जैवमण्डल का अर्थ, परिभाषा एवं घटक | Meaning, definition and components of the biosphere

जैवमण्डल का अर्थ, परिभाषा एवं घटक | Meaning, definition and components of the biosphere

जैवमण्डल (Biosphere):- जैव मण्डल से तात्पर्य पृथ्वी के उस भाग से है जहाँ सभी प्रकार का जीवन पाया जाता है। पृथ्वी के तीन परिमण्डल स्थलमण्डल, वायुमण्डल और जीव मण्डल जहाँ आपस में मिलते हैं वही जैव मण्डल स्थित है। जैव मंडल की परत पतली लेकिन अत्यधि एक जटिल है। किसी भी प्रकार का जीवन केवल इसी बात पर ही संभव है।


अतः यह हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैवमण्डल एक जीवनदायी परत है जो पृथ्वी के चारो ओर व्याप्त है। दूसरे शब्दों में जैव मण्डल सामान्य रूप से पृथ्वी के सतह के चारों ओर व्याप्त आवरण है जिसके अन्तर्गत पौधों और जंतुओं का जीवन बिना किसी रक्षक साधन के संभव होता है।


जैवमण्डल का अर्थ, परिभाषा एवं घटक | Meaning, definition and components of the biosphere

जैवमण्डल वास्तव में अपने आपमें स्वतंत्र रूप से कोई क्षेत्र विशेष नहीं है, बल्कि यह एक जैविक वस्तुओं और उनको घेरे में रखने वाली, अजैविक वस्तुओं के बीच होने वाले परस्पर क्रियाकलापों का कार्यस्थल है। वस्तुत: यह स्थल मण्डल, वायुमण्डल, जलमण्डल से लगा वह भाग है जहाँ पर जीवन संभव है। जैव मण्डल के आवरण का संघटन सामान्य रूप से 30 किमी0 से कम मोटी वायु, जल, स्थल, मिट्टी तथा शैल की पतली परत से होता है।


जैवमण्डल को ऊपरी परत का निर्धारण आक्सीजन, नमी, तापमान तथा वायुदाब की सुलभता तथा प्राप्यता के आधार पर किया जाता है। वायुमण्डल में 15 किमी0 की ऊँचाई तक बैक्टिरिया की उपस्थिति का नासा (NASA) द्वारा पता लगाया गया है। जैव मण्डल को निचली सीमा ( मृदा गहराई या सागर गहराई) आक्सीजन तथा सूर्य प्रकाश की सुलगता और प्राण्यता द्वारा निर्धारित होती है। स्थलीय भाग पर कुछ मीटर की गहराई तक जहाँ तक वृक्षों की लम्बे (जड़े पहुँचती है जैव मण्डल का विस्तार पाया जाता है।)


जैवमण्डल अंग्रेजी भाषा के 'बायोस्फीयर' शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। 'बायोस्फीयर' (Biosphere) शब्द 'बायो' (Bio) तथा 'स्फीयर' (sphere) के योग से बना है। जिसमें बायो शब्द का अर्थ 'जीव' तथा 'स्फीयर' शब्द का तात्पर्य 'परिमण्डल' होता है। बोयोस्फीयर शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम रूसी वैज्ञानिक बर्नडिस्वी ने किया।


माँकहाउस के अनुसार "पृथ्वी के समस्त जीवधारी प्राणी और वह पर्यावरण जिसमें इन जीवों की पारस्परिक क्रिया होती है, जैवमण्डल कहलाता है अथवा पृथ्वी का वह समस्त भाग जहाँ पर जीवन पाया जाता है, वह जौव मण्डल कहलाता है।"


ए.एच. स्ट्राहालर के अनुसार" पृथ्वी के समस्त जीवित जीव तथा वे पर्यावरण जिनसे इन जीवों की पारस्परिक क्रिया होती है, मिलकर जैवमंडल की रचना करते हैं।"


कॉलिन्स कोविल्ड इंग्लिश लैंग्वेज डिक्शनरी के अनुसार" जैव मण्डल पृथ्वी और वायुमण्डल का वह भाग है जहाँ पर जैविक वस्तुएँ (मनुष्य, पशु, पौधे और जिवाश्म) रह सकते हैं।" इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैवमण्डल के अन्तर्गत समस्त जीवित जीव (जैविक संघटक) तथा भौतिक पर्यावरण (अजैविक/ भौतिक संघटक) को सम्मिलित किया जाता है। इस जैव मण्डल में जीवित जीवों और भौतिक पर्यावरण के मध्य तथा जीवित जीवों के मध्य सतत् अन्तक्रिया होती है।


जैवमण्डल का घटक (Components of Bioshpere)


यदि हम समस्त जैवमण्डल को एक परिस्थितिकी तंत्र मानते हैं तो जैव मण्डल एवं जैवमण्डलीय परिस्थितिको तंत्र के संघटक एक समान हो होते हैं। इसी तरह विश्वस्तरीय प्राकृतिक पर्यावरण के संघटक भी वहीं है जो जैवमण्डल तथा जैवमण्डलोय परिस्थितिकी तंत्र के हैं। जैवमण्डल के तौर प्रमुख घटक होते हैं- अजैविक घटक, जैविक घटक और ऊर्जा घटक ।


स्थलमण्डल

वायुमण्डल

जैवमण्डल

जलमण्डल


1. अजैविक संघटक (भैतिक संघटक) (Abiotic components):

