जैव मण्डल के जलीय घटक का वर्णन कीजिए ( Describe the aquatic component of the biosphere )
जलीय संघटक (Components of Hydrosphere): जल अजैविक या भौतिक संघटक का एक महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि यह जीवमण्डलीय परिस्थितिक तंत्र में सभी प्रकार के जीवों के लिए आवश्यकत तत्व है। बिना जल के इस ग्रहीय पृथ्वी पर किसी भी प्रकार का जीवन संभव नहीं है।
परिस्थितिक तंत्र के विभिन्न घटकों में पोषक तत्वों के गमन तथा संरचण में जल एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। जल जीवमण्डल में भू जैव रसायन चक्रों को दक्ष तथा प्रभावी बनाता है। जलीय संघटक के अन्तर्गत तीन उपघटकों का परीक्षोपयोग उल्लेख अधोलिखित हैं -
1. भू-पृष्ठीय जल (Surface water)
भूपृष्ठीय जल उसे कहते हैं जो पृथ्वी की बाह्य सतह पर पाया जाता है। यह स्थिर दशा में हो सकता है। जैसे झील, तालाब या जलभण्डार का जल या गतिशील हो सकता है। जैसे भूपृष्ठीय वाह्यी जल (Surface runoff), सरिता का जल या जलस्रोत का जल (Spring water) भूपृष्ठजल का प्रमुख स्रात वर्षण है परन्तु अप्रत्यक्ष खातों से भी जल की प्राप्ति होती है।
जलवर्षा भूपृष्ठजल की सर्वप्रमुख प्रत्यक्ष स्रोत हैं। हिम-द्रवित जल भी भूपृष्ठजल का एक प्रमुख स्रोत है। भूमिगत जल भूपृष्ठजल का अप्रत्यक्ष स्रोत है। धरातलीय सतह पर जल बहाव को वाही जल कहते हैं। इस तरह वाही जल धरातल पर विभिन्न जलभण्डारों को जल प्रदान करता है। इन अलभण्डारों में सरिता, झोल, तालाब आदि को सम्मिलित करते हैं।
धरातलीय जल संसाधनों की मूलभूत समस्यायें जल की उचित स्थान पर उचित समय पर उचित मात्रा को प्राप्यता से जुड़ी हुई है। उदाहरण के लिए, भारत की सकल वार्षिक वर्षा का 80 प्रतिशत से अधिक भाग वर्ष के मात्र 3 महीनों (जुलाई, अगस्त तथा सितम्बर) से हो प्राप्त हो जाता है।
परिणामस्वरूप जलवा का अधिकांश भाग प्रभावी वाही जल हो जाता है तथा नदियों द्वारा सागर में पहुंचा दिया जाता है। इसके अलावा भारत के अधिकांश क्षेत्रों में खासकर उत्तरी भारत में, आये दिन बाढ़ आती रहती है जिस कारण मनुष्य को अपार धन-जन की क्षति उठानी पड़ती है।
सरितायें महत्त्वपूर्ण जल संसाधन है जिनका विभिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता है। खेद का विषय है कि विश्व की अधिकांश नदियों का प्रयोग कारखानों के अपशिष्ट या उत्सर्जित पदार्थों तथा मलजल के विसर्जन के लिए किया गया है। परिणामस्वरूप विश्व की अधिकांश नदियाँ अत्यधिक प्रदूषित हो गयी है तथा परिस्थितिकीय पर्यावरण तो समूल रूप से नष्ट हो गया है।
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पेय जल के अलावा झील के जल का प्रयोग आमोद-प्रमोद तथा मनोरंजन के लिए भी किया जाता है। ( यथा- भारत के डल तथा बूलर झील-कश्मीर, नैनीताल की नैना झील आदि) झालों का प्रयोग आन्तरिक जलयातायात के लिए भी किया जाता है। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा में ग्रेटलेक्स सुपोरीयर, मिशिगन, ल्यूरन, ईरी तथा ओण्टारियों का जल यातायात के लिए बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है।
