प्राच्य-पाश्चात्य शिक्षा विवाद क्या है?|प्राच्य-पाश्चात्य विवाद के मुख्य कारण क्या थे?
प्राच्य-पाश्चात्य शिक्षा विवाद का मुख्य कारण 1813 के 'आज्ञापत्र' की 43 वीं धारा में किए गए दो शब्द थे । प्राच्यवादियों और पाश्चात्यवादियों ने इन दोनों शब्दों की व्याख्या अलग-अलग की प्राच्यवादियों का कहना था कि इस धारा के ' साहित्य ' शब्द के अन्तर्गत आते हैं। केवल अरबी और संस्कृत साहित्य एवं ' भारतीय विद्वान ' का अर्थ है- इन दोनों भाषाओं में से किसी भी एक भाषा का भारतीय विद्वान पाश्चात्यवादियों का मत था कि इन दोनों शब्दों का अर्थ इतना संकीर्ण नहीं है। ' साहित्य ' में अंग्रेजी का विशेष स्थान है । " प्राच्यवादियों ने ' कलकत्ता मदरसा ' और ' बनारस संस्कृत कॉलेज ' की स्थापना करके, प्राच्यवादियों के पक्ष में अपना मत व्यक्त किया ।
प्राच्यवादियों की धारणा थी कि भारतवासियों को विभाजित रखकर ही उन पर शासन किया जा सकता है। अतः वे इस देश के निवासियों को अरबी , फारसी और संस्कृत पर आधारित शिक्षा प्रदान करके विभिन्न धर्मों और जातियों में विभाजित रखना चाहते थे । प्रिन्सेप का विचार था कि भारतीयों में अंग्रेजी पर अधिकार प्राप्त करने की क्षमता नहीं है ।
पाश्चात्यवादियों का विचार था कि प्राच्य शिक्षा प्रणाली मरणासन्न अवस्था प्राप्त कर चुकी है और उसे पुनर्जीवन प्रदान करना मानव प्रयास से बाहर की बात है । इसके अतिरिक्त उन्होंने यह घोषित किया कि अरबी , फारसी और संस्कृत के साहित्य में पुरातन और निरर्थक विचारों के सिवा किसी प्रकार का उपयोगी ज्ञान नहीं मिलता है । अतः भारतीयों का मानसिक विकास करने के लिए, उनको अंग्रेजी माध्यम से पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञान से अवगत कराया जाना परमावश्यक है , विवाद का मूल यह था कि भारतीयों को प्राच्यशिक्षा दी जाए या पाश्चात्य शिक्षा । इस विवाद का अंत 1839 में हुआ ।
प्राच्य-पाश्चात्य विवाद के मुख्य कारण क्या थे?
प्राच्य-पाश्चात्य शिक्षा विवाद का मुख्य कारण
विवाद का मुख्य कारण 1813 के ‘ आज्ञापत्र ' की 43 वीं धारा में प्रयोग किये गये दो शब्द थे- साहित्य और भारतीय विद्वान् । प्राच्यवादियों और पाश्चात्यवादियों ने इन दोनों शब्दों की व्याख्या दो विभिन्न प्रकार से की । इस व्याख्या पर प्रकाश डालते हुए डॉ ० श्रीधरनाथ मुखोपाध्याय ने लिखा है - प्राच्यवादियों का कहना था कि इस धारा के ' साहित्य ' शब्द के अन्तर्गत आते हैं केवल अरबी और संस्कृत साहित्य एवं ' भारतीय विद्वान ' का अर्थ है - इन दोनों भाषाओं में से किसी भी एक भाषा का भारतीय विद्वान् पाश्चात्यवादियों का मत था कि इन दोनों शब्दों का अर्थ इतना संकीर्ण नहीं है । ' साहित्य ' में अंग्रेजी का विशेष स्थान है ।
प्राच्यवादी –
प्राच्यवादी दल में कम्पनी के पुराने और अनुभवी कर्मचारी थे । इसमें सर्वप्रथम , वारेन हेस्टिंग और जानेथन डंकन थे , जिन्होंने ' कलकत्ता मदरसा ' और ' बनारस संस्कृत कॉलेज ' की सृष्टि करके , प्राच्यवादी नीति के पक्ष में अपना मत प्रकट किया था । लॉर्ड माण्टो भी इसी नीति का पोषक था । इस नीति को बंगाल की ' लोक शिक्षा समिति के अधिकांश सदस्यों का समर्थन प्राप्त था ।
इन सदस्यों में दो मुख्य थे- ' समिति ' का मन्त्री, विल्सन और बंगाल का शिक्षा सचिव , प्रिन्सेप प्रिन्सेप - प्राच्यवादी दल का नेता भी था । सन् 1813 ई ० के आज्ञापत्र ने शिक्षा के लिए एक लाख रुपये वार्षिक व्यवस्था तो कर दी , पर व्यय करने की विधि निश्चित न करके कई विवाद खड़े कर दिये जिनमें से मुख्य निम्नलिखित थे -
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1. शिक्षा नीति शिक्षा का उद्देश्य क्या हो ?
