वन संसाधन के अत्यधिक दोहन के कारण
वन संसाधन के अति दोहन (Overexploitation of Forest Resources):- प्रकृति के प्रारम्भ से ही मनुष्य द्वारा बों का दोहन होता रहा है। स्वाभाविक रूप से मुक्त अवस्था में इनकी उपलब्धि मानव की सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति के मुख्य कारक रही है। इसी कारण यह अनुभव किया जा सकता है कि इनका विदोहन भी प्राकृतिक क्रिया की तरह हुआ। हालांकि परिस्थिति और वातावरण के अनुसार समय-समय पर वन दोहन के उद्देश्य भी बदलते रहें है। आधुनिक काल में अतिशय वन दोहन के निम्नलिखित कारण है -
1. स्थानान्तरित कृषि
स्थानान्तरित कृषि को झूम कृषि के नाम से भी जाना जाता है। यह बन प्रदेश के किसी भी भाग में पेड़ों तथा वहाँ की वनस्पतियों को नष्ट करके की जाती है। यहाँ की वनस्पतियों को आग के द्वारा नष्ट कर दिया जाता है और उसकी राख पर दो तीन साल तक लोग कृषि करते हैं, फिर यही क्रिया दूसरी जगह, तीसरी जगह और लगातार यही क्रम चलता रहता है। इससे लगभग एक किनारे से वनों की सफाई होती जाती है।
2. जलाऊ लकड़ी की अत्याधिक आवश्यकता
जलाऊ लकडी मनुष्य की सामाजिक आवश्यकता रही है। ईधन अर्थात् रसोई तैयार करने के लिए अपेक्षित लकड़ी आदि की आवश्यकता कभी समाप्त न होने वाली वस्तु है। कभी इसके निमित्त वृक्षों को काटने की संख्या कम रही होगी। लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या में वृद्धि होती गई, आवश्कयता भी बढ़ती गई, जिसे जलाऊ लकड़ी की खपत में वृद्धि होती गई और अधिक वृक्ष काटे जाने लगे।
3. औद्योगिक विकास के लिए वन दोहन
वर्तमान काल मे हुए औद्योगिक विकास ने संसार के सम्पूर्ण जीवन क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है। जीवन के मानदण्ड, विचारधारा और महत्वाकांक्षाए पूरी तरह बदल गई हैं, जितनी सम्पदा का सामान्य जन जीवन में, एक सदी पहले छोटे-छोटे राज्यों के कोष में भी होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता, उतनी से भी अधिक सम्पदा के स्वामी सामान्य जनता के बीच दिखाई देने लगे। इनकी संख्या में लगातार वृद्धि भी होती रही, यह वृद्धि हुई भूमि के दोहन से ।
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जैसे-जैसे वैज्ञानिक उन्नति होती चली गठ, ग्रामीण जीवन, नगरीय जीवन में परिवर्तित होता गया। उदाहरणार्थ इमारती लकड़ी, फर्नीचर, पक्की ईटें, वस्त्र, कागज आदि बनोत्पादों की माँग बढ़ती गई। औद्योगिक कच्चे माल को माँग ने वनों पर पूरा-पूरा भार डाल दिया। परिणाम स्वरूप सैन्थेटिक फाइवर का उत्पादन भी मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में आगे आया और उत्पादन का भार भी वनों पर ही पड़ा। विश्व के सभी देशों में स्वाभाविक रूप से औद्योगिक विकास हाने में जमीन की जो आवश्यकता पड़ी, उसकी पूर्ति वनों ने की।
4. बाँधों का निर्माण
कृषि क्षेत्र की उन्नति के लिए पानी की आवश्यकता ने बॉर्थों के निर्माण को जन्म दिया, जिसके कारण हजारो हेक्टेयर वन भूमि जल के अधीन हो गई। बॉधों के निमार्ण स्थल पर बसे हुए ग्राम और नगरों की आबादी का विस्थापन इसी संदर्भ में स्वाभाविक था। अतः उनके पुर्नस्थापन हेतु जमीन का अधिग्रहण वनों से ही किया गया।
5. प्राकृतिक कारणों से वनों का क्षरण
