पारिस्थितिकी तंत्र - अर्थ एवं परिभाषा तथा जैविक, अजैविक घटक
परिस्थितिकी का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning of Definition of Ecology):- परिस्थितिको एक नया विज्ञान है। सर्वप्रथम अनंस्ट हेफेल नाम प्राणि विज्ञान शास्त्री ने सन् 1869 ई० में Ecology शब्द का प्रयोग 'Oelologie' के रूप में किया।
यह शब्द दो ग्रीक शब्दों - Oikas =House = घर, तथा logaos = study = अध्ययन से मिलकर बना है। Ecology को हिन्दी में परिस्थितिकी कहते हैं। इसके अन्तर्गत जीवधारियों (पौधों एवं जंतुओं) के वास स्थानों या उन पर पड़ने वाले वातावरण के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है।
परिस्थितिकी को सर्वप्रथम परिभाषित और विस्तृत अध्ययन का श्रेय भी जर्मन जीव वैज्ञानिक 'अर्नस्ट हेफले' को ही प्राप्त है। उनके अनुसार - "वातावरण और जीव समुदाय के पारस्परिक संबंधों के अध्ययन को परिस्थितिकी कहते हैं। इसमें जीव एवं उनके स्थान के सम्पूर्ण जैविक-अजैविक संघटकों के अध्ययन का बोध होता है। इतना ही नहीं बल्कि इनके अन्तसंबअंधों की जटिल प्रक्रिया की ओर भी संकेत मिलता है साथ ही परिस्थितिकी में पायी जाने वाली समानता एवं विषमता भी इसक अर्न्तगत सम्मिलित हो जाते हैं।
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परिस्थितिकी की कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाए निम्नलिखित हैं -
जी.एल. क्लार्क के अनुसार "परिस्थितिकी में पौधों तथा जानवरों का उनके वातावरण के साथ आन्तरिक संबंधों का अध्ययन किया जाता है, जिसमें अर्थ, पौधों तथा जानवरों को प्रभाव तथा भौतिक विशेषताओं का अध्ययन किया जाता है।"
सी.जे.क्रेब्स के अनुसार, "परिस्थितिकी प्राणियों एवं प्रकृति के मध्य अन्तः क्रिया का वैज्ञानिक अध्ययन है जो प्राणियों के पर्याप्रता तथा वितरण विस्तार का निर्धारण करती है।"
एल.आर. टेलर्स के अनुसार "परिस्थितिकी अध्ययन का एक ढंग है जिसमें ऐ प्राणी, एक जनसख्या, जीवों का एक समुदाय परिवर्तन के साथ कैसी प्रतिक्रिया करते हैं।"
मैकफैडियन के अनुसार, "परिस्थितिकी एक विज्ञान है, जिसका संबंध प्राणियों, पौधों, पशुओं तथा उनके पर्यावरण के आन्तरिक संबंधों से होता है।"
एम.ई. क्लार्क के अनुसार "परिस्थितिकी एक परिस्थित प्रणालियों का अध्ययन है अथवा सभी प्राणियों तथा उनके वातावरण की पारस्परिक अन्त: क्रिया का अध्ययन है। पर्यावरण अन्त:क्रिया के अध्ययन को वैज्ञानिक आयाम है जो प्राणियों की भलाई हेतु विस्तार, वितरण, पर्याप्यता, उत्पादकता तथा परिवर्तन को नियंत्रित करती है।"
पिनालिया के अनुसार "परिस्थितिकी के अन्तर्गत प्राणियों तथा संपूर्ण जैविक तथा भौतिक कारकों, प्रभाव या उनकों प्रभावित करने वाले कारकों संबंधों का अध्ययन किया जाता है।" इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि परिस्थिकी विज्ञान की वह शाखा है जो सम्पूर्ण जीव जगत के घटकों में परस्पर तथा सजीव वर्ग का अपने पर्यावरण से संबंध का अध्ययन करती है।
जीवीय घटक (Biotic Components)
सभी जीवधारियों को जीवित रहने प्रजनन तथा वृद्धि के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन के द्वारा इन्हें ऊर्जा प्राप्त होती है। पृथ्वी पर ऊर्जा का मुख्य स्रोत सूर्य है जिनके द्वारा विकिरण ऊर्जा प्राप्त होती है। हरे पौधे इस ऊर्जा को प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा रसायन ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं। अन्य जीवधारी इन्हीं पौधों को भोजन के रूप में ग्रहण करके उनसे ऊर्जा प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार विभिन्न जीवधारियों में ऊर्जा का तल भिन्न-भिन्न होता है। ये जीवधारी जो अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं तथा दूसरे पर निर्भर नहीं रहते, स्वयंपोषी कहलाते हैं। इनके अन्तर्गत सभी हरे पौधे आते हैं। दूसरे जीवधारी जो भोजन के लिए सदैव दूसरे पर निर्भर रहते हैं, परपोषी कहलाते हैं। सभी जीविय घटक पारस्परिक भोजन संबंधों के अनुसार संतुलित रहते हैं। परिस्थितिकी तंत्र के जीवित घटक निम्न है -