अजैविक घटक के अन्तर्गत समस्त जीवमण्डल कया उसके किसी भाग के भौकि पर्यावरण को सम्मिलित किया जाता है। इस अजैविक घटक के अन्तर्गत सामान्य रूप से स्थलमण्डल, वायुमण्डल, तथा जलमण्डल को सम्मिलित करते हैं। इनका संक्षेप में उल्लेख निम्नलिखित है-


(क) स्थलमण्डलीय घटक (components of Luithospher):-

स्थलमण्डल जैवमण्डल का महत्वपूर्ण घटक है। स्थलमण्डलीय घटक को रचना निम्न द्वारा होती है- खनिज पोषक तत्व, शैल तथा मिट्टी, लघुस्तरीय स्थलरूप ।


उदाहरणार्थ - तृतीय श्रेणी के उच्चवच्च अपरदनात्मक सील रूप जैसे-गार्ज तथा कैनियन, सर्क, सागरीय क्लिफ, कन्दरा, जलप्रपात आदि। मध्यस्तरीय स्थलरूप उदाहरणार्थ द्वितीय श्रेणी के उच्चावच्च अन्तजति बलों द्वारा उत्पन्न स्वरूप जैसे पर्वत, पठार, मैदान, भ्रंश, भूभ्रंशघाटी, आदि। तथा वृहदस्तरीय स्थल स्वरूप उदाहरणार्थ प्रथम श्रेणी के उच्चावच्च महाद्वीप ।


स्थलमुण्डल पृथ्वी के क्षेत्रफल का लगभग 29 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करता है। स्थलमण्डल पर विभिन्न कारकों द्वारा उत्पन्न विभिन्न प्रकार के स्थल स्वरूप पौधों तथा जन्तुओं के लिए विभिन्न प्रकार के निवास/आवास क्षेत्र प्रदान करते हैं!


विवर्तनिक प्रक्रमों, जिन्हें सामूहिक रूप से निवर्तन चक्र कहा जाता है, द्वारा भूतल पर नई स्थालाकृतियों यथा-महाद्वीप, माहसागरीय नितल, पर्वत, पठार, झील, भ्रंश, कगार, भूभ्रंश घाटी आदि का निर्माण होता है। विवर्तनिक प्रक्रमों का चालन पृथ्वी के अन्तर्जात बलों द्वारा होता है। इन अन्र्जात बलों का आविर्भाव पृथ्वी के अन्तराल से होता है। इन अन्तर्जात बालों को भौमिकीय दृष्टिकोण से रचनात्मक बल भी कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा भूतर पर असामनताओं का सृजन होता है तथा विभिन्न प्रकार के उच्चावच्चों का निर्माण होता है।


भूकम्पविज्ञान के साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो गया है कि पृथ्वी के अन्दर तीन मण्डल पाये जाते हैं। ऊपरी मण्डल को क्रस्ट कहा जाता है जिसका औसत घनत्व 2.8 से 3.0 तथा औसत कहराई 30 किमी. से 100 किमी. है। इस क्रस्ट के नीचे दूसरा मण्डल है जिसे मैण्टिल कहते हैं।


इस मण्डल को निचली सीमा 2900 किमी. की गहराई तक है। क्रस्ट तथा मैण्टिल के सम्मिलन स्थान पर भौमिकीय असम्बद्धता पायी जाती है जिसे मोहो असम्बद्धता कहते हैं। भूतल से 700 किमी को गहराई पर घनत्व में अचानक वृद्धि के आधार पर मैण्टिल को दो उपविभागों में बाँटते है उपरी मैण्टल तथा निचली मैष्टिल।


तीसरे मण्डल को कोर कहते है जिसका विस्तार 2900 क्रियों से पृथ्वी के क्रोढ़ या केन्द्र (1371 किमी.) तक पाया जाता है। निचली मैण्डिल तथा बाह्य क्रोड की सीमा पर घनत्व में अचानक वृद्धि होती है। (घनत्व 55 से बढ़कर 10 हो जाता है) 2900 किमी की गहराई पर स्थित इस निचलो मैण्डिल कोर सोमा की भौमिकीय असम्बद्धता कहते हैं।


कोर को भी दो भागों में विभाजित किया जाता है वाह्य कोर तथा आन्तरिक को। बाह्य तथा आन्तरिक कोर की सीमा भूतल से 5150 किमी. की गहराई पर है जहाँ पर घनत्व 12.3 से बढ़कर 13 3 हो जाता है। आन्तरिक कोर ठोस अवस्था में है परन्तु वाह्य कोर संभवतः तरल अवस्था में है क्योंकि भूकम्पीय एस लहरें इस भाग में अदृश्य हो जाती है।


पृथ्वी का ऊपरी मण्डल, जिसे हम क्रस्ट कहते हैं, स्थलमण्डल का प्रतिनिधित्व करता है। इस बेस क्रस्ट को प्लेट कहा जाता है। मैण्टिल के सबसे ऊपरी भाग को एन्थोस्फीयर (दुर्बलता मण्डल) कहते हैं। यह मण्डल अर्द्धतरलावस्था में है। प्लेट इस मण्डल के ऊपर सतत् गतिशील रहते हैं। कुल छः प्रमुख प्लेट का अब तक निधर्धारण किया जा चुका है (युरेशियन प्लेट, अमेरिकन प्लेट, आफ्रीकन प्लेट, इण्डो-आस्ट्रेलियन प्लेट, अण्टार्कटिक प्लेट तथा पैसिफिक प्लेट)।


