पर्यावरण पर मानव अनुकूलन Paryaavaran Par Maanav Anukoolan
पर्यावरण पर मानव अनुकूलन (Human Adaptations of Environment):- पर्यावरण में हाने वाले परिवर्तन से अथवा दूसरे पर्यावरण में अपने को उसे अनुसार बदल लेना उपयोजन या अनुकूलन कहलाता है। दूसरे शब्दों में पर्यावरण के परिवर्तनों का सामना करने के लिए शरीर में जो प्राकृतिक संशोधन होता है उसे ही समायोजन कहा जाता है।
उदाहरण के लिए, अधिक गर्मी का सामना करने के लिए शरीर से जो पसीना छूटता है उससे शरीर ताप सहन करने की स्थिति में हो जाता है। मानव बाह्य पर्यावरण की उन परिस्थितियों से, जो उसके कार्यों में बाधा डालती है, उपयोजन करने का प्रयास करता है और यदि इस कार्य में उसे आशातीत सफलता नहीं मिलती तो वह उसके परिवर्तन करने में लग जाता है।
यदि किसी क्षेत्र विशेष में कुछ समय के लिए कृषि किया जाता है। यदि किसी क्षेत्र विशेष में कुछ समय के लिए कृषि कार्य न किया जाए तो अनुकूल परिस्थियों में वहाँ घास या वनों की उत्पत्ति होना स्वाभाविक होगा। इसलिए मानव को अपने पर्यावरण से उपयोजन करने के लिए निरन्तर क्रियाशील रहना पड़ता है।
डॉ. टेलर के मतानुसार, "प्रकृक्ति मानव के लिए एक प्रकार की याजना प्रस्तुत करती है। मानव उस योजना को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है। यह योजनाएँ एक प्रकार से सुअवसरों के समान है जिन्हें मानव चाहे स्वीकार करें या ठुकरा दें, किन्तु मानव का हित इसी में है कि इन सुअवसरों से लाभ उठाए और अपने आपको पर्यावरण से उपयोजित कर ले।" साधारणतः अनुकूलन के निम्न भेद किए जा सकते हैं -
1. भौतिक या शरीरिक अनुकूलन (Physical genetic or somatic adaptation)
इस प्रकार का उपयोजन पूरी तरह प्राकृतिक नियमों के अधीन या अनिर्वाय रूप से हुआ करता है, मानव की इच्छा अनिच्छा अथवा प्रयत्नों का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्राकृतिक दशाएँ और शक्तियाँ मानव पर स्पष्ट रूप से अपना प्रभाव डालती हैं। भूमध्यरेखीय वन प्रदेशों में तेज धूप के कारण मानव का रंग एकदम काला हो जाता है जबकि शीतप्रधान प्रदेशों में पीला या सफेद क्योंकि वहाँ सूर्य के प्रकाश की कमी रहती है। इसी प्रकार ताजी हवा से मनुष्य को उद्दीपन (Stinilation) मिलता है। पहाड़ी भार्गों के निवासी इसी स्वच्छ वायु के कारण कभी भी फेफड़ों संबंधी बीमारियों से ग्रसित नहीं रहते ।
2. साम्प्रदायिक (सामाजिक) अनुकूलन (Communal Adaptation)
जब मानव अपने अन्य साथियों की सहायता से पर्यावरण की प्रतिकूल अवस्थाओं को परिवर्तित करने का प्रयास करता है तो उसे साम्प्रदायिक (मानव समाज द्वारा) अनुकूलन कहा जाता है। इस अनुकूलन के फलस्वरूप प्रत्येक जीवधारी अपने निवास स्थान पर रह सकता है और उससे संबंध स्थापित कर लेता है।
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