1. उत्पादक (Producers)
इसके अन्तर्गत वे सभी हरे पौधे आते हैं जो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा कार्बन डाई आक्साइड एवं जल को पर्णहरित की उपस्थिति में सूर्य के प्रकाश द्वारा ग्लूकोज में परिवर्तित करते हैं। यह ग्लूकोज भोजन के रूप में पौधे में एकत्रित होता रहता है और श्वसन क्रिया के फलस्वरूप ऊर्जा प्रदार करता है। यही ऊर्जा विभिन्न जैविक क्रियायों में काम आती है।
प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में कार्बन डाई आक्साइड का उपयचन (Oxidation) होता है। पौधों में संचित भोज्य पदार्थों को सम्पूर्ण जीव जगत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करके ऊर्जा प्राप्त करता है। इसी कारण हरे पौधे को प्राथमिक उत्पादक माना जाता है। इनका कार्य सम्पूर्ण परिस्थितिकी तंत्र के लिए भोजन उत्पादन तथा ऊर्जा का संचयन करना है।
2. उपभोक्ता (Consumers)
इसमें ये सभी सजीव जीवधारी (पशु तथा मनुष्य) आते हैं जो उत्पादक जीवधारियों द्वारा तैयार किए गए भोजन का उपयोग करते हैं। इसके अन्तर्गत वे जीवह गारी आते हैं जो अपना भोजन प्राथमिक उत्पादों (हरे पौधों) अथवा अन्य जीवधारियों को खाकर प्राप्त करते हैं।
प्राथमिक उत्पादों (हरे शाकीय पौधों झाड़ियों तथा वृक्षों की पत्तियां आदि) को ग्रहण करने वाले जीवधारियों को शाकाहारी तथा इन शाकाहारी जीवधारियों को खाने वाले अन्यजीवधरी माँसाहारी कहलाती हैं। इस प्रकार सभी उपभोक्ताओं में परपोषी गुण पाया जाता है। उपभोक्ता जन्तु, पौधों व अन्य कार्बनिक पदार्थों का भोजन करके उसे सरल पदार्थों में परिवर्तित करते हैं जिनके द्वारा इनके शरीर में नए ऊत्तों व कार्बनिक पदार्थों का निर्माण होता है।
इस प्रकार जन्तुओं में भी उत्पादन की क्रिया होती है। इसी कारण इस विचारधारा के आधार प हरे पौधों को प्राथमिक उत्पादक और परपोषी उपभोक्ता जन्तुओं को द्वितीयक उत्पादक भी कहा जाता है। इन उपभोक्तओं का निम्न लिखित प्रकार से विभाजित किया जा सकता है -
(a) प्रथम श्रेणी का उपभोक्ता (Consumers of first order)
इस श्रेणी के अन्तर्गत वे जीवधारी आते हैं जो प्राथमिक उप्पादक को अथवा हरे पौधों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। ये जीव शाकाहारी होते हैं। बकरी, हिरन, खरगोस, गाय, चूहा, टिड्डा इसके प्रमुख उदाहरण हैं।
(b) द्वितीय श्रेणी का उपभोक्ता (Consumers of second order)
इसके अन्तर्गत वे जीवधारी आते हैं जो अपना भोजन शाकाहारियों अथवा प्रथम श्रेणी के उपभोक्ताओं को खाकर करते हैं। इस प्रकार इस श्रेणी के उपभोक्ता माँसाहारी होते हैं। उदाहरणार्थ:- चूहे को बिल्ली द्वारा बकरी को शेर द्वारा, टिड्डे को मेढ़क द्वारा खाया जाना। इन उदाहरणों में क्रमशः बिल्ली, शेर, मेढ़क द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलाएँगें।
(c) तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता (Consumers of Third order)
इसमें माँसाहारी जीव आते हैं जो द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं को खाकर अपना भोजन प्राप्त करते हैं। उदाहरणार्थ-मछलियों का चिड़िया द्वारा, मेढ़क का सांप द्वारा खाया जाना। इसमें चिड़िया तथा सांप तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता कहलायेगी।
(d) उच्च मांसाहारी (Top Carnivores)