इनके अलावा 20 लघु प्लेट है। इन प्लेटों के किनों ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि सम्पूर्ण विवर्तनिक घटनायें इन्हीं प्लेट-किनारों के सहारे ही सम्पादित होती है। इन घटनाओं में भूकम्प, ज्वालामुखी उद्‌भेदन, भ्रंश-निर्माण, पर्वत-निर्माण आदि को सम्मिलित किया जाता है। एक दूसरे संदर्भ में प्लेटों की गतिशीलता से संबंधि ात क्रियाओं एवं घटनाओं को सम्मिलित रूप से प्लेट विवर्तनिकी कहा जाता है।


सागर- नितल प्रसरण तथा पुराचुम्बकत्व के साक्ष्यों के आधार पर अब महाद्विपीय विस्थापन की संकल्पना का सत्यापन हो गया है। ज्ञातव्य है कि मैण्टिल से उत्पन्न होने वालो तापीय संवहन तरंगों के कारण हो प्लेटों में संचलन होता है।


प्लेट विवर्तिनी जीवमण्डल परिस्थितिक तंत्र को सामान्य रूप से तथा मनुष्य को विशिष्ट रूप से प्रभावित करती है। चूंकि भूपुष्टीय आकृतियाँ प्लेटों के संचलन से प्रभावित होती है और ये आकूत्तियाँ जीवों को आवास प्रदान करती हैं अतः प्लेटों के संचलन से पार्थिव परिस्थितिकी तंत्रों की प्रकृति तथा विशेषताएँ भी प्रभावित तथा परिवर्तित होती रहती हैं। ज्ञातव्य है कि दो प्रमुख प्राकृतिक प्रकोप तथा आपदायें, यथा- भूकम्प तथा ज्वालामुखी विस्फोट, प्लेट विवर्तनिको से ही संबंधित है।


मृदा तंत्र स्थलमण्डलीय संघटक का अति महत्वपूर्ण घटक है क्योंकि मृदा तंत्र जीवमण्डल में ऊर्जा तथा पदार्थों के रामन तथा स्थानान्तरण एवं उनके चक्रण के लिए अतिआवश्यक है। स्थलमण्डल पर वनस्पति आवरण तथौ अपक्षय से अप्रभावित आधार शैल के मध्य स्थिति मृदा का पतला आवरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण जैविक भट्ठी के रूप में होता है। मृदा संघटक या मृदा पर्यावरण पृथ्वी पर ज्ञात जैविक जोवों के सर्वाधिक समूह की आवास प्रदान करता है। वास्तव में मृदा जीवों के लिए एक तरफ आवास प्रदान करती है तथा पौधों को जल प्रदान करने का माध्यम होती हैं क्योंकि पौधे अपनी जड़ों से मृदा से जड़ परासरण से जल तथा पोषक पदार्थ ग्रहण करते हैं।


वायुमण्डत्वीय संघटक (Components of Atmosphere):

वायुमण्डल जीवमण्डल का एक महत्वपूर्ण संघटक है क्योंकि जीवमण्डल में विभिन्न जीवों के अस्तित्व एवं निर्वाह के लिए सभी आवश्यक गैसें इसी वायुमण्डल से ही मिलती हैं। वायुमण्डल में स्थित कतिपय गैसे (यथा ओजोन) सौर्थिक विविकरण तरंगों को दान कर ही धरातल पर आने देती हैं। इस प्रकार ये गैर्से सूर्य की पराबैंगनी विविकरण तरंगों को बीच में ही रोक लेती है तथा धरातल को अति गर्म होने से बचाती है। अत: वायुण्डल की संरचना तथा संघटन एवं मौसम तथा जलवायु के तत्त्वों का संक्षिप्त विवेचन अधोलिखित है।


बायुमण्डल विभिन्न गैसों एक आवरण है जो पृथ्वी को चारों और से घेरे हुए हैं तथा गुरूत्वाकर्षण चल की ऊँचाई का आकलन समुद्र तल से 16 से 29 हजार किमी. के बीच किया गया है। ऐसा विश्वास किया जात है कि प्रभावी वायुमण्डल का 97 प्रतिशत भाग लगभग 29 किमी. की ऊँचाई तक आ जाता है।


वायुमण्डल की रचना मुख्य रूप से गैसों, जलवाष्प तथा धुलिकणों से हुई है। वायुमण्डल में जलवाष्प की मात्रा शून्य से 5 प्रतिशत के मध्य होती है। वायुमण्डलीय जलबाष्प की प्राप्ति जलाशयर्यो, वनस्पतियों तथा मृदाओं के जल तथा नमी के वाष्पीकरण द्वारा होती है। वायुमण्डल में जलवाष्प की मात्रा भूमध्य रेखा से धुनों की ओर पटती जाती है। वायुमण्डलीय जलवाष्प के कारण ही संघनन (Condensation) तथा वर्षण (Precipitation) के विभिन्न रूप (यथा-बादल, कोहरा, पाला, जलवर्षा, ओस, हिम, ओला, हिमपात आदि) संभव हो पाते हैं।


