योजना विधि के गुण एवं दोष
योजना पद्धति के गुण
(1) इसके द्वारा शिक्षालय जीवन को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से जोड़ा जाता है।
(ii) इसमें बालक स्वक्रिया द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है जो स्थायी होता है।
(iii) यह कक्षा शिक्षण के दोषों को दूर करने में सहायक है।
(iv) इससे छात्रों में श्रम की महत्ता, आदर करने की भावना एवं अन्य सामाजिक गुणों का विकास होता है।
योजना पद्धति के दोष
(i) यह व्ययशील विधि है।
(ii) इसके द्वारा शिक्षण में अत्यधिक समय लगता है।
(iii) सामाजिक विज्ञान में इस पद्धति के उपयोग के लिए पुस्तकों का अभाव है।
(iv) दो खण्डों में विभाजित कर ज्ञान देने के कारण इसमें कोई तारतम्य एवं क्रम नहीं रहता है।
सामाजिक विज्ञान शिक्षण में योजना विधि का प्रयोग
'योजना' अर्थात् 'प्रोजेक्ट' शब्द का प्रयोग सबसे पहले रिचाई ने 1990 ई० में किया था। उन्होंने 'प्रोजेक्ट' शब्द का प्रयोग उस स्थान पर किया जहाँ बालक एक वास्तविक समस्या को स्वयं अपनी योजना बनाकर तथा यह निर्धारित करके कि योजना के सफल होने में किन पदों का प्रयोग करना पड़ेगा, हल करने की चेष्टा करता है।
इसके पश्चात् 1908 ई० में स्टीवेन्सन ने मैसचुसेट्स में औद्योगिक विद्यालयों में कृषि के पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में इसका प्रयोग किया है। 1911 ई० के मैसचुसेट्स से 'बोर्ड ऑफ स्टेट एजुकेशन' की रिपोर्ट में इस शब्द का निर्णय किया गया। इस रिपोर्ट ने कृषि की शिक्षा को मार्थ्यांमक विद्यालयों में प्रोजेक्ट विधि से पढ़ाने की मान्यता प्रदान की।
इस विधि का वर्णन 1918 ई० के 'फेडरल आफ वोकेशनल एजुकेशन' में मिलता है, परन्तु इस विधि को एक शिक्षा प्रणाली का व्यावहारिक रूप देने वाले किलपैट्रिक महोदय ही हैं। इन्होंने पारकर, डीवी, मोरियम इत्यादि शिक्षाशास्त्रियों के शैक्षिक सिद्धान्तों पर इस प्रणाली को आधारित किया।
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