अधिकांश बड़ी झीलों के किनारे पर नगर तथा कारखानों की स्थितियाँ पायो जाती हैं। परिणामस्वरूप कारखानों के अपशिष्ट पदार्थों तथा नगरी मलजल के विसजन के कारण झीलें भी अत्यधिक प्रदूषित हो गयी हैं। इस तरह विश्व की प्रमुख नदियों तथा झीलों के प्रदूषण का उनमें रहने वाले जलीय जीवों पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ा है।
2. भूमिगत जल (Ground water)
धरातलीय सतह के नीचे सुराखें तथा रिक्त स्थानों में संचित जल को भूमिगत जल कहते हैं। भूमिगत जल का प्रमुख स्रोत वर्षा का जल तथा हिमद्रवित जल (Melt water) है। ये जल भूपदार्थों से रिस कर नीचे पहुँच कर बढ़े-बढ़े रिक्त स्थानों में एकत्रित होते रहते हैं।
इन भूमिगत जल-भझारों को जलभरा (Aquifers) कहते हैं। इन जलभरों के आकार तथा इनकी स्थितियों में पर्याप्त विभिन्तायें होती है। रेत जलभरा के निर्माण के लिए सर्वाधिक आदर्श तथा अनुकूल स्थितियाँ प्रस्तुत करते हैं। भूमिगत जल की गुणवत्ता जीवों के लिए सामान्य रूप तथा मनुष्य के लिए विशेष रूप में अति महत्वपूर्ण होती है। भूमिगत जल की गुणवत्ता उन भूपदार्थों तथा शैलों का रासायनिक संरचना तथा खनिज संघटन पर आधारित होती हैं। जिससे होकर जल रिसकर नीचे जाता है।
भूमिगत जल को गुणवत्ता जलभरे के भूपर्दाों के संघटन पर भी आधारित होती है। उदाहरणा के लिए, शुद्ध क्वार्टक रेत वाले जलभरे का भूमिगत जल वर्षा जल के समान शुद्ध होता है परन्तु कार्बोनेट शैलों (यथा- चूना पत्थर) वाले जल भरे का भूमिगत जल कठोर जल होता है जिसमें कैलशियम तथा मैग्नेशियम धुली अवस्था में विद्यमान रहता है। इसके अलावा भूमिगत जल का प्रदूषण मानव क्रिया-कलापों द्वारा कई रूपों में होता है -
1. मलाशय के प्रदूषित जल का रिसकर जलभरे तक पहुँचना।
2. शहरों में नगरपालिकाओं के जुड़ा के ढेरों तथा गंदी सामग्रियों द्वारा स्थलजलभराव के स्थान से गंदे जल का रिसकर जलभरों तक पहुँचना।
3. खेतों में प्रयोग किये गये नत्रजन आदि उर्वरकों का जल के साथ रिसकर जलभरे तक पहुंच आदि।
3. महासागरीय जल
महासागरीय जल या जलमण्डल ग्लोब के समस्त क्षेत्रफल के 71 प्रतिशत भाग पर फैला है। ग्लोब को सतह का क्षेत्रफल 51.0 करोड़ वर्ग किलोमीटर है जिसका लगभग 36.1 करोड़ वर्ग किलामीटर जलमण्डल द्वारा आवृत्त है। आकार तथा अवस्थिति के आधार पर जलमण्डल को निम्न रूपों में विभाजित करते हैं महासागर, सागर, लघु बंद सागर, खाड़ी आदि। महासागरीय नितल की संरचना 4 संघटकों द्वारा होती है-
1. महाद्वीपीय निमग्न तट (Continental Shelves)
महाद्वीपों के उन सीमान्त भागों को प्रदर्शित करते हैं जो छिछले महासागरीय जल की औसत गहराई 100 फैदम तथा उनका औसत ढाल 10° से 3° के बीच एवं औसत चौड़ाई 48 किमी. होती है।
2. महाद्वीपीय मग्न ढाल (Continental Slope)
