वेदान्त दर्शन, अर्थ परिभाषा और सिद्धान्त : Vedanta Darshan, Meaning, Definition and Principles

वेदान्त दर्शन, अर्थ परिभाषा और सिद्धान्त ( Vedanta Darshan, Meaning, Definition and Principles )

वेदान्त दर्शन का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Vedanta Darshan ): - वेदान्त शब्द का शाब्दिक अर्थ वेदों का अंतिम भाग है। इसे वेद का अंत या वेद का सार भी कहा जाता है। वेद शब्द ' विद ज्ञाने ' धातु से निष्पन्न ज्ञान का पर्यायवाची है। सभी भारतीय दर्शनों में ज्ञान प्राप्ति का मूल मोक्ष को स्वीकार किया गया है ।

अतः मोक्ष क्या है ? मोक्ष को प्राप्त करने के साधन कौन-कौन से हैं, इसकी व्याख्या ही वेदान्त है। वेदान्त में मोक्ष प्राप्ति के साधन को ब्रह्म ज्ञान माना गया है। इसलिए कहा जा सकता है कि मनुष्य को इस व्यवहारिक जीवन में इस जगत से दूरी पार कर अंतिम लक्ष्य या उद्देश्य की प्राप्ति करना ही वेदान्त है ।

वेदान्त का मुख्य अर्थ है

जिस ज्ञान से मनुष्य के इस देह ( शरीर ) का हमेशा के लिए अंत हो जाता है। जिस ज्ञान से हमें मोक्ष ( ब्रह्म ) की प्राप्ति हो जाय, यहाँ लक्ष्य वेदान्त है। 

प्रो ० रमन बिहारी लाल के अनुसार: - " वेदान्त दर्शन भारतीय दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को ब्रह्म ( ईश्वर ) द्वारा निर्मित मानती है और यह मानती है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और यह वस्तु जगत असत्य है । यह ईश्वर को इस सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति तथा लय का कारण मानती है और आत्मा के ब्रह्म का अंश मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति है जिस ज्ञान योग, कर्म योग, राज योग और भक्ति योग से द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । " 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि वेदान्त दर्शन भारतीय दर्शन को वह चिंतन धारा है जो ब्रह्म द्वारा इस जगत की उत्पत्ति मानती है और यह मानती है कि यह ब्रह्म इस जगत या संसार का कर्ता और कारण दोनों है । यह आत्मा को ब्रह्म का अंश मानते हुए मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष निर्धारित करता है और कहता है कि अविद्या और अज्ञानता का नाश कर हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं । इसके लिए वह श्रवण, मनन, निदिध्यासन और चतुष्ट्य साधनों पर बल देता है । 

वेदान्त दर्शन के सिद्धान्त ( Principles of Vedant Darshan )

वेदान्त दर्शन के विभिन्न मीमांसाओं को हम सिद्धान्त के रूप में निम्न क्रम प्रदान कर सकते हैं : 

यह ब्रह्माण्ड इस ब्रह्म द्वारा निर्मित है : -

वेदांन्त दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही इस ब्रह्माण्ड का मूल कारण है । ब्रह्मण्ड के मूल में केवल ब्रह्म की सत्ता स्वीकार की जाती है । शंकराचार्य के अनुसार यह अनादि अनन्त और निराकार है । ब्रह्म इस ब्रह्माण्ड का कर्त्ता और कारण दोनों है । शंकर के अनुसार सर्वप्रथम ब्रह्म अपनी इच्छा से अपने अंदर माया का निर्माण करता है और इसी माया के सहारे ब्रह्म समस्त जगत की सृष्टि करता है ।

इस दर्शन में ब्रह्म को उपनिषदों के समान सत् , चित और आनन्द का साधन बताया गया है । ब्रह्म सगुण और निगुर्ण दोनों ही है । शंकराचार्य के अनुसार जब ब्रह्म पर माया के द्वारा संसार के निर्माण का गुण आरोपित किया जाता है तो वह सगुण हो जाता है और जब हम उपासना की दृष्टि से उसे सगुण ब्रह्म के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं तो वह निगुर्ण हो जाता है । अतः कहा जा सकता यह ब्रह्माण्ड इस ब्रह्म द्वारा निर्मित है ।

