पर्यावरण पर मानव का प्रभाव किस रूप में पड़ता है?
पर्यावरण पर मानव का प्रभाव :- प्राकृतिक पर्यावरण पर मनुष्य के प्रभावों को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जाता है -
1. प्रत्यक्ष (Direct impact)
2. अप्रत्यक्ष (Indirect impact)
1. प्रत्यक्ष (Direct impact)
यह सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं किसी भी क्षेत्र में आर्थिक विकास के लिए भौतिक पर्यावरण को परिवर्तित या रूपान्तरित करने के लिए चलाये जाने वाले किसी भी कार्यक्रम से उत्पन्न होने वाले परिणामें (अनुकूल तथा प्रतिकूल) से मनुष्य अवगत रहता है। आर्थिक विकास हेतू भौतिक पर्यावरण में इस तरह के परिवर्तनों में प्रमुख हैं :-
(क) भूमि उपयोग में परिवर्तन
यथा कृषि में वृद्धि तथा विस्तार, खनिजों का खनन, खनिल तेल का बेधन- भूमिगत जल का निष्कासन आदि।
(ख) मौसम रूपान्तर कार्यक्रम
वृष्टि को रोकना तथा नियंत्रित करना आदि। यथा-वर्णन को प्रेरित करने के लिए मेघ बीजन, उपल
(ग) नाभकीय कार्यक्रम
उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक पर्यावरण में इस तरह के मानव जनित परिवर्तनों के प्रभाव अल्पकाल में ही परिलक्षित हो जाते हैं परन्तु ये परिवर्तन भौतिक पर्यावरण को दीर्घ काल तक प्रभावित करते रहते हैं। पर्यावरण पर इस मानव-जनित प्रत्यक्ष प्रभावों को दूसरी प्रमुख विशेषता यह है कि प्रभाव परिवर्तन होते हैं क्योंकि प्राकृतिक पर्यावरण को आर्थिक प्रयोजन से प्रभावित करने के पहले उसकी (प्राकृतिक पर्यावरण की) दिशा तथा परिवर्तनों के बाद उत्पन्न दशाओं के अध्ययन के माध्यम से मनुष्य यह जान सकता है कि अमुक कार्यक्रम द्वारा प्रकृतिक पर हुए प्रभाव कितने हानिप्रद है।
इस जानकारी के बाद मनुष्य यदि चाहे तो, प्रारम्भिक कार्यक्रम द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को कुछ सीमा तक कम कर सकता है या उन्हें दूर कर सकता है। उदाहरण के लिये, वनविनाश, जो या तो कृषि भूमि के विस्तार के लिये या व्यापारिक उद्देश्य के लिए किया जाता है, के कारण मृदाक्षरण की दर से वृद्धि होती है। इस तरह मृदाक्षरण, अवनलिका अपरदन का रूप धारण कर लेता है।
अत्यधिक भूक्षरण के फलस्वरूप नदियों में अवसादों की मात्रा तथा भार बढ़ जाता है। नदियों के अवसादों से अतिभारित हो जाने के कारण उनकी तली का भराव हो जाने से नदीं में जलध् गरण के क्षमता घट जाती है, फलस्वरूप विकट बाढ़ उत्पन्न होती है।
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इस प्रकार उत्पन्न बाढ़ के कारण अपार घन-जन की हानि होती है। इस तरह प्राकृतिक पर्यावरण के एक संघटक (वनस्पति समुदाय) में परिवर्तन (वनविनाश) द्वारा उत्पन्न श्रृखंलाबद्ध प्रभावों (निर्वनीकरण-मृदाक्षरण-अवनालिका अपरदन नदी के अवसाद भार में वृद्धि-नदी के पेटे का भराव नदी को जलधारण क्षमता के हास- बाढ़ की आवृत्ति तथा परिणाम में वृद्धि-पर्यावरण में अवनयन तथा धन-जन की हानि ) को निर्वनीकृत क्षेत्रों में पुनः वृक्षारोपण द्वारा प्रभावी ढंग से रोका जा सकता है।
