विद्यालय में मानवीय साधनों का प्रबंध - Management of Human Resources in School

विद्यालय में मानवीय साधनों का प्रबंध : मानवीय संबंध ( Management of Human Resources in School: Human Relations )

1. विद्यालय में मानवीय साधन ( Human Resources in School )

शैक्षिक प्रबन्ध में विद्यालय का प्रधानाचार्य एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । उसे सदा यह सध्यान में रखना चाहिए कि शैक्षिक प्रबन्ध सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रयासों को एकीकृत करने का तथा समुचित सामग्री को इस ढंग से उपयोग करने की प्रक्रिया है जिससे मानवीय गुणों का विकास तथा उपयोग प्रभावी ढंग से किया जा सके । 


प्रजातान्त्रिक पद्धति में तो मानवीय सम्बन्धों का विशेष स्थान है । मुख्याध्यापक को यह बात भी सदा ध्यान में रखनी चाहिए कि विद्यालय एक सामाजिक संस्था है जिसकी स्थापना समाज में ऐसे व्यक्तियों के निर्माण के लिए की गई है जो शारीरिक रूप से शक्तिशाली, मानसिक रूप से जागरूक, नैतिक रूप से ईमानदार, भावात्मक रूप से स्थिर, सांस्कृतिक दृष्टि से सभ्य तथा सामाजिक दृष्टि से दक्ष हों । 


विद्यालय के छात्रों के अतिरिक्त दो और पक्ष हैं , जिनके साथ प्रधानाचार्य का घनिष्ठ सम्पर्क होता है । वे हैं - अध्यापक तथा अन्य कर्मचारी । विद्यालय की उन्नति में अभिभावकों का भी विशेष स्थान है । अतः यह अत्यन्त जरूरी है कि प्रधानाचार्य विद्यालय में इस प्रकार के मानवीय सम्बन्ध स्थापित करे जिसके परिणामस्वरूप सभी वर्गों का अधिकतम योगदान उसे प्राप्त हो सके तथा शिक्षा के निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।


2 . मुख्याध्यापक एवं अध्यापक वर्ग ( Head and the Teacher )

विद्यालय का मान तथा स्तर मुख्याध्यापक एवं अध्यापकों के सहयोग पर निर्भर हैं । मुख्याध्यापक ही अध्यापकों का सहयोग प्राप्त करने के लिए अत्यधिक उत्तरदायी है । मुख्याध्यापक की योग्यता तथा दूरदर्शिता की परीक्षा तभी होती है जबकि वह अध्यापकों की विशेष योग्यता को परखकर विद्यालय के हित में जुटाता है ।


वास्तव में प्रधानाचार्य का कार्य अपने अध्यापक के गुणों को मालूम करना है और उन्हें इस प्रकार कार्य देना है कि वे सरलता से काम करने के लिए तैयार हो जायें । यह कार्य सरल नहीं है क्योंकि शिक्षक वर्ग विभिन्न स्वभाव के व्यक्तियों का समूह होता है । हरएक की अपने मन की तरंगें हैं । कुछ भावुक हैं , कुछ कोमल हृदय हैं , कुछ उत्साही हैं , कुछ वृद्ध हैं , कुछ नवयवुक हैं, कुछ प्रशिक्षित हैं, कुछ अप्रशिक्षित ।


कुछ केवल समय व्यतीत कर रहे होते हैं । परन्तु प्रधानाचार्य का कार्य उन सभी व्यक्तियों को एक टोली के रूप में सम्मिलित करके विद्यालय के सम्पूर्ण क्रियाकलापों में उनका सहयोग प्राप्त करना है । एक दशा में प्रोत्साहन, दूसरी में कठिनाइयों पर विजय पाने में सहायता, इधर सुझाव , उधर आज्ञा देना - सभी कुछ आवश्यक है। अध्यापकों को, ' झिड़कने ', ' डराने ', ' कमजोर करने ' की परम्परागत प्रथा को छोड़कर आज का मुख्याध्यापक ' प्रेरणा देना ' तथा ' विश्वास करने की नीति अपनायेगा । श्री के . जो . सैयदीन ( K. G. Saiyidain ) के अनुसार एक अच्छा मुख्याध्यापक वह है जो अपने सहयोगियों के ऊपर कठोर स्वामी की तरह अधिकार न रखता हो, परन्तु उन्हें प्रेरित एवं प्रोत्साहित करना हो । 


