Rashtriya Shiksha Niti 1986 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986

Rashtriya Shiksha Niti 1986 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986

राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अर्थ व आवश्यकता (MEANING & NEED OF NATIONAL EDUCATION POLICY)


वह नीति जिसके आधार पर पूरे राष्ट्र की गतिविधियों का संचालन होता है, राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहलाती है। मानव रूपी बहुमूल्य राष्ट्रीय संसाधन के विकास पर ही राष्ट्र की प्रगति अवलम्बित है, प्रत्येक व्यक्ति के विकास से अनेक समस्याएँ व अपेक्षाएँ जुड़ी हुई हैं तथा विकास की इस जटिल प्रक्रिया में शिक्षा की भूमिका एक उत्प्रेरक की तरह व गत्यात्मक होती है, जिसे सुनियोजित करना व मवेदनशील व क्रियाशील बनाना जरूरी होता है। 


जीवन की लगातार जटिलतर होती जा रही तनावपूर्ण परिस्थितियों में तथा व्यक्ति को नए वातावरण में लाभान्वित करने के प्रयास हेतु मानव संसाधन के विकास की नई रूपरेखा बनानी आवश्यक है। इन्हीं चुनौतियों का सामना करने हेतु तथा राष्ट्रीय उद्देश्यों एवं आदर्शों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक राष्ट्र अपने विभिन्न क्षेत्रों के विकास हेतु रोतियों का निर्धारण करता है। शिक्षा राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त कराने का एक महत्वपूर्ण साधन होने के कारण हमें शिक्षा की निश्चित नीतियों का निर्धारण करने की आवश्यकता है।

Rashtriya Shiksha Niti 1986 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986

अतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति का तात्पर्य शिक्षा के उन सिद्धान्तों तथा नीतियों के निर्धारण से है, जिनके आधार पर पूरे राष्ट्र की शैक्षिक गतिविधियों का संचालन होता है। शिक्षा आयोग का यह कथन भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आवश्यकता का अनुभव कराता है-शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक सुधार यह है कि इसको परिवर्तित करके व्यक्तियों के जीवन, आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से इसका सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया जाय और इस प्रकार इसको सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तन का शक्तिशाली साधन बनाया जाय, जो राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु आवश्यक है।


आयोग ने अपने प्रतिवेदन में शिक्षा की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विषय में जो विचार अंकित किये, उनको संसद के सदस्यों, विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों, राज्यों के शिक्षा मन्त्रियों और भारतीय विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों ने कुछ संशोधनों के बाद स्वीकार कर लिया। इसी के आधार पर भारत सरकार ने शिक्षा की राष्ट्रीय नीति के निर्धारण हेतु लगातार तीन राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों का गठन किया था-


1. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968)- जब कांग्रेस सत्ता में थी। इसका गठन कोठारी आयोग 1964-66 ई. के सुझाव पर किया गया था।

2. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1979)- जब जनता पार्टी सत्ता में आयी, परन्तु इसकी संस्तुतियों का कार्यान्वयन न हो सका। यह कागजों तक सीमित रही।

3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986)- पुन: काँग्रेस सत्ता में आई। उस समय राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री थे।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) [NATIONAL EDUCATION POLICY (1986)]


स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के भारतीय शिक्षा के इतिहास में 1968 ई. की राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक महत्त्वपूर्ण कदम का प्रतीक था। इस पर अमल भी होना शुरू हो गया था तथा कई प्रान्तों ने अपने-अपने ढंग से 10+2+3 की शिक्षा संरचना लागू कर दी थी। त्रिभाषा सूत्र लागू कर दिया गया था। कई प्रान्तों में कृषि, व्यावसायिक एवं तकनीकि शिक्षा, विज्ञान शिक्षा और वैज्ञानिक शोधों के लिये विशेष प्रावधान किये जाने लगे थे। 


प्रायः सभी प्रान्तों में परीक्षा प्रणाली में सुधार की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। आधुनिकीकरण के नाम पर विज्ञान व गणित की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी और शैक्षिक अवसरों की समानता के लिये कदम उठाये जाने लगे थे, परन्तु 1977 ई. में केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार के बनने पर 10+2+3 शिक्षा संरचना के स्थान पर 8+4+3 शिक्षा संरचना का विचार आया। 


जिसके परिणामस्वरूप कुछ शिक्षाविदों व सांसदों के सहयोग से तत्कालीन केन्द्रीय शिक्षा मन्त्री श्री प्रतापचन्द्र चन्दर ने एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1979 ई. की घोषणा कर दी। इसे अभी लागू भी नहीं किया गया था, कि 1980 ई. में केन्द्र में पुनः कांग्रेस सत्ता में आ गई व पुनः राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 के अनुपालन पर जोर दिया, परन्तु इसी बीच इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी के प्रधानमन्त्री बनने पर, हर क्षेत्र में आन्दोलनकारी कदम उठाने के प्रयास में शिक्षा के पुनर्निरीक्षण व पुनर्गठन प्रक्रिया में तत्कालीन शिक्षा का सर्वेक्षण कराकर इसे शिक्षा की चुनौती नीति सम्बन्धी परिप्रेक्ष्य (Challenge of Education: A Policy Perspective) नाम से अगस्त 1983 में प्रकाशित कराया गया। 


जिसमें भारतीय शिक्षा की सन् 1951 से 1983 तक की प्रगति यात्रा का सांख्यिकीय विवरण, उसकी उपलब्धियों एवं असफलताओं का यथार्थ चित्रण करते हुये उसके गुण-दोषों का सम्यक् विवेचन किया गया है। सरकार के इस दस्तावेज पर विश्वव्यापी बहस शुरू हुई और सभी प्रान्तों के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से सुझाव प्राप्त हुये। केन्द्रीय सरकार ने इन सुझावों के आधार पर एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति तैयार की और उसे संसद के बजट अधिवेशन, सन् 1986 में प्रस्तुत किया। 


संसद् में प्रस्तुत करने के बाद इसे मई, 1986 ई. में पास कराया गया। इस शिक्षा नीति की घोषणा के कुछ माह बाद इसकी कार्य योजना (Plan of Action) नामक दस्तावेज प्रकाशित किया गया। यह भारत को ऐसी पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति है, जिसमें नीति के साथ उसके कार्यान्वयन की पूरी योजना भी प्रस्तुत की गई है और साथ ही उसके लिये पर्याप्त संसाधन जुटाये गये हैं।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 का दस्तावेज (Format of National Education Policy-1986)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 का दस्तावेज 12 भागों में विभाजित है, जिसका संक्षिप्त वर्णन निम्न है-


1. शिक्षा का सार व भूमिका (The Essence and Role of Education)

इस भाग में यह स्वीकार किया गया है कि शिक्षा वास्तव में सभी के लिये है। यह बहुमुखी विकास पर आधारित है। शिक्षा से अर्थव्यवस्था के विभिन्न स्तरों के लिये मानवशक्ति विकसित होती है। यह वह आधार है, जिम पर शोध व विकास की उन्नति होती है।


यह राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता की अन्तिम गारंटी है। शिक्षा का एक कार्य संस्कृति संक्रमण है। यह उन संवेदनशीलताओं तथा प्रत्यक्षीकरण का परिष्कार करती है, जो राष्ट्रीय समंजन वैज्ञानिक स्वभाव मन व आत्मा को स्वतन्त्रता को संभव बनाते हैं व इस प्रकार प्रविधान में निहित समाजवाद, धर्म-निरपेक्षता तथा प्रजातन्त्र के लक्ष्यों की प्राप्ति सुगम हो जाती है।


इस प्रकार यह भाग पूरे दस्तावेज की भूमिका (Introductory) है। इस भाग में ।। से लेकर 15 तक धारायें हैं। इन धाराओं में शिक्षा पर सामान्य कथन करते हुये बताया गया है कि इस नवीन शिक्षा नीति में सन् 1968 की प्रथम राष्ट्रीय नीति का अनुसरण किया गया है। इसमें शिक्षा को जीवन में ओड़ने, ग्रामीण क्षेत्र में 90% लोगों को प्राथमिक शिक्षा की उपलब्धता, शिक्षा की 10+2+3 की समान संरचना, उच्च शिक्षा में की गई प्रगति, लोकतंत्र के मार्ग की बाधायें, बेरोजगारी व जनसंख्या की चुनौतियाँ तथा अगले दशक के नये तनावों आदि का वर्णन किया गया है।


2. राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली (National Education System)-

शिक्षा की राष्ट्रीय प्रणाली का आशय है-किसी निश्चित स्तर तक जाति, पन्थ, स्थान या लिंग के भेदभाव के बिना सभी विद्यार्थियों की एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा तक पहुँच हो। अत: इस भाग में शिक्षा को सभी के लिये सुलभ बनाने हेतु शिक्षा को राष्ट्रीय लक्ष्य मानते हुये इसे एक ऐसा आर्थिक निवेश कहा गया, जो समाज और व्यक्तियों के वर्तमान तथा भविष्य दोनों का निर्माण करता है। यह राष्ट्रीय शिक्षा एक समान शैक्षिक संरचना पर विचार करती है। 


यह राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली राष्ट्रीय पाठ्यक्रम पर आधारित होगी, जिसमें समान मूल (Core) सहित अन्य घटक शामिल होते हैं, जो लचीले होते हैं। इसके साथ ही एक उभयनिष्ठ अंश भी होगा, जिसमें भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास, संवैधानिक दायित्व तथा राष्ट्रीय पहचान के विकास के लिये जरूरी विषयवस्तु होगी। ये तत्त्व विषय सीमाओं से परे होंगे तथा इनका निर्माण इस प्रकार किया जायेगा कि भारत की उभयनिष्ठ, सांस्कृतिक धरोहर, प्रजातंत्र, ममतावादिता व धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों, विभिन्न लोगों के लिंगों में समानता, पर्यावरण की रक्षा, सामाजिक बाधाओं की समाप्ति, छोटे परिवारों के मानक के स्वीकरण तथा वैज्ञानिक स्वभाव के विकास को बढ़ावा मिल सके।


अवसर की समानता को बढ़ावा देना न केवल सफलता के लिये बल्कि सुलभता की शर्तों के लिये भी आवश्यक है। यह जागरूकता मूल (Core) पाठ्यक्रम द्वारा पैदा की जायेगी। सभी को सफलता सम्बन्धी दशाओं के समान अवसर उपलब्ध कराये जायेंगे। शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर न्यूनतम अधिगम स्तर निर्धारित किये जायेंगे तथा उच्च शिक्षा में सामान्यतः व प्राविधिक शिक्षा में विशिष्टतः अन्तरक्षेत्रीय गतिशीलता को बढ़ावा दिया जायेगा।


'जीवनपर्यन्त शिक्षा' शिक्षा प्रक्रिया का एक पोषक उद्देश्य होगा। अपनी मनपसन्द शिक्षा को उपयुक्त स्थान पर जारी रखने के लिये युवाओं, गृहणियों, कृषि व उद्योगों में कार्यरत कामगारों को अवसर दिये जायेंगे। भविष्य में मुक्त व दूरस्थ शिक्षा पर बल दिया जायेगा।


शिक्षा की इस राष्ट्रीय प्रणाली को उपयुक्त स्वरूप प्रदान करने में प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर सकने के लिये सक्षम बनाने हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् तथा भारतीय चिकित्सा परिषद् को सशक्त किया जायेगा।


इनके साथ-साथ राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्, राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन संस्थान और अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा संस्थान को भी शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में शामिल किया जायेगा।


शिक्षा विषय के समवर्ती सूची में होने के कारण केन्द्र व राज्य सरकारों के उत्तदायित्वों में एक नई साझेदारी को जरूरत है। राज्यों की भूमिका व दायित्व तो निश्चित रूप से अपरिवर्तित रहेंगे, परन्यू संघीय सरकार शिक्षा के राष्ट्रीय व समन्वयात्मक चरित्र को प्रबलित करने, गुणवत्ता व मानकों को कायम रखने, विकास के लिये मानवशक्ति सम्बन्धी पूरे देश की शैक्षिक जरूरतों को जानने व नियन्त्रित करने, शोध व उच्च अध्ययन की आवश्यकताओं को पूरा करने तथा सामान्यत: पूरे देश में सभी शैक्षिक स्तरों पर श्रेष्ठत्व को बढ़ाने में अधिक उत्तरदायित्व को स्वीकार करेगी।


3. समानता के लिये शिक्षा (Education for Equality) -

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में वर्तमान समय में पाई जाने वाली शैक्षिक असमानताओं को दूर करने तथा समान अवसरों से वंचित व्यक्तियों को विशिष्ट आवश्यकताओं की ओर ध्यान देकर समान शैक्षिक अवसर उपलब्ध कराने पर ध्यान दिया जायेगा।


स्त्रियों की स्थिति में आधारभूत परिवर्तन लाने के लिये, स्त्रियों में निरक्षरता को समाप्त करने व प्रारम्भिक शिक्षा तक उनकी पहुँच व शिक्षा प्राप्ति में बाधाओं को हटाने पर विशेष ध्यान दिया जायेगा। इस भाग में शिक्षा से सम्बन्धित निम्नलिखित नीतियों को प्रस्तुत किया गया है-


1. सामाजिक विषमताओं को दूर रखते हुये अब तक के वंचित लोगों को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराना।

2. महिलाओं को सशक्त व सामर्थ्यवान बनाने हेतु उन पर विशेष ध्यान देकर सार्थक शिक्षा प्रदान करना।

3. विभिन्न स्तरों पर व्यावसायिक, तकनीकी तथा व्यवसाय से सम्बन्धित शिक्षा में महिलाओं की सहभागिता पर प्रमुख बल दिया जाना।

4. अनुसूचित जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिये निर्धन परिवारों को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के लिये प्रोत्साहन, विशेष छात्रवृत्तियाँ, नियमित निरीक्षण, इन जातियों के व्यक्तियों को शिक्षक बनाना, छात्रावास की सुविधायें तथा ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम व ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम का समुचित उपयोग आदि पर विशेष ध्यान देना।

5. अनुसूचित जनजातियों के बालकों की शिक्षा के लिये आदिवासी क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालय खोलना, आदिवासी संस्कृति व भाषा का संरक्षण, आदिवासियों को शिक्षक बनाना, आश्रम तथा आवासीय विद्यालय स्थापित करना, शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली बाधाओं को दूर करना, उच्च शिक्षा व तकनीकी शिक्षा के लिये छात्रवृत्तियाँ प्रदान करना, विशेष उपचारात्मक पाठ्यक्रम, आँगनबाड़ी व अनौपचारिक शिक्षा केन्द्र खोलना तथा आदिवासियों की सृजनात्मक प्रतिभा का विकास करना आदि कार्यक्रम सम्पन्न किये जायेंगे।

6. समाज के शैक्षिक व्यवस्था से पिछड़े वर्गों विशेषतया ग्रामीण क्षेत्रों के वर्गों को अनुकूल प्रोत्साहन प्रदान किया जायेगा, पर्वतीय तथा मरुस्थलीय जिलों को, दूरवर्ती तथा दुर्गम क्षेत्रों को उपयुक संस्थागत संरचना प्रदान की जायेगी।

7. अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा व संस्कृति की सुरक्षा, अपनी शिक्षा संस्थाओं का संचालन, वस्तुनिष्ठ पाठ्यक्रम का निर्माण तथा राष्ट्रीय उद्देश्यों के अनुरूप एकता स्थापित करने के पर्याप्त अवसर दिये जायेंगे।

8. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शारीरिक तथा मानसिक रूप से विकलांग को बराबर के साझीदार की तरह, आम जनता के साथ समन्वित करने हेतु उनकी शिक्षा अन्य बच्चों के समान करने, यथासम्भव जिला मुख्यालयों में छात्रावासों सहित विशेष विद्यालयों का प्रावधान करने, विकलांगों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देने व विकलांग बच्चों की विशेष कठिनाइयों के समाधान हेतु स्वैच्छिक प्रयत्न करने व शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम की पुनः अभिमुखता का प्रावधान रखा गया।

9. प्रौढ़ तथा सतत् शिक्षा के व्यापक कार्यक्रम को अनेक प्रकार से लागू किया जायेगा, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में सतत् शिक्षा केन्द्रों की स्थापना, नियोजकों, मजदूर संघों व सरकारी अभिकरणों द्वारा कामगारों की शिक्षा, पुस्तकों, पुस्तकालयों व वाचनालयों का प्रसार, रेडियो, टी.वी. व फिल्मों का जन ३ समूह अधिगम माध्यम के रूप में प्रयोग, दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम, रुचि व आवश्यकता पर आधारित व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम का निर्माण किया जायेगा।