ब्रह्म इस जगत में विशेष है -

ब्रह्म ही जगत की मूल कारण है । शंकराचार्य इस जगत को नाशवान व असत्य मानते हैं । उनके अनुसार जगत की केवल व्यवहारिक सत्ता है क्योंकि इसके व्यवहारिक सत्ता को स्वीकार किए बिना मनुष्य के अस्तित्व , श्रवण , मनन , निदिध्यासन , चतुष्टय साधन , ज्ञान , कर्म शक्ति योग और मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता ।

शंकर के अनुसार यह ब्रह्म ही नित्य और सत्य है । यह व्यवहारिक जगत अनित्य और असत्य है क्योंकि इसमें प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता रहता है । शंकर के विपरीत रामनुज ब्रह्म और उसके द्वारा निर्मित जगत दोनों को वास्तविकता मानते हैं , सत्य मानते हैं और कहते हैं कि इन दोनों में ब्रह्म विशेष है । 

आत्मा ब्रह्म का अंश है : -

शंकराचार्य आत्मा को ब्रह्म का अंश मानते हैं और कहते हैं कि ब्रह्म अपने में सर्वव्यापक , सर्वशक्तिमान , सर्वज्ञाता और पूर्ण होती है । हॉ , ब्रह्म की मायाशक्ति के कारण आत्मा ब्रह्म से अलग दिखाई देती है और जैसे ही माया की शक्ति समाप्त हो जाती है वैसे ही आत्मा और ब्रह्म की बीच भेद मिट जाता है ।

रामानुज तीन मूल तत्व चित्त ( चेतन , आत्मा ) , अचित ( अचिंतन , जड़ ) और ब्रह्म ( ईश्वर ) स्वीकार किए हैं । उनके अनुसार आत्मा का अस्तित्व ही अलग है । शंकराचार्य ने मनुष्य 
मनुष्य सर्वशक्तिमान और आत्मसर्वज्ञ है :
ज्ञान और शक्ति का अनंत स्रोत मानते हुए कहा है कि मनुष्य सर्वशक्तिमान है आत्म सर्वज्ञ है । वह माया के आवरण के कारण अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाता । जैसे ही माया का आवरण हटता है वह अपने वास्तविक स्वरूप को समझ जाता है वह अपनी आत्मा को पहचान लेता है और सब कुछ जान जाता है । रामानुजाचार्य कहते हैं कि मनुष्य चित , अचित और ब्रह्म का योग है । इसी के द्वारा वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ बनता है । 

मानव का विकास इन्द्रियाँ और मस्तिष्क है : -

वेदान्त दर्शन के अनुसार इस व्यवहारिक जगत में मनुष्य के विकास का आधार उसकी ज्ञानेन्द्रिया , कर्मेन्द्रियाँ और मस्तिष्क है । वेदान्त के अनुसार मानव का विकास उसके कर्मों पर निर्भर करता है । अच्छे कर्म से ही शरीर शुद्ध होती है , शरीर शुद्धि से चित्त शुद्ध होता है और जब चित्त शुद्ध होता है तो मनुष्य को विशुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है । अतः शरीर को पाप रहित और चित्त को निर्मल रखने के लिए इन्द्रियों और मस्तिष्क को संयम रखते हुए अच्छे कर्म करने होंगें । अच्छे कर्मों से अच्छे फल प्राप्त होते हैं और मानव जीवन का विकास होता है । 

मानव जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति हैं :

शंकराचार्य के अनुसार मनुष्य के जीवन का अंतिम उद्देश्य मुक्ति प्राप्त करना है । शंकर के अनुसार आत्मा की अपने रूप में अवस्थित ही मोक्ष है । यह स्थिति केवल ज्ञान के द्वारा ही संभव है । ज्ञान के अभाव में अविद्या के कारण मनुष्य इस संसार में बार - बार जन्म लेकर दुःख की अनुभति करता है । इसी कारण वेदान्त में मोक्ष की एक ही परिभाषा है कि अज्ञान या अविद्या से निवृत्ति ही मोक्ष है ।

मनुष्य ज्ञान प्राप्ति के बाद सत और असत् , नित और अनित से परिचित होकर इस संसार से विरक्त हो जाता है । उसे न तो सुख का आभास होता है न दुःख का वेदान्त दर्शन में दो तरह जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति की बात की गई है । अतः मनुष्य को अपने जीवन के अंतिम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ज्ञान मार्ग को अपनाकर अविद्या का नाश करना चाहिए जिससे उसे मक्ति की प्राप्ति हो सके ।