अध्यापक वर्ग एक आदर्श टीम के रूप में

शिक्षकों को एक टोली में सम्मिलित करने के लिए आवश्यक है कि प्रधानाचार्य नीचे लिखी बातों के अनुसार कार्य करे-

( 1 ) काम के बँटवारे का सिद्धान्त -काम के बँटवारे का सिद्धान्त सदा ध्यान में रखकर शिक्षकों में भिन्न - भिन्न कार्य उनकी योग्यता, अनुभव, रुचि तथा कार्यक्षमता के अनुसार बाँट देने चाहिए । ऐसा करने से शिक्षकों के मन में शिक्षालय के कामों के बारे में अपनत्व की भावना आ जाती है और वे उत्साहपूर्वक काम करते हैं । उनमें उत्तरदायित्व की भावना आ जाती है । 


( 2 ) परामर्श लेना – प्रधानाचार्य को चाहिए कि अध्यापन सम्बन्धी , अनुशासन सम्बन्धी तथा अन्य कार्यों में शिक्षकों का परामर्श ले । उनकी राय ध्यानपूर्वक सुने । यदि राय ठीक हो तो अपनाने में अपनी मानहानि न समझे । 


( 3 ) अध्यापक वर्ग के व्यक्तित्व का आदर करना – प्रधानाध्यापक को चाहिए कि वह शिक्षकों को अपने अधीन न समझकर उन्हें अपना सहयोगी समझे । कभी भी कोई ऐसा कार्य न करे जिससे उनके व्यक्तित्व पर चोट पहुँचे । अध्यापकों के प्रति विद्यार्थियों या उनके अभिभावकों के सम्मुख कभी भी कोई कठोर शब्द नहीं कहना चाहिए । 


( 4 ) मित्रवत् निरीक्षण - अध्यापकों के कार्य का निरीक्षण क्रियात्मक ढंग से होना चाहिए । पुलिस की भाँति निरीक्षण हानिकारक है । प्रधानाचार्य का काम तो एक डॉक्टर के समान है जो रोग की जाँच करता है और उचित उपचार की व्यवस्था करता है । प्रधानाध्यापक यदि शिक्षण कार्य में कोई त्रुटि देखता है तो शिक्षकों अथवा शिक्षक को अपने कार्यालय में बुलाकर प्रेमपूर्वक समझा देना चाहिए । ' तुम कुछ नहीं जानते ' , ' तुम्हें पढ़ाना नहीं आता - इस प्रकार के वाक्य नहीं कहने चाहिए । 


( 5 ) स्टाफ मीटिंग – समय - समय पर प्रत्येक विद्यालय में अध्यापकों की सभा होनी चाहिए । प्रधानाचार्य को सभा का सभापति होना चाहिए । अध्यापकों में से ही एक मन्त्री चुना जा सकता है । सभा की बैठकों की कार्यवाही लिखी जाए अथवा नहीं , इसके बारे में विद्वानों में मतभेद हैं । सभा के लक्ष्य इस प्रकार होने चाहिए 

a. पाठशाला में दैनिक कार्य में उठने वाली समस्याओं पर विचार । 

b. प्रधानाचार्य द्वारा किसी नई योजना तथा नवीन आदेश पर विचार - विमर्श तथा उसका स्पष्टीकरण । 

c. शिक्षकों की कठिनाइयों और उनके सुझावों पर विचार । 

d. परस्पर सहयोग तथा सहायता की भावना उत्पन्न करना । 

e. किसी विशेष छात्र द्वारा अनुशासन भंग करने पर विचार विमर्श।

f. वार्षिक उत्सव अथवा किसी अन्य महत्त्वपूर्ण काम की योजना बनाना ।

g. सहपाठीय कार्यों की योजनाएँ बनाना ।

h. पाठ्य पुस्तकें निर्धारित करना । अत्यन्त सावधानी से काम लेना चाहिए । प्रत्येक अध्यापक को अपने विचार प्रकट करने का इस प्रकार की सभाओं में सहयोग की भावना ही दिखाई देनी चाहिए । प्रधानाचार्य को पूरा अवसर देना चाहिए ।


( 6 ) अध्यापकों के व्यक्तित्व तथा पारिवारिक जीवन से सम्बन्ध कभी - कभी विशेष अवसरों पर शिक्षकों को अपने घर बुलाना चाहिए तथा उनके घर भी जाना चाहिए । उनके दुःख - सुख में अवश्य सम्मिलित होना चाहिए । 