4. विभिन्न स्तरों पर शिक्षा का पुनर्गठन (Reorganization of Education at different levels)-


(अ) पूर्व बाल्यकाल देखभाल व शिक्षण (Early childhood care and Education- ECCE)


शिक्षा की इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिशु के विकास की सर्वतोन्मुखी प्रकृति को मान्यता दी गई है, अर्थात् आहार, स्वास्थ्य तथा सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, नैतिक व भावनात्मक विकास पर विशेष ध्यान देते हुये समेकित बाल विकास कार्यक्रम चलाया जायेगा, जिसमें पूर्व प्राथमिक शिक्षा को समेकित करते हुये विद्यालयों के स्वास्थ्य कार्यक्रमों को और सुदृढ़ बनाया जायेगा।


साथ ही प्राथमिक शिक्षा को भी बालकेन्द्रित बनाते हुये 14 वर्ष के सभी बालकों को विद्यालय भेजने का प्रबन्ध किया जायेगा। इस काल में औपचारिक विधियों का प्रयोग नहीं किया जायेगा तथा लिखने-पढ़ने तथा गणित के बारे में शिक्षा वहीं दी जायेगी। शिशु की देखभाल व पूर्व प्राथमिक शिक्षा में पूर्ण समन्वय रखा जायेगा। इसे एकीकृत बाल विकास सेवा कार्यक्रम से उपयुक्त रूप से समन्वित किया जायेगा।


(ब) प्राथमिक (मौलिक) शिक्षा [Primary (Basic) Education]


इस शिक्षा नीति में 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के सार्वजनिक नामांकन व नियमित शिक्षा प्राप्ति तथा शिक्षा की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार पर बल दिया जायेगा। इस स्तर पर बालकेन्द्रित व क्रिया आधारित अधिगम प्रक्रिया अपनाई जायेगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा के दो पहलुओं पर बल दिया जायेगा-


(i) सार्विक प्रवेश तथा 14 वर्ष की आयु तक बच्चों की सार्विक शिक्षा।

(ii) शिक्षा की गुणवत्ता में महत्त्वपूर्ण सुधार।


इस शिक्षा नीति में गति निर्धारित स्कूलों की व्यवस्था करने की बात भी कही गयी है। जहाँ प्राथमिक शिक्षा के विद्यार्थियों को अपनी गति से पढ़ने का अवसर दिया जाएगा तथा उन्हें पूरक उपचारात्मक अनुदेशन दिया जायेगा। प्राथमिक स्तर पर किसी भी बच्चे को किसी कक्षा में एक से अधिक वर्ष तक रोका नहीं जायेगा। मूल्यांकन को यथासम्भव अलग रखा जायेगा। शारीरिक दण्ड वर्जित होगा व बच्चों की सुविधानुसार विद्यालय समय व छुट्टियों का निर्धारण किया जायेगा।


प्राथमिक विद्यालयों में अनिवार्य सुविधाओं का प्रबन्ध किया जायेगा, जिसमें कम से कम दो उचित आकार के बड़े कमरे शामिल होंगे, जिनका सब ऋतुओं में प्रयोग किया जा सके तथा आवश्यक खिलौने, श्यामपट मानचित्रों, चार्ट तथा अधिगम की अन्य सामग्री उपलब्ध होगी। प्रत्येक विद्यालय में कम से कम दो अध्यापकों को नियुक्त किया जायेगा, जिनमें से एक महिला होगी।


धीरे-धीरे प्रत्येक विद्यालय में एक कक्षा एक शिक्षक के अनुपात में शिक्षक नियुक्त किये जायेंगे। समस्त देश में प्राथमिक विद्यालयों के सुधार के लिये तत्काल एक अवस्था (Phased) अभियान चलाया जायेगा। जिये प्रतीकात्मक रूप से 'ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड' कहा गया है। कामगार बच्चों, पूर्णकालिक विद्यालयों में पढ़ने में असमर्थ लड़कियों, विद्यालयविहीन क्षेत्रों के बच्चों तथा विद्यालय छोड़ने वाले बच्चों के लिये निरौपचारिक शिक्षा का व्यापक व क्रमबद्ध कार्यक्रम शुरू किया जायेगा।


निरौपचारिक शिक्षा केन्द्रों (NFEC) के अधिगम वातावरण को सुधारने के लिये आधुनिक तकनीकी प्रयुक्त की जाएगी व स्थानीय समुदाय के प्रतिभाशाली व समर्पित युवकों व युवतियों को अनुदेशक नियुक्त किया जायेगा। इस प्रकार औपचारिक व निरौपचारिक शिक्षा की गुणवत्ता में समानता स्थापित करने के उपाय किये जायेंगे। इस प्रकार यह सुनिश्चित किया जायेगा कि सन् 1990 तक 11 वर्ष की आयु के सभी बच्चे कम से कम पाँच वर्ष की विद्यालयी शिक्षा या निरौपचारिक शिक्षा प्राप्त कर चुके हों।


इसके अतिरिक्त पर्यवेक्षण का कार्य पूर्णकालिक अनौपचारिक शिक्षा पर्यवेक्षकों को सौंपा जा सकता है तथा जहाँ भी सम्भव हो औपचारिक शिक्षा तथा प्रौढ़ शिक्षा के लिये प्रशासनिक तथा पर्यवेक्षक संरचना तथा पंचायती राज संस्थाओं व स्वैच्छिक अभिक्रमों (Agencies) तथा पंचायती राज संस्थाओं को शामिल करने के सकारात्मक उपाय करने का प्रस्ताव रखा गया है। इन अभिक्रमों (Agencies) को उपयुक्त तथा समय पर अनुदान प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार उठायेगी।


(स) माध्यमिक शिक्षा (Secondary Education)


इस राष्ट्रीय नीति में माध्यमिक शिक्षा अपनी विशिष्ट भूमिका में दिखायी देगी। माध्यमिक शिक्षा विद्यार्थियों को विज्ञान, मानविकी तथा सामाजिक विज्ञानों की विभिन्न भूमिकाओं की जानकारी देना शुरू करती है। इस नीति के सुझावों के अनुसार प्रतिभाशाली बच्चों को तीव्र गति से प्रगति करने देने के लिये अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा व उपयुक्त अवसर सुलभ कराने के लिये देश के विभिन्न भागों में एक निश्चित प्रकार के 'पेस सेटिंग स्कूल' या 'गति निर्धारक विद्यालय' खोले जायेंगे।


ये बालकों में श्रेष्ठता की भावना का विकास करने के साथ ही समानता व सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों की स्थापना करेंगे। इस प्रकार देश के विभिन्न भागों मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों के प्रतिभाशाली बच्चों को साथ-साथ रहने का अवसर देकर राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रोत्साहन मिलेगा तथा बच्चों की क्षमताओं का पूर्ण विकास होगा तथा ये राष्ट्रीय कार्यक्रम के उत्प्रेरक बनेंगे। ये विद्यालय आवासीय व निःशुल्क होंगे।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में माध्यमिक शिक्षा के प्रसार व उन्नयन हेतु आवश्यकतानुसार देश के विभिन्न भागों में नवोदय विद्यालयों की भी स्थापना की जायेगी ताकि तीव्र गति से विकास करने वाले या विशेष प्रतिभा वाले बच्चों को अवसर प्रदान किये जा सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा बच्च्चों को उपलब्ध कराई जायेगी। इन नवोदय स्कूलों के सामान्य उद्देश्य - उत्कृष्टता, समानता व सामाजिक न्याय आदि तात्कालिक उद्देश्यों की पूर्ति करना, ग्रामीण क्षेत्रों के प्रतिभाशाली बच्चों को सीखने के अवसर देना, उनकी क्षमताओं का पूर्ण विकास करना व स्कूलों को आवासीय तथा निःशुल्क बनाना होगा।


इस स्तर पर क्रमबद्ध, सुनियोजित तथा लचीले व्यावसायिक कार्यक्रम शुरू किये जायेंगे। विशेष संस्थाओं में व्यावसायिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जायेगा तथा माध्यमिक शिक्षा से अपवचित वर्ग तथा क्षेत्र के लिये व्यापक स्तर पर नये विद्यालय खोले जायेंगे। व्यावसायिक संस्थाओं व अवचर्याओं की शुरू करने का दायित्व सरकार तथा सरकारी व निजी क्षेत्र के सेवायोजकों का होगा।


इस प्रकार व्यापक रूप से व्यावसायिक शिक्षा का प्रावधान किये जाने से व्यावसायिक शिक्षा सामान्यतः भाधामिक शिक्षा के बाद अलग धारा के रूप में होगी तथा इसका उद्देश्य स्वरोजगार के अवसर को प्राण करने के प्रति एक स्वस्थ अभिवृत्ति का विकास करना होगा। इस पाठ्यक्रम की अवधि एक से जीव वर्ष की होगी तथा ऐसे विद्यालयों का दायित्व सरकार का होगा। ऐसा भी प्रस्ताव किया गया है कि उच्चतर माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों का दस प्रतिशत सन् 1990 तक और 25 प्रतिशत सन् 1995 एक व्यावसायिक पाठ्यचर्या में आ जाए।


इसक्के अतिरिक्त नव साक्षरों, प्राथमिक शिक्षा प्राप्त युवकों, स्कूल छोड़ जाने वालों तथा रोजगार या आशिक रोजगार में लगे हुये व्यक्तियों के लिये भी अनौपचारिक लचीले व आवश्यकता पर आधारित आवसायिक शिक्षा के कार्यक्रम चलाये जायेंगे।


5. उच्च शिक्षा (Higher Education)


स शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के उन्नयन हेतु छात्रों को प्रवेश परीक्षा द्वारा प्रवेश देने, पाठ्यक्रमों के पुनर्गठन करने, उच्च शिक्षा संस्थानों को साधन उपलब्ध कराने और उनके शिक्षकों के लिये पुनर्बोध कार्यक्रमों की व्यवस्था करने की बात कही गई है। इस सम्बन्ध में नवीन शिक्षा नीति में निम्नलिखित प्रावधान हैं-


(i) एक बड़ी संख्या में स्वायत्तता प्राप्त कॉलेजों का विकास किया जायेगा तथा विश्वविद्यालयों के कुछ चुने हुये विभागों को भी स्वायत्तता दी जायेगी।

(ii) उच्च शिक्षा के लिये न्यूनतम आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था की जायेगी तथा छात्रों की संख्या को सीमित रखने के साथ ही विशेषज्ञता सम्बन्धी माँगों को प्रभावी ढंग से पूरा किया जायेगा। 

(iii) उच्च शिक्षा का परिषदों के माध्यम से राज्य स्तरीय नियोजन व समन्वय किया जायेगा तथा क्षमता के अनुसार प्रवेश को नियमित किया जायेगा।

(iv) शिक्षण विधियों को बदलने के प्रयास किये जायेंगे तथा शिक्षकों के कार्य का मूल्यांकन भो व्यवस्थित ढंग से किया जायेगा।

(v) विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्यों की व्यवस्था की जायेगी और अनुसन्धान की उच्च गुणवत्ता को सुनिश्चित बनाने के लिये सहायता प्रदान की जायेगी व आवश्यक प्रयास किये जायेंगे।

(vi) शिक्षा के स्तर पर निगरानी के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और शिक्षा परिषदें कार्य करेंगी।

(vii) सामान्य रूप से उच्च शिक्षा को तथा विशेष रूप से कृषि, चिकित्सा, टेक्नोलॉजी, कानून व शिक्षा पर आधारित अन्य व्यवसायों के क्षेत्रों को अपना लक्ष्य बनाने वाली एक राष्ट्रीय संस्था की स्थापना शिक्षा नीति में एकरूपता व सुसंगति पैदा करने के उद्देश्य से की जायेगी।


शिक्षा के समान अवसरों को उपलब्ध कराने की दृष्टि से मुक्त विश्वविद्यालय तथा दूरस्थ शिक्षा प्रणाली को नयी शिक्षा नीति में आश्रय दिया जायेगा। विशिष्ट तकनीकी सेवाओं जैसे- डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, विधि तथा ऐसी अन्य सेवाओं में, जहाँ अकादमिक योग्यता आवश्यक है, को छोड़कर अन्य सामान्य सेवाओं के लिये डिग्री की अनिवार्यता समाप्त की जायेगी। शिक्षा नीति में महात्मा गाँधी के शिक्षा सम्बन्धी क्रान्तिकारी विचारों के अनुरूप ग्रामीण विश्वविद्यालयों को विकसित किया जायेगा।


6. तकनीकी व प्रबन्ध शिक्षा (Technical and Management Education)


नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तकनीकी व प्रबन्ध शिक्षा हेतु अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् (AICTE) एवं राज्यों के तकनीकी शिक्षा बोडौं को सुदृढ़ करने, कुछ अच्छे तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा संस्थानों को स्वायत्तता प्रदान करने, तकनीकी शिक्षा संस्थाओं में अन्तर्सम्बन्ध बढ़ाने और इस क्षेत्र में सतत् शिक्षा की व्यवस्था करने की बात कही गयी है। इसके लिए निम्न कार्य किये जायेंगे-


1. बालकों के लिए इस प्रकार की पाठ्यवस्तु का निर्माण किया जायेगा, जिससे वे सुन्दरता, समायोजन तथा परिष्कार आदि के प्रति संवेदनशील बन सकें।

2. शिक्षा द्वारा छात्रों के जीवन से धार्मिक कट्टरता, अंध विश्वास, हिंसा, असहिष्णुता तथा भाग्यवाद आदि बुराइयों को दूर कर उनमें हो रहे मूल्यों के हास को रोकने के लिए उन्हें जीवन के शाश्वत् मूल्यों से अवगत कराया जायेगा।

3. तकनीकी तथा प्रबन्ध शिक्षा की धारायें अलग-अलग होने पर भी इनके पारस्परिक सम्बन्धों को देखते हुए सदी के अन्त तक प्रस्तावित कल्पना के अनुसार इनका पुनर्गठन करना आवश्यक होगा। यह आवश्यक है कि तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा की नीति के अन्तर्गत भविष्य में आर्थिक, सामाजिक पर्यावरणीय उत्पादन और प्रबन्ध प्रक्रिया व ज्ञान का द्रुत गति से प्रसार किया जाय और इसे विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाले सामाजिक परिवर्तनों के सन्दर्भ में देखा जाय।

4. मानव शक्ति सम्बन्धी सूचनाओं को विकसित करने के क्रम में हाल ही में स्थापित टेक्नीकल मैन पॉवर इन्फार्मेशन सिस्टम को और अधिक विकसित एवं सक्षम बनाया जाय।

5. स्थापित व विकासशील प्रौद्योगिकी के लिए सतत् शिक्षा (Continuous Education) का विकास किया जायेगा।

6. महिलाओं, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों एवं विकलांगों के लाभ के लिए तकनीकी शिक्षा के समुचित औपचारिक व अनौपचारिक कार्यक्रम तैयार किये जायेंगे। छात्र को इतना उत्तम उद्यम विषयक प्रशिक्षण दिया जायेगा कि वे स्वयं रोजगार कर सकें। इस प्रकार के प्रशिक्षण की व्यवस्था डिग्री तथा डिप्लोमा स्तर पर माड्यूलर तथा वैकल्पिक कोर्सों द्वारा की जायेगी।

7. सामुदायिक पॉलिटेक्निकों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोर वर्ग के लोगों को उत्पादक व्यवसायों में प्रशिक्षण दिया जायेगा।

8. शिक्षा में आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी के ज्ञान के अन्तर्गत छात्रों को आवश्यक सूचनाओं का ज्ञान, शिक्षक प्रशिक्षण, शैक्षिक गुणवत्ता में वृद्धि, कला व संस्कृति के प्रति जागरूकता तथा स्थायी मूल्यों के संस्कार आदि का ज्ञान कराया जायेगा।

9. कार्य अनुभव को उद्देश्यपूर्ण व सार्थक शारीरिक कार्य मानते हुए इसका प्रयोग छात्रों के लिए माध्यमिक स्तर पर दिये जाने वाले पूर्व व्यावसायिक कार्यक्रम तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा के लिए किया जायेगा।

10. तकनीकी व प्रबन्ध शिक्षा में दक्षता व प्रभाविता का बढ़ाया जाना भी आवश्यक है अतः इस हेतु कार्यात्मक दक्षता को बढ़ाया जायेगा तथा पुरानी कार्यशैली को हटाया जायेगा।

11. तकनीकी शिक्षा का सम्बन्ध उद्योग, अनुसंधान और विकास संगठनों से, ग्रामीण और सामुदायिक विकास कार्यक्रमों से तथा पूरक स्वरूप वाले अन्य शिक्षा क्षेत्रों से स्थापित किया जायेगा। 

