Natural Resources: प्राकृतिक संसाधन का अर्थ, परिभाषा, महत्व, आवश्यकता और वर्गीकरण
प्राकृतिक संसाधन (Natural resources): प्रकृति ने मानव को अनेक वस्तुएँ विरासत में प्रदान की है। प्रकृति द्वारा यही विरासत के रूप में प्रदत्त वस्तुएँ, जो पर्यावरण के मुख्य घटक हैं, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं। पी.ई. मैकनाल ने प्राकृतिक संसाधन को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "प्राकृतिक संसाधन वे साधन है जो प्रकृति द्वारा प्रदान किए जाते हैं एवं जो मनुष्य के लिए उपयोगो होते हैं।
मुख्य प्राकृति संसाधनों में सौर ऊर्जा, वायु, जल, भूमि, वनस्पति, प्रकाश, पृथ्वी ताप, खनिज, सूक्ष्म जीव, जिवाश्यम ईधन, मिट्टी, जन्तु आदि सम्मिलित हैं। निःसंदेह ये सभी हमारे लिए अतिआवश्यक होते हैं और इनकी कम या अधिक उपलब्धता, निरापदात, प्रदूषणता और इनको सापेक्ष उपयोगिताएँ मनुष्य के सुख-दुख, अभाव एवं विलासिता की स्थितियों से जुड़ी हैं।
इनमें से कुछ स्थितियाँ मानव विकास में बाधा भी उत्पन्न करती हैं जैसे प्राकृतिक विपदाएँ । प्राकृतिक विपदाएँ कभी भी मानव संसाधन नहीं हो सकती। अत: स्पष्ट है कि प्राकृतिक वातावरण के वे तत्त्व ही प्राकृतिक संसाधन है जो मानव के लिए उपयोगी हों।
इसी आधार पर प्राकृतिक संसाधन की परिभाषा विद्वानों ने दी है -
पी. आर. त्रिवेदी और के. एन. सुदर्शन के अनुसार "हमारे प्राकृतिक पर्यावरण का कोई भी अंग जैसे-भूमि, जल, वायु, खनिज, वन, चारागाह, वन्य जीव, मक्खी और यहाँ तक कि मनुष्य आबादी जिससे मनुष्य का कल्याण होता है, प्राकृतिक संसाधन कहलाते हैं।"
एन. एल. जिन्सवर्ग के अनुसार "प्रकृक्ति द्वारा दी गई सभी स्वतंत्र वस्तुएँ जो मानव की क्रियायों की परिधि में आती हैं, प्राकृतिक संसाधन कहलाती हैं।"
राजीव सिन्हा के अनुसार "प्राकृतिक संसाधन वह ईश्वर प्रदत्त वस्तुएँ हैं जिनसे कोई न कोई लाभ होता है। ये पृथ्वी, जीव मण्डल, वायुमण्डल से प्राप्त होती हैं और मानव क्रिया से स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में रहती है।
उपर्युक्त परिभाषाओं के विवेचन से निम्नलिखित बातें उभकर सामने आती हैं:
1. प्राकृतिक संसाधन स्वयं में निष्क्रिय होते हैं, मनुष्य जब इन्हें प्रयोग में लाता है तब ये सक्रिय होकर आर्थिक विकास में मदद करते हैं।
2. संसाधन में एकरूपता न होकर विविधता पाई जाती है।
3. प्राकृतिक संसाधन प्रकृति द्वारा प्रदत्त निःशुल्क अहार है।
4. प्राकृतिक संसाधनों में कुछ अपनी रचना के अनुसार समाप्त होने वाले होते हैं और कुछ नवीकरण के योग्य होते हैं।
5. प्राकृतिक संसाधनों में कुछ ऐसे होते हैं जो ज्ञात होते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो अज्ञात होते हैं।
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इन उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि संसाधन सापेक्ष्य व क्रियात्मक होते हैं। कोई भी प्राकृतिक बस्तु मनुष्य को संसाधन के रूप में सेवा प्रदान करती है और अगर बह अज्ञात है तो वह बिना उपयोग के उपेक्षित रूप में पड़ी रहती है।
इस बारे में जियरमैन ने लिखा है कि "प्राकृतिक संसाधन गतिशील होते हैं, ये मानव के बढ़ते ज्ञान और बढ़ती प्राविधिकी के संयोग से उपलब्ध होते रहते हैं। ज्ञान संकुचित होने पर वे घट जाते हैं और ज्ञान में वृद्धि होने पर उनका भंडार भी बढ़जाता है।" अत: कहा जा सकता है कि सभी वैज्ञानिक उपलब्धियों के आधार मुख्यत: प्राकृतिक संसाधन ही होते हैं।