इसमें वे माँसाहारी जन्तु आते हैं जो सभी श्रेणी के मांसाहारियों को मारकर खा सकते हैं। परन्तु इन्हें कोई भी जन्तु मारकर नही खा सकता। उदाहरणार्थ-शेर, चीता । कुछ उपभोक्ता दूसरे जीवों के ऊपर निवास करते हैं और उन्हीं से अपना भोजन प्राप्त करते हैं ये परजीवी कहलाते हैं।
कुछ जन्तु दूसरे जन्तुओं का शिकार करके भोजन प्राप्त करते हैं। ये प्रिडेटर्स कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत द्वितीय व तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता व उच्च माँसाहारी आते हैं। कुछ जन्तु शाकाहारी व माँसाहारी दोनों होते हैं अर्थात् सभी कुछ भोजन के रूप में खाते है। इन्हें सर्वाहारी कहते है। उदाहरणार्थ मनुष्य।
3. अपघटनकर्ता (Decomposers)
ये वे जीवीय घटक हैं जो प्रायः उत्पादक तथा उपभोक्ताओं की मृत्यु के पश्चात् उनके शरीर का अपघटन करते हैं तथा इससे निर्मित साधारण पदार्थों द्वारा अपना भोजन तथा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। इस क्रिया के फलस्वरूप जटिल कार्बनिक पदार्थ टूटकर नाईट्रोजन, कार्बनडाई आक्सासइड, लवण, फास्फोरस तथा कैल्शीयम आदि तत्त्वों में अपघटित हो जाते हैं। ये पदार्थ वायुमंण्डल एवं पृथ्वी से मुक्त होते रहते हैं। पौधे इन्हें तो लेते है और इनसे भोजन एवं शरीर का निर्माण करते हैं। यह क्रम निरंतर चलता रहता है।
अपघटनकत्ताओं के अन्तर्गत मृतोपजीवी कवक एवं जीवाणु आते हैं। ये अत्यंत महत्वपूर्ण जैविक घटक हैं क्योंकि इनके द्वारा विभिन्न प्रकार के अकार्बनिक तत्त्व जो उत्पादक तथा उपभोक्ताओं के शरीर का निर्माण करते हैं, पुनः वायुमण्डल एवं मृदा में पहुँच जाते हैं। इनके न रहने पर तत्त्वों का चक्रीकरण रूक जाएगा। अपघटनकर्ता द्वारा मृतपौधों एवं जंतुओं का अपघटन करके ये पृथ्वी को साफ करते रहते हैं। इसलिए इन्हें प्रकृति का मेहतर (Scavengers) कहते हैं।
अजीवकीय घटक (Abiotic Components)
इसके अन्तर्गत निर्जीव वातावरण आता है जो विभिन्न जैविय घटकों का नियंत्रण करता है। अजीविय घटक को अकार्बनिक, कार्बनिक व भौतिक तीन घटकों में बाँटा जा सकता है -
(1) अकार्बनिक (Inorganic)
इसके अन्तर्गत जल, विभिन्न प्रकार के लवण जैसे पोटैशियम, फास्फोरस, सल्फर, मैग्नीशियम, नाईट्रोजन आदि तथा वायु की गैसे जैसे आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाई आक्साइड, हाइड्रोजन, अमोनिया, आदि सम्मिलित हैं।
(ii) कार्बनिक (Organic)
इसके अन्तर्गत मृत पौधों एवं जन्तुओं के कार्बनिक यौगिम जैसे- प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेटस तथा वसा और उनके अपघटन द्वारा उत्पादित उत्पाद जैसे-यूरिया व हयूमस आदि आते हैं। अपघटन की क्रिया मृतोपजीवी कवकों एवं जीवाणुओं द्वारा होती है। इनके द्वारा मृत जीवधारियों का कुछ भाग अकार्बनिक रूप में परिणत हो जाता है। ये पर्दाथ पुनः हरे पौठ में द्वारा ग्रहण कर लिए जाते हैं।
इस प्रकार ये जीवीय एवं अजीविय घटकों के बीय संबंध स्थापित किए रहते हैं। अकार्बनिक एवं कार्बनिक भाग मिलकर निर्जीव वातावरण का निर्माण करते हैं। किसी भी परिस्थितिकी तंत्र में एक निश्चित समय में अतीवीय पदार्थों की जितनी मात्रा उपस्थित रहती है, उसे खड़ी अवस्था कहते हैं।
(iii) भौतिक घटक (Physical components)
इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के जलवायुवीय कारक जैसे - प्रकाश ताप, हवा, विद्युत आदि आते हैं। इन भौतिक घटकों में सूर्य ऊर्जा मुख्य है जो हरे पौधों के पर्णहरिम द्वारा विविरण ऊर्जा के रूप में ली जाती है। पौधे इस ऊर्जा को कार्बनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं जो कार्बनिक अणुओं के रूप में संचित रहती है। यही वह ऊर्जा है जो सम्पूर्ण जीवीय समुदायों में बहती है और इसी के द्वारा पृथ्वी जीवन संभव है।