12. शिक्षकों को इस सन्दर्भ में बहुमुखी भूमिका निभाते हुए शिक्षण, अनुसंधान, शिक्षण सामग्री तैयार करने के साथ संस्था के प्रबन्ध में भी हाथ बंटाना होगा। सभी तकनीकी प्रशिक्षकों के लिए सेवा पूर्व और सेवाकालीन प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया जायेगा।

13. उच्च्च कोटि की संस्थाओं और व्यक्तियों के श्रेष्ठ कार्य पर उन्हें पुरुस्कृत किया जायेगा, परन्तु पाटणा स्तर की संस्थाओं की वृद्धि पर अंकुश लगाने के साथ-साथ चुनिंदा संस्थानों को ही, एक सीमा तक हो शैक्षिक, प्रशासनिक व वित्तीय स्वतन्त्रता दी जायेगी।

14. शिक्षा की प्रामाणिकता को बनाये रखने तथा अन्य अनेक उपयुक्त कारणों को ध्यान में रखकर तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के व्यापारीकरण को रोका जायेगा। इसके विकल्प के रूप में स्वीकृत मानदण्डों और सामाजिक लक्ष्यों के अनुरूप इन क्षेत्रों में निजी और स्वैच्छिक प्रयासों को शामिल करने की एक नई पद्धति तैयार की जायेगी।


7. शिक्षा व्यवस्था को कारगर बनाना (Making the Education System Effective)


इस शिक्षा नीति में तत्कालीन शैक्षिक वातावरण में उद्देश्यों की गंभीरता के साथ-साथ आधुनिकीकरण एवं सृजनात्मकता की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, शिक्षा के गुण एवं प्रसार के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तनों को सम्मिलित किए जाने की बात कही गई है।


अतः इसमें संस्थाओं के प्रशासन तथा शिक्षकों के लिए मानक निर्धारित करने, शिक्षक तथा छात्रों की कार्य प्रणाली में सुधार करने और शिक्षा मस्थाओं का मूल्यांकन करने पर बल दिया गया है। इस कार्य हेतु शिक्षकों की जवाबदेही, वांछित व्यवहार-मानकों का छात्रों द्वारा अनुपालन एवं उन्नत छात्रसेवा की व्यवस्था संस्थाओं को अच्छी सुविधा प्रदान करना तथा राष्ट्रीय या स्वः राज्य पर निर्धारित मानक तथा स्तरों के अनुसार संस्थानों की निष्पत्ति के सन्दर्भ में मूल्यांकन व्यवस्था का निर्माण करने की बात कही गयी है।


8. शैक्षिक विषय वस्तु और प्रक्रिया को नया स्वरूप देना (To Give New prospective to Educational Content and Process)


तत्कालीन परिस्थितियों में ऐसा अनुभव किया जा रहा था कि औपचारिक शिक्षण पद्धति और देश की समृद्धि व विविध सांस्कृतिक परम्पराओं के बीच की खाई को भरना आवश्यक है, इन सांस्कृतिक परम्पराओं के मध्य विद्यमान अन्तर को समाप्त करने हेतु एक सेतु का निर्माण आवश्यक है। शिक्षा को एक ओर जहाँ वैज्ञानिक तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी के विकास और परिवर्तन को ध्यान में रखना है वही विभिन्न सांस्कृतिक व मानवीय मूल्यों में भी घनिष्ठ सम्बन्ध रखना होगा। 


राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा की विषयवस्तु व प्रक्रिया को अनेक प्रकार से सांस्कृतिक विषयवस्तु से सम्बन्धित किया जायेगा। इस प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति इन दोनों पक्षों के न्यायोचित संश्लेषण पर बल देने के साथ ही साहित्य और कला आदि के शिक्षण-प्रशिक्षण वाले संस्थानों के संवर्धन पर भी बल देगी। बच्चों की सौन्दर्य, संगीत व परिष्कार के प्रति संवेदनशीलता विकसित की जाएगी तथा शिक्षा द्वारा सार्वभौमिक मूल्यों का विकास किया जायेगा। इस प्रकार मूल्यों की शिक्षा, सामाजिक व नैतिक मूल्यों के विकास हेतु एक सशक्त माध्यम बनेगी तथा इससे धार्मिक अन्धविश्वास, कट्टरता, असहिष्णुता, हिंसा और भाग्यवाद का अन्त करने में सहायता मिलेगी।


सन् 1968 की शिक्षा नीति की परीक्षा के बाद भाषाओं के विकास की दिशा में आवश्यक प्रावधानों में हो रही कठिनाई को, इस नीति में संशोधित किया जा सकता है। अत: सन् 1986 की भाषा नीति को सोद्देश्यपूर्ण ढंग से व पूरी शक्ति से लागू किया जायेगा।


बच्चों के लिए अच्छी पुस्तकों के उत्पादन पर विशेष ध्यान दिया जायेगा तथा अच्छी विदेशी पुस्तकों को भारतीय भाषाओं में अनुवादित करने के लिए सहायता भी दी जायेगी। पुस्तकों की गुणवत्ता सुधारने, पाठकों की पठन क्षमता बढ़ाने, सृजनात्मक लेखन को प्रोत्साहित करने व लेखकों के हितों के संरक्षण हेतु कदम उठाये जायेंगे तथा पुस्तकालयों की दशा सुधारने के उपाय भी किये जायेंगे।


भारत जैसे देश में पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता को अनुभव करते हुए पर्यावरण की संरक्षा और सुरक्षा की सजगता के पक्ष को विद्यालयों और महाविद्यालयों के शिक्षण में महत्वपूर्ण स्थान दिया जायेगा व इसे शिक्षा की पूरी प्रक्रिया में समाहित किया जायेगा।


उपयोगी सूचनाओं के प्रसार, शिक्षकों के प्रशिक्षण, गुणवत्ता में सुधार, कला व संस्कृति के बोध को बढ़ाने शाश्वत् मूल्यों के विकास के लिए शैक्षिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जायेगा। उपलब्ध सुविधाओं का अधिकतम उपयोग किया जाएगा। अच्छी व उपयोगी बाल फिल्मों के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया जाए‌गा व उचित शैक्षिक उद्देश्यों के विरोधी रेडियो व टी. वी कार्यक्रमों तथा फिल्मों आदि पर रोक लगाई जायेगी।


कार्यानुभव की शिक्षा को सभी स्तरों पर दी जाने वाली शिक्षा का एक आवश्यक अंग माना जायेगा व इसे देने हेतु एक श्रेणीकृत व सुसंरचित कार्यक्रम भी बनाया जायेगा। इसके द्वारा प्राप्त किया गया अनुभव आगे चलकर रोजगार पाने में बहुत सहायक होगा। वातावरणीय सचेतनता या जागरूकता उत्पन्न करने के कार्यक्रमों को सम्पूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया में समाकलित किया जायेगा।


बच्चों में चिन्तन, तर्क, विश्लेषण व तार्किक संश्लेषण में प्रशिक्षण देने के लिए गणित पढ़ाना चाहिए। विज्ञान शिक्षा को इस प्रकार मजबूत बनाया जायेगा कि बच्चों में पृच्छा, सृजनात्मकता वस्तुनिष्ठता, जिज्ञासा, सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता, समस्या समाधान व निर्णय लेने से सम्बन्धित कौशल विकसित हो सके व वे दैनिक जीवन में विविध पक्षों से विज्ञान का सम्बन्ध जान सकें।


खेलकूद व शारीरिक शिक्षा को भी अधिगम प्रक्रिया का अभिन्न अंग मानते हुए निष्पत्ति के मूल्यांकन में इसे भी शामिल किया जाएगा। योग पर विशेष ध्यान दिया जायेगा व इसे सभी स्कूलों व शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों में शामिल किया जायेगा।


पुस्तकों के स्तर को सुधारने तथा पठन आदत को बढ़ाने के लिए विशेष प्रयास किया जायेगा। पुस्तकों के विकास के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर पुस्तकालयों के सुधार का आन्दोलन भी चलाया जायेगा व नये पुस्तकालयों की व्यवस्था की जायेगी। शिक्षा संस्थानों में भी पुस्तकालयों की सुविधायें बढ़ाई जायेंगी एवं पुस्तकालयों की वृद्धि की जायेगी एवं पुस्तकालयाध्यक्षों के स्तर में वृद्धि की जायेगी।


शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए शिक्षण अधिगम की किसी भी प्रक्रिया के आन्तरिक अंग के रूप में निष्पत्ति को मूल्यांकन का अनिवार्य अंग मानते हुए परीक्षण प्रणाली की पुनर्व्यवस्था की जायेगी, जिसमें मूल्यांकन विधि की विश्वसनीयता व वैधता सुनिश्चित की जायेगी।


कार्यात्मक सन्दर्भ में मूल्यांकन का तात्पर्य कंठस्थीकरण को हतोत्साहित करना, संयोग व वैयक्तिकता के अवसरों को दूर करना, सतत् व सघन, मूल्यांकन करना शिक्षकों, छात्रों एवं अभिभावकों द्वारा मूल्यांकन प्रक्रिया का प्रभावी उपयोग व परीक्षा संचालन में सुधार करना होगा। इसके साथ ही शैक्षिक सामग्री तथा शिक्षण विधियों में सहगामी परिवर्तन, क्रमिक रूप से माध्यमिक स्तर से ही सेमिस्टर प्रणाली लागू करना व अंकों के स्थान पर ग्रेडिंग का उपयोग करना आदि उपायों को अपनाकर बाह्य परीक्षा के पूर्व प्रभाव को कम किया जायेगा।


9. शिक्षक व शिक्षक शिक्षा (Teacher and Teacher Education)


समाज में शिक्षकों का स्थान सर्वोपरि होने के साथ-साथ शैक्षिक व्यवस्था की सफलता शिक्षकों के बौद्धिक, शैक्षिक तथा उनके मानवीय गुणों पर आधारित होती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत शिक्षकों की सेवा शर्तों और कार्यकारी परिस्थितियों में व्यापक सुधार किया जायेगा। शिक्षकों के चयन के तरीकों को भी इस प्रकार पुनर्गठित किया जायेगा कि योग्यता व वस्तुनिष्ठता सुनिश्चित हो सके व प्रक्रिया क्षेत्रीय व कार्यपरक अपेक्षाओं के अनुरूप हों। 


प्रतिभावान छात्रों को विशेष तौर पर शिक्षा व्यवसाय की ओर आकर्षित करने के लिए जोड़ा जाएगा। समान वेतन तथा भत्ते, सेवा की दशायें एवं देश भर में उनकी कठिनाइयों को दूर करने की प्रणाली के गठन करने के प्रयास किए जायेंगे। शिक्षकों की नियुक्ति एवं स्थानान्तरण हेतु भी मार्गदर्शिका तैयार की जायेगी तथा उच्च ग्रेड हेतु मुक्त, सहयोगी एवं आँकड़ों पर आधारित शिक्षक मूल्यांकन प्रणाली विकसित की जायेगी, जिसमें शिक्षक के उत्तरदायित्वों का मूल्यांकन, अच्छी व बुरी निष्पत्ति को दृष्टिगत रखते हुए मानकों के आधार पर होगा।


शिक्षा एक सतत् प्रक्रिया है। अतः इसमें पूर्व व सेवाकालीन पक्षों को अलग नहीं किया जा सकता। अतः पहले चरण में शिक्षक शिक्षा की व्यवस्था को पुनर्व्यवस्थित किया जायेगा। शैक्षिक प्रक्रिया में शिक्षक शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है अतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षक शिक्षा की प्रणाली में आमूल परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता को देखते हुए जिला शिक्षा व प्रशिक्षण संस्थान (D.L.E.T. District Institute of Education and Training) स्थापित किए जायेंगे, जो प्रारंभिक स्कूलों के शिक्षकों व निरौपचारिक और प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत कार्मिकों के लिए सेवापूर्ण व सेवाकालीन कार्यक्रम आयोजित करेगें। इनकी स्थापना होते ही स्तरहीन संस्थाओं को समाप्त कर दिया जायेगा व चुने हुए शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की उन्नति SCERT (State Council of Education Research and Training) के रूप में की जायेगी।


NCERT के शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को सक्षम बनाने, पाठ्यक्रम तथा विधियों के निर्माण, हेतु मार्गदर्शन के लिए वांछित संसाधन प्रदान किए जायेगें। ये संस्थाएँ व विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग आपस में मिलकर काम करेंगे। कुछ चयनित माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों को भी उच्चीकृत करके उन्हें SCERT के कार्य के पूरक के रूप में कार्य दिया जायेगा। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् (NCTE) को अध्यापक शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देने का अधिकार दिया जायेगा तथा उसे आवश्यक साधन उपलब्ध कराए जाएंगे। इस प्रकार शिक्षक शिक्षा संस्थानों व विश्वविद्यालय शिक्षा विभागों की सुसम्बद्ध संगठित श्रृंखला विकसित की जाएगी।


10. शिक्षा का प्रबन्धन (Management of Education)


1. शिक्षा के प्रबन्ध हेतु, शैक्षिक नियोजन व प्रबन्ध प्रणाली में परिवर्तन को प्राथमिकता दी जाएगी। इसके लिए कुछ सिद्धान्तों को ध्यान में रखना आवश्यक होगा-


(i) शैक्षिक आयोजन व प्रबन्ध का दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य (Long Term Profile) तैयार करना और उसे देश की विकासात्मक और मानवशक्ति सम्बन्धित आवश्यकताओं से जोड़ना। विकेन्द्रीकरण तथा शिक्षा संस्थाओं में स्वायत्तता की भावना उत्पन्न करना।

(ii) (11) शिक्षा में लोक भागीदारी, गैर सरकारी साधनों का प्रयोग तथा स्वैच्छिक प्रयासों को महत्व देना।

(iv) शैक्षिक नियोजन व प्रबन्ध में स्त्रियों के भाग लेने को प्रोत्साहित करना।

(v) अराजकीय अभिकरणों की परिषदों व ऐच्छिक प्रयासों की सहभागिता पर बल देना।

(vi) प्रदत्त उद्देश्यों तथा मानदण्डों के सम्बन्ध में जबावदेही के सिद्धान्त की स्थापना करना, जैसे निर्देशक विचारों पर ध्यान देना।


2. राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षिक नियोजन व प्रबन्ध की दिशा में 'सेन्ट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ एजूकेशन' शैक्षिक विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निर्धारित करेगा तथा शिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु वांछित परिवर्तन किए जायेंगे। मानव संसाधन मंत्रालय के विभिन्न क्षेत्रों में समन्वय हेतु वांछित समितियाँ तथा अन्य अधिक्रयों को क्रियाशील बनाया जायेगा जिसमें शिक्षा विभाग केन्द्र तथा राज्य स्तर पर व्यावसायिकों के सहयोग से सशक्त बनेगा। इस प्रकार यह संस्था शैक्षिक विकास का पुनरावलोकन करने तथा तन्त्र को सुधारने हेतु इसके कार्यान्वयन पर नियन्त्रण रखेगी तथा अखिल भारतीय स्तर की 'भारतीय शिक्षा सेवा' (IES) शुरू की जायेगी। 

3. शैक्षिक नियोजकों, प्रशासकों व संस्थाओं के प्रशिक्षण पर भी ध्यान दिया जायेगा।

4. राज्य स्तर पर शैक्षिक नियोजन व प्रबन्ध हेतु राज्य सरकार स्टेट एडवाइजरी बोर्ड की स्थापना की जायेगी, जो राज्यों के विभिन्न विभागों का मानव संसाधन विकास के लिए प्रभावशाली सहयोग करेगी।

5. जिला व स्थानीय स्तर पर भी, उच्च माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा का प्रबन्ध करने के लिए जिला शिक्षा बोर्ड का गठन किया जायेगा। शिक्षा विकास की बहुस्तरीय संरचना के भीतर केन्द्रीय राज्य, जिला व स्थानीय स्तर पर नियोजन, समन्वय, प्रबन्धन एवं मूल्यांकन में भाग लिया जायेगा।

6. शिक्षा को व्यापार बनाने के उद्देश्य से गठित संस्थाओं की स्थापनों पर रोक लगाने के भी प्रयास किए जायेंगे तथा सही प्रबन्ध वाली संस्थाओं को वित्तीय सहायता दी जाएगी।

7. शिक्षा संस्था के अध्यक्ष को भी एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना होगा। उन्हें प्रशिक्षित किया जायेगा तथा विद्यालय परिसरों को नमनीय आधार पर विकसित किया जायेगा। इससे शिक्षकों में सहक्रियात्मक आधार पर वृत्तिक विकास होगा, अनुभव व सुविधाओं में भागीदारी के द्वारा मानकों तथा आचरण की प्रतिबद्धता हो सकेगी।