इसी तरह यदि नयी कृषि-विधियों द्वारा दुष्प्रभाव होता है तो कृषि विधियों में पर्यावरण परिस्थितिकीय दशाओं के अनुकूल पुनः परिवर्तन करके इन दुष्प्रभावों से छुटकारा मिल सकता है।
जहाँ तक स्थानीय एवं प्रादेशिक स्तर पर जलवायु में तथा मौसम में मानव द्वारा परिवर्तनों का सवाल है, इसके पश्चप्रभावों के विषय में पहले से विचार नहीं किया जाता है। उल्लेख है कि मनुष्य के लिए ऋतुवैज्ञानिक प्रक्रमों को अनुशासित करना तथा उन पर पूर्ण स्वामित्व स्थापित करना संभव नहीं है क्योंकि वायुमण्डल में इन प्रक्रमों के नियंत्रण हेतु स्थायी मार्ग तथा व्यवस्था नहीं है।
इसके बावजूद मनुष्य अवांछित प्राकृतिक वायुमण्डलीय प्रक्रमों तथा तूफानों (यथा विभिन्न प्रकार के चक्रवात -हरिकेन, टारनैडो, टाइफून आदि, उपलवृष्टि वर्षण मेघ आदि) को नियंत्रित कर सकता है या उनकी दिशा को बदल सकता है।
ऋतुवैज्ञानिक तत्वों तथा प्रक्रमों में मनुष्य द्वारा किये जाने वाले प्रत्यक्ष परिवर्तनों में मेघबीजन सर्वप्रमुख है। मेघबीजन का प्रमुख उद्देश्य वर्णन की प्रक्रिया को प्रेरित करके अधिक जलवर्षा प्राप्त करना है। मेघबीजन की प्रक्रिया के अन्तर्गत ठोस कार्बन-डाई आक्साईड तथा आयोडीन के कुछ यौगिकों के प्रयोग द्वारा अतिशीतलित बूदों का घनीभवन करना सम्मलित होता है।
सिंचाई तथा पेयजल के लिय भूमिगत जल का निष्कासन प्रायः सभी देशों में किया जाता है परन्तु भूमिगत जल के विदोहन का परिणाम इतना भयावह होता है कि वह मनुष्य तथा समाज के लिये विनाशकारी हो जाता है। ज्ञातव्य है कि भूमिगत जल के अधिकाधिक विदोहन के कारण सतह के नीचे वृहदाकार कोटर बन जाते हैं तथा बाद में कभी-कभी ऊपरी सतह घसक जाती है।
सागर तटीय स्थित शहरों में पेयजल की प्राप्ति के लिये भूमिगत जल के विदोहन के कारण सतह के नीचे निर्मित कोटरों में सागर का खारा जल प्रविष्ट हो जाता है जिस कारण भूमिगत जल दूषित हो जाता है। जैसे- बुकलिन शहर (संयुक्त राज्य अमेरिका) में भूमिगत जल के निष्कासन से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव।
भूमिगत जल के अत्यधिक निष्कासन के कारण स्थल का धंसाव भी होता है (मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ पर धरातल का निर्माण असंगठित तथा ठीले पदार्थों से हुआ है)। विश्व के कई भागों में भूमिगत जल के अत्यधिक निष्कासन तथा विदाहन के कारण स्थलीय भाग में धंसाव की घटनायें हुई हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की सन जोवाकिन घाटी मे कई स्थानों खास कर कैलिफॉनिया में 1 से 3 मीटर तक स्थल धंसाव हुआ है।
निमार्ण कार्यों (यथा- बांधों तथा जलभण्डारों का निर्माण) द्वारा सतह के नीचे स्थिल शैलॉ के संतुलन में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है जिस कारण भूकम्पीय घटनाओं का आविर्भाव हो जाता है। ज्ञातव्य है कि प्रमुख नदियों पर निर्मित बांधों के पीछे बनाये गये वृहद् जलभण्डारों में एकत्रित अपार जलराशि के भार के कारण उत्पन्न द्रवस्थैतिक दबाव नीये स्थित शैलों को अधिक सक्रिय कर देता है। इन कारणों के फलस्वरूप सामान्य से लेकर अधिक परिणाम वाली भूकम्पीय घटनायें प्रारम्भ हो जाती हैं।