मोक्ष ( मुक्ति ) प्राप्ति के लिए ज्ञान , कर्म और भक्ति योग आवश्यक है : -

शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान दो प्रकार के होते है । - परा ज्ञान और अपरा ज्ञान उनके अनुसार इन दोनों ज्ञान को हम अच्छे कर्मों और भक्ति के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं । शंकर ने परा और अपरा ज्ञान के लिए श्रवण , मननः निदिध्यासन और साधन चतुष्टय पर बल दिया है । उनके अनुसार अच्छे कर्मों से हमें अच्छे फल की प्राप्ति होती है ।

अच्छे कर्म से शरीर शुद्ध होता है , शरीर शुद्ध से चित्त शुद्ध होता है और शुद्ध चित्त से हमें ज्ञान प्राप्त होता है । इसलिए हमें दोनों प्रकार के ज्ञान के द्वारा अपने चित्त को शुद्ध करनी चाहिए । जिसकी प्राप्ति के लिए भक्ति योग आवश्यक है । अतः कहा जा सकता है कि कर्म के द्वारा शरीर शुद्ध और चित्त शुद्ध होती है ।

ज्ञान मार्ग के द्वारा आत्मा और ब्रह्म में भेद कर सकते हैं तथा सगुण और निगुर्ण ब्रह्म के ज्ञान के लिए भक्ति योग आवश्यक है । रामनुज ने भी ज्ञान , भक्ति और कर्म योग के माध्यम से मुक्ति की बात की है लेकिन वे मुक्ति प्राप्ति के लिए भक्ति को सर्वश्रेष्ठ साधन मानते है । वे कहते हैं कि भक्ति मार्ग के माध् यम से व्यक्ति व्यवहारिक जवीन में शान्ति प्राप्त कर सकता है । 

ज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रवण, मनन , निदिध्यासन आवश्यक है : 

शंकराचार्य ने ज्ञान को दो रूप बताए हैं- अपरा ज्ञान और परा ज्ञान । अपना ज्ञान लौकिक तथा व्यावहारिक ज्ञान है और परा ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है । अपना और परा दोनों प्रकार के ज्ञान के लिए शंकर ने श्रवण , मनने , निदिध्यासन का समर्थन किया है । शंकराचार्य के अनुसार हमें ज्ञान प्राप्ति के लिए वेद , ब्राह्मण , आरण्यक , उपनिषद , गीता आदि का श्रवण , मनन , और नित्य ध्यान लगाना चाहिए । रामानुज ने भी ईश्वर की प्राप्ति मे श्रवण , मनन , निदिध्यासन को अप्यंत महत्वपूर्ण माना है । 

श्रवण , मनन , निदिध्यासन के लिए साधन चतुष्ट्य आवश्यक है : -

शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के लिए श्रवण , मनन , निदिध यासन जरूरी है और उचित श्रवण , मनन , निदिध्यासन हेतु साधन चतुष्ट्य ( चार साधन ) की आवश्यकता होती है । ये साधन चतुष्ट्य हैं : 

  1. नित्या - नित्य वस्तु विवेक : - इसके अन्तर्गत जगत और ब्रह्म के बीच भेद , शरीर और आत्मा का भेद , साधन ओर साहय के बीच भेद , आत्मा और परमात्मा की एकता आदि विवेक का समावेश होता है । 

  2. इहामुत्रार्थ भोग - विराग : - इसके अन्तर्गत लौकिक और परलौकिक भोगों की कामना से पूणर्त : विरक्ति हो जाता है । 

  3. शमदमादि साधन सम्पत् - इसके अन्तर्गत शम ( मन का संयम ), दम ( इन्द्रियों का नियंत्रण ), उपरति ( निहित कर्मों का विधि पूर्वक परित्याग ) , तितिक्षा ( शरीर को कण्टों को सहने योग्य बनाना ), समाधान ( उपकारक विषयों के चिंतन में लगाए रखना ), गुरूपदृष्टि ( वेदान्त वाक्यों या ज्ञानी गुरूओं के प्रति श्रृद्धा ) आते हैं । 

  4. मुमुक्षुत्व: - इसके अन्तर्गत मोक्ष पाने के लिए दृढ़ संकल्प आता है। इन उपर्युक्त साधन चतुष्ट्य के माध्यम से श्रवण, मनन, निदिध्यासन को उत्तम रूप से प्राप्त किया जा सकता है ।
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