8. इन संस्थाओं के माध्यम से स्थानीय समुदायों को विद्यालय विकास कार्यक्रम में महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी जायेगी।


11. संसाधन तथा समीक्षा (Resources and Evaluation)


(i) व्यावहारिक रूप से सभी शिक्षाविदों ने यह स्वीकार किया है कि शिक्षा पर किया जाने वाला व्यय आर्थिक निवेश होता है तथा इसके द्वारा ही भारत में समतावादी उद्देश्यों व विकास केन्द्रित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। अभी तक शिक्षा पर राष्ट्रीय आय का अधिक प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करके ही भारत में समतावादी उद्देश्यों, विकास केन्द्रित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है और यह कार्य के आयाम तथा अभ्यासों के क्रम में होगा।

(ii) शिक्षा के लिए पूँजी एकत्रित करने हेतु चंदा लेना भवनों की देखभाल और दैनिक कार्यों के लिए स्थानीय व्यक्तियों की सहायता लेना, शुल्क वृद्धि तथा मौजूदा संसाधनों का समुचित उपयोग आदि लगभग सभी संभव उपाय किये जायेंगे।

(iii) विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा से सम्बन्धित संस्थाओं का प्रसार व उन्हें तीव्र गति से आधुनिक स्वरूप देना भी आवश्यक होगा।

(iv) अनुसंधान व विकास से लगे संस्थानों को, सुविधाओं का प्रयोग करने वाले अभिकरणों, सरकारी विभागों तथा उद्यमियों पर शिक्षा अधिभार लगाना होगा। इन सभी उपायों से राज्य पर भार भी कम होगा तथा सरकार को प्राथमिक शिक्षा कर सार्वभौमीकरण, निरक्षरता उन्मूलन, पूरे देश के सभी वर्गों के लिए शैक्षिक अवसरों की समानता, सामाजिक, प्रासंगिकता की अभिवृद्धि, शैक्षिक कार्यक्रमों की गुणात्मक व कार्यात्मक प्रभावशीलता के लिए धन भी प्राप्त होगा।

(v) शिक्षा में विनिवेश या अपर्याप्त निवेश के गम्भीर परिणामों से बचने के लिए व विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् स्थापित विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में क्रियाशील शाबाओं को निरर्थकता से बचाने हेतु इन कोसाँ को अद्यतन व आवश्यकताओं की मांग पर आधारित इवाना होगा। अन्यथा इन क्षेत्रों पर किया गया निवेश भारतीय अर्थव्यवस्था को हानि भी पहुँचा सकता है।


(1) सन् 1968 को शिक्षा नीति में शिक्षा के निवेश को धीरे-धीरे बढ़ाने की बात कही गयी है जिसमें यथासंभव राष्ट्रीय आय का 6% तक शिक्षा पर व्यय किया जा सके। चूँकि निवेश का वास्तविक स्तर उस लक्ष्य से कहीं कम है अतः नीति में निर्धारित कार्यक्रमों के लिए बांछित धन प्रदान करने का निर्णय लिया जाय। साथ ही अनुवीक्षण (Monitoring) व पुनरावलोकन के आधार पर समय-समय पर आवश्यकता की माँग के अनुसार धन की व्यवस्था की जाय।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) हेतु कार्य योजना (Plan of Programme of Action or POA for National Education Policy)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रकाशन, संसद द्वारा पारित हो जाने के बाद, मई 1986 ई. में किया गया था तथा इसके लगभग 6 महीने बाद नवम्बर, 1986 ई. में इस शिक्षा योजना को लागू करने के लिए कार्य योजना (Plan of Action) के दस्तावेज का प्रकाशन किया गया।


इस शिक्षा नीति को लागू करने के मानव संसाधन मंत्रालय ने 23 कार्यदलों का गठन किया था, जिनमें ख्याति प्राप्त शिक्षाविद, विषय विशेषज्ञ तथा वरिष्ठ सरकारी अधिकारी शामिल थे। इन्होंने शिक्षा नीति के प्रमुख प्रावधानों को क्रियान्वित किये जाने की विधि पर विचार करके अपनी संस्तुति जुलाई, 1986 ई. में प्रस्तुत की।


इन सुझावों पर 21 जुलाई, 1986 ई. को राज्य व केन्द्र के सक्षम शैक्षिक एवं प्रशासनिक अधिकारियों की बैठक में विचार करके एक कार्ययोजना (POA) तैयार की गयी, जिसे केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् द्वारा पुनः विचार कर के अपनी स्वीकृति दे दी गयी। यह अन्तिम प्रारूप भारतीय संसद द्वारा अगस्त, 1986 ई. में स्वीकृत किया गया, जिसे बाद में सभी राज्यों में लागू कर दिया गया।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रारम्भिक शिक्षा हेतु कार्य योजना (Plan of Action for Elementary Education in National Educational Policy)


1. 14 वर्ष तक के बालकों की शिक्षा के लिए पूरे देश में समान प्रवेश प्रणाली (Universal Enrolment) तथा समान अवधि की शिक्षा (Universal Retention) होनी चाहिए।

2. प्राथमिक शिक्षा में सुधार वांछित दिशा में तथा मूर्त रूप में होने चाहिए।

3. बालकों के संज्ञानात्मक अधिगम में वृद्धि होनी चाहिए।

4. अभ्यास द्वारा बालकों को कौशलों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

5. विद्यालयों में शारीरिक दण्ड की प्रथा को बिल्कुल समाप्त कर देना चाहिए।

6. छात्रों को व्यावसायिक ज्ञान उनकी सुविधानुसार दिया जाना चाहिए।

7. ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड के माध्यम से छात्रों को खेल का सामान, नक्शे, बार्ट, चॉक, श्यामपट्ट तथा डस्टर आदि प्रदान किये जाने चाहिए।

8 अपव्यय तथा अवरोधन को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर निरौपचारिक शिक्षा के कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति में माध्यमिक शिक्षा हेतु कार्य योजना (Plan of Action for Secondary Education in National Education Policy)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति में माध्यमिक शिक्षा के महत्व को भली प्रकार समझा गया था। अत: इसमें इस स्तर की शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नांकित सुझाव दिये गये थे-


1. आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर भी प्रतिभावान बालकों की शैक्षिक प्रगति में तेजी लाने का प्रयास करना।

2. इस नीति में माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा का एक ऐसा व्यवस्थित व सुनियोजित कार्यक्रम बनाने की संस्तुति की गई है, जो छात्रों को उनके शिक्षा पूरी करने के बाद उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में सहायता करे।

3. व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं के निर्माण का उत्तरदायित्व सरकार तथा निजी सेवायोजकों पर सहभागिता के आधार पर सौंपा गया है।

4. माध्यमिक स्तर पर कक्षा 10 के लिए एक सामान्य आधारभूत पाठ्यक्रम बनाया गया है।

5. ग्रामीण क्षेत्रों में तथा महिलाओं के लिए सरकारी एवं व्यक्तिगत दोनों प्रकार की संस्थाओं में व्यावसायिक शिक्षा बढ़ाने के लिए विशेष कदम उठाये जाने चाहिए।

6. माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा हो कि छात्र विज्ञान, सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का पूर्ण विकास कर सकें।


उच्च शिक्षा हेतु कार्य योजना (Plan of Action for Higher Education)


उच्च शिक्षा की समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निम्नलिखित संस्तुतियाँ दी गई हैं-


1. भारत में स्थित 150 विश्वद्यिालय व 5,000 महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाने के स्थान पर इनके स्तर में सुधार किया जाय।

2. शिक्षा में आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के नवाचारों को लागू करना व अधिक सुविधायें प्रदान करना।

3. सम्बद्ध कॉलेजों के स्थान पर कुछ प्रमुख स्वायत्त कॉलेज खोले जायें।

4. भाषागत योग्यता के आधार पर पर्याप्त ध्यान देना व पाठ्यक्रमों में लचीलापन होना।

5. उच्च शिक्षा के स्तर पर व उसकी गुणवत्ता पर यू. जी. सी. द्वारा निरन्तर निगरानी रखना।

6. शिक्षक शिक्षा की दृष्टि से ओरिएन्टेशन प्रोग्राम तथा पुनश्चर्या पाठ्यक्रम संचालित करने हेतु ऐकेडेमिक स्टाफ कॉलेजों की स्थापना करना।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 द्वारा उठाये गये कुछ महत्वपूर्ण कदम (SOME IMPORTANT STEPS TAKEN BY NATIONAL EDUCATION POLICY-1986)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 ई. का गठन शिक्षा की चुनौतियों के रूप में किया गया था अन इसका भारत की शिक्षा व्यवस्था पर पर्याप्त स्थायी एवं व्यापक प्रभाव पड़ा है, जिसका कारण सभवन उसके द्वारा उठाये गये कुछ महत्वपूर्ण शैक्षिक कदम है। शिक्षा में योगदान देने वाले ये महत्वपूर्ण कदम इस प्रकार हैं-


1. 10+2+3 शिक्षा संरचना एवं व्यावसायिक शिक्षा (10+2+3 Structure of Education and Vocational Education).

2. नवोदय विद्यालय (Navodaya Vidyalaya), 3. विद्यालय संकुल (Schools Complex).

4. सर्व शिक्षा अभियान (Sarv Shiksha Abhiyan),

5. शैक्षिक अवसरों की समानता (Equalization of Educational Opportunities).

6. ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड (Operation Black Board).

7. दूरस्थ शिक्षा एवं मुक्त विश्वविद्यालय (Distance Education and Open Universities),

8. उपाधि को सेवा से अलग करना (To Remove Degree from Service),

9. शिक्षक प्रशिक्षण (Teacher Training).


10. शिक्षक की जवाबदेही (Accountability of Teacher)


1. 10+2+3 शिक्षा संरचना एवं व्यावसायिक शिक्षा (Structure 10+2+3 of Education and Vocational Education) - केन्द्रीय सरकार ने भारतीय शिक्षा पर समग्र रूप से विचार करने और विभिन्न स्तरों के प्रसार व उन्नयन के लिए सुझाव देने के उद्देश्य से 1964 में भारतीय शिक्षा आयोग (कोठारी कमीशन) की नियुक्ति की। इस आयोग ने पूरे देश के लिए समान शिक्षा संरचना 10+2+3 प्रस्तावित की।


इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा को 5+3+2 में विभाजित किया गया और इसके लिए पूरे देश में आधारभूत पाठ्यचर्या लागू करने पर बल दिया गया। +2 को दो वर्गों में विभाजित किया गया-सामान्य (General) तथा व्यावसायिक (Vocational) जिसके द्वारा छात्रों को विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा दे कर उन्हें जीविका कमाने योग्य बनाया जायेगा। +3 पर प्रथम दो वर्षों में छात्रों को उनके द्वारा चुने गये विषयों में विशेष ज्ञान कराया जायेगा और तीसरे वर्ष में उन्हें सम्पूर्ण शिक्षा दी जायेगा।


सम्पूर्ण देश में इस राष्ट्रीय शिक्षा संरचना 10+2+3 को लागू करने के मूल उद्देश्य निम्नलिखित हैं-


1. सम्पूर्ण देश में शिक्षा के स्तर में समानता लाना, जिसमें एक क्षेत्र के छात्र दूसरे क्षेत्र में प्रवेश पा सकें।

2. प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत राष्ट्रीय पाठ्यचर्या द्वारा सामाजिक एकता, राजनैतिक एकता और राष्ट्रीय एकता का विकास करना।

3. प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत राष्ट्रीय पाठ्यचर्या द्वारा बच्चों को क्षेत्र विशेष का नहीं, राष्ट्र का नागरिक बनाना।

4 प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत राष्ट्रीय पाठ्यचर्या द्वारा बच्चों के मानवीय एवं वैज्ञानिक दोनों पक्षों का विकास करना, जिससे एक ओर संस्कृति का संरक्षण हो और दूसरी और देश का आधुनिकीकरण हो।

5. प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत पाठ्यचर्या द्वारा बच्चों में श्रम के प्रति निष्ठा उत्पन्न करना।

6. +2 पर बहुसंख्यक सामान्य छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा देकर उन्हें अपनी जीविका कमाने योग्य बनाना और मेधावी छात्रों को सामान्य शिक्षा देकर विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए तैयार करना।

7. +3 की विशिष्ट शिक्षा द्वारा राष्ट्र के लिए विशेषज्ञ तैयार करना, जिससे राष्ट्र को विशिष्ट मानव संसाधन की पूर्ति हो, राष्ट्र का बहुमुखी विकास हो।


राष्ट्रीय शिक्षा संरचना (10+2+3) के गुण (Merits of New Education Structure)


देश की वर्तमान स्थिति और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर तथा राष्ट्रीय लक्ष्यों की सामने रखकर निश्चित की गई है। इसमें निम्नलिखित गुण है


1. 10 वर्षीय शिक्षा की आधारभूत पाठ्यचर्या को लागू करने से पूरे देश की प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा का स्तर समान होना।

2. इस आधारभूत राष्ट्रीय पाठ्यचर्या को लागू करने से सामाजिक समानता व राष्ट्रीय एकता का विकास सुनिश्चित होना।

3. मानवीय व वैज्ञानिक विषयों को समान महत्व देने से संस्कृति का संरक्षण व देश का आधुनिकीकरण संभव होना।

4. पाठ्यचर्या में राष्ट्रीय महत्व के विषयों व क्रियाओं को स्थान दिये जाने से बच्चे में राष्ट्र के जागरुक नागरिक बनने की भावना को उदय होना।

5 +2 पर बहुसंख्यक सामान्य छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा की ओर मोड़ देने से उच्च शिक्षा (+3) में प्रवेश का दवाव कम होना व मेधावी व योग्य छात्रों को प्रवेश मिलने से शिक्षा का स्तर उच्च होना।

6. शिक्षित बेरोजगारी की समस्या का हल होना व सभी का अपनी योग्यता व क्षमतानुसार व्यवसाय का प्राप्त होना।


दोष (Demerits) - यद्यपि यह शिक्षा संरचना बहुत उत्तम है, परन्तु इसे जिस रूप में अपनाया गया है, उसमें गुणों के साथ दोष भी हैं-


1. इस शिक्षा संरचना में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा को समान, अनिवार्य व निःशुल्क करने का प्रस्ताव किया गया, जबकि हमारे देश में अभी तक प्रथम ४ वर्षीय शिक्षा ही समान, अनिवार्य एवं निःशुल्क नहीं की जा सकी है।

2. एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रस्तावित यह 10 वर्षीय आधारभूत पाठ्यचर्या अति विस्तृत होने से, सामान्य बुद्धि और क्षमता के छात्र इसे पूरा नहीं कर सके।

3. कक्षा 1 से ही समाजोपयागी कार्य अथवा कार्यानुभव और कार्यशिक्षा का प्रारम्भ करना अधिक युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।

4. इन समाजोत्पादक कार्यों हेतु व कार्यानुभव व कार्य शिक्षा हेतु कच्चे माल व प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवस्था किया जाना संभव नहीं प्रतीत होता।

5. हमारे देश में नैतिक मूल्यों के अत्यधिक हास के कारण चारों ओर अराजकता व भ्रष्टाचार व्याप्त है, जिसे ध्यान में रखते हुए भी इस आधारभूत पाठ्यचर्या में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा और मूल्यों के निर्माण हेतु कोई व्यवस्था नहीं है।

6. +2 स्तर पर पाठ्यक्रम को सैद्धान्तिक व व्यावसायिक पाठ्यक्रम के रूप में विभाजित करने पर भी अच्छे परिणाम नहीं मिले हैं, क्योंकि इसके कई कारण हैं-व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का उचित न होना, विद्यालयों में आवश्यक प्रयोगशालाओं, कार्यशालाओं और प्रशिक्षित शिक्षकों का न होना व प्रायोगिक प्रशिक्षण हेतु व्यावसायिक व औद्योगिक केन्द्रों का उपलब्ध न होना आदि।


निष्कर्षतः +2 पर जिस व्यवसायीकरण का प्रयोग किया गया है वह असफल रहा है। अतः अच्छा होगा कि +2 पर व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था सामान्य विद्यालयों में करने के स्थान पर जीनीटेक्निक कॉलेजों में की जाए। इसके लिए प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यकतानुसार साधन सम्पन्न पॉलीटेक्निक कॉलेज स्थापित किए जाए व उनके लिए प्रशिक्षित शिक्षक तैयार किए जाएँ।


1. नवोदय विद्यालय (Navodaya Vidyalaya)