( 7 ) अध्यापक क्लब - शिक्षालय में अध्यापकों के क्लब का भी होना श्रेयस्कर है । सभी अध्यापक इसके सदस्य होने चाहिए । इस क्लब के कार्य इस प्रकार होने चाहिए -


1. अध्यापकों की व्यावसायिक उन्नति के बारे में विचार करना । 

2. आधी छुट्टी के समय चाय का प्रबन्ध करना । 

3. आने - जाने वाले शिक्षकों का स्वागत करना तथा विदाई देना । 

4. स्कूल की समस्याओं पर विचार करना । 

इस क्लब का लक्ष्य प्रधानाचार्य और प्रबन्धकों की आलोचना नहीं होना चाहिए । प्रधानाचार्य को ऐसी सभाओं के बारे में विशाल दृष्टिकोण रखना चाहिए । ऐसे अनौपचारिक अवसरों द्वारा प्रधानाचार्य अपने शिक्षकों के बारे में काफी जानकारी प्राप्त कर सकता है । Dr. E. A. Pires के विचार में एक अच्छे प्रबन्धक को जब कभी शिक्षालय के अच्छे कार्यों की सराहना का अवसर आए तो ' मैं ' के स्थान पर ' हम ' का प्रयोग करना चाहिए । ऐसा कहने से शिक्षकों का उत्साह बढ़ जाता है और वे प्रधानाचार्य के बारे में ' अपनत्व ' की भावना धारण करेंगे । 


अध्यापकों का सहयोग प्राप्त करने हेतु कुछ सुझाव

1. सर्वप्रथम मित्र बनने का प्रयत्न करना चाहिए । 

2. सर्वदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए । 

3. अध्यापकों को उनके नाम से शिष्टतापूर्वक पुकारना चाहिए । 

4. अध्यापक वर्ग से मिलने के लिए सदा समय देना चाहिए और यह ध्यान में रखना चाहिए कि उन्हें मिलने के लिए प्रतीक्षा न करनी पड़े । 

5. नम्रतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए । 

6. अपने लिए विशेष अधिकार प्राप्त करने से दूर रहना चाहिए । 

7. उत्तरदायित्व सौंपने से पूर्व विचार - विमर्श कर लेना चाहिए । 

8. प्रत्येक अध्यापक की समस्या पर सहानुभूतिपूर्ण विचार करना चाहिए । 

9. दिये गये वचनों का पालन करना चाहिए । 

10. प्रत्येक अध्यापक की राय का उचित आदर करना चाहिए । 11. अच्छा कार्य करने पर पूरा श्रेय देना चाहिए । 12. यथासम्भव अधिकारों का भय नहीं दिखाना चाहिए ।

13. अध्यापक वर्ग की सामाजिक पृष्ठभूमि से परिचित रहना चाहिए ।

14. ऐसी धारणा नहीं रखनी चाहिए कि स्टाफ में दो दल अवश्य होते हैं ।

15. किसी अध्यापक के प्रति असाधारण तथा बिना कारण पक्ष नहीं दिखाना चाहिए ।

16. अस्वस्थ अध्यापकों के घर पर मिलने जाना चाहिए ।

17. लज्जालु अध्यापकों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए ।

18. अध्यापकों को अपना पक्ष कहने देना चाहिए ।

19. व्यक्तिगत कीचड़ नहीं उछालनी चाहिए ।

20. दूसरे अध्यापकों की भावना का आदर करना चाहिए ।

21. कम योग्यता अथवा शारीरिक विकारयुक्त अध्यापक को लज्जित नहीं करना चाहिए ।

22. यदि किसी अध्यापक का कार्य विनोदपूर्ण लगे तो उसका उपहास नहीं करना चाहिए ।

23. यह जानने का प्रयत्न करना चाहिए कि विभिन्न अध्यापक किस प्रकार का बर्ताव चाहते हैं और उसी के अनुसार यथासम्भव बर्ताव करना चाहिए ।

24. अध्यापक की केवल अकेले में आलोचना करनी चाहिए ।

25. कक्षा में जाने से पूर्व अध्यापक की अनुमति लेनी चाहिए ।

26. छात्रों तथा उनके अभिभावकों के साथ समस्या आने पर अध्यापकों की सहायता करनी चाहिए तथा समस्या को गम्भीर नहीं बनने देना चाहिए ।