उदाहरणार्थ - केवल वन सम्पदा अथवा जल के बाहुल्य ने अनेक देशों को प्रगति की चोटी पर पहुंचाया है। अफ्रीका की नील नदी के किनारे बसने चाले लोगों को इसने समृद्धशाली बनाया। कनाडा और जापान में बन सम्पदा की अधिकता ने इन्हें आर्थिक रूप से मजबूत किया। इसलिए निश्चित रूप से प्राकृतिक संसाधन मनुष्य को समृद्ध बनाने में सहायक है, आवश्यकता है ऐसे संसाध ानों की संरक्षा, सुरक्षा और उचित उपयोग करने की।
प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण (Classification of Natural Resources)
प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर विद्वानों ने अलग अलग किया है -
1. प्रथम वर्गीकरण :-
इसमें प्राकृतिक को दो भागों में विभाजित किया गया है-
(क) जैविक संसाधन: इनमें वे सभी संसाधन सम्मिलित है, जो जीवन चैल्य से युक्त है अर्थात जिनमें जीवन होता है। जैसे समस्त वानस्पतिक सृष्टि, पशु-पक्षी, जीवाश्म, कीड़े-मकोड़े आदि।
(ख) अजैविक संसाधन: इन संसाधनों में प्रत्येक प्रकार की अजैविक वस्तुएँ सम्मिलित होती है, जैसे मिट्टी, जल, वायु ऊर्जा, प्रकाश, ताप, पर्वत, पठार, मैदान, नदियों तथा इनसे प्राप्त होने वाली समस्त उपलब्धियाँ।
2. द्वितीय वर्गीकरण
इसमें वितरण अथवा प्राप्यता के आधार प्राकृतिक संसाधर्नो का वर्गीकरण किया जाता है। इस आधार पर भी प्राकृतिक संसाधन को दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(क) सर्वत्र सुलभ:- इसमें हवा को रखा जा सकता है जो हर स्थान पर उपलब्ध रहती है।
(ख) स्थानीयकृत- इसमें ऐसे संसाधन आते हैं जो स्थान विशेष पर ही उपलब्ध होते हैं। जैस- लोहा और वन। इस संसाधन को भी दो वर्गों में बाँटा जा सकता है -
(i) सामान्य सुलभ:- जो सामान्य रूप से अधिकांश स्थानों पर उपलब्ध रहते हैं जैसे- कृषि भूमि , खनिज, लोहा।
(ii) विरल सुलभ:- ये संसाधन पृथ्वी पर कहाँ-कहाँ तथा सीमित मात्रा में उपलब्ध रहता है, जैसे-यूरेनियम, लिथियम इत्यादि
3. तृतीय वर्गीकरण
इसमें आर्थिक उपयोगिता के आधार पर प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण किया जाता है। आर्थिक उपयोगिता के आधार पर प्राकृतिक संसाधनों को तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं:-
(क) भोज्य संसाधन: जो पदार्थ मानव द्वारा भोजन के रूप में उपयोग में लाए जाते हैं, भोज्य संसाधन कहलाते हैं। भोज्य संसाधन संबंधी पदार्थों को निम्नलिखित चार भार्गो में बाँटा जा सकता है-
(i) प्राकृतिक वनस्पति से प्राप्त खाद्य पदार्थ, जैसे फल तथा कन्दमूल।
(ii) खनिजों से प्राप्त खाद्य पदार्थ, जैसे नमक, फिटकरी
(iii) जीवों से प्राप्त खाद्य पदार्थ, जैसे मछली, मॉस, दूध, शहद आदि।
(iv) कृषि से प्राप्त खाद्य पदार्थ, जैसे गेहूं, चावल आदि खाद्यान्न फसलें, सब्जियाँ, फल-फूल आदि।
4. चतुर्थ वर्गीकरण :-
इसमें नव्यकरणीयता के आधार पर प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण किया जाता है। ये ऐसे संसाधन होते हैं जो उपयोग के बाद पुनः प्राकृतिक रूप से उत्पन्न हो जाते हैं। इनमें पेड-पौधे तथा जीव जन्तु प्रमुख है। इनकी निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है
(i) उपयोग द्वारा ह्रास होने वाले संसाधन।
(ii) परिवर्तनशील या देर तक प्रयोग में आ सकने वाले संसाधन
(iii) स्थायी या अपरिवर्तनीय संसाधन, जैसे हवा, जल, सौर ऊर्जा आदि।