किसी भी राष्ट्र में शिक्षा पर किया गया निवेश उत्तम निवेश होता है और यदि यही निवेश प्रतिभावान बच्चों के लिए उत्तम शिक्षा की व्यवस्था करने में किया जाय तो उतना ही अधिक लाभ होता है। हमारे देश में प्राय: धनी वर्ग के लोग तो अपने बच्चों को व्यय साध्य पब्लिक स्कूलों और कैपीटेशन फीस वाले कॉलेजों में उन्हें प्रवेश दिलाकर उत्तम प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था कर लेते हैं, परन्तु निर्धन वर्ग ऐसा नहीं कर पाता।


अतः राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में ऐसे श्रेष्ठ बालकों को उच्च कोटि की शिक्षा की व्यवस्था हेतु नवोदय विद्यालय खोले गये हैं। इस तथ्य की ओर सबसे पहले हमारे युवा प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का ध्यान गया व उन्होंने शिक्षाविदों के सम्मुख इस तथ्य को रखकर इस समस्या के समाधान हेतु सुझाव माँगे।


इस समस्या के समाधान हेतु हो, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 ई. में गति निर्धारक स्कूलों (Pace Setting Schools) की स्थापना की घोषणा की गई तथा इन्हें नवोदय विद्यालय का नाम दिया गया, इन विद्यालयों द्वारा शिक्षा नोति के माध्यम से नवाचारों (Innovations) तथा प्रयोगों (Experiments) के लिए छूट दी गई है।


इन विद्यालयों का प्रारूप व विशेषतायें इस प्रकार हैं-


1. ये विद्यालय उपेक्षित वर्ग की प्रतिभाओं के लिए उचित शिक्षा का प्रबन्ध करते हैं। इन विद्यालयों में निर्धन या सामान्य व्यक्तियों के श्रेष्ठ बालकों को स्तरीय शिक्षा प्रदान की जाती है। प्रवेश परीक्षा के माध्यम से उपेक्षित क्षेत्रों व वर्गों के प्रतिभावान बच्चों का चयन करके प्रतिभाशाली बच्चों को प्रवेश दिया जाता है। नवोदय विद्यालयों में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होती है।


2. इन विद्यालयों में शैक्षिक अवसरों की समानता होती है। धनी वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा आसानी से उपलब्ध होती है, परन्तु निर्धन वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होती है। अत: इन विद्यालयों में ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों के लिए 75% स्थान सुरक्षित रहता है तथा अनुसूचित जाति के बच्चों के लिए 15% स्थान सुरक्षित रहता है व जनजाति के बच्चों के लिए 7.5% स्थान सुरक्षित है।


3. इन विद्यालयों में कक्षा 6 से 12 तक के बालकों को शिक्षा प्रदान की जाती है तथा कक्षा 8 अथवा 9 से 12 तक सामाजिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी तथा विज्ञान शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रहता है। ये विद्यालय आवासीय होते हैं, इनमें सहशिक्षा की व्यवस्था होती है।


4. ये विद्यालय केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् (Central Board of Secondary Education or CBSE) से सम्बद्ध होते हैं।


5. इनमें कक्षा 6 में प्रवेश लिया जाता है, जिसके लिये योग्य अभ्यर्थियों का चयन किया जाता है। योग्य छात्रों का चयन NCERT द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर ली जाने वाली परीक्षा से किया जाता है।


6. इनके द्वारा बालकों को राष्ट्रीय एकता, धर्म निरपेक्षता तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव की प्रेरण ॥ दी जाती है। क्योंकि इनमें अध्ययन-अध्यापन हेतु उत्तम वातावरण रहता है।


7. इन विद्यालयों में क्षेत्रीय भाषाओं और अंग्रेजी दोनों के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था होती है तथा इनमें राष्ट्रीय स्तर की चयन प्रक्रिया द्वारा योग्य व प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति को जाती है। इनमें उत्तम शिक्षण विधियों व तकनीकों का प्रयोग होता है।


8. इन विद्यालयों की स्थापना इस उद्देश्य से की गई है, जिससे ये अन्य विद्यालयों के लिए आदर्श हों तथा कुछ हद तक ये आदर्श सिद्ध भो हुये हैं, परन्तु ये अपने साधनों की अपेक्षा अधिक सम्पन्न नहीं है।


नवोदय विद्यालयों के उद्देश्य


1. प्रतिभावान बच्चों को अच्छी व निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराना।

2. देश के उपेक्षित ग्रामीण क्षेत्रों और उपेक्षित वर्ग के प्रतिभावान बच्चों को शैक्षिक विकास के अवसर प्रदान करना।

3. समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की प्राप्ति करना और राष्ट्रीय एकता का विकास करना।

4. देश को अमूल्य प्रतिभा का विकास करके राष्ट्र विकास में सहायता प्रदान करना।

5. अन्य विद्यालयों के लिये आदर्श उपस्थित करना। प्रतिभाशाली बच्चों को निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध करना अन्य विद्यालयों के लिये आदर्श स्थापित करना


नवोदय विद्यालयों के उद्देश्य


उपेक्षित क्षेत्र व वर्ग की शिक्षा की व्यवस्था करना

देश की प्रतिभाओं और राष्ट्र का विकास करना

समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता व राष्ट्रीय एकता का विकास करना


मूल्यांकन- नवोदय विद्यालय को खोलने का उद्देश्य उच्च शैक्षिक व्यवस्था का प्रबन्ध करता है, इसमें वे सभी गुण विद्यमान हैं, जो अच्छे विद्यालयों में होने चाहिये। परन्तु कुछ कमियाँ भी इसमें विद्यमान है। इसमें प्रतिभावान बच्चों को प्रवेश परीक्षा के माध्यम से प्रवेश दिया जाता है। छात्रों को मनोविज्ञान के अनुसार अपनी रुचियों, योग्यताओं व क्षमताओं के अनुसार अपना व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास करने का पूरा अधिकार है।


प्रवेश परीक्षा के माध्यम से प्रवेश देना कुछ विसंगत भी है, क्योंकि धनी वर्ग अपने बहुतायत साधनों के बल पर छात्रों को ज्ञान का भण्डार दे सकते हैं, परन्तु निर्धन बच्चे प्रतिभावान होने पर भी यह साधन नहीं जुटा पाते हैं तथा उनके पास सूचनाओं का संग्रह नहीं रह पाता है, जिससे वे पिछड़ जाते हैं। अतः मात्र परीक्षा के माध्यम से छात्रों का चयन दोषपूर्ण है। विद्यालय के वातावरण तथा बाहरी परिवेश में बहुत अन्तर रहता है।


इन दोषों के बावजूद भी नवोदय विद्यालय अन्य विद्यालयों के लिये आदर्श हैं, जो निःशुल्क शिक्षा प्रदान करते हैं। परन्तु इनमें कुछ व्यावहारिक परितर्वन करके इन्हें और अधिक उत्कृष्ट बनाया जा सकता है तथा कुछ नियमों में परिवर्तन करके अधिक से अधिक निर्धन बच्चों को लाभ पहुँचाया जा सकता है।


3. विद्यालय संकुल (School Complex)


यह एक ऐसी राष्ट्रव्यापी योजना है, जो विद्यालयों के गुणात्मक विकास के लिये संचालित की गई है। यह विभिन्न शैक्षिक क्षेत्रों में विद्यालयों के पारस्परिक सहयोग के कार्यक्रमों पर आधारित है। इसकी प्रारम्भिक रूपरेखा कोठारी आयोग ने निर्धारित की थी परन्तु इसे कार्य और व्यवहार रूप में परिणत करने का सम्पूर्ण श्रेय राष्ट्रीय शिक्षा नीति - 1986 को जाता है।


विद्यालय संकुल ऐसी कार्य योजना है जिसमें किसी क्षेत्र विशेष के माध्यमिक विद्यालय अथवा विद्यालय तथा उससे नीचे के विद्यालय आपस में संगठित होकर एक समूह का निर्माण करते समस्त विद्यालय बैठकों का आयोजन करके पारस्परिक सहयोग भावना के साथ अपनी-अपनी लाओं को प्रकट करते हैं और उसका समाधान खोजने का प्रयास करते हैं तथा जो शीर्ष संख्या है. वह संस्थाओं में एकता और समन्वय स्थापित करते हुये उनके चतुर्मुखी विकास हेतु शैक्षिक विदेश प्रदान कर उनकी समस्त समस्याओं को दूर करती है।


विद्यालय संकुल का उद्देश्य


1. विद्यालयों के मध्य स्तर को लेकर आपसी भेदभाव को दूर करना।

2. उनकी गुणवत्ता में सुधार लाना।

3. उनकी समस्त समस्याओं को दूर करना।


विद्यालय संकुल की कार्यप्रणाली


विद्यालय संकुल की स्थापना जिला विद्यालय निरीक्षक इरा बेसिक शिक्षा अधिकारी एवं उपविद्यालय निरीक्षक से प्राप्त निर्देशों के आधार पर की जाती है। इसके लिये किसी क्षेत्र की शीर्ष संख्या का सर्वप्रथम चयन किया जाता है, इसके बाद उसके आसपास के लगभग 8 किमी. क्षेत्र के 5 विद्यालयों का चयन समूह के सदस्यों के रूप में किया जाता है तथा इसकी बैठक माह में कम से कम 1 बार अवश्य होती है, जिसकी अध्यक्षता शीर्ष विद्यालय के प्रधानाचार्य द्वारा की जाती है तथा इस प्रकार की बैठकें क्रमिक रूप से प्रत्येक सदस्य विद्यालय में आयोजित की जाती हैं।


सदस्य प्रत्येक विद्यालय अपने यहाँ की सभी शैक्षिक परिस्थितियों, उपलब्धियों तथा समस्याओं का विवरण प्रस्तुत करते हैं तथा उनके सुधार हेतु विचार-विमर्श करते हैं तथा बैठकों के अन्त में समस्त कार्यवाही तथा निष्कर्षों का प्रतिवेदन जिला विद्यालय निरीक्षक के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाता है।


विद्यालय संकुल के लाभ


1. विद्यालय संकुल अपने सदस्य विद्यालयों को उनके बहुमुखी विकास हेतु पर्याप्त अधिकार प्रदान करता है।


2. इनके द्वारा विद्यालय अपने परिसर, भवनों, शिक्षण कक्षों, शिक्षण विधियों तथा शैक्षिक तकनीकी के प्रयोग में काफी सुधार कर सकते हैं।


3. इसके द्वारा पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं तथा हास्टल आदि का समुचित विकास किया जा सकता है।


4. सभी विद्यालयों के मध्य आपसी प्रतिस्पर्धा को समाप्त कर उनके लिये समानता पर आधारित मार्ग प्रशस्त किया जाता है।


5. पाठ्यक्रम की जटिलताओं तथा कठिनाइयों को दूर किया जा सकता है।


6. शिक्षकों में सहयोग, प्रेम तथा आत्म विश्वास उत्पन्न किया जा सकता है।


4. सर्व शिक्षा अभियान (Sarvshiksha Abhiyan)


धारा-45 के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश के 6 से 14 वर्ष तक के बालकों को एक निश्चित अवधि में निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का संकल्प लिया गया था। परन्तु काफी लम्बे समय तक यह लक्ष्य न पूर्ण हो पाने पर अक्टूबर 1998 में राज्यों के शिक्षा मंत्रियों का सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन की संस्तुतियों के आधार पर नवम्बर 2000 में भारत सरकार ने देश के सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा सुलभ कराने के उद्देश्य से 'सर्व शिक्षा अभियान' को प्रारम्भ किया था।


सर्वशिक्षा अभियान के उद्देश्य-सर्वशिक्षा अभियान के उद्देश्य निम्नलिखित है- 1.6 से 14 वर्ष तक के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा निम्न तीन चरणों में पूरी करना।


(A) सन् 2003 तक ब्रिज कोर्स के आधार पर विद्यालयी शिक्षा की गारंटी योजना को पूरा करना।

(B) सन् 2007 तक देश के समस्त बालकों को प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना।

(C) सन् 2008 तक देश के सभी बच्चों को आठ वर्ष की शिक्षा प्रदान कर देना।


2. प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य सन् 2010 तक पूरी तरह प्राप्त कर लेना।


(Note-अप्रैल 2010 से सम्पूर्ण देश में माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा को निःशुल्क कर दिय गया तथा इसे अनिवार्य रूप से लागू करने हेतु प्रत्येक राज्य को आर्थिक सहायता भी प्रदान की गई।)


3. प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिये उसे सामान्य जीवन से सम्बद्ध करना।


सर्वशिक्षा अभियान की विशेषतायें


1. यह अभियान नवम्बर 2000 में स्वीकृत हुआ और देश भर में जुलाई 2002 तक चलाया गया।


2. इसमें समाज के कमजोर वर्गों, अनुसूचित जातियों, बालिकाओं तथा जनजातियों के बच्चों को शिक्षा पर अधिक जोर दिया गया है।


3. यह ग्रामीण क्षेत्रों के बालकों के लिये विशेष रूप से लाभदायक है।


4. जनवरी 2001 से इस अभियान को प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय मिशन के रूप,में चलाया जा रहा है।


5. इस अभियान के लिये सरकार की ओर से पर्याप्त अनुदान दिया जा रहा है। उदाहरण-2001- 02 में 1100 करोड़ रु. से अधिक का व्यय निर्धारित किया गया था।


5. शैक्षिक अवसरों की समानता (Equalization of Educational Opportunities)


शैक्षिक अवसरों की समानता का सामान्य अर्थ है देश के समस्त बच्चों को भेदभाव रहित शिक्षा प्रदान करना। शैक्षिक अवसरों की समानता का विचार लोकतन्त्र की भावना पर आधारित है। हमारे देश में इस समस्या पर सर्वप्रथम विचार कोठारी आयोग (1864-66) ने प्रस्तुत किया।


आयोग ने सुझाव दिया कि सर्वप्रथम 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की कक्षा से 8 तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क कर दो जाय। किसी भी वर्ग के बच्चों की इस शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों को दूर कर दिया जाय। शैक्षिक अवसरों की समानता का अर्थ है राज्य द्वारा देश के सभी बच्चों के लिये स्थान, जाति, ार्म अथवा लिंग आदि किसी भी आधार पर भेद किये बिना एक निश्चित स्तर तक की शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क रूप से सुलभ कराना।


शैक्षिक अवसरों की समानता की आवश्यकता


1. लोकतन्त्र की रक्षा के लिये देश के प्रत्येक नागरिक को समान रूप से शिक्षित करना आवश्यक है।

2. व्यक्ति के वैयक्तिक विकास के लिये शैक्षिक समानता आवश्यक है, क्योंकि भारत में अधिकांश जनसंख्या निर्धन है और शिक्षा से वंचित है।

3. वर्ग भेद की समाप्ति के लिये भी शैक्षिक समानता आवश्यक है।

4. सुसंस्कृत समाज को विकसित करने के लिये आवश्यक है।

5. देश के आर्थिक विकास के लिये शैक्षिक समानता आवश्यक है क्योंकि आर्थिक विकास दो तत्त्वों पर आधारित होता है- प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन जिसमें मानव संसाधन का विकास शिक्षा द्वारा ही किया जा सकता है।


भारत में शैक्षिक अवसरों की असमानता


1. भारत कई प्रान्तों में बँटा हुआ है तथा शिक्षा का उत्तरदायित्व राज्यों का है। जिसके कारण प्रत्येक राज्य के शिक्षा के स्तर में असमानता है।


2. भारत के कई प्रान्त विशेष है जहाँ पर शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है, जिससे देश के कई हिमों में शैक्षिक असमानता है।


3. भारत के सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की शिक्षा में बहुत अन्तर पाया जाता है।


4. देश में बालक एवं बालिकाओं की शिक्षा में बहुत अन्तर पाया जाता है, क्योंकि बालिकाओं को शिक्षा के क्षेत्र में भारत बहुत पिछड़ा हुआ है, अतः लड़‌कियों की स्नातक तक की शिक्षा निःशुल्क कर देनी चाहिये।


5. देश में कई विद्यालय जाति एवं धर्म के नाम पर खोले जाते हैं तथा वहाँ पर शिक्षकों की नियुक्ति भी जाति एवं धर्म के आधार पर ही की जाती है, जहाँ पर छात्रों के साथ एक समान व्यवहार की कल्पना नहीं की जा सकती है।


भारत में शैक्षिक अवसरों की समानता के उपाय-शैक्षिक अवसरों में समानता लाने के लिये सबसे महत्त्पूर्ण यह है कि देश के सभी बच्चों और युवकों को बिना किसी भेदभाव के, किसी भी स्तर की, किसी भी प्रकार की शिक्षा समान रूप से सुलभ हो तथा इसके मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को दूर किया जाए। शैक्षिक अवसरों को समानता को दूर करने के उपाय निम्नलिखित हैं-