इस विषय पर तीन विचारधाराएँ थी - डंकन, हेस्टिंग, मिण्टो विल्मन जैसे प्राच्यवादियों की दृष्टि में हिन्दुओं और मुसलमानों का प्राचीन साहित्य उपयोगी था । अतः उसका अध्ययन हिन्दुओं और मुसलमानों को ही नहीं, पाश्चात्य विद्वानों को भी करना चाहिए था।
दूसरी विचारधारा मिशनरियों , चार्ल्स ग्राण्ट , मैकाले - जैसे लोगों की थी , जो भारतीय संस्कृति के स्थान पर पश्चिमी संस्कृति लाना चाहते थे, क्योंकि जैसा मैकाले ने कहा था, एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की केवल एक अलमारी भारत तथा अरब के सम्पूर्ण देशी साहित्य के बराबर मूल्यवान् थी ।
तीसरी विचारधारा के प्रतिनिधि थे राजा राममोहन राय , जगन्नाथ शंकर सेठ सरीखे भारतीय और कर्नल जर्विस - जैसे अंग्रेज जो चाहते थे कि भारत के प्राचीन ज्ञान - विज्ञान का भी अध्ययन किया जाय और आधुनिक पश्चिनी ज्ञान विज्ञान का भी । पहला , शिक्षा , सरकार बदलने
2. शिक्षा सबको दी जाय या कुछ को ?
इस विषय में तीन विचार थे केवल अभिजात वर्गों यानी राजाओं, नवाबों, सरदारों आदि को दी जाय, क्योंकि इसका सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव इसी वर्ग पर पड़ा है । अतः इसे शिक्षा और नौकरी देकर अपना वफादार बनाना आवश्यक है ।
दूसरा, शिक्षा केवल राजाओं आदि को नहीं बल्कि समाज के उच्च प्रभावशाली वर्गों को दी जाय , क्योंकि इनकी संस्कृति स्वभावतः निम्न वर्गों तक पहुँच जायगी ।
तीसरा, थोड़े से व्यक्तियों को अच्छी शिक्षा यानी अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा दी जाय, फिर ये चाहे किसी भी वर्ग के हों और शेष जनता को भारतीय भाषाओं द्वारा शिक्षा देने का काम इन लोगों र छोड़ दिया जाय ।
3. देशी भाषाओं एवं देशी शिक्षा संस्थाओं के प्रति कम्पनी का रवैया क्या हो?
देशी शिक्षा संस्थाएँ सार्वजनिक शिक्षा का काम कर रही थीं । अतः माउण्ट स्टुअर्ट , एलफिन्स्टन , रडम थामसन - जैसे लोगों की यह माँग थी कि कम्पनी इन्हें सहयोग दे। जबकि दूसरे लोगों का यह मानना था कि कम्पनी का काम पश्चिमी ज्ञान - विज्ञान और अंग्रेजी भाषा का प्रसार करना होना चाहिए ।
4. शिक्षा प्रसार का साधन क्या हो ?