स्मरणीय है कि जलवाष्प प्रवेशी सौर्थिक विकिरण तरंगों के लिए पादर्शक होती है परन्तु यह पृथ्वी से होने वाले विकिरर्णो के लिए कम पादर्शक होती हैं। अत: यह धरातल तथा निचले वायुमण्डल को गर्म करने में मद्द करती है। वायुमण्डल में स्थित ठोस कणों के अन्तर्गत धुलिकण, नमक के कण आदि को सम्मिलित करते हैं। ये कण सौर्विक विकिरण के प्रकीर्णन (Scattering) में सहायता करते हैं।


इस प्रकीर्णन के कारण आकाश का नीला रंग, प्रात: कालीन ऊषा की लालिमा तथा गोधूलि के समय नयनभिराम रंग संभव हो पाते हैं। नमक के कण आर्द्रता ग्राही नाभिक (Hydroscopic nucleii) बनते हैं तथा जलबूदर्दी, बादल तथा संघनन एवं वर्षण के विभिन्न रूपों के निर्माण में सहायता करते हैं।


तापक्रम, वायुदाब तथा विभिन्न गैसों के विभिन्न संयोगों के आधार पर वायुमण्डल में सागर तल से ऊपर की ओर निम्न मण्डल पाये जाते हैं-


1. परिवर्तन मण्डल या क्षोभ मण्डल (Troposphere)

2. समताप मण्डल ( Stratosphere)

3. मध्यमण्डल (Mesosphere)

4. आयन मण्डल (Ionosphere)

5. आयतन मण्डल (Exosphere)


वायुमण्डल की सबसे निचली परत को परिवर्तन मण्डल या क्षोभ मण्डल कहते हैं यह मण्डल जीवमण्डलीय परिस्थितकी तंत्र के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि मौसम संबंधी सारी घटनाएँ (यथा- कुहरा, बादल, ओस, पाला, ओला, आदि) इसी परिवर्तन मण्डल में घटित होती है।


इस मण्डल में तापमान ऊचाई के साथ प्रति 1000 मीटर पर 6.5 डिग्री सेंटीग्रेटु की दर से घटता जाता है। इसे सामान्य ताप पतन दर (Normal Laps Rate) कहते हैं। यद्यपि परिवर्तन मण्डल की ऊँचाई में भूमध्य रेखा के ध्रुवों की ओर (ऊँचाई घटती है) तथा वर्षा के विभिन्न मौसमों में परिवर्तन होता रहता है यथापि इसकी औसत ऊँचाई भूमध्य रेखा पर 16 किमी. तथा ध्रुवों पर 6 किमी. होती है। परिवर्तन मण्डल की ऊपरी सीमा को ट्रोपापास कहते हैं।


परिवर्तन मण्डल के ऊपर दूसरी परत को समताप मण्डल कहते हैं। यद्यपि इस मण्डल को ऊँचाई के विषय में मतान्तर है परंतु इसकी औसत ऊँचाई 50 किमी. तक बतायी जाती है। इसको ऊपरी सीमा को स्ट्रैटोपास कहते हैं। इस मण्डल के निचले भाग में 15 से 30 किमी. को ऊँचाई के बीच आजोन गैस की बहुलता पायी जाती है। इस ओजोन बहुल मण्डल को ओजोनमण्डल कहते हैं। ओजोन गैस जीवमण्डलीय परिस्थितिक तंत्र के जीवों के लिये अति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह गैस सौर्थिक विविकरण की पराबैगनी किरणों को सोख लेती है तथा उन्हें भूतल तक नहीं पहुँचने देती है तथा भूतल को अधिक गर्म होने से बचाती है।


मध्यमण्डल का विस्तार 50 किमी (सागर तल से) 80 किमी. के बीच पाया गया है। इस मण्डल में तापमान ऊँचाई के साथ घटता है तथा मध्यमण्डल की सबसे ऊपरी सोचा (सागर तल से 80 किमी.) जिसे 'मेसोपास' कहते हैं, पर तापमान 80 डिग्री सेन्टीग्रेट बताया जाता है। तापमण्डल मध्यमण्डल के ऊपर स्थित है। इस मण्डल में ऊँचाई के साथ तापमान में तेजी से बुद्धि होती है। तापमण्डल को पुनः दो उपमण्डलों में विभक्त किया गया है

(A) आयन मण्डल

(B) आयतन मण्डल।


सूर्थ एक बृहत्तम प्राकृतिक इंजन है जो भूतल पर पवन, सागरों एवं महासागरों में धाराओं एवं लहरों तथा अनाच्छादनात्मक प्रक्रमों (नदी, हवा, सागरीय तरंग, हिमनद आदि) को चालित करता है तथा जीवमण्डल में विभिन्न प्रकार के जीवों का जीवन संभव बनाता है। यद्यपि पृथ्वी सूर्य के विकीर्ण ऊर्जा का स्वलापांश (1/2 अरबवां भाग) ही प्राप्ति कर पाती है परन्तु यह स्वल्प ऊर्जा भी जीवमण्डल में विभिन्न जीवों के भरण-पोषण तथा निर्वाह के लिए है।


लघु तरंगों के रूप में संचारित (तरंग लम्बाई 17250 से 176700 मिलीमीटर) और 1,86,000 मील (3,00,000 किमी. ) प्रति सकेण्ड को गति से भ्रमण करती हुई सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को सौर्थिक विविकरण या सूर्यातप (Insolation) कहते हैं। सूर्य से ऊर्जा उत्संजन विद्युत विकिरण (Electromagnetic Radiation) के रूप में होता है। इस विद्युत चुम्बकीय विकिरण में विभिन्न तरंग लम्बाई के चार वर्ग होते