27. अध्यापकों से अनौपचारिक रूप से समय - समय पर मिलना चाहिए । 


मुख्याध्यापक तथा नया अध्यापक

1. प्रथम साक्षात्कार में उसकी विशेष रुचि जाने तथा विद्यालय के सामान्य कार्य से उसे अवगत कराये । 

2. समय - समय पर उसे यह अनुभव कराये कि वह एक सफल अध्यापक बनने के योग्य है । 

3. उसके लिए सफल तथा अनुभवी अध्यापकों के अध्यापन पाठ देखने की व्यवस्था की जाये । 

4. उसकी कक्षा का निरीक्षण करने के पश्चात् उससे विचार - विमर्श करे । 

5. पाठ - योजना बनाने में उसकी सहायता करे । 

6. पहले स्तर में उसकी विशेष सहायता करे । 

7. शैक्षिक साहित्य से उसे परिचित कराये । 

8. उसके साथ मित्रवत् व्यवहार करे । 

9. समय - समय पर उसके अच्छे कार्य की प्रशंसा करे । 

10. उसकी उन्नति पर धैर्य प्रकट करे । 


3 . मुख्याध्यापक तथा विद्यार्थी ( Head and the Students )

स्कूल के विद्यार्थियों से अच्छे सम्बन्ध रखना मुख्याध्यापक की सफलता का एक रहस्य है । सम्पर्क रखने से उसे यह स्पष्ट ज्ञात होता रहता है कि विद्यार्थी स्कूल से क्या - क्या आशा रखते हैं तथा उनकी शिक्षा किस प्रकार से चल रही है । छात्रों में अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करने के लिए प्रधानाध्यापक के लिए जरूरी है कि वह जहाँ तक हो सके प्रत्येक छात्र को व्यक्तिगत रूप से जानने का प्रयास करे और अधिक सम्पर्क स्थापित करे ।


प्रत्येक छात्र पाठशाला में दाखिल होते समय अपना बहुत - सी आशाए लेकर आता है । वह यह समझता है कि उसके अध्यापकों तथा प्रधानाध्यापक को असाधारण ज्ञान - शक्ति तथा बुद्धि मिली है , जो कि साधारण व्यक्तियों की पहुँच के बाहर है । इसलिए इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि विद्यार्थियों की ये आशाएँ तथा विश्वास नष्ट न होने पाये ।


बालकों को भली - भाँति जानना चाहिए । बालकों के साथ व्यवहार ऐसा होना चाहिए कि वे समझे कि प्रकार की दुविधा अथवा हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए । सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार के साथ मुख्याध्यापक सदा उनके भले के लिए ही सोचता है । उसके पास जाने के लिए उन्हें किसी यह भी आवश्यक है कि प्रधानाध्यापक दृढ़ रहे । बच्चों को शिक्षक वर्ग के प्रति बुरे भाव रखने प्रधानाध्यापक को चाहिए कि दुष्ट, नटखट तथा व्यर्थ की आपत्ति उत्पन्न करने वाले छात्रों पर कड़ी दृष्टि रखे ।


शिक्षालय के योग्य विद्यार्थियों , अच्छे खिलाड़ियों , स्काउटों और मॉनीटरों आदि से प्रधानाध्यापक का सम्पर्क अवश्य ही होना चाहिए । प्रधानाध्यापक विद्यार्थियों के बीच एक पिता के समान है जिसके हृदय में सबके लिए समान रूप से प्रेम होना चाहिए और उसे सबकी उन्नति के लिए कामना करनी चाहिए । प्रधानाध्यापक छात्रों से अधिकाधिक सम्पर्क निम्नलिखित उपायों से स्थापित कर सकता है-

1. कक्षा - अध्यापन के समय ।

2. छात्र संसद की सभाओं में सम्मिलित होकर ।

3. भ्रमण यात्राओं का आयोजन करके ।

4. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के समय उपस्थित होकर ।

5. छात्र प्रतिनिधियों के माध्यम द्वारा ।

6. अध्यापकों के माध्यम द्वारा ।

7. कक्षा मॉनीटर द्वारा ।

 

4 . प्रधानाचार्य तथा अभिभावक ( Head and the Parents )