प्राकृतिक कारणों से भी वनों का क्षरण होता है क्योंकि वनों में आग लगने की घटनाओं की संसार में कमी नहीं है। वनों में आग लगने के कारण दवाग्नि होती है, जो तेज वायु के प्रकम्पों से वृक्षों में आपसी टकराव से पैदा हो जाती है। उसके कारण वर्गों को क्षति प्राकृतिक रूप से पहुँचती है।
6. कृषि भूमि का विस्तार
लगातार हो रही जनसंख्या में वृद्धि के खाद्यान्न की माँग उठना स्वाभाविक है। जनसंख्या वृद्धि का जो स्वरूप बहुआयामी वैज्ञानिक उन्नति के कारण वर्तमान युग में देखने को मिल रहा है। वह आधुनिक इतिहास काल में कभी भी प्रकट नहीं हुआ था। इस काल में जन्मदर, मानव मृत्यु दर से बहुत अधिक है। अतः स्वाभाविक है खाद्यान्न की अत्याधिक आवश्यकता पड़ेगी। कृषि कार्यों में यंत्रों के अत्यधिक प्रयोग के कारण ग्रामीण क्षेत्रों का जीवन स्तर भी परिवर्तित हो रहा है। इन सबसे वन प्रदेश प्रभावित हुए, तथा उनके उन्मूलन में अत्यधिक वृद्धि हुई। इस प्रकार बढ़ते हुए वन-उन्मूलन एक चिंता का विषय बन गया, इसके रोकथाम के लिए उपाय भी किए जाने लगे। फिर भी जनसंख्या वृद्धि और इसकी खाद्यान्न आवश्यकता की पूर्ति के लिए कृषि विस्तार वनों का उन्मूलन कर ही किया गया, जिससे रोकने की आवश्यकता है।
7. अत्याधिक पशुचारण
मनुष्य ने जब कृषि कार्य प्रारम्भ किया तो उसके लिए उसने पशुश्रम को साधन बनाया। प्रारम्भ मे जब पशुओं की आवश्यकता पड़ी होगी तो अवश्य ही मनुष्य ने इसकी पूर्ति वनों से ही की होगी। इसमें मनुष्य ने अपने विवेक से ऐसे पशुओं का चयन किया होगा जो पूर्णरूपेण माँसाहारी नहीं थे और मानवीय निकटता को पसंद करते थे। मनुष्य ने उन्हें पालतू बना कर उनका वनीय जीवन समाप्त कर दिया। ऐसे पशुओं में गाय, भैस, बैल, भेड़, घोड़ा प्रमुख थे। कुत्ता और बिल्ली स्वेच्छाचारी जीव थे, साथ ही एक दूसरे के शत्रु भी थे, परन्तु दोनों ही वनवास पसंद नहीं करते थे। अतः उनका भी मनुष्य से सानिध्य हो गया। अतः इन पालतू पशुओं के लिए चारगाह केरूप में वनों का प्रयोग किया जाने लगा। यह स्वाभाविक था कि जिस प्रकार मनुष्य को संख्या में वृद्धि हुई, उसी प्रकार पालतू जानवरों की संख्या में भी वृद्धि हुई, उसी प्रकार पालतू जानवरों की संख्या में भी वृद्धि हुई। अतः पशुओं के भारी भरकम भोजन की जिम्मेदारी वनों ने ही झेली।
8. सामान्य जीवन की सुख-सुविधाओं का विकास
औद्योगिक क्षेत्र के विकास में विज्ञान की भूमिका ने ऐसे उपकरण और उत्पादन प्रस्तुत किए कि रेल मार्गों का विकास सबसे पहले शुरू हुआ। परिवहन के क्षेत्र में स्वचालित वाहनो बस, ट्रक, मालवाहक अन्य लघु आकार के वाहन, ट्राली कार आदि के लिए उनके अनुकूल सड़कों का विस्तार हुआ और विश्व के सभी देशों में सड़कों का जाल सा बिछ गया। स्वाभाविक है कि इसने वर्गों का भारी दोहन किया।
रेलमार्गों तथा सड़कों के निर्माण के कारण हजारो किलोमीटर तक वर्षों का सफाया होता गया। भारत में भी मात्र पहाड़ी क्षेत्रों में सड़के बनाने के लिए 30 हजार किमी. से अधिक क्षेत्रों में वनोन्मूलन किया गया।
ऐसा आकलन किया गया है कि सन् 1970 में पृथ्वी क्षेत्र का एक चौथाई भाग वन सम्पदा से भरा हुआ था, जो सन् 1980 तक घटकर 1/5 रह गया। वर्तमान समय तक इसके क्षेत्र में निरन्तर कमी आती ही जा रही है। विश्व के लगभग 2.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि सघन जंगलों से, 102 मिलियन हेक्टेकयर भूमि खुले हुए विरल जंगल तथा वृक्ष रहित मैदानी क्षेत्र हैं।