1. पराबैंगनी किरणें (Ultraviolet Rays) के अन्तर्गत लघुतम तरंग लम्बाई को सम्मिलित करते हैं (जैसे-गामा किरण, एक्स किरण आदि।)


2. दृश्य प्रकाश किरणें (Visible light rays) के अन्तर्गत बैंगनी, जामुनी, नोली, हरी, पीली, नारंगी, लाल किरणों को सम्मिलित किया जाता है जो सूर्य से विकर्ण कुल ऊर्जा के 41 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करती है। इन किरणों की तरंग लम्बाई 0.4 से 0.7 माइक्रान के बची होती है। 


3. अवरक्त किरणें (Infrared rays) की तरंग लम्बाई 0.7 से 300 माइक्रान के बीच होती है। अवरक्त किरणें सौर्थिक स्पेक्ट्रम की समस्त ऊर्जा के 50 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करती हैं।


4. दीर्घ तरंगों (Long waves) के अन्तर्गत माइक्रोवेव्स (सूक्ष्म तरंग), राडार तथा रेडियो तरंगों को सम्मिलित किया जाता है। इनकी तरंग लम्बाई 0.03 सेण्टीमोटर से 100 मीटर के बीच होती है।


पृथ्वी का उष्मा बजट - पृथ्वी की सतह तथा निचले वायुमण्ल के ऊष्मा संतुलन आवश्यक होता है। सूर्य से पृथ्वी को ओर विकीर्ण कुल ऊर्जा का 100 प्रतिशत या 100 इकाई मानते हैं। जिसका 35 प्रतिशत भाग मौलिक रूप से परावर्तन एवं प्रकीर्णन द्वारा शून्य में लौटा दिया जाता है।


14 प्रतिशत सौर्थिक ऊर्जा बायुमंडल द्वारा अवशोषित हो जाता है। इस प्रकार 49 प्रतिशत (35-14) सौर्थिक ऊर्जा पृथ्वी पर पहुँच ही नहीं पाता है। केवल 51 प्रतिशत ऊर्जा ही पृथ्वी को प्राप्त होती है। जिसमें से 17 प्रतिशत विसरित दिवा प्रकाश और शेष 34 प्रतिशत सूर्य से सीधे प्राप्त होती है। सूर्य से लघु तरंगों के रूप में ऊर्जा प्राप्त करने के बाद पृथ्वी भी ऊर्जा का विकिरण दीर्घ तरंगों के


रूप में करने लगती है, जिसे पार्थिव विकिरण कहते हैं। सूर्य से प्राप्त 51 प्रतिशत ऊष्मा का 23 प्रतिशत भाग धरातल से पार्थिव विकिरण द्वारा, 9 प्रतिशत घरात से विक्षोप और संग्रहन के रूप में तथा 19 प्रतिशत उष्मा वाष्पीकरण में रूपान्तरित हो जाता है। फलतः पृथ्वी का उष्मा संतुलन बना रहता है। अन्यथा पृथ्वी या तो निरन्तर गर्म होती रहती है या फिर निरन्तर शोतल होतो जाती।


वायुमण्डल का उष्मा बजट वायुमंण्डल कुल 48 प्रतिशत उष्मा प्राप्त करता है। जिसमें 14 प्रतिशत बादलों के अवशोषण द्वारा, 6 प्रतिशत प्रभावी विकिरण से, 9 प्रतिशत विक्षोप तथा संवहन से तथा 19 प्रतिशत संघनन की गुप्त उष्मा से प्राप्त होता है। इस प्रकार समस्त वायुमण्डलीय ऊष्मा का केवल 14 प्रतिशत भाग सौर्थिक विकिरण से तथा 34 प्रतिशत उष्मा पृथ्वी से उपरोक्त रूपों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपों से प्राप्त करती हैं। वायुमण्डल अपनी इस 48 प्रतिशत ऊर्जा को शून्य से विकीर्ण कर देता है। इस तरह पृथ्वी का निचले वायुमण्डल में उष्मा का संतुलन बना रहता है।


जीवमण्डलीय परिस्थितिक तंत्र में स्वपोषित प्राथमिक उत्पादक हरे पौधों के लिए सौर्थिक ऊर्जा अत्यंत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि ये हरे पौधे सूर्य प्रकाश का प्रयोग करके प्रकाश संश्लेषण विधि द्वारा अपना आहार निर्मित करते हैं। जौवमण्डल पृथ्वी के आन्तरिक भाग से भी कुछ ऊर्जा प्राप्त करता है। इस ऊर्जा को भूतापीय ऊर्जा (Geothermal Energy) कहते हैं। यह ऊर्जा पृथ्वी की समस्त ऊर्जा बजट का मात्र 0.02 प्रतिशत हो होती है।


अर्थात् वायुमण्डल सौर्थिक विकिरण तरंगों को भूतल तक तो आने देता है परन्तु धरातल से होने वाली दीर्घ तरंग बहिर्गामी पार्थिव विकिरण को बाहर जाने से रोकता है। बायुमण्डल के इस प्रभाव को 'हरितगृह प्रभाव' (Greenhouse effect) कहते हैं। वायुमण्डल का हरितगृह प्रभाव जितना बढ़ेगा, पृथ्वी पर उतना ही तापमान भी बढ़ेगा।