बच्चों की उन्नति हेतु उनके अभिभावक बहुत कुछ कर सकते हैं और प्रधानाचार्य के लिए यह आवश्यक है कि वह बच्चों के अभिभावकों से बहुत अच्छे सम्बन्ध रखे और उनको समय - समय पर पाठशाला में आमन्त्रित करे । बहुत से ऐसे अवसर होते हैं जबकि अभिभावकों को शिक्षालय में बुलाया जा सकता है ।


ऐसा करने से वे शिक्षालय के काम में अपनी रुचि बढ़ायेंगे तथा उसकी उन्नति के लिए यत्न करेंगे । जब कभी अभिभावक शिक्षालय में आयें तो उनसे मोठे वचन बोलने चाहिए तथा शिष्टतापूर्वक व्यवहार करना चाहिए । बहुत से अभिभावक ऐसे भी होते हैं जो स्वयं शिष्टाचार से अपरिचित होते हैं । ऐसी परिस्थिति में तो शिक्षक वर्ग तथा प्रधानाचार्य के लिए और भी आवश्यक हो जाता है कि वे सहानुभूति तथा प्रेम के साथ संरक्षकों के साथ बातचीत करें । अभिभावकों से निम्न प्रकार सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है-

विद्यालय में मानवीय साधनों का प्रबंध - Management of Human Resources in School.
मानव संसाधन प्रबंध

1. छात्र प्रवेश के समय अभिभावक को बुलाकर । 

2. अभिभावक शिक्षक संघ द्वारा । 

3. अभिभावक दिवस मनाकर ।

4. पुराने छात्रों के संघ स्थापित करके । 

5. प्रगति पुस्तिका भेजकर 

6. विद्यालय - पत्रिका द्वारा । 

7. चिकित्सक प्रतिवेदन द्वारा । 

8. विद्यालयों के उत्सवों में अभिभावकों को बुलाकर 

9. समाज सेवा कार्य द्वारा । 

10. प्रबन्ध समिति में अभिभावकों को स्थान देकर 

11. आवश्यकतानुसार तथा समयानुसार विद्यालय पुस्तकालय की सुविधाएँ अभिभावकों को देकर । 


5 . विद्यालय का दक्ष तथा प्रभावपूर्ण प्रबन्धन ( Efficient and Effective Management of the School )

प्रधानाध्यापक विद्यालय के दक्षतापूर्ण तथा प्रभावी संचालन के लिए निम्नलिखित पग उठा सकता है— 

1. विद्यालय समय सारणी में इस प्रकार प्रबन्ध किया जाये कि अध्यापक छात्रों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए व्यक्तिगत रूप से कुछ समय दे सकें । 

2. विद्यालय के विभिन्न विभागों एवं कार्य - कलापों के संचालन के लिए अध्यापकों और छात्रों को सम्मिलित किया जाये । 

3. कार्यक्रमों को सदन प्रणाली के अन्तर्गत संगठित किया जाये । 

4. छात्र प्रगति - पत्र की सुरक्षा की सुविधा दी जाये । 

5. विद्यालय की स्वच्छता हेतु छात्रों के आत्म - सहायक संगठनों का आयोजन किया जाये । 

6. पाठों के आदर्श प्रदर्शन का प्रबन्ध किया जाए । 

7. उद्देश्यपूर्ण और रचनात्मक पाठ्यक्रम सहगामिनी क्रियाओं का आयोजन किया जाये । 

8. छात्र सलाहकार समिति के चुनाव का प्रबन्ध हो जिससे वे अनुशासन बनाये रखने में सहायक हों । 

9. विद्यालय राशि के उपयोग के लिए अध्यापक तथा छात्रों की एक समिति गठित की जाये । 

10. संरक्षकों को विद्यालय में निमंत्रित कर उनका सहयोग प्राप्त किया जाये । 

11. विद्यालय कार्यालय एवं खाते का आवधिक निरीक्षण किया जाये । 

12. अध्यापकों की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यथासम्भव प्रयास किया जाए । 

13. अध्यापकों को योजना एवं प्रयोग करने की पूरी छूट दी जाये । 

14. सभी छात्रों के लिए खेल का प्रबन्ध किया जाये । 

15. कमजोर छात्रों के लिए विशेष प्रबन्ध किया जाये । 


6 . कक्षा प्रबन्ध : अध्यापकों के लिए मार्गदर्शक संकेत ( Class Management : Guidelines for Teachers )