की स्थिति महाद्वीपीय निमग्न तट तथा गहरे सागरीय मैदान के बीच होती है। इसका औसत ढाल 5° से 40° के बीच तथा कहीं कहीं पर 60° से भी अधिक होता है। मग्न ढालों पर जल की गहराई 200 से 2,600 मीटर के बीच होती है। मग्न ढ़ालों पर अन्तः सागरीय कैनियन (Submarine Canyons) तथा गहरी खाईयाँ होती है। महाद्वीपीय निमग्न तट तथा मग्न ढाल महासागरीय नितल के समस्त क्षेत्रफल का क्रमश: 8.6 प्रतिशत तथा 8. 5 प्रतिशत भाग प्रदर्शित करते हैं।
3. गम्भीर सागरीय मैदान (Deep Sea Plains)
सागरीय नितल के सर्वाधिक विस्तृत मण्डल होते हैं। इनकी समुद्र तल में औसत गहराई 3,000 से 6,000 मीटर के बीच होती है। यह महासागरीय नितल के समस्त क्षेत्रफल के 75.9 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधत्व करते हैं।
4. महासागरीय गर्त (Oceanic Deeps)
महासागरीय नितल के सबसे अधिक गहरे भाग होते हैं तथा ये महासागरीय नितल के समस्त क्षेत्रफल के 7 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं। जलमण्डल न केवल जलीय जीवों को समुचित आवास प्रदान करता है वरन् उन्हें जीवन भी प्रदान करता है।
स्थलीय तापमान के समान महासागरीय जल के तापमान में भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर विभिन्ततायें पायी जाती है परन्तु महासागरीय जल के सतह के तापमान का दैनिक तापान्तर बहुत कम होता है । ( लगभग 1 सेंटीग्रेट)। दैनिक तापान्तर आकाश की दशाओं, वायु को स्थिरता या अस्थिरता तथा सागरीय सतह को विशेषताओं द्वारा नियंत्रित होता है।
उत्तरी गोलार्द्ध में सागरीय सतह का अधिकतम तापमान अगस्त तथा निम्नतम तापमान फरवरी में अंकित किया जाता है। चूंकि महासागर में गहराई, लम्बाई तथा चौड़ाई तीनों गुण होते हैं अतः सागरीय तापमान के वितरण में अक्षांशीय विस्तार के साथ सागरीय गहराई को भी ध्यान में रखा जाता है। सागर का जल सदैव गतिशील रहता है
अतः सागरीय गतियाँ भी सागरीय जल के तापमान के वितरण को नियंत्रित करती है। इनके अलावा, प्रचलित हवायें, महासागरीय धारायें आदि भी महासागरीय जल के तापमान के बितरण को प्रभावित करती है। जहाँ एक सागरीय जल के तापमान के लम्बवत् वितरण का संबंध है यह गहराई के साथ घटता जाता है परन्तु बढ़ती गहराई के साथ तापमान के घटने की दर सर्वत्र समान नहीं होती है।
सागरतल से 2,000 मीटर के नीचे जाने पर तापमान को द्वांस नगण्य हो जाता है। 5 फैदम ( एक फैदम-6 फीट) की गहराई पर दैनिक तापान्तर शून्य हो जाता है। इसी तरह 100 फैदम की गहराई तथा उससे आगे वार्षिक तापान्तर समाप्त हो जाता है। सागर-नितल का तापमान भूमध्यरेखा से ध्रुवों तक प्रायः समान ही रहता है।
सागरोय लवणता सागरीय जल की महत्वपूर्ण विशेषता होती है क्योंकि यह सागरीय जीवों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। सामान्य रूप में "सागरीय जल के भार तथा उसमें घुले हुए पदाथों के भार के अनुपात को सागरीय लवणता कहते हैं।" एक किलाग्राम सागरीय जल में घुले हुए ठोस पदार्थों को कुल मात्रा को भी 'लवणता' कहते हैं। अतः सागरीय लवणता को प्रति हजार जल में स्थित लवण को मात्रा (0/00) के रूप में दर्शाया जाता है।