यह स्थिति पौरु में तथा मानव सहित जन्तुओं के लिए हानिकारक होगी। वर्तमान समय में मानव-क्रियाकलापों द्वारा पृथ्वी तथा वायुमण्डल के उष्मा या विकिरण संतुलन में परिवर्तन तथा हरितगृह प्रभाव में वृद्धि हो रहो है जिसका जलवायु, वनस्पति तथा जन्तुजगत पर दूरगामी दुष्प्रभाव होगा।


तापमान का स्थानिक वितरण जीवमण्डल में विभिन्न जीवन रूपों के लिए अतिमहत्वपूर्ण होता है क्योंकि जलवायु के प्रकार, वनस्पति मण्डल, जन्तु तथा मानव जीवन तापमान के वितरण पर आधारित होते हैं। धरातल पर तापमान का स्थानिक वितरण कई कारकों द्वारा प्रभावित होता है। जैसे-अक्षांश या भूमध्यरेखा से दूरी, सागर तल की ऊँचाई, सागर से दूरी, स्थल तथा जल का स्वभाव, भूतल का गुण, ढाल का स्वभाव, प्रचलित पवन, महासागरीय धारायें आदि।


ज्ञातव्य है कि तापमान के घटने की प्रवृत्ति परिवर्तन या क्षोभमण्डल तक ही सीमित होती है। तापमान के लम्बवत् वितरण की यह प्रवृत्ति पर्वतों पर वनस्पितयों तथा जंतुओं के जीवन को प्रभावित तथा नियंत्रित करती है। कभी-कभी ऊचाई के साथ तापमान बढ़ता है इस स्थिति को तापीय प्रतिलोमन (Inversion of Temperatrue) कहते हैं। तापीय प्रतिलोमन जलवायु की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं।


तापीय प्रतिलोमन के कारण कुहरा (जो कुछ फसलो जैसे कहवा तथा चाय के लिए लाभप्रद होता है परन्तु सरसो, अरहर, मटर, आलू आदि के लिए तथा यातायात परिवहन के लिए हानिकारक होता है तथा पाला (यह रेखेदार जड़ों वाली फसलो जैसे मटर, आलू आदि को नष्ट कर देता है।) का आविर्भाव होता है तथा वायुमण्डल में स्थिरता उत्पन्न हो जाती है। इस वायुमण्डलीय स्थिरता के कारण वायु के उपरिमुखी तथा अधोमुखी संचार का स्थगन हो जाता है जिस कारण वर्षा की संभावना कम हो जाती है।


घरातल पर तापमान में भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर हास होता जाता है। तापमान के क्षैतिज वितरण के आधार पर ग्लोब को तीन ताप मण्डलों में विभक्त किया जाता है।


1. उष्ण कटिबन्ध

कर्क उत्तरी अक्षांश तथा मकर ( दक्षिणी अक्षांश के मध्य स्थित है। सूर्य की किरणें वर्ष भर भूमध्य रेखा पर प्राय: लम्बवत् होती हैं। वर्ष भर तापमान ऊँचा रहता है। तथा भूमध्य रेखा के आस-पास शरद काल नहीं होता है परन्तु कर्क तथा मकर रेखाओं के पास ग्रीष्म तथा शरद काल स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं।


2. शीतोष्ण कटिबंध का विस्तार

अक्षांशों के बीच दोनों गोलाद्धों में पाया जाता है। दिन तथा रात की अवधि (क्रमश: ग्रीष्म तथा शीतकाल में) लम्बी होती है परन्तु 24 घंटे से अधिक नहीं होती है। वर्ष में ग्रीष्य तथा शीत में दो ऋतुएं होती है। ग्रीष्मकाल तथा शरदकाल में सापातर अधिक होता है।


3. ध्रुवीय कटिबंध का विस्तार 66 तथा ध्रुव के मध्य दोनो गोलाद्धो में पाया जाता है। वर्ष भर तापमान सदा निम्न बना रहता है क्योंकि सूर्य का किरणे अत्यधिक तिरक्षी हो जाती है। दिन तथा रात की अवधि अत्यधिक लम्बी होती हैं। ध्रुवों के पास तो 6 महीने का दिन तथा रात होती है।


भूतल पर वायुदाब के क्षैतिज तथा लम्बवत् वितरण का जीवमण्डलीय प्रतिस्थितिक तंत्र के जीवों पर गहरी प्रभाव पड़ता है। वायु दाब प्रति क्षेत्रफल इकाई पर पड़ने वाला बल होता है। सागर-तल पर प्रतिक्षेत्रफल इकाई पर ऊपर स्थित वायुमण्डल की समस्त परतों के पड़ने वाले भार को ही चायुदाब कहा जाता है। वायुदाब को इंच, सेंटीमीटर या मिलीमीटर में प्रदर्शित करते हैं।



वायुदाब तथा तापमान में विलोम अनुपात होता है, अर्थात् यदि तापमान बढ़ता है तो वायुदाब घटता है तथा यदि तापमान घटता है तो वायुदाब बढ़ता है। दो स्थानों के वायुदाबों में अंतर की दाब प्रवणता (Pres- sure Gradient) कहते हैं। इसी दाब प्रवणता के कारण पवन संचार होता है। भूतल पर वायुदाब को कुछ निश्चित पेटियाँ पायी जाती है यद्यपि स्थल एवं जल के आसमान वितरण के कारण महाद्वीपों पर इन पेटियों की सात्यता भंग हो जाती है।" ज्ञातव्य है कि विश्वस्तरीय बायुदाब की पेटियों पर निर्माण तापीय तथा गतिज दोनों कारणों से होता है।


