कारकों के सन्दर्भ में संवेगात्मक व्यवहार को समझने की आवश्यकता है, उनका उल्लेख आगे किया गया है -
1. स्वास्थ्य एवं थकान
थकावट के समय चिड़चिड़ापन, उदासीनता एवं उत्साहहोनता आदि का होना स्वाभाविक ही है । अस्वस्थ रहने वाले बालकों के संवेगों में अस्थिरता अधिक रहती जल्दी ही थक जाते हैं अथवा किसी काम को थोड़ी देर करने बाद ही ऊब जाते हैं ।
2. अनुभव और मानसिक योग्यता-
बिना संवेगात्मक अनुभव के परिपक्वता नहीं आती है । उच्च मानसिक योग्यता वाला बालक आगे आने वाली परिस्थितियों की पूर्व - कल्पना कर लेता है । और उनके लिए तैयार हो जाता है । वह भविष्य में आने वाले सुख, दुःख, भय और कठिनाइयों का अनुभव अपनी कल्पना के स्तर पर पहले से ही कर लेता है ।
3. परिवार एवं माता - पिता -
बालक के संवेगात्मक विकास पर परिवार की दशाओं ( सुख, शान्ति, सुरक्षा, मनोरंजन, भय, झगड़े , अभावग्रस्तता आदि ) की विशेष छाप पड़ती है । शान्ति और सुरक्षा के वातावरण में संवेगों का सन्तुलित विकास होता है । माता - पिता पारिवारिक वातावरण का महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं । उनकी संवेगशीलता , बच्चों के प्रति प्रेम अथवा उपेक्षा का भाव, उनके आपसी सम्बन्ध , जीवन के प्रति दृष्टिकोण आदि बातों का बालक के संवेगात्मक व्यवहार पर विशेष प्रभाव पड़ता है ।
4. सामाजिक सम्बन्ध -
परिवार तथा परिवार के बाहर विद्यालय एवं समाज में व्यक्तियों से सम्बन्ध स्थापित करने में संवेगों का विशेष महत्त्व रहता है। मित्रता, जान-पहचान, अपनापन और परायापन, प्रेम और घृणा आदि मनोभाव स्थापित करने में संवेगात्मक अनुभूतियों का विशेष महत्त्व है । सामाजिक स्तर की उच्चता एवं निम्नता भी संवेगात्मक सन्तुलन एवं स्थिरता को प्रभावित करती है। परिवार का वातावरण, लड़ाई-झगड़े या शान्ति, सुरक्षा, सहयोग आदि परिवारिक बातें भी बालक के संवेगात्मक विकास को प्रभावित करती हैं ।
5. अभिलाषाओं तथा मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति-
बालक के मन में अनेक अभिलाषायें उत्पन्न होती हैं । उसके माता - पिता को भी उससे कुछ आशा होती है । यदि इनकी पूर्ति नहीं होती है तो परिवार की सुख-शान्ति भंग हो जाती है और वातावरण तनावपूर्ण बन जाता है ।
कारमाइकिल के अनुसार वे सब बातें जो बालक के आत्मविश्वास को कम करती हैं या आत्मविश्वास को ठेंस पहुँचाती हैं अथवा उसके कार्यों या अभिलाषाओं की पूर्ति में अवरोध उत्पन्न करती हैं, उसकी चिन्ताओं और भय का कारण होती हैं । इनके कारण उसके स्वस्थ संवेगात्मक विकास में बाधा पड़ती है ।
बालक की कुछ मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति , जैसे स्वतन्त्रता , प्रशंसा प्राप्त होना , मान्यता मिलना , माता - पिता या समूह की स्वीकृति प्राप्त करना, सुरक्षा और प्रेम प्राप्त होना आदि स्वस्थ संवेगात्मक विकास के लिए नितान्त आवश्यक है । जिन परिवारों में बच्चों की उपेक्षा होती है अर्थात् माता-पिता केवल अपने मनोरंजन अथवा व्यवसाय में ही लगे रहते हैं, वहाँ बच्चों में अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार विकसित हो जाता है ।
6. विद्यालय की दशा-
जस्सील्ड के अनुसार परिवार के बाद विद्यालय का दूसरा स्थान है जिसका बालक की भावनाओं पर आधारभूत प्रभाव पड़ता है । विद्यालय की विभिन्न क्रियाओं में उसके संवेगों का प्रकाशन एवं प्रशिक्षण होता है । यदि विद्यालय का कार्यक्रम उसकी भावनाओं के अनुकूल होता है तो उसके संवेगात्मक विकास पर विद्यालय का स्वस्थ प्रभाव पड़ता है और वह विद्यालय में प्रसन्न रहता है ।
इसके विपरीत दशाओं में उसका मन हानिकारक संवेगों से भर जाता है , जैसे घृणा , क्रोध , ईर्ष्या , चिड़चिड़ापन आदि । विद्यालय में मिलने वाली प्रशंसा , सफलतायें , असफलतायें , उमंग और प्रेरणायें गौरव और श्रेष्ठता की भावनायें उसके संवेग को नया वक्र प्रदान करती हैं ।
7. अध्यापकों का प्रभाव -
शिक्षकों के व्यवहार और संवेगात्मक प्रकाशनों का छात्रों के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव दिखलाई देता है । विद्यार्थी अनुकरण द्वारा उनके मनोभावों को अचेतन स्तर पर ग्रहण करते हैं । अध्यापक के व्यक्तिगत गुण, जैसे साहसी या डरपोक होना, निष्पक्ष या पक्षपातपूर्ण होना, क्रोधी या सहिष्णु होना, झगड़ालू अथवा शान्त प्रकृति का होना आदि बातें छात्रों के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती हैं । जो अध्यापक अपमानजनक व्यवहार प्रस्तुत करते हैं , वे छात्रों में संवेगात्मक कठिनाइयाँ उत्पन्न कर देते हैं ।
8. आर्थिक स्थिति -
जो बालक धनाभाव के कारण अभावग्रस्थ रहता है उसमें अनेक अवांछनीय संवेग पनप जाते हैं । वह धनी घर के बच्चों का रहन - सहन देखकर मन में दुःखी होता है । उसमें ईर्ष्या , द्वेष , घृणा आदि हानिकारक संवेग विकसित हो जाते हैं ।