हरबर्ट स्पेन्सर की समाज की सावयवी अवधारणा
समाज का सावयवी सिद्धान्त, स्पेन्सर के दर्शन का एक महत्वपूर्ण अंग है । इसमें स्पेन्सर ने समाज और सावयव के बीच सादृश्य स्थापित कर जीवित शरीर के साथ समाज की तुलना की है। लेकिन इस समानता को दर्शाने वाले विचारको में स्पेन्सर सर्वप्रथम नहीं था , प्लेटो तथा अरस्तू ने भी इसी प्रकार की समानता को स्वीकार किया है । मध्यकाल में भी यह सिद्धान्त प्रचलित था , किन्तु क्रमबद्ध रूप से इस सिद्धान्त को स्पेन्सर ने प्रस्तुत किया ।
विशेषताएँ –
स्पेन्सर का कहना है कि सावयव की भाँति समाज का धीरे-धीरे विकास होता है और विकास का यह क्रम सरल से जटिल की ओर, अनिश्चित से निश्चित की ओर होता है। समाज और सावयवी की विशेषताएँ निम्नलिखित रूपों में व्यक्त की जा सकती हैं-
( 1 ) प्रारम्भिक समाज:
एक सावयव की भाँति आरम्भ सामाजिक जीवन अत्यन्त सादा और सरल था । विभिन्न इकाइयाँ घुली-मिली थीं और उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता था । प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक काम स्वयं करना पड़ता था और इस प्रकार समाज का रूप सरल ही नहीं अनिश्चित भी था ।
इस स्तर पर समाज केवल एक समूह के रूप में था । मानव या खानाबदोशी या घुमन्तू जीवन-व्यतीत करता था और परिवार द्वारा ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सभी कार्य सम्पन्न किये जाते थे । सच तो यह है कि इस स्तर पर सामाजिक संगठन, संस्कृति, मानव जीवन आदि सब कुछ अनिश्चित था । प्रारम्भ में सावयव भी एक भ्रूण या पिण्ड के रूप में होता है ।
( 2 ) सावयव के विभिन्न अंगों का पृथक् रूप
धीरे - धीरे मनुष्य के अनुभव , विचार तथा ज्ञान में उन्नति हुई और वह समूहवादी से सामाजिक जीवन के विभिन्न अंग स्पष्ट हो गये । परिवार, राज्य, कारखाना, धार्मिक संस्था, श्रमिक, संघ, गाँव, नगर आदि स्पष्ट रूप से विकसित हुए ।
इस विकास के दौरान जैसे - जैसे विभिन्न अंग स्पष्ट होते गय, उनके कार्य भी अलग - अलग बँट गये अर्थात् समाज के विभिन्न अंगों के बीच श्रम विभाजन और विरोधीकरण हो गया। इस प्रकार सामाजिक जीवन में भिन्नता का गुण पनपता है ।
( 3 ) विभिन्न अंगों में अन्तर सम्बन्ध तथा अन्तर्निर्भरता
इन भिन्नताओं के होते हुए भी समाज के विभिन्न अंग एक - दूसरे से पृथक् या पूर्णतया परे नहीं होते हैं । उनमें कुछ न कुछ अन्तः सम्बन्ध रहता ही है । परिवार राज्य से सम्बन्धित तथा उस पर निर्भर है और राज्य परिवार से सम्बन्धित व उस पर निर्भर है ।
उसी प्रकार शिक्षक, किसान, धोबी, जमादार, जुलाहा इन सब में एक अन्तः निर्भरता होती है । साथ ही सामाजिक जीवन व्यवस्था तथा संगठन में एक निश्चितता पनप जाती है । इस प्रकार समाज एक अनिश्चित असम्बद्ध समानता से निश्चित सम्बद्ध भिन्नता में बदल जाता है ।
( 4 ) सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया की कुछ निश्चित अवस्थाएँ
सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया भी धीरे-धीरे कुछ निश्चित स्तरो या अवस्थाओं से गुजरती है । इस बीच समाज का सरल रूप धीरे - धीरे जटिल रूप धारण कर लेता है । उदाहरणार्थ, आर्थिक जीवन के प्रारम्भ में अदला - बदली से काम शुरू किया गया, पर अब उस सादी और सरल व्यवस्था ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का रूप धारण कर लिया है । यह विकास एक दिन में नहीं हुआ, बल्कि धीरे-धीरे कुछ निश्चित स्तरों में से होकर गुजरा है ।
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जैसे - सावयव या शरीर का उद्विकास जन्म, बनपन, युवावस्था, प्रौढ़त्व और मृत्यु आदि स्तरों में से गुजरता है, उसी प्रकार समाज के विभिन्न पक्षों का विकास कुछ निश्चित स्तरों में से गुजरता हुआ होता है । उदाहरणार्थ, आर्थिक जीवन का उद्विकास शिकार करने की स्थिति, चरागाह की स्थिति, कृषि स्तर तथा औद्योगिक स्तर में से गुजरता हुआ होता है ।
इसका यह अभिप्राय न समझ लेना चाहिए कि सावयव एक समाज या समाज एक सावयव है । स्पेन्सर का कहना है कि समाज तथा सावयव ( शरीर संरचना ) में अनेक समानताएँ है और कुछ आधारभूत भिन्नताएँ भी हैं ।
समाज तथा सावयव
स्पेन्सर ने समाज को एक जैविकीय सावयव के समतुल्य माना है , इसलिए इन दोनों ही धारणाओं में पारस्परिक घनिष्ठता पर आपने विशेष बल दिया है । इस घनिष्ठता को संक्षेप में निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है
( अ ) समाज तथा सावयव की मौलिक समानताएँ
इस सिद्धान्त के अन्दर स्पेन्सर ने समाज और सावयव के बीच निम्नलिखित समानतायें दर्शायी-
( i ) सरल से जटिल की ओर विकास-
समाज और सावयव जड़ पदार्थ से भिन्न है । विकास के आरम्भ में दोनों का आकार छोटा होता है , लेकिन ज्यों - ज्यों उनका आकार बढ़ता है , उनकी संरचना में जटिलता आती है । जन्म के समय जीव का शरीर छोटा होता है और -धीरे उसका विकास होता है । इसी प्रकार समाज भी प्रारम्भ में अविकसित था , मनुष्य शिकारी जीवन व्यतीत करता था । किन्तु सामाजिक विकास के साथ - साथ सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होता गया उसमें सरलता की जगह जटिलता आती गई ।
( ii ) पारस्परिक निर्भरता-
शरीर का प्रत्येक अंग एक - दूसरे के ऊपर निर्भर है । हम भोजन करते हैं जो मुँह के द्वारा हमारे उदर में प्रवेश करता है । उदर में विभिन्न यांत्रिक क्रिया द्वारा भोजन का पाचन कार्य पूरा होता है, जिससे शरीर के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए विभिन्न तत्व प्राप्त होते हैं ।
ठीक यही बात मनुष्य समाज के ऊपर भी लागू होती है । समाज के विभिन्न वर्ग सामाजिक अस्तित्व की सुरक्षा के लिये एक - दूसरे पर आश्रित हैं । समाज में श्रमिक वर्ग परिश्रम करता है , जिससे धन की उत्पत्ति होती है । इस धन से सभी वर्ग सम्पन्न होते हैं । शरीर हृदय जिस प्रकार रक्त को विभिन्न अंगों तक पहुँचाता है , उसी प्रकार समाज की वितरण व्यवस्था धन को समाज के विभिन्न वर्गों तक पहुँचाती है ।
( iii ) नियन्त्रण का केन्द्र
स्नायुओं के द्वारा मस्तिष्क शरीर के विभिन्न अंगों के ऊपर नियन्त्रण करता है और शरीर के सभी अंग मस्तिष्क के आदेशों का पालन करते हैं । ठीक यही स्थिति मनुष्य-समाज में शासन की है।