जीवमण्डल में विभिन्न जैविक समुदायों के जीवन के लिए संघनन तथ वर्षण के विभिन्न रूप (जैसे-कुहरा, ओला, हिमपात, जलवर्षा, पाला या तुषारपात आदि) अति महत्वपूर्ण भौगोलिक कारक हैं। जब संघनन धूलिकणों या धुएं के चारों ओर सम्पन्न होता है तथा जल की बूंदे वायु में लटको रहती हैं तो कुहरा का निर्माण होता है।" कुहरे के कारण वायुमण्डल में दृष्यता घट जार्ती है जिस कारण धरातल पर बाबु में तथा सागरों में यातायात तथा परिवहन के लिए भारी समस्यायें पैदा हो जाती हैं। दृश्यता के आधार पर कुहरे को 4 प्रकारों में विभक्त किया गया है-


1. हल्का कुहरा दृश्यता 1100 मीटर तक

2. मध्यम कुहरा दृश्यता 1100 550 मोटर तक

3 . घना कुहरा दृश्यता 550 मीटर से 330 मीटर तक

4. अति घना कुहरा दृश्यता 330 मोटस से कम


जब कुहरे का सम्पर्क कारखानों की चिमनियों से निकले गंधक से हो जाता है तो कुहरा जहरी। एवं जानलेवा हो जाता है। इस तरह के जहरीले कुहरे को धूम कोहरा (SMOG) या काला कोहरा कहते हैं। बादल, जल एवं हिम सीकरों (Water amd ice droplets) के समूह होते हैं परन्तु इनका निर्माण कोहरे की तुलना में अधिक ऊँचाई पर होता है। बादलों का किसी भी क्षेत्र में मौसम तथा जलवायु पर अधिक प्रभाव होता है क्योंकि वर्षा की प्रवृत्ति तथा प्रकृति बादलों पर ही आधारित होती है। बादलों को तोन प्रमुख प्रकारों एवं 10 उप प्रकारों में विभाजित किया जाता है -


1. उच्च बादल (High Clouds) सागरतल से 6,000 से 12,000 मीटर को ऊँचाई तक पाये जाते हैं। इन्हें पुनः तौन प्रकारों में विभक्त करते हैं -


(i) पक्षाभ बादल (Cirrus Clouds) सबसे अधिक ऊँचाई पर पाये जाते है। ये साफ मौसम के द्योतक है।


(1) पक्षाभ-स्तरी बादल (Cirrostratus Clouds) प्राय: सफेद रंग के होते हैं तथा आकाश में दूधिया रंग को एक पतली चार के समान फैले रहते हैं। इनके आगमन पर चन्द्रमा तथा सूर्य के चारों ओर प्रभा मण्डल (Halo) बन जाता है।


(ii) पक्षाच कपासी (Cirro cumulus Clouds) श्वेत रंग के होते हैं तथा छोटे गोलों के यप मैं बा लहरनुमा रूप में पाये जाते हैं।


2. मध्यम ऊँचाई के बादल 2,500 से 6,000 मीटर की ऊँचाई पर पाये जाते हैं। इन्हें दो उप प्रभागों में विभक्त किया गया है-


(1) उच्चस्तरीय बादल (Aulto-Stratus Clouds) आकाश में लगातार रूप में फैले नीले अथवा भूरे रंग को पतली चादर वाले बादलों को उच्चस्तरीय बादल कहते हैं।


(11) उच्च कपासी बादल (Auito-cumulus Clouds) गोलाकार रूप में पंक्तियों या लहरों में पाये जाते हैं। पक्षाभ कपासी बादलों के समान ही


3. निम्न बादल सागरतल से 2,500 मीटर ऊँचाई तक पाये जाते हैं। इन्हें 5 उप-प्रकारों में विभाजित किया गया है-


(1) स्तरीय कपासी बादल (Strato-Cumulus Clouds) हल्के भूरे रंग के होते हैं तथा 2,500 से 3,000 मीटर की ऊँचाई तक बड़े-बड़े गोलाकार चकों के रूप में पाये जाते हैं।


(ii) स्तरी बादल (Stratus Clouds) कोहरे के समान होते हैं तथा इनकी रचना कई समान परतों से होती है।


(Ⅲ) वर्षा स्तरी बादल (Nimbo-Stratus Clouds) काले रंग के घने बादल होते हैं। इनसे सूब वर्षा होती है। धरातल के करीब पाये जाने वाले


(iv) कपासी बादल (Cumulus Clouds) अधिक घने तथा विस्तृत होते हैं। ये प्राय: लम्बे रूप में होते हैं जिनका ऊपरी भाग गुम्बदाकार या फूल गोभी के समान होता है। ये बादल साफ मौसम के प्रतीक होते हैं।


(v) कपासी वर्षा बादल (Cumulus nimbus Clouds) अत्यधिक विस्तृत तथा गहरे बादल होते हैं। इनके साथ जलवर्षा, ओला ता तड़ितझंझा की अधिक संभावना रहती है।


