Land Resources: भूमि संसाधन एवं उसका क्षरण

Land Resources: भूमि संसाधन एवं उसका क्षरण - भूमि संसाधन के बारे बताते हुए भूमि के दूषित होने के कारणों का वर्णन कीजिए

भूमि संसाधन (Land Resources) :- प्राकृतिक उपहार के रूप में भूमि सृष्टि का वह अंग है, जो वायु से आवृत है तथा सौरमण्डल से निरन्तर ऊर्जा ग्रहण करती रहती है। साधारण अर्था में भूमि प्रकृति का वह भाग है, जिस पर हम निवास करते हैं। जिस पर जीव जन्तु, पशु-पक्षी आदि सभी रहते हैं, जिस पर पेड़-पौधे और वनस्पति उगते हैं जिसके गर्भ में अनेक प्राकृतिक संसाधन जैसे - खनिज तेल, कोयला आदि भरे हैं।


पर्वतों, पठारों, मैदानों, रेगिस्तानों, झीलों, जलकुण्डों तथा विशाल नदियों से इसका स्वरूप विन्यास हुआ है। उसकी गाँद मे चैतन्य से अनुप्राणित जोवों की हलचल दिखाई देती है तथा स्थावर विपुलता की छवि फैली हुई है, अपने इसी रूप में यह धरती या धरणो कहलाती है।


पर्वतों, झीलों, नदियों, सागरों, महासागरों तथा इसकी कोख में अनन्त सम्पदा भरी हुई है, जिसका भोग करते हुए मानव जाति ने एक दीर्घ इतिहास की रचना करके अनेक सभ्यताओं एवं संस्कृतियों, राजनीतिक, धार्मिक इतिहासों की रचना की है लेकिन भूमि की बात की जाय तो यह सम्पूर्ण पृथ्वी का 3/10 भाग, जिसे स्थाल मण्डल कहते हैं, के रूप में पाई जाती है।



सामान्यतः पृथ्वी की सतह के पानी रहित ठोस भाग को, जिस पर किसी भी कार्य का निष्पादन किया जा सकता है, उसे भूमि कहते हैं। वस्तुत: पर्यावरण की दृष्टि से हमारा आशय संपूर्ण भूभाग से है और जब हम भूमि शब्द का प्रयोग करेंगे तो उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखकर ही चर्चा को जाएगी।


मिट्टी बस्तुतः चट्टानों के टूटने फूटने से बनती है जो पृथ्वी की विभिन्न भौतिक, रसायनिक तथा जैविक क्रियायों द्वारा होती है। अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग खनिजों के छोटे कण और नदियों के द्वारा लाई गई पहाणों के सूक्ष्मकण जब मैदानी क्षेत्रों में इक‌ट्ठे होते हैं तो वे मिट्टी के नाम से जाने जाते हैं।


मिट्टी को उनके निमार्ण में आने वाले घटकों के आधार पर अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। इन्हें रगों के आधार पर काली मिट्टी, लाल मिट्टी, भूरी मिट्टी, पोली मिट्टी लवों तथा खनिजों के आधार पर अम्लीय मिट्टी, क्षारीय मिट्टी, बनावट के आधार पर चिकनी मिट्टी आदि नामों से पुकारते हैं। इन मिट्टियों के अलग-अलग गुण् है और ये अलग-अलग तरह के उपज के लिए उपयोग में लाई जाती है।


अलग-अलग प्रकार के मिट्टी में अलग-अलग गुण धर्म होते हैं और वे अलग-अलग उत्पादों के लिए उपयोगी होती हैं। ऊपज का सीधा संबंध यह है कि पानी की कितनी मात्रा कौन सी मिट्टी ग्रहण करती है। वैज्ञानिकों के अनुसार ऊपरी सतह की 6 इंज तक मिट्टी में उन लवणों की अधिकता रहती है जिन पर ऊपज निर्भर करती है।


भूमि के ऊपरी सतह के निर्माण में सहस्रों वर्ष लगे हैं इसका ऊपरी तरह अत्यंत बारीक होता है और यही सभी प्रकार के ऊपज के लिए श्रेष्ठ मानी जाती हैं। इसके ऊपरी सतह की 2.5 सेमी (1 इंच) के निर्माण में लगभग 100 वर्ष या उसे अधिक समय लग जाता है।


इसलिए उसे सुरक्षित और संरक्षित रखने की महती आवश्यकता है क्योंकि भूमि हो एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है जो सुरक्षित रहने पर हमारी अच्छी आश्रय के रूप में काम आती हैं और भोजन के लिए अनाज, पीने के लिए जल तथा प्रकृति संतुलन के लिए वन क्षेत्र उपलब्ध कराती हैं।


