परिधान निर्माण के मूल सिद्धांत - Questionpurs

परिधान निर्माण के मूल सिद्धांत क्या हैं?

परिधान निर्माण के मूल सिद्धांत परिधान में देखने योग्य एक ओर परिधान का रंग होता है और दूसरी ओर परिधान का बाह्य आकार होता है। परिधान में रंग ही परिधान को जीवन देता है और बाहरी परिधान की बाह्य आकृति फैशन के आधार पर परिवर्तित होती रहती है। परिधान के अन्दर काट-छाँट के द्वारा वस्त्र बनाये जाते हैं। परिधान में काट और सिलाई के द्वारा ही परिधान सुन्दर एवं सुविधाजनक बनते हैं।


परिधान निर्माण के मूल सिद्धांत में कुछ आधारभूत रेखायें उपस्थित होती हैं जिनके द्वारा परिधान पहनने वाले के आकार एवं आकृति को प्रभावित करते हैं। यदि इन रेखाओं को सुन्दर न बनाया जाये तो चाहे कितने ही बहुमूल्य वस्त्रों का उपयोग क्यों न कि जाये, परिधान अच्छे नहीं लगते हैं। परिधान की आधारभूत रेखायें सीधी, आड़ी-खड़ी घुमावदार, तिरछी, वक्राकार आदि फैशन के आधार पर परिवर्तित होती रहती है।


कटाई, सिलाई, झालर, गोट, पाइपिंग, बटन पंक्ति आदि से बनने वाली तथा इसके सह-उपकरणों जैसे-माला, ब्रोच, जो टाई, फूल, हैट आदि से उपलब्ध होने वाली आधारभूत अलंकरण रेखाओं के प्रयोग से पहनने वाले का सम्पूर्ण व्यक्तित्व अत्यधिक प्रभावित होता है। परिधान की रचना एवं संयोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर के ढाँचे के प्राकृतिक सौन्दर्य को बढ़ाकर दिखाये। ऐसे परिधान जो प्राकृतिक समानुपात को सुन्दरता से दिखाने में सहायक होते हैं सदैव पसन्द किये जाते हैं और सदैव सुन्दर भी माने जाते हैं। परिधान रचना की रेखायें ऐसी होनी चाहिए, जिनसे वक्राकार सुन्दर भी और फीगर की आकृति के अनुरूप हो।


1. अनुपात (Proportion)


परिधान के अनुपात के अन्तर्गत एक ही वस्त्र के विभिन्न भागों का आपस का सम्बन्ध देखा जाता है। जैसे कि परिधान में वेल्ट, योक, लम्बाई, घेर आदि शरीर के विभिन्न खण्डों के विभाजन का प्रदर्शन करते हैं। अतः यह ध्यान देने वाली बात है कि इनकी रचना एक दूसरे के उचित अनुपात में होनी चाहिए तथा वे ऐसे जिसे देखने में निगाहें उन वस्त्रों पर टिक-सी जायें। यद्यपि विभिन्न व्यक्तियों की शरीर रचना अलग-अलग तरह की होती है।


अतः यह ध्यान देने वाली बात कि फैशन के आधार पर कम वस्त्रों को न पहना जाये जो शरीर में बेहंगे लगे। अतः उचित एवं अच्छे अनुपात से ही परिधान का रूप-रंग और आकार खिलता है। रेखायें दूरी एवं माप आदि सभी दृष्टियों से परिधान रचना में अनुपात का ध्यान रखना चाहिए। अतः स्पष्ट है कि परिधान के अलंकरण एवं सह-उपकरण के मापांक में अनुपात रखने से परिधान पहने वाले में सुन्दर सामंजस्य बना रहता है।


2. सन्तुलन (Balance)


जब परिधान में दोनों भागों में रचना तथा अलंकरण समान होते हैं तो वस्तु वस्त्र सन्तुलन की स्थिति में होते हैं यद्यपि सन्तुलन प्रायः वस्तु वस्त्र की माध्य रेखा से देखा जाता है। वस्त्रों में इस प्रकार के सन्तुलन को औपचारिक सन्तुलन कहते हैं। इसके विपरीत यदि दोनों भागों में रचना, अलंकरण और आकर्षण में भिन्नता हो तो इसे अनौपचारिक सन्तुलन कहते हैं।