मनुष्य, बाढ़ नियंत्रण के उपायों, जलभण्डार की रचना, नदी के जल को उसकी घाटी में ही सीमित करने के लिए तटबंधों तथा बाढ़-दीवालों के निर्माण, बाढ़-विपथगामन के तंत्रों सरिता जलमार्ग में ही परिवर्तन आदि द्वारा नदी की प्राकृतिक व्यवस्था द्वारा नदी की प्राकृतिक व्यवस्था तथा उसकी उपरिस्थितिकी में कई तरह से परिवर्तन करता है।
2. अप्रत्यक्ष प्रभाव (Indirect impact)
मनुष्य द्वारा पर्यावरण पर अप्रत्यक्ष प्रभाव न तो पहले से सोचे गये होते हैं और न ही नियोजन होते हैं। पर्यावरण पर मानव के कार्य-कलापों से जनित अप्रत्यक्ष प्रदान आर्थिक विकास की रफ्तार को तेज करने के लिये, खासकर औद्योगिक विकास में विस्तरण, मनुष्य द्वारा किये गये प्रयासों तथा कार्यों के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं।
यद्यपि आर्थिक विकास के लिये किए जाने वाले इस तरह के कार्य-कलाप आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण हो सकते हैं, परन्तु उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले पश्चप्रभाव निश्चय ही सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय है। आर्थिक क्रिया-कलापों से जनित पर्यावरण पर पड़ने वाले मनुष्य के अप्रत्यक्ष प्रभाव शीघ्र परलक्षित नहीं होते हैं।
इसका प्रमुख कारण है आर्थिक क्रियाओं तथा उनसे उत्पन्न होने वाले परिणामों में समय-सिथिलता अर्थात् आर्थिक क्रिया-कलापों द्वारा परिस्थितिक तंत्र के कुछ संघटकों में सामान्य स्तर के मंद गति वाले परिवर्तन होते हैं तथा ये परिवर्तन परिस्थितिक तंत्र की संवेदनशीलता को पार करने में दीर्घ समय लेते हैं। पुश्च्य, में मंद गति से होने वाले परिवर्तन दीर्घकाल तक संचयित होते रहते हैं तथा जब वे परिस्थितिक तंत्र की इन परिवर्तनों को आत्मसात करने की क्षमता से अधिक हो जाते हैं तब उनका प्रभाव लोगों के सामने आता है।
कभी-कभी इस तरह के प्रभाव उत्क्रमणीय नहीं होते हैं, अतः उनकी पहचान तथा उनका मूल्याकंन करना दुष्कर हो जाता है। इस तरह के अप्रत्यक्ष संचयी प्रभाव परिस्थितिक तंत्र के एक या अधिक संघटकों या सम्पूर्ण प्राकृतिक तंत्र के एक या अधिक संघटकों या सम्पूर्ण प्राकृतिक तंत्र को परिवर्तित कर देते हैं, जो मानव वर्ग के लिये घातक एवं जानलेवा हो जाता है। मनुष्य के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों में ये अधिकांश पर्यावरण अवनयन तथा प्रदूषण से संबंधित होते हैं। इस तरह के अप्रत्यक्ष प्रभावों के कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं-