भूमि नष्ट या दूषित होने के कारण निरंतर जनसंख्या वृद्धि के कारण निश्चय ही प्रति व्यक्ति भू-भाग की कमी होती जा रही है। अगर वन क्षेत्र, नम भूमि, बंजर भूमि को निकाल दिया जाय तो शेष सारी भूमि पर कृषि की जा सकती है। निरन्तर जनसंख्या वृद्धि के कारण कृषिभूमि पर निरन्तर दबाव बढ़ रहा है।


अत: भूमि का उचित उपयोग किया जाना चाहिए। लेकिन भूमि का ठी से उपयोग न हो पाने के कारण भूमि के नष्ट होने या दूषित होने का भय बना रहता है। इसे नष्ट और दूषित होने के कई कारणों को मुखतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है -


1. भूमि क्षरण:-

तेज वर्षा, आँधी, तूफान से मिट्टी की ऊपरी सतह बह जाती है या उड़ जाती है। इसी प्रकार जाने अनजाने में कितनी ही भूमियू ही नष्ट हो जाती है। मिट्टी नष्ट तो बहुत कम समय में नष्ट हो जाती है जबकि उसके बनने में बहुत समय लगता है। अतः इस तरह से भूमि का ऊपर सतह जब नष्ट हो जाती है तो उस भूमि क्षरण कहते हैं। इससे मानव जीवन और कृषि युक्त भूमि प्रभावित होती है। इसलिए मिट्टी की रक्षा करना बहुत आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हैं। यह भूमि क्षरण दो कारणों से होता है -


(a) जल द्वारा भूमि क्षरण

जिन स्थानों पर वनस्पतियों का अभाव होता है और आसपास सघन वृक्ष नहीं होते हैं, वहाँ के भूमि की मिट्टी की सतह धीरे-धीरे क्षय होती जाती है और हमें उसका आभास तक नहीं हो पाता। वर्षा होने पर वर्षा जल के साथ मिट्टी भी बह जाती है। अगर वर्षा तेज होती है तो यह कटाव और भूमि क्षय शीघ्र और अधिक होने लगती है। इसके बचाव के कई उपाय हो सकते हैं -


(क) खेतों व भूमि के आस-पास घने वृक्ष लाए जाए, क्योंकि वर्षा की तेज बूदों को वृक्ष अपने ऊपर लेकर बूदों की गति को धीमा कर देते हैं और पानी को मिट्टी पर धीरे-धीरे जाने देते हैं जिससे भूमि क्षरण होने की संभावना नहीं रहती।

(ख) भूमि को जुताई पानी की निवास व्यवस्था के लम्बवत करने से मिट्टी का कटाव और भूमि क्षरण कम हो जाता है।

(ग) खेतों अथवा भूमि भाग के ऊपरी हिस्सों में, जहाँ से वर्षा के पानी की आवक है, वहाँ छोटे-छोटे एनीकट बनाए जाए। जिससे पानी उस एनीकट में रूक जाय और उसे अपनी सुविधा से धीमे-धीमे कम गति से काम में जा सकें। 


(b) हवा द्वारा भूमि क्षरण 

अगर हवा का प्रवाह बहुत तेज है तभी भी भूमि क्षरण होता है। इसमें वायु अपने साथ मिट्टी के सूक्ष्म कणों भूमि से उठाकर अपने साथ ले जाती है जिससे भूमि का वह भाग उजड़ सा जाता है। इसके बचाव के कई उपाय हो सकते हैं-

(क) वायु की दिशा के विपरीत खेतों की रक्षा करना।

(ख) वायु की नमता बनाए रखना, जिससे मिट्टी सहज रूप से उड़े।


उपर्युक्त दोनों प्रकार की भूमि क्षरण के कारणों से भूमि क्षरण को रोकने के लिए निम्त दो बातों को अपनाना आवश्यक है -

* खेतों के आस-पास सघन वृक्ष लगाना।

* पानी के बहाव अथवा हवा के प्रवाह के विरूद्ध रक्षा पेटियों की व्यवस्था करना।


अगर इस उपर्युक्त तथ्यों पर ध्यान दिया जाय तो भूमिक्षरण को काफी हद तक रोका जा सकता है।


2. भूमि प्रदूषण

भूमि के भौतिक रसायनिक या जैविक गुणों के अवांछित परिवर्तन का प्रभाव से जब भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता या उपयोगिता नष्ट हो, तो वह भूमि प्रदूषण कहलाता है। इसके निम्नलिखित कारण है :-


(i) मिट्टी की अम्लीयता :-

जब भूमि के आद्रता के कारण हाइड्रोजन आयन्स (H₂) का आण्विक प्रगाढ़ता अधिक और हाइड्रोक्सिल आयन्स (HCI) अपेक्षाकृत कम होते हैं तो अम्लीय विकास उत्पन्न हो जाते हैं जिससे मिट्टी का घोल का पीएच (PH) मान सदैव 7 से कम रहता है।