1. महिलाओं के लिये उचित शिक्षा का प्रबन्ध करके तथा उनको तकनीकी शिक्षा व प्रौद्योगिकी का ज्ञान भी उन्हें प्रदान किया जाए।

2. अनुसूचित जातियों के शैक्षिक विकास के लिये उचित प्रबन्ध हो तथा वे सवर्ण जाति के लोगों के बराबर आ सके।

3. अल्पसंख्यकों व विकलांगों की शिक्षा का उचित प्रबन्ध करके।

4. ग्रामीण क्षेत्रों में सतत् शिक्षा केन्द्रों की स्थापना करके तथा प्रौढ़ों को शिक्षित करके।

5. नियोजकों, मजदूरों, श्रमिकों आदि के लिये व उनके बच्चों के लिये भी उचित शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये।


6. ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड (Operation Black Board)


देश में प्राथमिक शिक्षा का स्तर बहुत धीमी गति से आगे बढ़ा है। प्राथमिक स्तर की शिक्षा के प्रसार और वांछित सुधार हेतु किये जाने वाले प्रयास अपने लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सके हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 घोषित हो जाने के बाद 1987-88 में भारत सरकार द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य तथा निःशुल्क बनाने के लिये' ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड' नाम से एक नवीन योजना प्रारम्भ की गई।


यह योजना स्कूलों में मात्र ब्लैक बोर्ड उपलब्ध कराने हेतु नहीं है, वरन् इस योजना के माध्यम से सभी प्राथमिक विद्यालयों में समुचित शिक्षण कार्य का संचालन करने के लिये उसकी शैक्षिक तथा भौतिक संसाधनों सम्बन्धी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करना है। इसके लिये धन की पूर्ति राज्यों के सहयोग से ही की जाती है। इसमें स्थानीय निकायों, संस्थाओं, प्रसिद्ध एवं धनी व्यक्तियों तथा स्वयं सेवी संस्थाओं का भी सहयोग लिया जा सकता है। पर्याप्त सुधार लाने हेतु आवश्यक घटक निम्नलिखित है-


1. सुव्यवस्थित स्कूल भवन हों, कम से कम दो बड़े कमरे अवश्य हो। खुला बरामदा औ। लड़के-लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय की व्यवस्था हो।

2. प्रारम्भ में कम से कम दो शिक्षक अवश्य हों उसके बाद संख्या बढ़नी चाहिये।

3. श्यामपट्ट (ब्लैक बोर्ड), चाक, डस्टर, चित्रों के चार्ट, नक्शे (मानचित्र और ग्लोब आदि)।

4. पुस्तकालय, पुस्तक व पत्रिकायें, समाचार-पत्र, शब्दकोश व विश्वकोश।

5. पीने योग्य पानी का प्रबन्ध, समयकाल समाप्त होने पर बजाने वाली घंटी।

6. दृश्य-श्रव्य सामग्री, संगीत के साधन तबला, हारमोनियम आदि।

7. विज्ञान का ज्ञान प्रदान करने हेतु आवश्यक सामग्री।


इस योजना के अन्तर्गत वर्ष 1987-88 और 2001-02 में 5.23 लाख प्राथमिक और 1.38 लाख उच्च प्राथमिक स्कूलों के लिये शिक्षण-प्रशिक्षण उपकरण प्रदान किये गये। 83045 प्राथमिक स्कूलों के लिये तीसरे अध्यापक तथा 0.77 लाख उच्च प्राथमिक स्कूलों के लिये अतिरिक्त पदों को मंजूरी प्रदान करने के लिये प्रदान किये गये। एक अध्यापक वाले प्राथमिक विद्यालयों के लिये 1.53 लाख अध्यापकों के पदों की नियुक्ति के लिये मंजूरी प्रदान की गई।


7. दूरस्थ शिक्षा एवं मुक्त विश्वविद्यालय (Distance Education and Open Universities)


माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा को सम्पूर्ण देश में समुचित ढंग से चलाने हेतु भारत सरकार ने दूरस्थ शिक्षा तथा मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना की। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 में इसके लिये ठोस प्रावधान किये गये। दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में आज भारत ने बहुत प्रगति कर ली है। इसकी अवधारणा मुख्य रूप से विकासशील देशों में प्रारम्भ हुयी, जहाँ पर जनसंख्या अधिक होने के कारण शिक्षा का प्रसार जन-जन में कर पाना सम्भव नहीं है।


दूरस्थ शिक्षा, औपचारिक शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा और निरौपचारिक शिक्षा के मध्य शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया पत्राचार तथा विभिन्न प्रकार के आधुनिक संचार माध्यमों के द्वारा पूरी की जाती है। इसमें प्रत्यक्ष कक्षा शिक्षण की तरह शिक्षक व छात्र के मध्य अत: क्रिया (Interaction) न हो कर दोनों पक्षों द्वारा प्रेषित सूचनाओं के द्वारा ज्ञान का आदान-प्रदान किया जाता है। शिक्षण सामग्री लगभग सामान्य जैसी होती है, लेकिन शिक्षण विधि में पर्याप्त भिन्नता होती है। आधुनिक समय में टेलीफोन, मोबाइल, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, इण्टरनेट, टेलिकान्फ्रेन्सिंग के नवीन संसाधनों के प्रयोग ने दूरस्थ शिक्षा को पर्याप्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण बना दिया है।


दूरस्थ शिक्षा की आवश्यकता


दूरस्थ शिक्षा का प्रचलन सामान्यतः कुछ व्यक्ति विशेष की सुविधा के लिए ही किया जाता है-


1. कार्यरत व्यक्ति जो अपनी शिक्षा को कार्य के साथ आगे सुचारु रखना चाहते हैं।

2. ऐसे व्यक्ति जो किन्हीं कारणों से शिक्षा नहीं प्राप्त कर सके हैं।

3. ऐसे व्यक्ति जो शिक्षा के साथ कुछ अन्य कार्य भी करना चाहते हैं।

4. जो व्यक्ति अपने खालो समय का सदुपयोग करना चाहते हैं।

5. देश के पिछड़े व ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग।

6. जो व्यक्ति किन्हीं कारणों से औपचारिक शिक्षा में प्रवेश नहीं ले सके हैं।

7. जो व्यक्ति सामाजिक रूप से पिछड़े हुये हैं या शारीरिक रूप से अक्षम है।


दूरस्थ शिक्षा की विधि - पहले इसका विषय विशेषज्ञ द्वारा निर्मित पाठ्यक्रम आदि पत्राचार इंशाध्यम से छात्र तक भेजा जाता था, परन्तु सूचना तकनीकी के आधुनिकीकरण ने इस शिक्षा की विधियों में बहुत गतिशील परिवर्तन ला दिया है।


जैवेट जैकिन्स के अनुसार - नई सूचना और सम्प्रेषण तकनीकी के शिक्षा में प्रयोग ने पूरे जिश्व में दूरस्थ एवं मुक्त शिक्षा के विकास को अत्याधिक तीव्र गति प्रदान कर दी है। इनका सात्कालिक आकर्षण इस बात में है कि आज एक ही समय में अन्तः क्रियाओं में वृद्धि के साथ एक शिक्षक की उपस्थिति के बिना भी मल्टीमीडिया और इलैक्ट्रानिक सम्प्रेषण के माध्यम से अधिक से अधिक सीखा जा सकता है। किन्तु यह अधिगम उन कुछ सीमित वयस्क व्यक्तियों के लिये है, जो आसानी से कम्प्यूटर सीख सकते हैं और उनका प्रयोग कर सकते हैं।"


"New information and communications technology applications in education have given an immense boost to open and distance learning all over the world. Their immediate attraction lies in their ability to make more learning available at the same time as increasing interactivity in the absence of a teacher through multimedia applications and electronic communication but such learning is available only to the minority of adults, those who have easy access to computers and know how to use them."


मुक्त विश्वविद्यालय - मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना राष्ट्र की दूर दराज की आबादी को उच्च शिक्षा के अधिक से अधिक अवसर देने तथा शिक्षा को सर्वसुलभ स्वरूप प्रदान करने के लिए की गई है।


सन् 1979 में ब्रिटेन में सबसे पहले मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। इसमें अध्ययन के लिए रेडियो, टेलीविजन और अन्य संसाधनों की सहायता ली जाती थी। भारत में प्रथम खुले विश्वविद्यालय की स्थापना सन् 1982 में आन्ध्र प्रदेश में की गई। इसमें बी.ए., बी.कॉम, बी.एस. सी., कुछ विषयों में स्नाकोत्तर उपाधि तथा पुस्तकालय विज्ञान आदि की शिक्षा व्यवस्था की गई थी। 1985 में इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी, जो संसद द्वारा पारित एक अधिनियम पर आधारित था। भारत में अब तक 10 मुक्त विश्वविद्यालय खोले जा चुके हैं, इनके नाम निम्नलिखित हैं-


1. इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली। (IGNOU)

2. डॉ. बी. आर. अम्बेडकर मुक्त विश्वविद्यालय, अहमदाबाद।

3. नालन्दा मुक्त विश्वविद्यालय, पटना।

4. यशवन्तराव चह्वाण महाराष्ट्र मुक्त विश्वविद्यालय, नासिक।

5. एस.पी. भोज मुक्त वि.वि., भोपाल।

6. कोटा मुक्त वि.वि., कोटा।

7. नेता जी सुभाष मुक्त वि.वि., मैसूर ।

8. कर्नाटक स्टेट मुक्त वि.वि., मैसूर।

9. उ.प्र. राजर्षि टण्डन मुक्त वि.वि., इलाहाबाद।


8. उपाधि (डिग्री) को सेवा से अलग करना (To Remove Degree From Service) - भारत में 1981 की जनगणना के अनुसार उच्च शिक्षित व्यक्तियों का प्रतिशत 3.76 था। जब इतनी बड़ी संख्या में छात्र उपाधि प्राप्त कर लेते हैं, तो उन्हें उनकी शिक्षा के अनुरूप नौकरी नही मिल पाती है। इस समस्या के समाधान के लिये राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में निम्न तथा मध्य निम्न स्तर के ऐसे पदों के लिये बहुत सोच विचार करके उपाधि अनिवार्यता समाप्त करने की नीति बनाई गई।


परन्तु इसके कई दुष्परिणाम सामने आये। यह पता लगाना जटिल है कि कौन सी उपाधि, किस कार्य के लिए उपयोगी है, और कौन-सी नहीं। परन्तु इसे फिर भी लागू किया गया, उदाहरण-ऐसे व्यक्ति जिन्हें टाइपिंग का ज्ञान है किन्तु वे स्नातक नहीं हैं तो क्या ऐसे व्यक्तियों को टाइपिस्ट पद के लिये अनुपयुक्त समझा जायेगा ? शिक्षा नीति में यह प्रावधान किया गया है, कि ऐसे पदों के लिए उपाधि को अनिवार्यता को समाप्त कर दिया जाय। इस विषय में अभी परीक्षणों का कम जारी है। आगे इसकी संभावनाओं पर और विचार किया जा सकता है।


9. शिक्षक एवं शिक्षक प्रशिक्षण (Teacher and Teacher Training)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में शिक्षकों के स्तर तथा शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम पर विस्तार से विचार किया गया। इस नीति में शिक्षकों के स्तर तथा शिक्षक प्रशिक्षण स्तर पर अध्ययन किया गया तथा कुछ महत्वपूर्ण सुझाव भी दिये गये जो निम्नलिखित हैं-


1. शिक्षण प्रशिक्षण व्यवस्था का सुधार एवं आधुनिकीकरण किया जाना चाहिए।

2. विद्यालयी शिक्षकों के समुचित प्रशिक्षण के लिए जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्था ( DIET) खोले जाने चाहिए।

3. शिक्षकों को सृजनात्मक कार्यों की ओर प्रेरित करने हेतु सरकार को मदद करनी चाहिए।

4. विश्वविद्यालयी शिक्षकों हेतु ओरिण्टेशन कार्यक्रमों तथा रिफ्रेशर कोर्स चलाने के लिये ऐकेडमिक स्टाफ कॉलेजों की स्थापना की जानी चाहिए।


10. शिक्षक की जवाबदेही (Accountability of Teacher)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हेतु एक नवीन कदम उठाया गया, जिसमें शिक्षक की जवाबदेही तय की गई। जवाबदेही के अन्तर्गत शिक्षकों के स्तर, सम्मान, वेतन सेवा शर्तों व अन्य सुविधाओं को स्वीकार किया गया है, वहीं दूसरी ओर उनके उत्तरदायित्व, कर्त्तव्य और कार्य प्रणाली का मूल्यांकन भी आवश्यक माना गया है। शिक्षकों की स्थिति पर 1987 में एक संगोष्ठी में मानव संसाधन एवं विकास मन्त्रालय के सचिव श्री अनिल बेर्दिया ने कहा था-


"राष्ट्रीय शिक्षा नीति का क्रियान्वयन शिक्षकों के सक्रिय सहयोग के बिना भली प्रकार हो पाना एक कठिन कार्य है। इस विषय में शिक्षकों की भूमिका की विवेचना गंभीरता से की जानी चाहिए। इस सम्बन्ध में उनके वेतन, स्थिति, सेवा-शर्तें, पर्याप्त शिक्षण सामग्री की आपूर्ति तथा उनकी कठिनाईयों के निवारण पर भी विचार करना होगा।"


जवाबदेही की संकल्पना और अर्थ-जब हम किसी कार्य को पूर्ण करने हेतु अपने हाथ में लेते हैं तो उसके प्रति हमारी जवाबदेही या उस कार्य को सफलतापूर्वक खत्म करने की जिम्मेदारी होती है। जब कार्य अपने निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति कर लेता है तो कार्य करने वाले और करवाने वाले दोनों पक्षों को प्रसन्नता होती है। परन्तु यदि कार्य अपने उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाता है, तो कार्य करने वाले को जवाब देना पड़ता है कि किन कारणों या परिस्थितियों के कारण वांछित सफलता नहीं प्राप्त हो सकी, यही जवाबदेही कहलाती है।


शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी लेने और उसके उद्देश्य में सफल न हो पाने पर सम्बन्धित व्यक्ति को तो जवाब देना हो पड़ेगा। दोषियों को अपनी गलतियों के परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं। शिक्षा से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जवाबदेही तय करनी होगी तथा अपने कार्य की गुणवत्ता में भी सुधार लाना होगा।


शिक्षक की जवाबदेही - शिक्षक की जवाबदेही निम्न प्रकार की होती है-


1. आदर्श शिक्षक के गुणों से सम्बन्धित जवाबदेही।

2. छात्रों के अनुशासन एवं मूल्यांकन की।

3. छात्रों की व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक कठिनाइयों को पूरा करने के प्रयासों से सम्बन्धित ।

4. सामाजिक कार्यों तथा नैतिक चारित्रिक आचार व्यवहार की जवाबदेही ।

5. शिष्ट एवं अच्छे प्रेम पूर्ण आचरण की।


जवाबदेही का प्रचलन देश में नया ही है और यह अभी गहन विचार का विषय भी है, जिसे आपसी सहयोग से आगे बढ़ाना होगा तथा प्रत्येक व्यक्ति जो शिक्षा जगत से जुड़ा है, उसे ईमानदारी से प्रयास करना होगा।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की समीक्षा (ESTIMATION OF NATIONAL EDUCATION POLICY 1986)


स्वतन्त्रता के उपरान्त देश में किसी भी आधारभूत नीति का निर्माण नहीं हो सका। सरकार ने कई नीतियाँ तो बनाई परन्तु वह कार्य रूप में परिणित न हो सर्की। जब राजीव गाँधी प्रधानमन्त्री बने तो उन्होनें शिक्षा के क्षेत्र में आन्दोलनकारी कदम उठाये। सर्वप्रथम सरकार ने तत्कालीन शिक्षा का सर्वेक्षण कराया और उसे 'शिक्षा की चुनौती: नीति सम्बन्धी परिपेक्ष्य (Challenge of Education A Policy : Perspective)' नाम से अगस्त, 1983 में प्रकाशित किया। इस दस्तावेज में भारतीय शिक्षा की 1951 से 1983 तक की प्रगति का सांख्यिकीय विवरण, उसकी उपलब्धियाँ एवं असफलताओं का लेखा-जोखा और गुणदोषों का विवेचन किया गया है।