कीटनाशक, रासायनिक दवाओं, रासायनिक उर्वरकों आदि के प्रयोग के माध्यम से जहरीले तत्वों के परिस्थितिक तंत्र में विमोचन द्वारा आहार श्रृंखला तथा आहार जाल में परिवर्तन हो जाता है। इस संदर्भ में डी.डी.टी. सबसे अधिक जहरीला तत्व होता है। इसी तरह औद्योगिक संस्थानों से निकले अपशिष्ट पदार्थों के स्थिर जल (झील, तालाब, जलभण्डर आदि) नदियों के जल एवं सागरीय जल में विमोचन के कारण जल दूषित हो जाता है जिस कारण कई तरह के रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा जलस्थित अनेकों जीवधारियों की मृत्यु हो जाती है।
इस तरह के जल को दूषित करने वाले कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों में प्रमुख हैं कारखानों से निकले कचरों की जल में धुलाई तथा उनका जल में ढेर लगना, एस्बेस्टस का झांई का जल का विमोचन तथा संचयन, जहरीले मिथाइल रूप में बड़े का विचोमचर तथा संचयन, जहरीले मिथाइल रूप में विमोचनस, तेल वाहक जलायानों से खनिज का सागरीय जल में रिसाव, सीसे का विवेचन, धुले हुए अकार्बनिक तत्वों का विभिन्न रूप में मिश्रण आदि।
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एम.सी सक्सेना के अनुसार, प्रतिवर्ष मनुष्य द्वारा 2000 रसायनों का पर्यावरण में विमोचन किया जाता है। इनके मतानुसार ये जहरीले तत्व महिलाओं के गर्भ नली से होते हुए उनके गर्भाशय में पनपते हुए भ्रूण तक पहुँच जाते हैं जिस कारण महिलाओं में गर्भपात तथा समय से पहले प्रसव हो जाता है। नगरीकरण में वृद्धि और औद्योगिक विस्तार के कारण प्रदूषण करने वाले तत्वों का अधिकाधिक मात्रा में परिस्थितिक तंत्र में विमोचन हो रहा है तथा इनकी मात्रा में दिनों-दिन तीव्र गति से बढ़ रही हैं।
इस तरह के प्रदूषणकर्ता तत्वों में प्रमुख हैं क्लोरिन, सल्फेट, बाईकार्बोनेट, नाईट्रेट, सोडियम, मैग्नेशियम, फास्फेट आदि के आयन। इस तरह से प्रदूषणकर्त्ता तत्व नगरों तथा कारखानों से निकलने वाले कचना तथा गंदे जल के नालों के माध्यम से जलाशयों, झीलों तथा नदियाँ तक पहुँचते हैं तथा उनके जल को दूषित करते हैं।
विकसित देशों एवं कतिपय विकासशील देशों की प्रमुख नदियाँ नगरों तथा कारखानों से आने वाले कचनों तथा गंदे जल के कारण प्रदूषित हो गयी हैं। धने बसे देशों तथा औद्योगिक रूप से विकसित देशों से होकर बहने वाली नदियाँ अपने स्वाभाविक प्राकृतिक स्वरूप को खो चुकी हैं तथा परिवहन जल तथा शक्ति के तंत्रों एवं मलवाहक नालों के रूप में परिवर्तित कर दी गयी है।
नगरीकरण, औद्योगिक विस्तार तथा भूमि उपयोग में परिवर्तनों के कारण मौसम तथा जलवायु में भी परिवर्तन होते हैं। यद्यपि ये परिवर्तन दीर्घ काल के बाद परिलक्षित होते हैं। मनुष्य की आर्थिक क्रियायें पृथ्वी तथा वायुमण्डल के ऊष्मा संतुलन को प्रभावित करने में समर्थ है। इस तरह ऊष्मा संतुलन में परिवर्तन, यदि बड़े पैमाने पर होता है तो इसके कारण प्रादेशिक तथा विश्व स्तरों पर मौसम तथा जलवायु में रूपान्तर हो सकता है। वास्तव में मनुष्य मौसमी दशाओं को निम्न रूपों में प्रभावित करता है -
(1) वायुमण्डल के निचले स्तर में उसके प्राकृतिक गैसीय संघटन में परिवर्तन द्वारा