इस विकृति के आ जाने के कारण एल्यूमिनियम, लोहा के अधिक घुलनशील होने से ये पौधे के लिए विष का कार्य करते हैं तथा मैंगनीज यौगिक की मात्रा बढ़ने से पौधों की अपचयन क्रिया रूक जाती है। मृदा जिवाणुओं को क्रियाशीलता भी इनके कारण मंद पड़ जाती है। फसलों को मैग्नीशियम, फास्फोरस, कैल्शीयम आदि की मात्रा कम हो जाती है जिसके फलस्वरूप फसलों के उत्पादन में गिरावट आ जाती है।


निरन्तर अमोनियम सल्फेट जैसे उर्वरकों को प्रयोग करने, भूमि में सिलिका का क्वार्टन को अधिकता होने से, क्षारों के निक्षालन होने से तथा जैविक पदार्थों के अपघटन से भूमि में अम्लों को मात्रा बढ़ जाती है। इस अम्लीय मात्रा को भूमि में कम करने के लिए भूनि में क्षारीय उर्वरकों का प्रयोग, पोटोश युक्त खाद का प्रयोग, चूने का प्रयोग, समुचित जल निकास की व्यवस्था करके तथा अम्ल सहिष्णु फसलें लगाई जा सकती है। 


(ii) मिट्टी की क्षारीयता :-

भूमि के ऊपरी सतह पर कैल्शीयम, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटाश के कार्बनिट्स, बाई कार्बनिट्स, क्लोराइड्स तथा कभी स्नाइटूट भी पाए जाते हैं। जिनके कारण मिट्टी में क्षारीयता उत्पन्न हो जाती है। यह क्षारीयता शुष्क तथा अद्धशुष्क क्षेत्रों में अधिक वाष्पीकरण के कारण होता है। इस प्रकार को पिट्टियों में हाइड्रोक्सिल आंयन्स की सान्द्रता हाइड्रोजन आयन्स को अपेक्षाकृत अधिक होती है। इनका पीएय मान सदैव 7 से अधिक होता है।


मिट्टी में क्षारीयता जल निकास का उचित प्रबन्ध न होने से हारीय कवों के वाष्पीकरण से सोडियम नाइट्रेटस आदि उर्वरकों के निरन्तर प्रयोग से, नहरी जल से निरन्तर सिचाई करने से होता है।


इस क्षारीयता से मिट्टी पर विषैला प्रभाव पड़ता है। पौधों का वृद्धि और विकास इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि इस तरह की भूमि पर रहने वाले पौधे सोडियम की मात्रा अधिक अवशोषित कर लेते है। मिट्टी में क्षारीयता को कम करने के लिए लवणों का निक्षालन कर, खुरवकर तथा बहाकर हटाया जा सकता है। इसमें जिप्सम का प्रयोग, क्षार सहिष्णु फसले उगाकर, जैविक खादों का अधिक प्रयोग कर मिट्टी की क्षारीयता को दूर किया जा सकता है।


(iii) रसायनिक एवं कीटनाशक दवाओं का भूमि पर प्रभाव :-

वर्तमान युग में जनसंख्या के तौबत्तम वृद्धि के कारण अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता पड़ रही है। इसलिए आज उत्पादन बढ़ाने के लिए खेतों में रसायनिक खादों, कीटनाशक, शाकनार्श एवं कवकनाशक रसायनों का प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है जिससे भूमि में हानिकारक तत्त्वों की मात्रा बढ़ती जा रही है और भूमि प्रदूषित होती जा रही है।


कीटों को नष्ट करने के लिए बी.एच.सी, डी.डी.टी. जैसे अधिक हानिकारक विषों की अधिकतम मात्रा में प्रयोग किए जाने से भूमि में इन रसायनों का अंश कई वर्षों तक विद्यमान रहते हैं जिससे भूमि प्रदूषित होने के साथ-साथ अनाजों में भी इनका अंश चला जा रहा है जिससे मानव समाज में नई-नई बीमारियाँ फैल रही है।


इसलिए उत्पादन बढ़ाने के लिए कीटनाशक दवाओं, रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम किया जाना चाहिए तथा इनके स्थान पर जैविक खाद, भूपरिष्करण/यांत्रिक क्रियार्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए तभी हम भूमि प्रदूषण से मानव समाज को सुरक्षित रख सकते हैं। इसके लिए भारत सरकार द्वाराभी अनाजों, शाकां आदि में भी जैसे डी. डी.टी.बी.एच.सी. आदि रसायनों के प्रयोग न करने की सिफारिश की है।


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