जलवर्षा जीवमण्डलीय परिस्थितिक तंत्र के सभी प्रकार के जीवों के लिए अति महत्वपूर्ण होती है। संघनन के लिए यह आवश्यक होता है कि हवा सम्पृक्त (Saturate) हो और यह तभी संभव होता है जबकि किसी निश्चित तापमान तथा आयतन वाली हवा की सापेक्षित आर्द्रता 100 प्रतिशत हो जाए। अर्थात् निश्चित तापमान वाली हवा की आर्द्रता धारण क्षमता तथा उसकी निरपेक्ष आर्द्रता बराबर हो जाए। यह ज्ञात तथ्य है कि तापमान में वृद्धि के साथ हवा को आर्द्रता धारण क्षमता भी


बढ़ती है तथा तापमान में द्वास होता है। अत: वर्षण के लिए आवश्यक होता है कि अमुक हवा ऊपर उठे क्योंकि जब हवा में उपरिमुखी संचरण होता है तो उस हवा का तापमान घटता है, उसकी आर्द्रता धारण क्षमता घटती है तथा सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ती है। हवा तब तक ऊपर उठती है जब तक कि उसका संघनन स्तर न प्राप्त हो जाए, अर्थात् हवा की सापेक्षित आर्द्रता 100 प्रतिशत न हो जाए।


इस स्थिति को प्राप्त हवा को सम्पृक्त हवा (Saturated Air) कहते है। जब हवा में संघनन हिमांक (Freezing point) के नीचे होता है तो वर्षण (Precipitation) ठोस रूप (यथा-ओला, पाला या तुधारपात, हिमपात आदि) में होता है। परन्तु जब संघनन हिमांक के ऊपर होता है तो बर्षण तरल रूप (जल वर्षा, ओस, कोहरा आदि) में होता है। बायु के ऊपर उठने की क्रियाविधि के आधार पर जलवर्षा के तीन प्रकारों में विभक्त किया जाता


1. संवहनीय वर्षा (Convectional Rain fall) उस समय होती है जबकि हवा धरातल के गर्म होने के कारण ऊपर उठती है। भूमध्य रेखीय क्षेत्रों को अधिकांश वर्षा संवहनीय वर्षा द्वारा हो प्राप्त होती है।


2. पर्वतीय वर्षा (Orographic Rain fall) - उस समय होती है जब हवा पर्वतीय अवरोध के कारण ऊपर उठती है, अत: यह वर्षा पर्वर्ती के सहारे होती है। यह स्थिति तभी संभव होती है जबकि पर्वतों की स्थितियाँ हवाओं के मार्ग की अनुप्रस्थ दिशा में होती है। पर्वत का पवनमुखी ढाल सर्वाधिक वर्षा प्राप्त करता है जबकि पवनविमुखी ढाल न्यूनतम वर्षा प्राप्त करता है।


इस वर्षा रहित या कम वर्षा वाले ढाल को वृष्टि छाया प्रदेश कहा जाता है। विश्व की अधिकांश वर्षा पर्वतीय वर्षा के माध् यम से हो प्राप्त होती हैं। चूंकि पर्वत के दो द्वालों पर वर्षा की मात्रा में विभिन्नता होने के कारण अन्य पर्यावरणीय दशायें भी भिन्न-भिन्न हाती हैं अतः पर्तों के पवनमुखी तथा पवनविमुखी ढालों पर परिस्थितिक तंत्रों को सामान्य विशेषताओं में भी विभिन्नतायें होती है।


3. चक्रवातीय वर्षा उस समय होती है जब एक वायु राशि दूसरी वायु राशि को ऊपर उताने के लिए बाध्य करती हैं। इस तरह हवा ऊपर उठकर शीतल होकर वर्षा प्रदान करती है। शीतोष्ण: चक्रवात शीताष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में पर्याप्त वर्षा प्रदान करते हैं। भूतल पर वर्षा का स्थानिक तथा कालिक वितरण अधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यह वनस्पतियों की प्रकृति तथा प्रकार को निश्चित करता है तथा बदले में वनस्पतियाँ जीवों की प्रकृति को निर्धारित करती है।


तड़ितझंझा (Thunderstormes), चक्रवात तथा प्रतिचक्रवात भी महत्वपूर्ण गौसमी घटनायें है जो जैविक समुदाय को बड़े पैमाने पर प्रभावित करती हैं। तड़ितझंझा सबल संवहनीय क्रियाओं से संबंधित होते हैं तथा इनमें तीव्र गति वाली हवायें चलती है, बादलों की गरज होती है, बिजली चमकती है तथा मूसलाधार वर्षा होती है। भूमध्य रेखीय प्रदेश तड़ितझंझा से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। यहाँ पर 75 से 150 दिन तड़ितझंझाओं से प्रभावित होते रहते हैं। तड़ितझंझाओं के दिनों की संख्या भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर घटती जाती है।


मध्य अक्षाशों में शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों के साथ ही तड़ितझंझा की घटनायें होती हैं। तड़ितझंझा के साथ होने वाली मूलसाधार वृष्टि के कारण नदियों मैं बाढ़ आ जाती है तथा व्यापक मृदा अपरदन होने लगताहै। तड़ितझंझाओं के साथ चलने वाले तेज झंझावतों के कारण बनस्पतियों, भवनों, विभिन्न प्रतिष्ठानों तथा मानव जीवन को अपार क्षति उड़ानी पड़ती है।


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