अध्यापक एक मार्गदर्शक तथा जनतान्त्रिक के रूप में 

आधुनिक शिक्षा प्रणाली में छात्र शिक्षा प्रक्रिया में नाटक का ' नायक ' है । ड्यूवी ( Dewey ) के अनुसार , “ अध्यापक एक मार्गदर्शक और निदेशक है । वह नाव का खेवनहार है, परन्तु इस नाव को आगे बढ़ाने वाली शक्ति सीखने वालों से प्राप्त की जानी चाहिए । इसी प्रकार श्री अरविन्द लिखते हैं " शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त यह है कि कुछ भी पढ़ाया नहीं । जा सकता ।


अध्यापक एक उपदेशक या कृत्रिम शासक नहीं है । वह सहायक एवं मार्गदर्शक है । उसका कार्य सुझाव देना है , न कि आरोपित करना । यह वास्तव में बच्चों के मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं करता वरन उनके ज्ञान के उपकरणों को ठीक करने का मार्ग दिखाता है और उसे इस कार्य में सहायता देकर प्रोत्साहित करता है । वह उसे ज्ञान प्रदान नहीं करता , वह उसे स्वयं ज्ञान प्राप्ति के लिए मार्ग दिखाता है । वह अन्तर्निहित ज्ञान को बाहर नहीं निकालता है ।


वह उसे केवल मात्र यह दिखा देता है कि ज्ञान कहाँ विद्यमान है और किस प्रकार उसे सतह तक उठाया जा सकता है । " जे . पेने ( J. Payne ) के अनुसार " " शिक्षण में अध्यापक का कार्य मार्गदर्शक , निदेशक या अधीक्षक का है , जिसके द्वारा छात्र स्वयं को शिक्षित करते हैं । " कक्षा प्रबन्ध में एक अध्यापक स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता । उसे अपने छात्रों को लोकतान्त्रिक व्यवहार में प्रशिक्षण देना है ।


अतः उसे कक्षा प्रबन्ध में स्वयं लोकतान्त्रिक व्यवहार करना चाहिए । उसका कार्य एक ' पुलिस कर्मचारी ' का न होकर ' मित्र ' , ' दार्शनिक ' और ' मार्गदर्शक ' का है । कक्षा प्रबन्ध सम्बन्धी निम्नलिखित मार्गदर्शक संकेत अध्यापक के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं । वह छात्रों की योग्यताओं तथा क्षमताओं का पूरा - पूरा उपयोग शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इन मार्गदर्शक संकेतों द्वारा कर सकता है ।


A. कक्षा दैनिकचर्या ( Classroom Routine )

1. हमेशा समय पर कक्षा में पहुँची । 

2. कक्षा अवधि में अधिक समय तक खड़े रहो । 

3. छात्रों के नाम शीघ्रता से सीखो ।

4. छात्रों के बैठने की योजना को सावधानी से जानो ।

5. विलम्ब से कार्य करने वाले छात्रों का विवरण रखो ।

6. कक्षा की स्वच्छता पर ध्यान दो ।

7. कक्षा को सु - प्रकाशित और हवादार रखो ।

8. अनुपस्थित छात्रों के विषय में पूछताछ करो ।

9. विद्यालय की क्रियाविधियों एवं ढंगों से परिचित रहो ।

10. छात्रों के उचित रूप से बैठने के ढंग पर जोर दो ।

11. विद्यालय सामग्री के प्रति बच्चों में आदर उत्पन्न करो ।

12. सामग्री एकत्रित करने एवं बाँटने के लिए निश्चित नियमों का पालन करो ।

13. अपना नाम सावधानी से एवं ठीक ढंग से बताओ ।


B. शिक्षण विधि एवं क्रिया ( Teaching Procedures and Methods )


14. कक्षा कार्य आरम्भ करने से पूर्व सभी चीजें तैयार रखो और इस बात का ध्यान रखो आप कक्षा के प्रत्येक सदस्य का ध्यान प्राप्त कर रहे हो । 15. विभिन्न शिक्षण सहायक सामग्री का उपयोग करो । 

16. गृह कार्य को निश्चित और स्पष्ट बनाओ ।

17. अपने प्रश्नों को स्पष्ट शब्दों में कहो , जिससे प्रत्येक छात्र यह जान सके कि आप क्या पूछना चाहते हैं ?