(ii) परिवर्तन मण्डल एवं समताप मण्डल में प्रत्यक्ष (मेघबीजन द्वारा तथा अप्रत्यक्ष खनन ( तथा नगरीकरण आदि द्वारा) साधनों से जलवाष्प की मात्रा में परिवर्तन द्वारा। सतह में परिवर्तन तथा रूपान्तर द्वारा (निर्वनीकरण, खनन, नगरीकरण आदि द्वारा)
(iii) धरातलीय
(iv) निचले वायुमण्डल में वायुधुंध के प्रवेश द्वार
(v) नगरीय, औद्योगिक आदि स्रोतों से वायुमण्डल में अतिरिक्त ऊर्जा का विमोचन द्वारा, आदि हाइड्रोजन ईधनों के जलाने से वायुमण्डल में कार्बन डाई आक्साइड के सान्द्रण में वृद्धि हुई है। औद्योगिक क्रान्ति के पहले वायुमण्डल में कार्बन डाई आक्साइड की मौलिक मात्रा 0.029 प्रतिशत या 290 ppm ( per unit million) थी। परन्तु वर्तमान समय में वायुमण्डल में कार्बन डाई आक्साइन का सान्द्रण का स्तर 0.0379 प्रतिशत या 379 ppm तक हो गया है, जो औद्योगिक क्रान्ति के पूर्व कार्बन डाई आक्साइड के स्तर में 25 प्रतिशत की वृद्धि का द्योतक है। ज्ञातव्य है कि वायुमण्डलीय कार्बन डाई आक्साइड में वृद्धि होने से वायुमण्डल के ऊष्मा संतुलन में परिवर्तन हो सकता है क्योंकि कार्बन डाई आक्साइड पार्थिव विकिरण का अवशोषण करके वायुमण्डल तथा पृथ्वी की सतह को गरम करती है।
मानव कार्यों द्वारा ओजोन गैस में निम्न रूपों के रिक्तता हो रही है- स्प्रेकैन डिसपेन्सर में प्रयुक्त प्रणोदकों तथा रेफ्रीजरेटरों एवे एयरकण्डीशनरों में प्रयुक्त तरल पदार्थों के माध्यम से वायुमण्डल में 20-22 किलोमीटर की ऊचाई पर ध्वनि की गति से दुगुनी गति से उड़ने पर सुपरसोनिक जेट विमानों में निरंतर नाइट्रोजन आक्साइड के कारण ओजोन ०, का 0, तथा0 में विघटन हो जाता है और इस प्रकार ओजोन का रिक्तीकरण होता रहता है। ज्ञातव्य है कि ओजोन गैस पृथ्वी पर वनस्पतियों तथा जंतुओं के लिए रक्षा कवच हैं क्योंकि यह सूर्य की परौबैगनी किरणों को सोख लेती है तथा पृथ्वी की सतह को अत्यधिक गरम होने से बचाती है।
इस तरह ओजोन की रिक्कता का परिणाम यह होगा कि सूर्य की पैराबैगनी किरणों का वायुमण्डल में अवशोषण घटता जायेगा तथा भूतल के तापमान में आवश्यकता से अधिक वृद्धि का परिणाम होगा- चर्म कैंसर में वृद्धि, मानव शरीर में प्रतिरक्षपा क्षमता में हास, प्रकाश संश्लेषण, जल ग्रहण की क्षमता तथा फसलोत्पादन के हास। सागरीय पर्यावरण पर भी आजोन की रिक्कता के कारण तापमान में वृद्धि का दूरगामी दुष्प्रभाव होगा क्योंकि प्रकार संश्लेषण में कमी के कारण फाइटोप्लॅक्टन की उत्पादकात में हास होगा।
इस स्थिति के कारण जूप्कैक्अन में भूखमरी हो जायेगा (क्यॉकि जूप्लॅक्टन अपने आहार के लिये फाइटोप्लॅक्टन पर निर्भर होते हैं।) इसके द्वारा जूप्लॅक्टन के कारण लारवा की मर्त्सता भी प्रभावित होती है। सागरीय परिस्थितिक तंत्र की जातियों के संघटन में भी परिवर्तन हो सकता है क्योंकि कुछ जातियाँ पराबैगनी विकिरण को सहन नहीं कर सकती। पराबैगनी विकिरण फोटोकेमिकल प्रक्रियाओं को भी तेज कर देता है जिस कारण जहरीला कुहरा बनता है।