यद्यपि एक महासागर से दूसरे महासागर में सकल लवणता में अंतर हो सकता है या एक ही महासागर या सागर के विभिन्न भागों में सकल लवणता में अंतर हो सकता है, परन्तु सभी महासागरों तथा सागरों में लवण के संघटन का अनुपात प्राय: एक ही रहता है।
ज्वार समुद्रों में ज्वारीय तरंगे उत्पन्न करते हैं। इन ज्वारीय तरंगों का ऊर्जा संसाधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि समुद्री लहरों से विद्युत बनाने का भारत का पहला संयंत्र केरल में विजिंगम तट पर लगाया गया है। कच्छ की खाड़ी में ऐ 900 मेगावाट विद्युत क्षमता बाला संयंत्र निर्माणाधीन है। ज्वारीय तरंगें तटीय भागों के अपरदन तथा सागरीय पदार्थों के परिवहन तथा निक्षेपण का कार्य भी करती है।
ज्वार के समय सागर-तल ऊपर उठता है। इस तरह ज्वार के समय सागर तल को उच्च ज्वार जल कहते हैं। भाटा के समय सागतर तल नीचे जाता है। इसे निम्न ज्वार तल कहते हैं। उच्च ज्वार तल तथा निम्न ज्वार तल के औसत को औसत सागर तल कहते हैं। ज्वारों के दो प्रमख प्रकार होते हैं-
1. उच्च ज्वार (Spring Tide) तथा
2. निम्न ज्वार (Neap Tide)
1. उच्च ज्वार (Spring Tide):
उच्च ज्वार प्रत्येक महीने में दो बार आता है- अमावस्या के समय जबकि सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों पृथ्वी के एक तरफ तथा एक सोधी रेखा में होते हैं तथा पूर्णमांसी के समय जबकि पृथ्वी सूर्य तथा चन्द्रमा के मध्य में होती है तथा ये तीनों एक सीधी रेखा में होते हैं।
2. निम्न ज्वार (Neap Tide):
निम्न ज्वार प्रत्येक महीने के प्रत्येक पक्ष (पखवार, यथा- कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष) को अष्टमी को आता है जबकि सूर्य, पृथ्वी तथा चन्द्रमा मिलकर समकोण की स्थिति बनाते हैं। यद्यपि सागर तटीय क्षेत्र के प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक अगला ज्वार 26. मिनट देर से आता है।
सागर तटीय क्षेत्र जो कि उच्च तल तथा निम्न ज्वार तल के मध्य होता है, ज्वारीय स्थल कहा जाता है। जब ज्वारीय तरंगे अपने साथ लाये हुए अवसादों द्वारा निचले तटीय क्षेत्रों कम गहरी खाड़ियों तथा ज्वारनदमुखों (एस्चुअरी) को भर देती है तो इस तरह निर्मित स्थल को ज्वारीय पंक मैदान तथा लवण दलदल (Salt Marsh) कहते हैं।
ज्वारीय स्थलों का पर्यावरण एवं परिस्थितिकी के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्त्व होता है क्योंकि ये एक तरफ तो सागरीय पौधों तथा नीबों के लिए अनुकूल तथा विशिष्ट प्रकार के प्राकृतिक परिस्थितिक तंत्र प्रदान करते हैं तो दूसरी तरफ ये ज्वारीय स्थल मनुष्यों को आकर्षित करते हैं क्योंकि सुधारे जाने पर ये स्थल कृषि के लिए प्रयुक्त किए जा सकते हैं। सागरीय जल तथा ज्वारीय स्थल मछलियों के लिए आर्दश या अनुकूल आधार प्रस्तुत करते हैं और ये मछलियाँ मानव के लिए महत्वपूर्ण खाद्य संसाधन होती हैं।