18. सम्पूर्ण कक्षा को पढ़ाओ , केवल सामने बैठने वाले छात्रों को ही नहीं ।

19. प्रश्नों का वितरण समान रूप से करो ।

20. ध्यान न देने वाले छात्रों से भी प्रश्न पूछो ।

21. बहुधा प्रश्नों को दुबारा मत कहो ।

22. प्रश्नों को शीघ्रता से मत पूछो ।

23. अपने प्रश्नों के उत्तर के लिए छात्रों को उपयुक्त समय दो ।

24. अपने आप सब कहने की अपेक्षा छात्रों को प्रश्नों के उत्तर देने के लिए प्रोत्साहित करो ।

25. पाठ्यक्रम से सम्बन्धित उनकी व कक्षा की रुचि की कोई भी बात उन्हें कहने के लिए प्रोत्साहित करो ।

26. सभी छात्रों को भाग लेने के लिए सुविधा प्रदान करो ।

27. लीक चाल से दूर रहो ।

28. छात्रों के लिखित कार्य की जाँच सावधानी से करो ।

29. जाँच किये गये कार्य की आवश्यक व्याख्या करो ।

30. प्रारम्भ में कठिन कार्य को छोड़ दो ।

31. पर्यवेक्षक अध्ययन कार्य की आज्ञा दो ।

32. शिक्षण एवं शिक्षा प्राप्ति की विधियों में भिन्नता लाओ जैसे नाटक , गोष्ठी , वार्तालाप , परिचर्चा आदि का उपयोग करो ।

33. अपने श्यामपट लेख को पढ़ने योग्य सुन्दर बनाओ ।

34. छात्रों को किसी कार्य करने में व्यस्त रखो ।

35. प्रत्येक छात्र को यह अनुभव कराओं कि वह पाठ की सफलता के लिए अनिवार्य अंग है ।

36. सम्पूर्ण कक्षा तथा व्यक्तिगत सदस्यों के लिए प्रशंसा एवं दोषारोपण का न्याययुक्त उपयोग करो ।

37. समुदाय के मध्य आलोचना या क्रोध करने से दूर रहो ।

38. सम्पूर्ण कक्षा के सामने की अपेक्षा व्यक्तिगत त्रुटियों को व्यक्ति विशेष के सामने समझाओ ।

39. विचारोत्तेजक प्रश्न पूछकर छात्रों के सम्मुख समस्यामूलक परिस्थिति उत्पन्न करो ।

40. अवधि की समाप्ति पर शीघ्रता से पुस्तक व सामग्री एकत्रित कर लो ।

41. कक्षा छोड़ते समय किसी वस्तु को अस्त - व्यस्त मत छोड़ो ।

42. कक्षा छोड़ते समय श्यामपट को साफ करो ।

43. अपने कार्य को व्यवस्थित रूप से नियोजित करो । 

44. अपने छात्रों को इस प्रकार प्रशिक्षित करो कि आपके कक्षा में न होने पर भी वे व्यस्त रहें । 

45 अपने पाठ की पूर्ण तैयारी करो ।

46. दूसरे छात्रों के सामने किसी छात्र को असमंजस में मत डालो ।

47. लज्जालु छात्रों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करो ।

48. छात्र की गृह परिस्थितियों से परिचित रहो ।

49. प्रत्येक छात्र के स्वास्थ्य वृत्त, परीक्षा प्राप्तांक , घटना वृत्त आदि का अध्ययन करो ।

50. वैयक्तिक अन्तर को मान्यता दो ।

51. मैत्रीपूर्ण भावना का विकास करो जिससे प्रत्येक छात्र वैयक्तिक अथवा विद्यालय को समस्या पर आपकी सहायता की प्राप्ति के लिए मुक्त अनुभव करे ।

52. छात्र सम्मेलनों के लिए हमेशा अपने को प्राप्य रखो ।

53. संचय वृत्त अभिलेख आरक्षित रखो ।

54. छात्रों की समस्याओं के हल हेतु सहायता के लिए रुचि प्रकट करो ।

55. दूसरे अध्यापकों के साथ छात्रों की समस्याओं के विषय में वार्तालाप करो । 56. अन्य मार्गदर्शक कार्यकर्ताओं से सन्तोषपूर्ण हल के लिए सहायता लो ।