कुछ लोगों का मानना था कि शिक्षा-प्रसार का उत्तरदायित्व सरकार का है , तो कुछ लोगों की राय थी कि इसे वैयक्तिक प्रयासों पर छोड़ देना चाहिए । इसी में मिशनरियों को शिक्षा-प्रसार और धर्म प्रचार की छूट देने की बात भी उठ खड़ी हुई ।
प्राच्यवादियों ने उपर्युक्त तर्क उपस्थित करके इस बात पर बल दिया कि भारतीयों की प्रा शिक्षा , साहित्य और संस्कृति को सुरक्षित रखना आवश्यक है । अतः उनकी शिक्षा प्रणाली को प्रोत्साहित किया जाय और उनमें पाश्चात्य ज्ञान का कदापि प्रसार न किया जाय । ·
पाश्चात्यवादी -
पाश्चात्यवादी दल में कम्पनी के नवयुवक कर्मचारी और मिशनरी थे । इ सम्पूर्ण देश में यत्र - तत्र बिखरे हुए थे । इसलिए दल का न तो कोई संगठित स्वरूप था और न उनका कोई नेता ही था । फिर भी , उन्होंने प्राच्यवादियों की नीति का जमकर विरोध किया । उन्होंने यह विचा प्रकट किया कि प्राच्य शिक्षा प्रणाली मरणासत्र अवस्था को प्राप्त कर चुकी है और उसे पुनर्जीवन प्रदान करना मानव प्रयास से बाहर की बात है । इसके अतिरिक्त, उन्होंने यह घोषित किया कि फारसी और संस्कृत के साहित्य में पुरातन और निरर्थक विचारों के सिवा किसी प्रकार का उपयोगी ज्ञान नहीं मिलता है ।
अतः भारतीयों का मानसिक विकास करने के लिए, उनको अंग्रेजी माध्यम पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञानों से अवगत कराया जाना परम आवश्यक है । यहाँ इस बात का उल्लेख करना असंगत न होगा कि पाश्चात्यवादियों ने भारतीयों में यूरोपीय ज्ञान और विज्ञानों के प्रसार का समर्थन किसी निःस्वार्थ भावना से नहीं, वरन् निजी हित की भावना से प्रेरित होकर किया ।
उन्हें अपने व्यापारिक और प्रशासकीय कार्यालयों के लिए अंग्रेजी शिक्षित ' बाद वर्ग की आवश्यकता थी । उन्हें यह बात असह्य थी कि उनके देशवासी, इंग्लैण्ड से आकर इस निम्म वर्ग में सम्मिलित हों । अतः उन्होंने यहीं अधिक विवेकपूर्ण समझा कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रम करके बाबू वर्ग का निर्माण किया जाय ।
विवाद का अन्त , 1839
' विज्ञप्ति ' ने सरकार की शिक्षा नीति की निश्चित दिशा तो प्रदान कर दी , पर वह प्राच्य पाश्चात्य विवाद का अन्त न कर सकी उसके प्रकाशन के 13 दिन बाद ही लॉर्ड बेण्टिक रे अपनी जन्म-भूमि के लिए प्रस्थान किया । उसके प्रस्थान करते ही प्राच्यवादी दल ने अपना आन्दोलन पुनः प्रारम्भ कर दिया। उसके पश्चात् जब लॉर्ड ऑकलैण्ड ने भारत के गवर्नर - जनरल का पद सँभाला , तब उसने प्राच्य पाश्चात्य विवाद को अत्यन्त गम्भीर रूप में पाया । उसने लगभग चार वर्ष तक इस विवाद के कारणों का सतर्कता से अध्ययन किया।
इस अध्ययन के परिणामस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विवाद का मूल कारण यह था कि सरकार द्वारा प्राच्य शिक्षा पर कम धन व्यय किया जा रहा था। ऑकलैण्ड को विश्वास था कि यदि प्राच्य शिक्षा पर कुछ धन और व्यय कर दिया जाय, तो प्राच्यवादी अपना आन्दोलन स्थगित कर देंगे। अपने इसी विश्वास के आधार पर उसने 24 नवम्बर, 1839 ई ० को अपना प्रसिद्ध ' विवरण - पत्र प्रकाशित किया।
इस ' विवरण-पत्र ' में उसने प्राच्यवादियों को प्रति वर्ष 31 हजार रुपये की अतिरिक्त धनराशि देने की घोषणा की। इस घोषणा ने प्राच्यवादियों को प्रसन्न कर दिया । फलस्वरूप, लम्बे काल से चले आने वाले विवाद का अन्त हो गया।
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