जब ज्वारीय स्थलों को कृषि, औद्योगिक संस्थाओं या नगरीय विस्तार के लिए सुधारा जाता है तो प्राकृतिक ज्वारीय जलौय परिस्थितिक तंत्र विनष्ट हो जाता है। दूसरी तरफ बढ़ती मानव जनसंख्या के कारण मानव पर कृषि क्षेत्रों, औद्योगिक क्षेत्रों तथा नगरीय क्षेत्रों में विस्तार के लिए दिन प्रतिदिन दबाव बढ़ता जा रहा है। अतः मनुष्य को इन ज्वारीय स्थलों के सुधार को सक्रियता भी दिनौदिन बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है कि ज्वारीय स्थल मनुष्य तथा प्रकृति के बीच द्वंद का अच्छा खासा उदाहरण है।
सागरीय तरंगें अपने अपरदानात्मक तथा निक्षेपात्मक कार्यों द्वारा तटीय पर्यावरण को बड़े पैमाने पर प्रभावित करती है। सागरीय तरंगों का जनन प्राय: हवाओं द्वारा होता है। सागरीय तरंगों को सामान्य रूप से दो प्रमुख प्रकारों में विभाजित करते हैं-
1. दोलन तरंग (Waves of Oscillations)
2. स्थानान्तरणी तरंगें (Waves of Translation)
स्थानान्तरणी तरंगें दोलन तरंगों की तुलना में अपरदन के लिए अधिक शक्तिशाली होती है। इनके अलावा कुछ धारायें भी होती हैं जो सागरीय परिस्थितिक तंत्र को अपरदन तथा निक्षेपण द्वारा प्रभावित करती है। यथा -वेलांचलो धारा (Littoral of Longshore Currents) तथा तरंगिका (Rip current)। सागरीय प्रक्रमों द्वारा निक्षेप से उत्पन्न स्थलरूपों में सागरीय पुलिन (Sea beaches) सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा आकर्षण होती है।
मानव ने हाल में अपने आर्थिक क्रियाकलापों द्वारा सागर तटीय क्षेत्रों के अपरदन की दर को बढ़ा दिया है, जिस कारण सागर तटीय भाग लगातार पीछे की ओर हटता जा रहा है। महासागरीय धारायें, चाहे गर्म हो या ठण्डी, जिन तटीय क्षेत्रों के पास से होकर गुजरती है उनको जलवायु तथा पर्यावरणीय दशाओं को प्रभावित तथा परिमार्जित करती है। जब गर्म एवं ठंडी सागरीय धारायें आपस में मिलती है तो घने कोहरे का निर्माण होता है।
यह कोहरा सागर तथा बायु में परिवहन के साधनों के गमन में खतरा उत्पन्न करता है। इस तरह की स्थिति न्यूफाउलैण्ड के पास अकसर उत्पन्न होती रहती हैं क्योंकि यहाँ पर गल्फस्ट्रीम की गर्म धारा तथा लेब्राडोर की ठंडी धारा का अधिसरण होता है।
इसी तरह जापान के पास गर्म क्युरोशिवों धारा तथा ठंडी कयूराइल धारा के मिलने से कोहरा उत्पन्न होता रहता है। महासागरीय धारायें जिन तटों के पास से गुजरती है उनके तापमान को परिवर्तित कर देती है। उदाहरण के लिए उत्तरी अटलाण्टिक धारा (गुल्फस्ट्रीम का प्रसार) उत्तरी पश्चिमी यूरोप के तटीय भागों के तापक्रम को जाड़े में बढ़ा देती है।
गल्फस्ट्रीम संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी-पूर्वी तटीय भागों में ग्रीष्म काल में तापमान को इतना बढ़ा देती है कि गर्म लहरों का निमार्ण हो जाता है जिस कारण मौसम असह्य तथा कष्टप्रद हो जाता है। सागरीय धारायें कुछ सागरीय जीवों के लिए लाभकारी भी होती हैं। उदाहरण के लिए धारायें मछलियों के लिए आवश्यक पोषक तत्व, ऑक्सीजन तथा आहार (यथा-प्लैक्टन) लाती है। धारायें कुछ तटीय भागों पर मानव द्वारा किये गये जल प्रदूषण के प्रभाव को कम कर देती हैं क्योंकि ये प्रदूषकों को अन्यत्र बहा ले जाती है।