57. परीक्षा कार्यक्रम में रुचि रखो ।


III . कक्षा अनुशासन

58. अपने अनुशासन का आधार न करो ' की अपेक्षा ' करो ' बनाओ ।

59. अपने अनुशासनीय क्रियाओं के आधार के लिए वर्ग के स्तर को मापदण्ड रखो ।

60. छात्रों को इधर - उधर मत घूमने दो ।

61. अच्छे आचरण और उच्च मापदण्ड स्तर के लिए प्रयत्नशील रहो ।

62. छात्रों से व्यवहार करते समय सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार रखो ।

63. छात्रों के साथ अपने व्यवहार में दृढ़ और अनुकूल रहो ।

64. छात्रों से अन्तरंग होने की अपेक्षा मैत्रीपूर्ण रहो और कुछ निग्रह भी रखो ।

65. ' मैं तुम्हें पसन्द करता हूँ , यद्यपि जो तुम करते हो उसे मैं पसन्द नहीं करता ' – दर्शन का उपयोग एवं विस्तार करो ।

66. न्यायपूर्ण बनो ।

67. कक्षा को नियमानुसार रहने के लिए कहने से दूर रहो ।

68. दोषपूर्ण भाषा का उपयोग मत करो ।

69. व्यंग्यपूर्ण बातें मत करो ।

70 . धमकी मत दो ।

71. छोटी समस्याओं को बड़ी बनने से पूर्व ही हल कर लो ।

72. आदर और ईमानदारी को प्रोत्साहन दो ।

73. अपनी अनुशासनिक समस्याओं को हल करने का स्वयं प्रयत्न करो ।

74. अनुशासनहीनता की ही उच्चाधिकारी से वार्ता करो । समस्याओं को हल करने के लिए समय पर आवश्यक होने पर

75. कक्षा में अपनी पारिवारिक समस्याओं की चर्चा मत करो ।

76. छात्रों से अपने सहयोगियों के विषय में बातें मत करो ।

77. अपने अनुभवों को अधिक मत बताओ ।

78. व्यर्थ की बातों में अपना समय नष्ट न करो ।


IV . अध्यापक के व्यक्तित्व सम्बन्धी मार्गदर्शक संकेत

79. अपने कार्यक्रमों को यथासमय करो ।

80. बहुत ऊँची ध्वनि का प्रयोग मत करो ।

81. अपने विशेष आचरण ( Mannerism ) से दूर रहो ।

82. हमेशा हँसमुख रहो ।

83. विवादास्पद बातों को सावधानी से हाथ में लो ।

84. विनोदी बनो ।

85. नम्र और उचित भाषा का उपयोग करो ।

86. व्यंग्य मत करो।

87. शिष्टाचारी बनो ।

88. छात्रों , विद्यालय कार्यक्रमों और सहयोगियों के प्रति हार्दिक रुचि प्रकट करो ।

89. सी उत्तर नहीं जानता ' इस बात को स्पष्ट स्वीकार करो ।

90. महल - शक्ति और साधन - सम्पन्न बनो ।

91. शिक्षण व्यवसाय की नीतियों के प्रति निष्ठावान रहो ।


निष्कर्ष -

अपने शिक्षण अधिगम को फलदायक बनाने के लिए अध्यापक निम्न संकेतों की ध्यान में रखें

1. कौन अध्यापन करता है ? - अध्यापक को अध्यापन करना है, अतः उसे अपने आपको अच्छी तरह जानना चाहिए ।

2. क्यों पढ़ाना है ? -उसे एक क्षण के लिए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा का उद्देश्य छात्र के व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करना है ।

3. किसे पढ़ाना है ? - छात्रों को । अतः उसे उनकी रुचियों , रुझानों , योग्यताओं , स्वभावों , आदतों आदि के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए ।

4. कहाँ पढ़ाना है ? –उसे विद्यालय को केवल मात्र अध्ययन का स्थान नहीं समझना चाहिए अपितु वह एक ऐसा स्थान है जहाँ भावी नागरिक चारित्रिक निर्माण कार्यों में प्रशिक्षित किये जाते हैं ।

5. कैसे पढ़ायें ? —उसे शिक्षण अधिगम की उपयुक्त पद्धतियों का प्रयोग करना चाहिए ।

6. क्या पढ़ाये ? – उसका विषय - वस्तु पर अधिकार होना चाहिए ।

7. कब पढ़ाये ? -अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने हेतु छात्रों को अभिप्रेरित करना चाहिए ।


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