डॉ. एम.के. गोयल ने प्राकृतिक संसाधनों के वर्गीकरण को निम्न आरेख द्वारा प्रस्तुत किया है वनकाम सुनील ने प्राकृतिक संसाधनों को निम्नलिखित रूप में वर्गीकृत किया है -
प्राकृतिक संसाधन
1. उपलब्धता
(i) सहज उपलब्ध पदार्थ
(ii) साध्य उपलब्ध पदार्थ
(iii) दुःसाध्य उपलब्ध पदार्थ
(iv) विपुल उपलब्ध पदार्थ
(v) क्षीण उपलब्ध पदार्थ
2. दीर्घजीवी प्रदार्थ
(i) अदीर्घजीवी पदार्थ
(ii) पुनर्जीवी पदार्थ
(ii) मृत प्रकृति वाले पदार्थ
विशेष भौतिक और जल वायुबोय दशाओं में प्राप्त होने वाले पदार्थों को विभाजित करने पर यह वर्गीकरण भी ध्यान देने योग्य है-
(क) सामान्य रूप से प्रत्येक देश-प्रदेश में उपलब्ध पदार्थ
(ख) असमान रूप से देश-प्रदेश में पाए जाने वाले पदार्थ
नवीकरणीय और अनवीकरणीय संसाधन (Renewable and Non-renewable resources)
1. नवीकरणीय संसाधन :-
इन्हें इप पुनः जीवित होने वाले था नवी चरित्रधारक संसाधन भी कहते हैं। प्राय: सभी जैव संसाधनों में यह क्षमता प्राकृतिक रूप में ही होती है। यह पुनः उत्पादन तथा पुनः स्थापन की क्षमता से युक्त होते हैं। अतः इनकी उपलब्धता निरन्तर बनी रहती है और इनमें वृद्धि भी होती रहती है।
ओलीवर एस. ओवन के अनुसार, "जैव संसाधन को असमाप्य (Inexhaustible) अर्थात समाप्त न होने वाले संसाधन कहा गया है। उनके अनुसार, इस प्रकार के संसाधन दो प्रकार के होते हैं-
(i) अपरिवर्त्य (Immutable):-
यह संसाधन अपने प्राकृतिक रूप में पर्यावरण के मूल धारक कहें जा सकते हैं, इनका पूरा प्रवाह प्राकृक्तिक चरित्र से बंधा रहता है जो सृष्टि की नैसर्गिक चीजे होती है वहीं इनके प्रभाव में रहती हैं, उदाहरणार्थ जलशक्ति, वायु शक्ति, ऊर्जा शक्ति आदि।
(ii) दुरूपयोग (Misusable):-
ऐसे संसाधन दुरूपयोग के प्रेरक होते हैं। यह स्थिति तब आती है जब मनुष्य अपने स्वार्थों के कारण प्राकृतिक रूप से उपलब्ध साधनों का दुरूपयोग करता है और ऐसा कार्य मनुष्य शक्ति संचय संहारक के रूप में करता है।
2. अनवीकरणीय संसाधन
सामान्य तौर पर अनवीकरणीय संसाधन में अजैविक पदार्थ आते हैं। अर्थात् जो पूर्णतः समाप्त होने वाले संसाधन अनवीकरणीय संसाधन के अन्तर्गत आते हैं। इसमें कुछ एक बार में तो कुछ अधिक बार प्रयोग में लेने से समाप्त हो जाते हैं। इन्हें समाथ भी कहा जाता है।
उदाहरणार्थ - इस प्रकार के संसाधनों में तेल, कोयला, वन तथा वन्य जीवन की अनेक प्रजातियाँ, खनिज तथा जीवाश्म आदि इसके अन्तर्गत आते हैं। प्रायः पृथ्वी के भीतर से किसी न किसी रूप में जो खनिज प्राप्त होते हैं वह किसी न किसी परिणाम से प्राप्त होने वाले संसाधन हैं, जो मनुष्य द्वारा उपयोग में लाते रहने पर एक न एक दिन समाप्त होते ही हैं। इनका नवीकरण भी नहीं होता तथा यह अपरिवर्त्य होते हैं।
समाण्य (Exhaustible) संसाधनों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-
(i) अपरिवर्त्य (Immutable):-
इसके अन्तर्गत बचाए रख सकने वाले संसाधन आते हैं अर्थात् समान्य स्थिति को प्राप्त होने वाले संसाधनों को उचित रख-रखाव से अधिक समय तक प्रयोग में लाए जा सकने की स्थिति में यदि रखा जा सकता हो तो उसे संधारणीय संसाधन कहते हैं।
(i) असंधारणीय (Non-Maintainable):-