परन्तु आज के फैशन में दोनों तरह के सन्तुलन खूब धड़ल्ले से चल रहे हैं। यद्यपि परिधान रचना में औपचारिक सन्तुलन की अपेक्षा अनौपचारिक सन्तुलन बनाना आसान होता है क्योंकि इसमें सब कुछ दोनों ओर एक-सा बना दिया जाता है। ध्येय सही है कि असन्तुलित नमूने वाले वस्त्र अधिक दिन तक बाजार में टिक नहीं पाते। परन्तु वस्त्रों में औपचारिक तथा अनौपचारिक सन्तुलन के मिश्रण द्वारा अधिक लोकप्रिय बनाया जा सकता है।


3. लय


परिधान में लय के द्वारा वस्त्रों को सुन्दर बनाया जाता है। अर्थात् वस्त्र इतने सुन्दर बनाये जाये कि एक बार उन्हें देखने से मन को सन्तुष्टि प्राप्त हो जायें। लय के अन्तर्गत परिधान में रंग रचना रेखा तथा अलंकरण अति आवश्यक है। अतः वस्त्रों में किसी प्रकार की लय हो, परन्तु परिधान में रंग, रचना, रेखा तथा अलंकरण सभी मनोहारी रूप में होने चाहिए।


अतः ठीक उसी तरह जिस तरह अच्छा संगीत मन को सन्तुष्ट कर देता है, उसी प्रकार इसे देखने पर भी मन को पूर्ण रूप से सन्तुष्टि प्राप्त हो। लय को उत्पन्न करने के लिए परिधान की रचना में रंग, रचना, रेखा, आकृति तथा अलंकार में पुनरावृत्ति, स्तरीकरण तथा विकिरण का प्रयोग होना चाहिए। अतः सम्पूर्ण परिधान का संयोजन इतना रोचक होना चाहिए कि उस पर दृष्टि लय व गति से फिसले तथा उसका प्रत्येक भाग मिलकर सुमधुर संगीत उत्पन्न करता सा प्रतीत हो।


4. आकर्षण केन्द्र (Focal Point or Centre of Interest)


हर परिधान जहाँ एक सम्भव हो सादे सुविधाजनक और अच्छे नमूने वाले होने चाहिए। परिधान रचना में केन्द्र बिन्दु को दिया जाने वाला महत्त्व परिधान के शिखर सौन्दर्य एवं कौशल व्यक्तित्व को बढ़ाता है। आकर्षण का केन्द्र बिन्दु ऐसा होना चाहिए जो व्यक्ति की शोभा बढ़ाने और साथ ही वस्त्र के विभिन्न भागों के अनुरू तथा समयानुकूल भी हो। ध्यान रहे कि परिधान रचना में सादगी सौन्दर्य, परिष्कृत आदि से बचाव का सदैव ध्यान रखना चाहिए। केन्द्र बिन्दु व्यक्ति तथा उसकी पोषाक का शोभा बढ़ाने वाला होना चाहिए न कि इन वस्त्रों को पहनकर जोकर की तरह दिखें।


5. अनुरूपता (Harmony)


परिधान रचना में अनुरूपता का भी अपना अलग स्थान है क्योंकि इसके अभाव में अन्य सभी वस्तुओं का सौन्दर्य व्यर्थ सा लगता है। एकरूपता लाने के लिए रंग रेखा संरचना आकार तथा आकृति का सूझ-बूझ के साथ यानि विवेकपूर्ण चुनाव करके, उन्हें एक मात्रा से धागे में पिरोया जाता है इसका तात्पर्य यह है कि परिधान तथा सम्पूर्ण व्यक्तित्व की आकर्षणता और शोभा बढ़ाना है।


परिधान में अनेक चीजों को समाविष्ट कर देने से गड़बड़ी व्याकुलता सी मालूम पड़ती है। विविधता, विचित्रता तथा विभिन्नता लानी तो चाहिए, लेकिन सूझबूझ से और एक सीमा के अन्दर ही। सभी का चुनाव बहुत ही ध्यान से करना चाहिए। रंग, रचना, आकार, आकृति आदि सभी शरीर-रचना से आकर्षक ढंग से एक रूपाकार होना चाहिये।


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