सरकार ने इस दस्तावेज को जनता तक पहुँचाया और राष्ट्रव्यापी बहस प्रारम्भ हो गई। केन्द्रीय सरकार ने राज्यों द्वारा प्राप्त सुझावों के आधार पर एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति तैयार की और उसे संसद के बजट अधिवेशन, 1986 में प्रस्तुत किया गया। संसद में पास होने के बाद इसको मई, 1986 में प्रकाशित किया गया। यह भारत की पहली शिक्षा नीति है, जिसमें नीति के साथ उसके क्रियान्वयन की पूर्ण योजना भी प्रस्तुत की गई है तथा उन्हें प्राप्त करने हेतु पर्याप्त संसाधन भी जुटाए गये हैं।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के मूल तत्व (Basic Element of National Education Policy 1986)


1. शिक्षा प्रशासन का विकेन्द्रीकरण किया जायेगा।

2. पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू होगी।

3. शिक्षा व्यवस्था हेतु पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था की जाएगी।

4. पूर्व प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जायेगी।

5. अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त किया जायेगा।

6. माध्यमिक शिक्षा का पुनर्गठन किया जाएगा।

7 उच्च शिक्षा का प्रसार एवं उन्नयन किया जायेगा।

8. तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा में सुधार किया जायेगा।

9. परीक्षा प्रणाली और मूल्यांकन प्रक्रिया में सुधार किया जाएगा।

10 शिक्षकों के स्तर और शिक्षक प्रशिक्षण में सुधार किया जाएगा।

11. प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों का विस्तार किया जाएगा।

12. सतत् शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी।

13. शैक्षिक तकनीकों का प्रयोग किया जाएगा।

14. शिक्षा व्यवस्था को कारगर बनाया जाएगा।

15. शैक्षिक अवसरों की समानता के लिए ठोस कदम उठाए जाएँगे।

16. महिला शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

17. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों की शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाएगी।

18. पिछड़े वर्ग एवं पिछड़े क्षेत्रों के बच्चों की शिक्षा की उचित व्यवस्था की जाएगी।

19. अल्पसंख्यकों के बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

20. विकलांग और मन्दबुद्धि बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की विशेषतायें (Characteristics of National Education Policy, 1986)


1. स्वतन्त्रता के उपरान्त प्रथम बार शिक्षा के क्षेत्र में इतना महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है, जिसमें शैक्षिक नीतियों के क्रियान्वयन पर बल दिया गया तथा शिक्षा को मजबूत बनाकर उसे देश की अनुरूप परिस्थितियों में ढालने का प्रयास किया गया।


2. इसके द्वारा एक निश्चित शैक्षिक स्तर तक राष्ट्रीय पाठ्यक्रम का प्रारूप दिया जाता है, इससे देश के पाठ्यक्रम मे एकरूपता आयेगी।


3. नई शिक्षा में विषमताओं को दूर करके शैक्षिक समानता लाने का संकल्प किया गया है। महिलाओं, अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों, अल्पसंख्यकों, विकलांगों तथा पिछड़े हुए क्षेत्रों एवं वर्गों को एक समान शैक्षिक अवसर उपलब्ध कराने का दृढ़ संकल्प किया गया है।


4. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में 10+2+3 की एक राष्ट्रव्यापी शिक्षा संरचना की सिफारिशें की गई हैं, जिसे देश के प्रत्येक भाग में स्वीकार कर लिया गया है।


5. सन् 1976 में संविधान संशोधन करके शिक्षा को समवर्ती सूची में शामिल कर लिया गया है, जिससे राज्यों की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हुई है, वरन् शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर उत्कृष्टता लाने के लिये केन्द्र सरकार और अधिक कार्य करेगी।


6. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शैक्षिक स्तरोन्नयन को क्रियान्वित करने पर विशेष बल दिया गया है। संस्थाओं और शैक्षिक कार्यों में लगे व्यक्तियों के कार्य को उत्कृष्ट मान्यता दी जायेगी और उन्हें पुरस्कृत करने के साथ उनकी जवाबदेही भी निर्धारित की गई।


7. बढ़ती हुई शिक्षित बेरोजगारी को रोकने तथा विश्वविद्यालयों में प्रवेश की समस्या कम करने के लिये व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया गया।


8. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा की गिरावट को बचाने हेतु हर सम्भव प्रयास किये जायेंगे। विश्वविद्यालयों में छात्रों का प्रवेश ग्रहण क्षमता के आधार पर होगा, शिक्षण विधियों को प्रभावी बनाया अयेगा। शिक्षकों के कार्य का मूल्यांकन होगा तथा उत्त्व कोटि के शोध कार्यों को प्रोत्साहित किया जायेगा।


9. शिक्षा नीति 1986 की यह विशेषता है कि उसके विभिन्न पहलुओं के क्रियान्वयन की समीक्षा प्रत्येक पाँच वर्ष में की जायेगी। क्रियान्वयन की प्रगति और समय-समय पर उभरती हुई प्रवृत्तियों की जाँच हेतु मध्यावधि मूल्यांकन भी होंगे।


10. इसमें शिक्षा द्वारा पर्यावरण रक्षा और सन्तुलन बनाये रखने के लिये विशेष प्रयास किये गये हैं।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के दोष (Demerits of National Education Policy, 1986)


1. शिक्षा के प्रसार पर ध्यान दिया गया, परन्तु शिक्षा की गुणवत्ता पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

2. अस्वस्थ अवस्था में चल रहे स्कूलों पर सरकार का ध्यान नहीं गया। शिक्षा नीति सरकारी एवं प्राइवेट स्कूलों के मध्य फासले पर मौन है।

3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति शैक्षिक कम राजनैतिक अधिक प्रतीत होती है।

4. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कैपिटेशन फीस लिये जाने को वैध माना गया है, जिससे दोहरी शिक्षा व्यवस्था को बल मिलता है।

5. शिक्षा नीति में सम्पूर्ण देश के लिये एक पाठ्यक्रम की बात कही गई है, परन्तु देश में सी.बी.एस. ई., आई. सी. एस. सी., यू. पी. बोर्ड आदि अनेक प्रकार के पाठ्यक्रम प्रचलित हैं।

6. इस शिक्षा नीति से शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण बढ़ गया है, सभी स्तरों पर स्ववित्तपोषित शिक्षा संस्थानों की भरमार हो गई है। शिक्षा मात्र धन कमाने का एक व्यवसाय बन कर रह गई है।

7. इसमें स्त्री शिक्षा के लिये कोई ठोस योजना तेयार नहीं की गई है।

8. व्यावसायिक शिक्षा द्वारा छात्रों को स्वरोजगार करने के अवसर प्रदान किये जाने की बात की गई है, परन्तु यह कैसे संभव होगा इस पर कोई विचार नहीं दिया गया है।

9. इस शिक्षा नीति में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड एक नारा मात्र बनकर रह गया है।

10. इस नीति में शिक्षा पर होने वाले व्यय को पूँजी निवेश का नाम दिया गया है। इसका लाभ उठाकर भारत में निजी स्तर पर शिक्षा संचालन करने वाले व्यक्तियों ने इसे एक व्यापार बना दिया है।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 का मूल्यांकन (Evaluation of National Education Policy, 1986)


स्वतन्त्रता के उपरान्त भारत में कई आयोग बने जिन्होंने अपनी संस्तुतियाँ प्रस्तुत कीं, परन्तु ये कभी एक निश्चित कार्य योजना के साथ देश में लागू नहीं हुई अत: इनसे कोई भी परिणाम नहीं प्राप्त हुवे। परन्तु राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक विस्तृत कार्य योजना के साथ प्रस्तुत की गई है, इस नीति के सन्दर्भ में शिक्षा मंत्रालय का मानव संसाधन विकास मंत्रालय के रूप में पुनर्गठन एक महत्वपूर्ण कदम है।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अनेक प्रकार के प्रावधान किये गये जैसे- सर्वसुलभ प्रारम्भिक शिक्षा, रोजगारपरक शिक्षा, खुले विश्वविद्यालय की स्थापना, नौकरियों में उपाधियों को अलग करना, विज्ञान व तकनीको शिक्षा पर बल, गति निर्धारक अर्थात् नवोदय विद्यालयों की स्थापना, स्वायत्तता व जवाबदेही पर बल, ग्रामीण विश्वविद्यालयों पर बल व जिला शिक्षा व प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना पर बल, भारतीय शिक्षा सेवा को शुरू करना, राष्ट्रीय कोर पाठ्यचर्या का निर्माण आदि राष्ट्रीय शिक्षा नौति के मुख्य पहलू हैं। परन्तु राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय शिक्षा के लिये स्वच्छ हवा की श्वसन के समान है, परन्तु विद्वानों व शिक्षाविदों ने इसकी आलोचना की है-


1. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में 1995 तक सभी बच्चों को निःशुल्क शिक्षा सुलभ कराने की बात कही गई है, परन्तु उपर्युक्त कार्यक्रमों पर अधिक बल के कारण लोगों को यह पुनीत आशा जैसी लगती है, क्योंकि इसके लिए पर्याप्त वित्तीय व्यवस्था नहीं की गयी है। नवोदय विद्यालयों को शिक्षा में श्रेष्ठत्व व समता की प्राप्ति के लक्ष्य के अनुरूप माना परन्तु ये विद्यालय ग्रामीण क्षेत्रों के अभिजात्य वर्ग के हितों का हो पोषण करेंगे। यह योजना दोहरी शिक्षा व्यवस्था को जारी रखने का एक प्रयास मात्र ही है। यह कुनियोजित व दुर्भाग्य पूर्ण है, क्योंकि धनवानों के कारण कभी गरीबों की तेजी से प्रगति नहीं हुई है।


2. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में केन्द्र व राज्यों के मध्य सार्थक साझेदारी की बात कही गई है, परन्तु केन्द्र की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी बल दिया गया है। शिक्षा के राष्ट्रीय स्वरूप को प्रबल करने, गुणवत्ता व मानकों को बनाए रखने, पूरे देश की शैक्षिक जरूरतों को निर्धारित करने तथा शैक्षिक स्तरों पर श्रेष्ठत्व को बढ़ावा देने में केन्द्र सरकार का उत्तरदायित्व और अधिक बढ़ गया है। गाँधी जी ने राष्ट्रीय विकास परिषद् की बैठक में कहा था कि राज्यों पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के ऐसे प्रस्तावों को नहीं लादा जाएगा, जो उन्हें स्वीकार्य न हों। ऐसी स्थिति में गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों की मत वैभिन्यता, देश में विद्यमान विविधताएँ व विपक्षी लोगों की आशंकाएँ राष्ट्रीय शिक्षा नीति के भारतीय शिक्षा प्रणाली को नई दिशा देने के उद्देश्य की प्राप्ति को अप्राप्त बनाएगी।


3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भाषा शिक्षा भी विवादास्पद रही है। लोगों ने नवोदय विद्यालय को हिन्दी थोपने का एक सुनियोजित षड्यंत्र माना है। क्योंकि विद्यालयों में कक्षा 6 व 7 में शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जाएगी, कक्षा 8 या 9 में हिन्दी/अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा तब दी जाएगी, जब इन भाषाओं के छात्रों ने कक्षा 6-7 में पढ़ लिया होगा तथा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में तीसरी भाषा वह होगी, जो अहिन्दी भाषा राज्यों में छात्रों में से 20 प्रतिशत द्वारा बोली जाएगी। यह योजना राज्यों के लिये ऐच्छिक होगी।


4. उच्च शिक्षा के संसाधन जुटाने के बारे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति मौन है इस नीति को अच्छी तरह से क्रियान्वित करने के लिये अत्यधिक वित्तीय संसाधन जुटाने होंगे जिनके अभाव में यह नीति क्रियान्वित नहीं हो पाएगी। 'इकोनॉमिक टाइम्स' में। जून 1986 को छपे लेख में निगम ने लिखा है-" संसाधनों पर राष्ट्रीय सेमिनार ने 20,000 करोड़ रुपयों की जरूरत का अनुमान लगाया है, जबकि सातवीं योजना में केवल 5455 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए हैं। इसके कारण अधिकांश चर्चा अनावश्यक हो गई, क्योंकि आवश्यक वित्त के अभाव में कोई भी योजना क्रियान्वित नहीं की जा सकती।


अपने सीमित संसाधनों के कारण केन्द्र सरकार वित्तीय व्यवस्था के पूर्ण भार को उठाने में असमर्थ है। साधन सम्पन्न औद्योगिक प्रतिष्ठानों को भी सहायता देनी होगी तथा राज्यों को भी विभिन्न विकास अनुभागों को अपने कुछ संसाधनों को शिक्षा के लिए निर्धारित करने हेतु कहना होगा।" इस कार्य में कितनी सफलता मिलेगी ? यह कहना काफी मुश्किल है।


अतः यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति विभिन्न आयोगों, विद्वानों व समितियों के शैक्षिक विचारों का संग्रह मात्र नहीं है, इसमें सिद्धान्तों का संशिष्टात्मक स्वरूप दिखाई देता है, इसी के आधार पर भारत में शिक्षा व्यवस्था का संचालन किया जा सकता है। नीति के उद्देश्यों ही प्राप्ति इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि इसको प्रभावी ढंग से लागू किया गया है। सरकार इस ओर विशेष ध्यान दे रही है तथा इसे नये रूपरंग के साथ उचित वित्त सहित पूरे देश में लागू किया या है।


समीक्षकों के अनुसार राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 में किए गये कुछ प्राविधान स्वागत योग्य हैं, परन्तु यह आवश्यक है कि इनसे वांछित परिणाम प्राप्त करने हेतु राष्ट्रीय शिक्षा नीति को पूर्ण ईमानदारी एवं दृढ़ता से लागू किया जाए। शिक्षाविदों के अनुसार इस नीति में आलोचना का मुद्दा यह है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति की लगभग सभी बातों पर डॉ. दौलतसिंह कोठारी की अध्यक्षता वाले शिक्षा आयोग (1964-66) के प्रतिवेदन में चर्चा की जा चुकी है। यहाँ यह हो दृष्टव्य है कि नीति का निर्माण शून्य नहीं होता है।


शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए शिक्षा विशेषज्ञ, शिक्षा आयोग तथा बुद्धिजीवी वर्ग समय-समय पर विकल्प प्रस्तुत करते रहते हैं। केन्द्र या राज्य सरकार अपने संसाधनों तथा प्राथमिकता के आधार पर इनमें से कुछ विकल्प स्वीकार कर लेती है तथा शेष को विभिन्न कारणों से अस्वीकार कर देती है। स्वीकृत विकल्पों को ही एक क्रमबद्ध रूप देकर समय-समय पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया जाता है।


अतएव भारत सरकार के द्वारा घोषित नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पूर्ववत् सुझाई गयी बातों का विद्यमान होना स्वाभाविक ही है। विचारकों के अनुसार राष्ट्रीय शिक्षा नीति में नयापन लाने का प्रयास करने की अपेक्षा यह बेहतर है कि पुरानी नीति के क्रियान्वयन के सन्दर्भ में आई कठिनाइयों व असफलताओं का निवारण कर उसे बेहतर बनाया जाए।


नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की दृष्टि से मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक कार्यान्वयन कार्यक्रम (Programme of Action) इस उद्देश्य से तैयार किया, जिससे इस शिक्षा नीति के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था नियोजित ढंग से की जा सके। यह कार्यान्वयन कार्यक्रम वस्तुतः राष्ट्रीय नीति के अन्तर्गत किए जाने वाले क्रियाकलापों की स्थूल रूपरेखा प्रस्तुत करता है।


इस शिक्षा नीति में दस्तावेज को 12 भागों में बाँटा गया है, जिनमें से कुछ प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित हैं-


1. विभिन्न स्तरों पर शिक्षा का पुनर्गठन (Reorganization of Education at Different Levels)-


(अ) पूर्व बाल्यकाल देखभाल व शिक्षण (Early Childhood Care and Education: ECCE)-शिक्षा की इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिशु के विकास की सर्वतोन्मुखी प्रकृति को मान्यता दी गई है, अर्थात् आहार, स्वास्थ्य तथा सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, नैतिक व भावनात्मक विकास पर विशेष ध्यान देते हुये समेकित बाल विकास कार्यक्रम चलाया जायेगा, जिसमें शिशु की देखभाल व पूर्व प्राथमिक शिक्षा में पूर्ण समन्वय रखा जायेगा। इसे एकीकृत बाल विकास सेवा कार्यक्रम से उपयुक्त रूप से समन्वित किया जायेगा।


(ब) प्राश्चमिक (मौलिक) शिक्षा (Primary (Elementary) Education] - इस शिक्षा नीति में 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के सार्वजनिक नामांकन व नियमित शिक्षा प्राप्ति तथा शिक्षा को गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार पर बल दिया जायेगा। इस शिक्षा नीति में गति निर्धारित स्कूलों की व्यवस्था करने की बात भी कही गयी है। जहाँ प्राथमिक शिक्षा के विद्यार्थियों को अपनी गति से पढ़ने का अवसर दिया जाएगा तथा उन्हें पूरक उपचारात्मक अनुदेशन दिया जायेगा। समस्त देश में प्राथमिक विद्यालयों के सुधार के लिये तत्काल 'ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड' कार्यक्रम बलाया जायेगा।