इसके अन्तर्गत ऐसे संसाधन आते हैं जो पूर्णत: समाप्त होने वाले हों। अर्थात् जो संसाधन संधारणीय स्थिति में न रखे जा सकें, उन्हें असंधारणीय वर्ग में रखा जाता है। वस्तुत: ऐसे संसाधन एक बार ही उपयोग में लाए जा सकते हैं जैसे- तेल, कोयला, कर्पूर, आदि।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि मनुष्य को नैसर्गिक रूप से जल, थल, और बाबु हमें प्राकृतिक उपहार के रूप में प्राप्त है। परन्तु इनका यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य इनका उपयोग संसाधनों के रूप में नहीं करता। मनुष्य का बहुआयामी विकास इन संसाधनों से विद्यमान है, लेकिन यह विकास अचानक नहीं हुआ। क्योंकि मनुष्य को प्रारम्भ में जो भी प्राकृतिक संसाधन उपहार के रूप में प्राप्त हुआ, उनका उपयोग वह संसाधनों के रूप में प्रारम्भ किया।
मनुष्य वहीं नहीं रूका, उसने उन संसाधर्ती का उपयोग आज भी नहीं छोड़ा और दिन-प्रतिदिन इनके माध्यम से अपना विकास कर रहा है। अत: कहा जा सकता है कि प्राकृतिक संसाधन मनुष्य की बास्तविक सुख-सम्पदा के कारक रहे है। अत: हमें इनकी संरक्षित और संबद्धित करने की आवश्यकता है।
प्राकृतिक संसाधनों का महत्व एवं आवश्यकता
प्राकृतिक संसाधनों का महत्व और आवश्यकता (Importance and need of Natural Resources) :- आधुनिक युग में मानव जीवन के लिए प्राकृतिक संसाधनों का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया है कि इनकी अनुपस्थिति में मानव जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। आज मानव की आवश्यकताओं में इतनी वृद्धि हो गई है कि इनकी आवश्यकताओं की पूर्ति संसाधनों के बिना असंभव है।
मानव का जो विकसित रूप है, चाहे वह सामाजिक, सांस्कृतिक या आर्थिक हो, वह सभी संसाधन पर आधारित हैं। सभी वैज्ञानिक उपलब्धियों का आधार प्राकृतिक संसाधन हो है। प्राकृतिक संसाधन मानव जगत के अस्तित्व के लिए मूल आधार है।
अतः इनका संरक्षण कितना समीचीन और आवश्यक है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। प्राकृतिक संसाधन जिसे प्रकृति ने मनुष्य और जीव जन्तुओं के कल्याण और सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए बनाया है। वह हम पर निर्भर है कि हम उसका उपयोग किस प्रकार करें। क्योंकि यह हमारे जीवर के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। प्राकृतिक संसाधनों का महत्त्व अग्रलिखित है-
1. संसाधनों की मात्रा की उपलब्धता, उसे प्राप्त करने की क्षमता, तकनीकि योग्यता पर निर्भर है।
2. पृथ्वी पर के संसाधनों का न तो हर जगह वितरण समान है न ही उपयोग।
3. संसाधनों का मूल्य उसकी उपयोगिता और माँग पर निर्भर होता है।
4. संसाधनों की कमी के कारण उसकी उपलब्धता हेतु देश के अन्दर या बाहरी देशों से परस्पर विवाद हो जाते हैं।
5. संसाधनों की कमी की स्थिति में उसका मूल्य बढ़ जाता है जब किसी संसाधन की बहुत माँग हो तो भी मूल्य वृद्धि हो जाती है।
6. बढ़ती जनसंख्या के कारण संसाधनों के भण्डार में कमी आई है।
7. संसाधनों के असमान उपयोग से भी विवादास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
8. अनेक विकासशील तथा अविकसित देश अपने संसाधनों को कम मूल्य पर विकसित देशों को बेच देते है क्यों उनकी यह मजबूरी हो जाती है वह अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचेकर अपने देश की प्राथमिकताओं की पूर्ति करते हैं।
9. संसाधनों को प्राप्त करने में पर्यावरण विकृति की संभावनाएँ भी रहती है।
10. संसाधनों के अन्धाधुंध उपयोग अथवा दुरूपयोग ने भी इनको मात्रा को प्रभावित किया है। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है कि कुछ संसाधन समाप्त होने के कगार पर हैं। उनके समाप्त होने से पूर्व निश्चय ही हमें उनके विकल्प तलाश करने होंगे।
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