(स) माध्यमिक शिक्षा (Secondary Education)-

इस राष्ट्रीय नीति में माध्यमिक शिक्षा अपनी विशिष्ट भूमिका में दिखायी देगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में माध्यमिक शिक्षा के प्रसार व उन्नयन हेतु आवश्यकतानुसार देश के विभिन्न भागों में नवोदय विद्यालयों की भी स्थापना की जायेगी ताकि तीव्र गति से विकास करने वाले या विशेष प्रतिभा वाले बच्चों को अवसर प्रदान किये जा सकें।


इस स्तर पर क्रमबद्ध, सुनियोजित तथा लचीले व्यावसायिक कार्यक्रम शुरू किये जायेंगे। विशेष संस्थाओं में व्यावसायिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जायेगा तथा माध्यमिक शिक्षा से अपवचित वर्ग तथा क्षेत्र के लिये व्यापक स्तर पर नये विद्यालय खोले जायेंगे।


इसके अतिरिक्त नव साक्षरों प्राथमिक शिक्षा प्राप्त युवकों, स्कूल छोड़ जाने वालों तथा रोजगार या आंशिक रोजगार में लगे हुये व्यक्तियों के लिये भी अनौपचारिक लचीले व आवश्यकता पर आधारित व्यावसायिक शिक्षा के कार्यक्रम चलाये जायेंगे।


2. उच्च शिक्षा (Higher Education)-

इस शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के उन्नयन हेतु छात्रों को प्रवेश परीक्षा द्वारा प्रवेश देने, पाठ्यक्रमों के पुनर्गठन करने, उच्च शिक्षा संस्थानों को साधन उपलब्ध कराने और उनके शिक्षकों के लिये पुनर्बोध कार्यक्रमों की व्यवस्था करने की बात कही गई है। इस सम्बन्ध में नवीन शिक्षा नीति में निम्नलिखित प्रावधान हैं-


(i) एक बड़ी संख्या में स्वायत्तता प्राप्त कॉलेजों का विकास किया जायेगा तथा विश्वविद्यालयों के कुछ चुने हुये विभागों को भी स्वायत्तता दी जायेगी।


(ii) उच्च शिक्षा के लिये न्यूनतम आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था की जायेगी तथा छात्रों की संख्या को सीमित रखने के साथ ही विशेषज्ञता सम्बन्धी माँगों को प्रभावी ढंग से पूरा किया जायेगा।


(iii) उच्च शिक्षा का परिषदों के माध्यम से राज्य स्तरीय नियोजन व समन्वय किया जायेगा तथा क्षमता के अनुसार प्रवेश को नियमित किया जायेगा।


(iv) शिक्षण विधियों को बदलने के प्रयास किये जायेंगे तथा शिक्षकों के कार्य का मूल्यांकन भी व्यवस्थित ढंग से किया जायेगा।


(v) विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्यों की व्यवस्था की जायेगी और अनुसन्धान की उच्च गुणवत्ता को सुनिश्चित बनाने के लिये सहायता प्रदान की जायेगी व आवश्यक प्रयास किये जायेंगे।


(vi) शिक्षा के स्तर पर निगरानी के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और शिक्षा परिषदें ॥ कार्य करेंगी।


(vii) सामान्य रूप से उच्च शिक्षा को तथा विशेष रूप से कृषि, चिकित्सा, टेक्नोलॉजी, कानून व शिक्षा पर आधारित अन्य व्यवसायों के क्षेत्रों को अपना लक्ष्य बनाने वाली एक राष्ट्रीय संस्था की। स्थापना शिक्षा नीति में एकरूपता व सुसंगति पैदा करने के उद्देश्य से की जायेगी।


शिक्षा के समान अवसरों को उपलब्ध कराने की दृष्टि से मुक्त विश्वविद्यालय तथा दूरस्थ शिक्षा प्रणाली को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रश्रय दिया जायेगा। विशिष्ट तकनीकी सेवाओं जैसे- डॉक्टरी इंजीनियरिंग, विधि तथा ऐसी अन्य सेवाओं में, जहाँ अकादमिक योग्यता आवश्यक है, को छोड़कर अन्य सामान्य सेवाओं के लिये डिग्री की अनिवार्यता समाप्त की जायेगी।


3. तकनीकी व प्रबन्ध शिक्षा (Technical and Management Education)-

नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तकनीकी व प्रबन्ध शिक्षा हेतु अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् (AICTE) एवं राज्यों के तकनीकी शिक्षा बोडौँ को सुदृढ़ करने, कुछ अच्छे तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा संस्थानों को स्वायतता प्रदान करने, तकनीकी शिक्षा संस्थाओं में अन्तर्सम्बन्ध बढ़ाने और इस क्षेत्र में सतत् शिक्षा को व्यवस्था करने की बात भी कहो गयी है।


4. शिक्षा व्यवस्था को कारगर बनाना (Making the Education System Effective)-

इस शिक्षा नीति में तत्कालीन शैक्षिक वातावरण में उद्देश्यों की गंभीरता के साथ-साथ आधुनिकीकरण एवं सृजनात्मकता की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, शिक्षा के गुण एवं प्रसार के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तनों को सम्मिलित किए जाने की बात कही गई है।


5. शैक्षिक विषय वस्तु और प्रक्रिया को नया स्वरूप देना (To Give New Prospective to Educational Content and Process) -

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा की विषयवस्तु व प्रक्रिया को अनेक प्रकार से सांस्कृतिक विषयवस्तु से सम्बन्धित किया जायेगा।


6. शिक्षक व शिक्षक शिक्षा (Teacher and Teacher Education) -

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत शिक्षकों की सेवा शर्तों और कार्यकारी परिस्थितियों में व्यापक सुधार किया जायेगा। शिक्षकों के चयन के तरीकों को भी इस प्रकार पुनर्गठित किया जायेगा कि योग्यता व वस्तुनिष्ठता सुनिश्चित हो सके।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षक शिक्षा की प्रणाली में आमूल परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता को देखते हुए जिला शिक्षा व प्रशिक्षण संस्थान (D.I.E.T. District Institute of Education and Training) स्थापित किए जायेंगे, जो प्रांरभिक स्कूलों के शिक्षकों व निरौपचारिक और प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत कार्मिकों के लिए सेवापूर्ण व सेवाकालीन कार्यक्रम आयोजित करेगें।


कुछ चयनित माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों को भी उच्चीकृत करके उन्हें SCERT के कार्य के पूरक के रूप में कार्य दिया जायेगा। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् (NCTE) को अध्यापक शिक्षा संस्थाओं को मान्यता देने का अधिकार दिया जायेगा तथा उसे आवश्यक साधन उपलब्ध कराए जाएंगे।


7. शिक्षा का प्रबन्धन (Management of Education)-

(i) शिक्षा के प्रबन्ध हेतु, शैक्षिक नियोजन व प्रबन्ध प्रणाली में परिवर्तन को प्राथमिकता दी जाएगी।

(ii) राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षिक नियोजन व प्रबन्ध की दिशा में 'सेन्ट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ एजूकेशन' शैक्षिक विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निर्धारित करेगा तथा शिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु वांछित परिवर्तन किए जायेंगे।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) हेतु कार्य योजना (Plan of Programme of Action or POA for National Education Policy)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रकाशन, संसद द्वारा पारित हो जाने के बाद, मई 1986 में किया गया था तथा इसके लगभग 6 महीने बाद नवम्बर 1986 में इस शिक्षा योजना को लागू करने के लिए कार्य योजना (Plan of Action) के दस्तावेज का प्रकाशन किया गया।


इस शिक्षा नीति को लागू करने के मानव संसाधन मंत्रालय ने 23 कार्यदलों का गठन किया या, जिनमें ख्याति प्राप्त शिक्षाविद, विषय विशेषज्ञ तथा वरिष्ठ सरकारी अधिकारी शामिल थे। इन्होंने शिक्षा नीति के प्रमुख प्रावधानों को क्रियान्वित किये जाने की विधि पर विचार करके अपनी संस्तुति जुलाई 1986 में प्रस्तुत की।


इन सुझावों पर 21 जुलाई, 1986 को राज्य व केन्द्र के सक्षम शैक्षिक एवं प्रशासनिक अधिकारियों की बैठक में विचार करके एक कार्ययोजना (POA) तैयार की गयी, जिसे केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् द्वारा पुन: विचार कर के अपनी स्वीकृति दे दी गयो। यह अन्तिम प्रारूप भारतीय संसद द्वारा अगस्त 1986 में स्वीकृत किया गया जिसे बाद में सभी राज्यों में लागू कर दिया गया।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति में माध्यमिक शिक्षा हेतु कार्य योजना (Plan of Action for Secondary Education in National Education Policy)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति में माध्यमिक शिक्षा के महत्व को भली प्रकार समझा गया था। अत: इसमें इस स्तर की शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नांकित सुझाव दिये गये थे-


1. आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर भी प्रतिभावान बालकों को शैक्षिक प्रगति में तेजी ने का प्रयास करना।

2. इस नीति में माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा का एक ऐसा व्यवस्थित व सुनियोजि कार्यक्रम बनाने की संस्तुति की गई है, जो छात्रों को उनके शिक्षा पूरी करने के बाद उन्हें आत्थनिर्धार बनाने में सहायता करे।

3. व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं के निर्माण का उत्तरदायित्व सरकार तथा निजी सेवायोजकों पर सहभागिता के आधार पर सौंपा गया है।

4. माध्यमिक स्तर पर कक्षा 10 के लिए एक सामान्य आधारभूत पाठ्यक्रम बनाया गया है।

5. ग्रामीण क्षेत्रों में तथा महिलाओं के लिए सरकारी एवं व्यक्तिगत दोनों प्रकार की संस्थाओं में व्यावसायिक शिक्षा बढ़ाने के लिए विशेष कदम उठाये जाने चाहिए।

6. माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा हो कि छात्र विज्ञान, सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का पूर्ण विकास कर सकें।


उच्च शिक्षा हेतु कार्य योजना (Plan of Action for Higher Education)


उच्च शिक्षा की समस्याओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने के बाद, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निम्नलिखित संस्तुतियाँ दी गई हैं-


1. भारत में स्थित 150 विश्वद्यिालय व 5000 महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाने के स्थान पर इनके स्तर में सुधार किया जाय।

2. शिक्षा में आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के नवाचारों को लागू करना व अधिक सुविधायें प्रदान करना।

3. सम्बद्ध कॉलेजों के स्थान पर कुछ प्रमुख स्वायत्त कॉलेज खोले जायें।

4. भाषागत योग्यता के आधार पर पर्याप्त ध्यान देना व पाठ्यक्रमों में लचीलापन होना।

5. उच्च शिक्षा के स्तर पर व उसकी गुणवत्ता पर यू. जी. सी. द्वारा निरन्तर निगरानी रखना।

6. शिक्षक शिक्षा की दृष्टि से ओरिएन्टेशन प्रोग्राम तथा पुनश्चर्या पाठ्यक्रम संचालित करने हेतु ऐकेडेमिक स्टाफ कॉलेजों की स्थापना करना।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं संशोधित नीति 1992 का प्रभाव (EFFECT OF NATIONAL EDUCATION POLICY 1986 AND MODIFIED POLICY 1992)


राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 देश की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति है, जिसमें नीति के साथ इसको लागू करने की पूरी कार्य योजना 1986 में बनाई गई। सन् 1992 में जब इसमें कुछ संशोधन किये गये, तो साथ ही इसकी कार्य योजना में भी संशोधन किया गया और उसे कार्य योजना, 1992 के नाम से प्रकाशित किया गया।


वर्तमान में देश में इसी नीति का पालन हो रहा है और नीति के तहत शिक्षा के हर स्तर पर प्रसार एवं उन्नयन दोनों कार्य किये जा रहे हैं। इस नीति के तहत अब तक जो विशेष हुआ है, उसे निम्नलिखित रूप से क्रमबद्ध किया जा सकता है-


1. केन्द्र और प्रान्तों के शिक्षा बजट में वृद्धि हुई है, फिर भी अभी तक केन्द्र के बजट में तीक्षा पर 6% व्यय सुनिश्चित नहीं किया जा सका है।


2. पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू हो जाने पर भी प्रथम 10 वर्षीय आधारभूत बच्चयां अभी तक लागू नहीं हो पाई है।


3 शिशुओं की देखभाल और पोषण तथा पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिये अनेक योजनायें बनाई जा रही हैं। 2007 तक देश में 75 लाख से अधिक तो आँगनबाड़ियाँ और बालबाड़ियाँ आखापित की जा चुकी थीं और इनसे 2.4 करोड़ से अधिक बच्चे लाभान्वित हो रहे हैं।


4. प्राथमिक शिक्षा का तेजी से प्रसार एवं उन्नयन हो रहा है। ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड योजना के अन्तर्गत 2007 तक लगभग 80% प्राथमिक और 40% उच्च प्राथमिक स्कूलों की दशा में सुध् ए किया जा चुका था।


5. माध्यमिक शिक्षा के प्रसार में भी तेजी आई है। इस स्तर पर खुली शिक्षा का भी विस्तार किया गया है। अकेले राष्ट्रीय खुले विद्यालय (National Open School) में 4 लाख से अधिक जत्र-छात्रायें पंजीकृत हैं। गति निर्धारक विद्यालयों (Pace Setting Schools) के रूप में 2007 तक 565 नवोदय विद्यालय खोले जा चुके हैं।


6. लगभग सभी प्रान्तों में +2 पर व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी शुरू किये गये हैं, परन्तु इसमें आशातीत सफलता मिलना शेष है।


7. उच्च शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और प्रबन्ध शिक्षा सभी के विकास एवं उन्नयन के लिये प्रयत्न जारी हैं। इस दिशा में, उच्च शिक्षा के प्रसार में तेजी लाने के लिये दूरस्थ शिक्षा (खुली शिक्षा) का काफी प्रसार किया गया है तथा इसके उन्नयन हेतु अद्यतन एवं स्तरीय पाठ्यक्रम तैयार एवं लागू किये गये हैं। इसके साथ ही स्ववित्तपोषित उच्च शिक्षण संस्थाओं को खुले हाथ मान्यता दी गई है। इन सभी प्रयासों से उच्च शिक्षा का प्रसार तो अवश्य हुआ है, पर उसके स्तर में गिरावट आ रही है।


8. शिक्षक शिक्षा के क्षेत्र में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये हैं। इसका विवरण निम्न प्रकार है-


(i) सन् 2002 तक 485 जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (DIETs) स्थापित किये जा चुके थे।

(ii) 86 शिक्षक-शिक्षा महाविद्यालयों को शिक्षक-शिक्षा केन्द्रों (CTEs) में समुन्नत किया जा चुका था।

(iii) 38 शिक्षक-शिक्षा कॉलेजों को शिक्षा उच्च अध्ययन केन्द्रों (CASE) में समुन्नत किया जा चुका था।


राष्ट्रीय शिक्षक-शिक्षा परिषद् (NCTE) को सन् 1995 में संवैधानिक स्तर प्रदान किया गया। प्रारम्भ में तो उसके हस्तक्षेप से शिक्षक-शिक्षा विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की दशा में सुधार हुआ था और कुछ घटिया किस्म के शिक्षक-शिक्षा विद्यालय और महाविद्यालय बन्द कर दिये गये थे। परन्तु अब यह परिषद् भी भ्रष्टाचार का शिकार हो गई है और स्ववित्तपोषित शिक्षक-शिक्षा संस्थानों को खुले हाथ मान्यता दे रही है।


9. प्रौढ़ शिक्षा एवं सतत् शिक्षा कार्यक्रमों के लिये भी अतिरिक्त धनराशि उपलब्ध कराई गई है। इससे इस क्षेत्र में भी कार्य की गति बढ़ी है।


10 शैक्षिक अवसरों को समानता के लिये उठाये गये कदमों के परिणामस्वरूप स्त्री शिक्षा, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों के बच्चों की शिक्षा में विस्तार हुआ है। उनका नामांकन पर्याप्त रूप से बढ़ा है। कुछ विद्यालय अपंग और मन्दबुद्धि बच्चों, किशोरों और युवकों के लिये भी खोले गये हैं।


11. शिक्षा नीति में प्रशासन को दुरुस्त करने, शिक्षकों के दायित्व को निश्चित करने और शिक्षार्थियों को कर्त्तव्य बोध कराने पर बल दिया गया है।

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